आदरणीय सज्जनवृन्द तथा आदरणीया माताओ एवं बहनो!
मैं आपलोगों के दर्शन करने आया हूँ। कुछ प्रवचन करने नहीं; क्योंकि मेरा शरीर स्वस्थ नहीं है। फिर भी माइक मेरे सामने किया गया है, यद्यपि मैं कुछ कहने लायक नहीं हूँ। अच्छा तो सुनें-
प्रत्येक मानव शांति चाहता है, क्यों? इसलिए कि उसका जीवन अशान्त है। यह स्वाभाविक बात है कि जिसको प्यास लगती है, वह पानी चाहता है, जिसको भूख लगती है, वह भोजन चाहता है, जिसको धूप लगती है, वह छाया चाहता है और जिसको जाड़ा लगता है, वह गर्मी चाहता है।
मानव बाहर से हरा-भरा दीखता है; लेकिन भीतर उसका सड़ा-गला पड़ा है। बाहर से वह सुखी प्रतीत होता है; किन्तु भीतर से वह महादुःखी है। बाहर सद्व्यवहार; किन्तु अन्तर विकार और दुर्विचार। बाहर सत्ता, सन्तति और सम्पत्ति से भरपूर, फिर भी अन्तर चकनाचूर है। मुख में मुस्कान, अन्तर में म्लान। ऊपर मुस्कुराहट, भीतर घबराहट। ऊपर से क्षोभ, भीतर से लोभ। बाहर प्रीति-प्रतीति, भीतर उसके विपरीत। बाहर मधु, भीतर कटु। बाहर दिखावा सम्मान का, अन्तरंग भाव अपमान का। बाहर सत्कार, अन्दर दुत्कार। बाहर छोह, भीतर निर्मोह। बाहर परमार्थ, भीतर स्वार्थ। बाहर ज्ञानी, भीतर नादानी। वह बाहर सरल, भीतर गरल। वस्तुतः आज का मानव दानव बना हुआ है। वह बाहर कुछ दिखाता है और उसके अन्दर देखने पर भीतर से वह कुछ और ही दीखता है। यदि कहा जाए कि इस प्रकार के सैकड़ा में निन्यानबे नहीं, सहस्त्र में नौ सौ निन्यानबे लोग इस रोग के शिकार हैं, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। ऐसी दयनीय अवस्था में यदि कोई बाह्य विषय की प्राप्ति से शांति की कामना करता है, तो वह धधकती आग में हाथ डालकर शीतलता चाहता है। यद्यपि अपने अर्जित ज्ञान के आधार पर वह प्रसन्न रहने का अथक यत्न करता है, तथापि परिणाम में वह अपने को खिन्न पाता है, क्यों? इसका कारण क्या है? जबतक रोग का कारण नहीं जाना जाता है, तबतक उसका निवारण भी सम्भव नहीं। हमारे प्राचीन शास्त्रकार कहते हैं-‘मूलः नास्ति कुतः शाखाः।’ जिसके मूल का ही पता नहीं, उसकी शाखा क्या होगी? जहाँ शाखा नहीं, उसमें फूल या फल की आशा दुराशा नहीं तो और क्या?
गोस्वामी तुलसीदासजी ने इस विषय की बड़ी ही अच्छी अभिव्यंजना की है। उनकी यह पंक्ति हमें बरबस अपनी ओर आकृष्ट करती है।
सजल मूल जिन्ह सरितन्ह नाहीं।
बरषि गये पुनि तुरत सुखाहीं।।
जिस प्रकार जिस सरिता की जड़ में जल-स्त्रोत नहीं है, वह वर्षा-जल की आशा में कितने दिनों तक जीवित रह सकती है? अर्थात् वह अधिक दिनों तक नहीं टिक सकती, सूख जाएगी; किन्तु जिस सरिता का संबंध पाताल से है, वह सूख नहीं सकती, सदा स्थिर रहेगी। इसी भाँति हमारा संबंध जागतिक पदार्थों से है, जो नष्ट होनेवाला है। ऐसा अस्थिर विषय-पदार्थों को पाकर स्थिरता वा शांति मिले, कब सम्भव है? हाँ, ‘जो जगत् से विलक्षण, जिसमें न विषय-लक्षण, जो एकरस सकल क्षण’ की भाँति हो जाए, तब तो कहना ही क्या है! उस एक को पा जाने पर कुछ भी पाना बाकी नहीं रहता, सभी करतल-गत हो जाते हैं। वृक्ष अगर स्वस्थ है, तो पत्ते भी हरे-भरे होंगे। अन्दर यदि सुन्दर होगा, तो बाहर भी सुन्दर होगा। तात्पर्य अन्दर जैसा होगा, बाहर भी वैसा होगा। आज मानव का अन्दर अशान्त है। इसलिए वह बाहर संसार में जहाँ भी जाता है, जो कुछ पाता है; उससे शांत नहीं, अशांत रहता है।
मैंने एक पुस्तक में पढ़ा था-स्वामी रामतीर्थ जी महाराज जापान गये थे। उन्होंने देखा कि देवदार के वृक्ष, जिसकी ऊँचाई भारत में दो सौ फीट होती है, वहाँ दो-दो फीट के हैं। विस्मित होकर उन्होंने वहाँ के एक सज्जन से पूछा-ये वृक्ष दो-दो फीट के ही क्यों हैं? उत्तर मिला-‘इसकी जड़ रोज काटी जाती है।’ उसी तरह हमने अपनी बुद्धिमत्ता की कुल्हाड़ी से आस्तिकतारूपी पादप की जड़ ही काट डाली है, फिर शान्ति कहाँ? साथ में परमात्मरूपी लाल के रहते हुए कंगाल बने हुए हैं। संत कबीर साहब ने कहा है-
लाल लाल जो सब कोइ कहै, सबकी गाँठ लाल ।
गाँठी खोलि के परखै नाहीं, तासे भये कंगाल ।।
लाल बहुत कीमती-बहुमूल्य पदार्थ है। वह गाँठी में है। जबतक वह गाँठ खुलेगी नहीं, कंगाल बने रहेंगे। गाँठ कहिये, गाँठी कहिये, ग्रंथि कहिये- एक ही बात है। वह गाँठी क्या है? गो0 तुलसीदासजी ने इसका स्पष्टीकरण इस भाँति किया है-
जड़ चेतनहिं ग्रंथि पड़ गई।
यद्यपि मृषा छूटत कठिनई।।
वह जड़-चेतन की ही ग्रंथि है। जड़-चेतन की गाँठ खोलने पर परमात्म-रूपी लाल की प्राप्ति होती है। इसको कबीर साहब ने बहुत ही अच्छा कहा है-
लाली मेरे लाल की, जित देखूँ तित लाल।
जिन्होंने उस लाल को पाया, वे मालोमाल हो गये, उनका जीवन निहाल हो गया। वह लाल ऐसा कमाल है कि उसपर काल की भी दाल नहीं गल पाती। क्यों? इसलिए कि जड़-चेतन की ग्रंथि खुलने पर परमात्म-स्वरूप का साक्षात्कार होता है, प्रभु की प्राप्ति हो जाती है। फिर तो परमात्मा को पाकर वे भी परमात्मा ही हो जाते हैं। गो0 तुलसीदासजी ने कहा है-
सोइ जानहि जेहि देहु जनाई।
जानत तुम्हहिं तुम्हइ होइ जाई।।
इसी को मुक्तिकोपनिषद् में भगवान श्रीराम ने श्रीहनुमानजी से कहा था-
दर्शनादर्शने हित्वा स्वयं केवलरूपतः।
य आस्ते कपिशार्दूल ब्रह्म स ब्रह्मवित् स्वयम्।।
अर्थात् ‘हे कपिशार्दूल! दृश्य और अदृश्य को त्यागकर (पुरुष) कैवल्य-स्वरूप हो जाता है। वह केवल ब्रह्मज्ञानी नहीं, बल्कि स्वयं ब्रह्मा ही है।’ जिज्ञासा हो सकती है कि वह जड़-चेतन की ग्रंथि कहाँ है? जिसके प्रहीण होने पर जीव शिव या परमात्मा हो जाता है। इस संबंध में सभी संतों ने एक स्वर से कहा है-‘वह अपने अन्दर है।’ अन्दर में जहाँ गाँठ खुलेगी, वहाँ ही परमात्मा से साँठ-गाँठ होगी। एक लघुकथा है- एक सेठजी थे। उनका लड़का सयाना हो गया था। वह कोई रोजगार नहीं करता था, बैठा रहता था। सेठजी ने कहा-तुम घर पर रहो; मैं बाहर रोजगार करने जाता हूँ। वे बाहर गये। व्यापार किया, पैसे कमाये, पैसे अधिक हो गये, तो उसे लाल में बदलकर उसे एक मनीबेग में रखकर घर की ओर चले; लेकिन जेब में मनीबेग रखते समय किसी ने देख लिया। जिस ट्रेन से सेठजी आ रहे थे, उसी में वह भी सवार हुआ। जिस डब्बे में सेठजी बैठे थे, उसी में उनके निकट वह ठग भी जा बैठा। दोनों में थोड़ी देर बातचीत होने पर उस ठग ने कहा- ‘बड़ा अच्छा हुआ। मेरा कोई साथी नहीं था, आप साथी हो गये।’ सेठजी उसकी चाल-ढाल से समझ गये कि यह कोई ठग है। वे मन-ही-मन उससे सावधानी बरतने लगे। निश्चित स्टेशन पर दोनों उतरे और एक धर्मशाला में जाकर ठहरे। दोनों आस-पास में अपना-अपना बिस्तर बिछाकर बैठ गये। जब खाने-पीने का समय हुआ, तो सेठजी ने कहा-‘आप जाएँ, भोजन कर लें और मेरे लिए भी भोजन लेते आवें।’ जब ठग भोजन करने चला गया, तो सेठजी ने अपना मनीबेग उसके बेडिंग के नीचे घुसाकर रख दिया। जब वह भोजन करके आया, तो सेठजी ने भी भोजन किया और निश्चित होकर सो गये; लेकिन ठग को नींद कहाँ? उसकी आँख में तो वह मनीबेग घूम रहा था। जब उसने देखा कि सेठजी गहरी नींद में चले गये, तो उसने उनके पॉकेट, कमर, बिछावन आदि को टटोलना शुरू कर दिया। सारी रात वह मनीबेग खोजता रहा; लेकिन पता नहीं मिला। जब प्रत्यूष हुआ, तो वह मनहूस होकर सो गया। सबेरे जब सेठजी जगे, तो उन्होंने उसको भी जगाया और कहा-‘अरे भाई! जागो, सबेरा हो गया।’ वह जगा और चाय पीने चला गया। इधर सेठजी ने उसके बेडिंग के नीचे से अपना मनीबेग निकालकर अपने पास रख लिया। जब सेठजी घर की ओर चले, तो वह भी कुछ दूर तक उनके साथ-साथ चला गया। उसके बाद उसने सोचा कि अब सेठजी का लाल लेना सम्भव नहीं। लाचार होकर उसने सेठजी से कहा-‘सुनिये, सेठजी! मैं ठग हूँ। मैंने समूची रात आपके बिस्तर, पॉकेट, कमर आदि को टटोला; लेकिन मनीबेग का पता नहीं लगा, जिसमें आपने लाल रखा था। अब तो आप थोड़ी देर के बाद अपने घर पहुँच जाएँगे, कृपया बताने का कष्ट करें कि आपने रात में मनीबेग कहाँ रखा था।’ सेठजी ने कहा- ‘देखो भाई! तुम जब खाना लाने के लिए बाजार गये थे, उसी समय मैंने मनीबेग को तुम्हारे बेडिंग के नीचे घुसाकर रख दिया था और जब तुम सबेरे चाय पीने गये, तो वहाँ से उसे निकालकर मैंने अपने पास रख लिया। यदि तुम अपने बिछावन में खोजते, तो तुमको अवश्य मनीबेग मिल गया होता; लेकिन तुम तो रात-भर मेरी कमर और पॉकेट टटोलते रहे। फिर लाल-भरा मनीबेग तुमको मिलता कैसे?
ठीक इसी तरह परमात्मा हमारे अन्दर है; लेकिन हम खोजते हैं बाहर-बाहर। ऐसी अवस्था में परमात्मा मिलेंगे कैसे और जबतक परमात्मा मिलेंगे नहीं, शांति मिलेगी नहीं। यह निश्चित जानिये। संत कबीर साहब का कथन है-
सब घट मेरा साइयाँ, सूनी सेज न कोय।
बलिहारी वा घट्ट की, जा घट परगट होय।।
कस्तूरी कुंडल बसै, मृग ढूँढ़ै बन माहिं।
ऐसे घट में पीव है, दुनिया जानै नाहिं।।
समझे तो घर में रहै, परदा पलक लगाय।
तेरा साहब तुज्झ में, अनत कहूँ मत जाय।।
गुरु नानकदेवजी महाराज कहते हैं-
घर ही महि अम्रित भरपूर है, मनुषा स्वादु न पाइया ।
जिउ कस्तूरी मिरगु न जानै, भ्रमदा भ्रमि भूलाइया ।।
कस्तूरी-मृग की उपमा हम भक्तवर सूरदासजी महाराज के वचन में भी पाते हैं, उन्होंने दृढ़तापूर्वक कहा है कि आत्मतत्त्व की प्राप्ति हमें अपने अन्दर हुई, जबतक इस ज्ञान से अनभिज्ञ था, तबतक मैं भी अज्ञ मृग की भाँति भटकता रहा; यथा-
अपुनपौ आपुन ही में पायो।
शब्दहिं शब्द भयो उजियारो, सतगुरु भेद बतायो।।
ज्यों कुरंग नाभि कस्तूरी, ढूँढ़त फि़रत भुलायो।
फि़र चेत्यो जब चेतन ह्वै करि, आपुन ही तनु छायो।।
इन संतों के विचार से गो0 तुलसीदासजी महाराज के वचन का कितना साम्य है, देखिये-
एहि तन मैं हरि ज्ञान गँवायो।
परिहरि हृदय कमल रघुनाथहिं,
बाहर फि़रत विकल भय धायो।।
ज्यों कुरंग निज अंग रुचिर मद,
अति मतिहीन मरम नहिं पायो।
खोजत गिरि तरु लता भूमि बिल,
परम सुगन्धा कहाँ ते आयो।।
गो0 तुलसीदासजी के कहने की कला कितनी अच्छी है। वे कहते हैं-कस्तूरी मृगा के अंग-संग है; किन्तु मतिहीनता के कारण उसका मर्म उसको मालूम नहीं। इसलिए भ्रम में पड़कर वह पहाड़, वृक्ष, लता, भूमि तथा बिल में ढूँढ़ता है। उसी तरह परमात्मा भी सबके अन्दर विद्यमान है; किन्तु बुद्धिहीन जन उसी पशु की भाँति प्रभु को यत्र-तत्र खोजते हैं।
सामवेद में एक मंत्र आया है, जिसमें ऋषि ने स्पष्ट कहा है कि वह कल्याणकारी प्रभु तो शरीर में प्रतिष्ठित है, पर मूर्ख लोग तीर्थ में, दान में, जप में, यज्ञ में, काष्ठ में और पाषाण में शिव देखते हैं-
तीर्थे दाने जपे यज्ञे काष्ठे पाषाणके सदा।
शिवं पश्यति मूढात्मा शिवे देहे प्रतिष्ठिते।।
सूरदासजी के विचार बड़े सुलझे और अनुभवपूर्ण हैं। उन्होंने स्पष्ट कहा है-
अपने जान मैं बहुत करी।
कौन भाँति हरि कृपा तुम्हारी, सो स्वामी समुझि न परी ।
दूरि गये दरसन के ताईं, व्यापक प्रभुता सब बिसरी ।
मनसा वाचा कर्म अगोचर, सो मूरति नहिं नैन धरी ।।
जो अरूप है, वह आँख से देखने की चीज नहीं है। उसको आँख से कैसे देख सकते हैं? उसी तरह जो सर्वेश्वर-सर्वाधार मन-वचन और कर्म से अग्राह्य है, वह इन्द्रियग्राह्य कैसे हो सकता है? वास्तविक बात तो यह है कि लोहे के गर्म तवा को हाथ से नहीं, लोहे की सँड़सी से ही पकड़ सकते हैं, इसी तरह परमात्मा को इन्द्रियों से नहीं, चेतन-आत्मा से ही ग्रहण कर सकते हैं। यह निश्चित जानिये कि स्वरूपतः आप जो हैं, वही परमात्मा भी है। इसलिए आप सर्वप्रथम स्वयं को ही जानिये, फिर परमात्मा को पहचानिये।
एक बात और भी समझने की है। विचारवान जन सरलतापूर्वक समझ सकते हैं। जो अपने को जानता है, वही परमात्मा को भी जान सकता है। जो अपने को नहीं जानता, वह परमात्मा को भी नहीं जान सकता। जैसे जो अपने शरीर को पहचानता है, वही दूसरे के शरीर को पहचान सकता है। जिसको अपने शरीर का ज्ञान नहीं, वह दूसरे के शरीर से भी अनजान रहता है। प्रमाणार्थ जब कोई सो जाता है, तो उसको अपने शरीर का ज्ञान नहीं रहता है। उस समय उसके शरीर से सटकर भी यदि कोई रहता है, तो उसको उसका ज्ञान नहीं होता है। फिर जगने पर पहले अपने शरीर को देखता और पहचानता है, तब दूसरे के शरीर को भी। इसी तरह जो अपने स्वरूप से विज्ञ है, वही परमात्म-स्वरूप से अभिज्ञ हो सकता है।
इसी विषय की परिपुष्टि परम भक्तिन सहजोबाई भी करती हैं। वे कहती हैं-सबके स्नेही राम के दर्शन करना चाहते हो, तो प्रथम अपनी आत्मा की खोज करो।
‘आपुन ही कूँ खोज, मिले जब राम सनेही।’
यदि मेरे इस वचन का श्रवण कर किन्हीं की यह धारणा बनी हो कि ये तो ऊँचे ज्ञान और योग की बातें करते हैं, सरल सुगम भक्ति की नहीं, तो मैं निवेदन करना चाहूँगा, आप ज्ञान, योग और भक्ति को भिन्न-भिन्न क्यों समझ रहे हैं। भिन्न-भिन्न भासते हुए भी तीनों अभिन्न हैं; क्योंकि तीनों का अन्योन्याश्रित संबंध है।
अभी मैं आत्मस्वरूप की बात कह रहा था। यथार्थतः स्वरूप का अनुसंधान ही भक्ति है। यदि मेरी बात का सन्देहात्मक प्रतीत हो, तो श्रीमदाद्य शंकराचार्य कृत विवेकचूड़ामणि ग्रंंथ पढ़ें। उसमें उन्होंने लिखा है-
मोक्षकारण सामग्रयां भक्तिरेव गरीयसी।
स्वं स्वरूपानुसंधानं भक्तिरित्यभिधाीयते।।
अर्थात् मुक्ति की कारण रूप सामग्री में भक्ति ही सबसे बढ़कर है और अपने वास्तविक स्वरूप का अनुसंधान करना ही भक्ति कहलाता है।
यदि हम सरलतम शब्दों में कहना चाहेंगे, तो इस तरह कहेंगे-भक्ति का अर्थ है-सेवा-सुश्रूषा। हम किनकी सेवा करें, किस प्रकार सेवा करें, यह ‘ज्ञान’ आवश्यक है। साथ ही इस सेवा कार्य में यदि मन का योग नहीं है, तो वह वास्तविक सेवा नहीं हो सकती। इस प्रकार ज्ञान-योग और भक्ति-तीनों संग-संग स्वाभाविक हैं। जैसे लड्डू बनाने में घृत, शक्कर और बेसन तीनों की अनिवार्य आवश्यकता है, वैसे ही ईश्वर-भक्ति में भक्ति, योग और ज्ञान-तीनों अपरिहार्य हैं।
हाँ! एक बात अवश्य है कि कोई ज्ञान को प्रधान, कोई योग को प्रधान और कोई भक्ति को प्रधान मानता है। यह एक दूसरी बात है। एक मजेदार प्रसंग सुनाता हूँ, सुनिये। महामहिम आचार्य विनोबा भावेजी महाराज हैं! इनके निकट सम्पर्क का एक बार सौभाग्य प्राप्त हुआ। बात की बात में वे बता रहे थे; उनके पूज्य दादाजी को मिठाई खाने का बड़ा शौक था। उनकी पूज्या दादी सतत बड़े प्रेम से मिष्टान्न बनाकर उनको खिलाया करतीं। भोजन करते समय वे बोलते कि लड्डू बना तो अच्छा है; लेकिन थोड़ा और शक्कर मिलाती तो और अच्छा होता। दूसरी बार उससे अधिक शक्कर डालकर जब खिलाने जातीं, तो खाते हुए कहते-उस बार से इस बार तो उत्तम बना, फिर भी यदि इसमें शक्कर की मात्र थोड़ी और बढ़ा दी जाती, तो अत्युत्तम होता।
इस प्रकार जितनी बार वह मिष्टान्न बनाती, कुछ-न-कुछ वे कमी महसूस करते। इस बार उन्होंने कुछ भी अन्न मिलाये बिना मात्र चीनी की ही मिठाई बनायी और उनको खिलाने गयी। मिठाई-भोग लगाते हुए बड़ी प्रसन्नता की मुद्रा में वे बोल उठे- “ वाह! आज की मिठाई सबसे अच्छी और स्वादिष्ट बनी है; लेकिन यदि इसमें थोड़ा और खाँड़ मिला दिया जाता, तब क्या कहना! पूर्ण हो जाता।” आदरणीय आचार्य भावेजी की पूज्या दादीजी बोली- “ अब इसमें कुछ मिलाने के लिए शेष ही क्या रह गया! इसमें तो अन्न का लेश भी नहीं है।”
हाँ, तो मैं ज्ञान, योग और भक्ति के संबंध में कह रहा था। इन तीनों के लिए या यों कहिये कि तीनों के समन्वय-रूप के लिए जो साधना अपेक्षित है, वह करनी चाहिए। साधना के आरम्भ में सरल- साधना स्वाभाविक है; क्योंकि बिना सरलाक्षर लिखे कोई संयुक्ताक्षर नहीं लिख सकता। इसलिए प्रारम्भ में स्थूल, सगुण भक्ति, फिर सगुण अणोरणीयाम् (विन्दु) रूप की भक्ति, तत्पश्चात् सूक्ष्मतर सगुण निराकार की भक्ति और अंत में सूक्ष्मतम ॐ शब्दब्रह्म वा नाद रूप निर्गुण निराकार की भक्ति कर योग, ज्ञान और भक्ति में परिपूर्ण होगी। इसी में आत्म-साक्षात्कार, परमात्मा का दर्शन और मोक्ष की प्राप्ति होगी। इसके मार्गदर्शन के लिए क्रियावान शुद्धाचारी संत सद्गुरु की नितान्त आवश्यकता है। स
पूज्यपाद महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट, भागलपुर में दिनांक 05-02-1978 ई0 को अपराह्णकालीन सत्संग में हुआ था।
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जैसे एक वृक्ष में फल लगा हुआ है। उसके फल को तोड़ने के लिए एक नेत्रहीन आदमी ढेला फेंक रहा है और दूसरा नेत्रधारी। अब आप ही बतलाइए, फल तोड़ेगा कौन? जो नेत्रधारी है, वह फल तोड़ेगा। जो नेत्रहीन है, वह भी यदि निरंतर ढेला मारता रहेगा, तो हो सकता है, कभी-न-कभी उसका भी ढेला लग जाए। अतएव ऐसा नहीं कहा जा सकता है कि नहीं लग सकता, फिर भी निश्चयात्मक शब्द नहीं है कि उसका ढेला लगेगा ही। परन्तु जो कोई दृष्टिसाधन की क्रिया करते हैं, इस साधन के फलस्वरूप उनको दिव्यदृष्टि प्राप्त हो जाती है और दिव्यदृष्टि हो जाने से दिव्यफल-नाद की प्राप्ति सरलतापूर्वक हो जाती है। दिव्य दृष्टिविहीन जन दिव्य शब्द को पकड़ेगा, कठिन है। इसलिए आवश्यकता है मानस जप और मानस ध्यान के पश्चात् दृढ़तापूर्वक दृष्टि-साधन करने की। जो दृष्टि-साधन करते हैं, वे ज्योतिर्मय विन्दु को पाते हैं, फिर प्रकाशपुंज में प्रतिष्ठित हो जाते हैं। जो प्रकाशपुंज में पहुँच जाते हैं, वहाँ उनके अनहद नाद की अनुभूति होती है। अनहद नाद यानी जिसकी हद नहीं, सीमा नहीं। उन असंख्य शब्दों में से किस शब्द को कहाँ और कैसे पकड़ा जाए, इसका यत्न संत सद्गुरु से जानना होता है। अनहद नादों की साधना करते-करते अंत में एक शब्द मिलता है, जिसको अनाहद नाद कहते हैं, सारशब्द कहते हैं। यही नाद परम प्रभु परमात्मा से मिलाता है। श्रीमदाद्य शंकराचार्य जी महाराज इसकी स्तुति करते हैं-
नादानुसंधान नमोऽस्तु तुभ्यं त्वां मन्महे तत्त्वपदं लयानाम् ।
भवत्प्रसादात् पवनेन शाकं विलीयते विष्णुपदे मनो मे ।।
(योगतारावलि)
हे नादानुसंधान! आपको नमस्कार है, आप परम पद में स्थित कराते हैं, आपके ही प्रसाद से मेरा प्राणवायु और मन, ये दोनों विष्णु के परमपद में लीन हो जाएँगे। पहले भजन-भेद होता है। उसके बाद शब्दभेद यानी नामभेद होता है। भजन-भेद और नाम-भेद एक ही बात नहीं होती है। इसलिए गोस्वामीजी ने लिखा है-
चौदह चारो अष्टदश, रस समझव भरपूर ।
नाम भेद जाने बिना, सकल समझ महँ धूर ।।
भेद जाहि विधि नाम महँ, बिनु गुरु जान न कोय ।
तुलसी कहहिं विनीत वर, जौं विरंचि शिव होय ।।
तथा-
बिन दया संतन की मेँहीँ जानना इस राह को।
हुआ नहीं होता नहीं वो होन हारा है नहीं।।
(महर्षि मेँहीँ-पदावली)
दृष्टि-साधन की क्रिया में जो कुशल हो जाता है, उसमें उस शब्द को पकड़ने की योग्यता आती है, जो केन्द्रीय है। जबतक दृष्टिसाधन की क्रिया सही नहीं होती, तबतक कितने लोग कान बंद करके भी सुनते हैं; लेकिन वह केन्द्रीय शब्द नहीं, बिखरे हुए शब्द हैं। जैसे अभी हम यहाँ बैठे हुए हैं और दिल्ली रेडियो स्टेशन का शब्द सुनना चाहें, तो वहाँ के शब्द को पकड़ने के लिए हमें क्या करना होगा? हमारे घर में जो ट्रांजिस्टर है, उसमें दिल्ली के लिए जो अंक नियुक्त है, उस अंक पर सूई रखनी पड़ेगी, तब हम दिल्ली की आवाज पकड़ सकेंगे। कलकत्ते की आवाज सुनना चाहते हैं, तो उस अंक पर सूई रखिए, जो कलकत्ते के लिए नियुक्त है। इसी तरह इंग्लैंड, अमेरिका आदि जहाँ कहीं की भी आवाज हम सुनना चाहेंगे, वहाँ के लिए जो अंक नियुक्त है, उसपर सूई रखिए, वहाँ की आवाज सुन सकेंगे। इसी तरह परम प्रभु परमात्मा की ओर से जो आवाज आ रही है, उस आवाज को पकड़ने के लिए हमें अपने को या अपनी सूई को यानी अपनी वृत्ति को कहाँ रखनी पड़ेगी? संत तुलसी साहब के शब्दों को सुनिए-
कुदरती काबे की तू मेहराब में सुन गौर से ।
है आ रही धूर से सदा तेरे बुलाने के लिये ।।
कुदरती काबा क्या है? हमलोगों का शरीर है? जिसको योगशिखोपनिषद् में शिवालय और ठाकुरबाड़ी की संज्ञा से अभिहित किया गया है। यथा-
विन्दुनाद महालिंगं शिवशक्तिनिकेतनम् ।
देहं शिवालयं प्रोक्तं सिद्धिदं सर्वदेहिनाम् ।।
अर्थ-विन्दुनाद महालिंग है और शिव-शक्ति का घर है। इस देह को शिवालय कहते हैं। सभी प्राणियों को इसमें सिद्धि मिलती है।
विन्दुनाद महालिंगं विष्णुलक्ष्मीनिकेतनम् ।
देहं विष्ण्वालयं प्रोक्तं सिद्धिदं सर्वदेहिनाम् ।।
अर्थ-विन्दुनाद-रूप जो महालिंग है, वही विष्णु और लक्ष्मी का घर है। इस देह को विष्णु-मंदिर (ठाकुरवाड़ी) कहते हैं। सभी प्राणियों को इसमें सिद्धि मिलती है। और मेहराव किसको कहते हैं? फाटक के ऊपर जो अर्ध गोलाकार होता है, उसको मेहराब कहते हैं। हाँ, तो प्रभु के पास जाने का जो फाटक है, वहाँ भी मेहराव है। आँख की ये दोनों भाैंएँ मेहराब के प्रतीक हैं। इसी के बीच में वह स्थान नियुक्त है, जहाँ उस शब्द को पकड़ा जाता है। वहाँ पर अपनी सूई रखिए। सूई रखेंगे तो क्या होगा? विन्दु मिलेगा, जिसको फारसी भाषा में नुख्ता कहते हैं। किसी शायर का कथन है-
नुख्ते के हेर फेर से खुदा तुमसे जुदा हुआ ।
नुख्ता जो धरा सर पर खुद ही खुदा हुआ ।।
खुदा जुदा की एक ही सुरत नुख्ता भेद बताता है ।
नुख्ता नीचे नुख्ता ऊपर नोख्ता आता जाता है ।।
संतों ने कहा-इस नुख्ते यानी विन्दु को पकड़ो। जो कोई इस विन्दु-साधना की विधि को जानता है और तदनुकूल साधना करके उसको प्राप्त करता है, तो वही विन्दु प्राप्तकर्ता एक दिन भवसिन्धु पार करता है। जो विन्दु प्राप्त नहीं करेगा, वह भवसिन्धु नहीं तरेगा। विन्दु ग्रहण करनेवाला नाद श्रवण करता है। अनहद नाद की साधना करते-करते अंत में आदिनाद मिलता है, जो परम प्रभु से जाकर मिलाता है; क्योंकि वह नाद परम प्रभु परमात्मा से ही उत्थित है।
नाद में अपने उद्गम पर खींचने का गुण होता है। इसलिए परम प्रभु की ओर से जो शब्द आया है, उस शब्द को जो कोई पकड़ता है, खींचकर प्रभु के पास चला जाता है। अभी मैं माइक पर बोल रहा हूँ। इसकी आवाज जितनी दूर तक जाएगी, अँधेरी रात होने पर भी सुननेवाला आवाज सुनते-सुनते मेरे पास आ जाएगा। इसी तरह परम प्रभु की ओर से जो ब्रह्म ध्वनि ध्वनित हो रही है, हमारी ओर आ रही है, उसको जो कोई पकड़ेगा, परमात्मा तक चला जाएगा। यही उलटा नाम है। गोस्वामीजी ने रामचरितमानस में लिखा है-
उलटा नाम जपत जग जाना ।
बाल्मीकि भये ब्रह्म समाना ।।
वाल्मीकि जी का पूर्व नाम रत्नाकर था। कथा है कि वह बड़ा हत्यारा था। मारकाट में ही उसका जीवन बितता था। इसलिए नारदजी द्वारा उपदेश पाकर भी वह राम-राम उच्चारण नहीं कर सकता था, मरा-मरा कहता था, ऐसा लोग कहा कहते हैं।
अभी हाल में ही गोड्डा जिला संतमत-सत्संग का वार्षिक अधिवेशन डुमरिया हाट में हुआ था। वहाँ एक दारोगाजी, एक वकील साहब और एक डॉक्टर साहब अपने कुछ साथियों के साथ मेरे पास आये थे। उनलोगों ने भी यही बात कही-‘रत्नाकर बड़ा पापी था। राम-राम नहीं कह सकता था, फिर भी मरा-मरा जपते-जपते वह ब्रह्म के समान हो गया।’ मैंने कहा-सुनिए, आपलोग पढ़े-लिखे विद्वान् हैं, गंभीरतापर्वक विचार कीजिए। जरा सोचिए, जो वर्णमाला का उच्चारण कर सकता है, ‘म’ और ‘रा’ यानी ‘मरा’ उच्चारण कर सकता है, वह ‘रा’ और ‘म’ यानी ‘राम’ उच्चारण नहीं कर सकता, यह कहाँ का न्याय है? क्या कोई बुद्धिजीवी इस बात को स्वीकार कर सकता है कि जो ‘म’ और ‘रा’-‘मरा’ कह सकता है, वह ‘रा’ और ‘म’-‘राम’ नहीं कह सकता? वे लोग पढ़े-लिखे बुद्धिजीवी तो थे ही, मेरी बात को सबने एक स्वर से स्वीकार किया और कहा, आपकी बात युक्तिसंगत और जँचनेवाली है। पुनः मैंने कहा-वकील साहब! एक बात और विशेष ध्यान देने योग्य है। ‘र’ आकार और ‘म’ यानी ‘राम’ और इसको उलटने से ‘मरा’ शब्द बना। यह नाम का उलटना हुआ या अक्षर को उलट दिया गया। नाम नहीं उलटा, यह तो अक्षर उलट दिया गया। उलटा नाम क्या है? उनलोगों ने कहा-यह तो हमलोग नहीं जानते। मैंने कहा- सुनिए, नाभि, हृदय और कंठ-इन तीनों स्थानों में ठोकर लगाकर मुँह के उच्चारण स्थानों का स्पर्श करती हुई जो ध्वनि बाहर निःसृत होती है, उसको बैखरी वाणी कहते हैं। बैखरी का मतलब, जो बिखर गयी। यानी नीचे की ओर से एकत्रित होती हुई ऊपर मुँह में आने के बाद बाहर निकल गयी। संत चरणदास जी महाराज की वाणी है-नाभि से परा, हृदय से पश्यन्ती, कंठ से मध्यमा और मुँह से बैखरी वाणी निकलती है। यथा-
नाभि मध्य वाणी परा, हिय पश्यन्ती सुख्य ।
कंठ मध्यमा जानिये, कहूँ बैखरी मुख्य ।।
वह वर्णात्मक है। वर्णात्मक शब्द का अर्थ होता है, इसलिए वह सार्थक है और सगुण भी। वर्णात्मक का उलटा ध्वन्यात्मक शब्द होता है। ध्वन्यात्मक का अर्थ नहीं होता, इसलिए उसको निरर्थक कहते हैं। (निरर्थक का अर्थ व्यर्थ नहीं) वह (ध्वन्यात्मक शब्द) परम प्रभु परमात्मा से निःसृत होकर कैवल्य, महाकारण, कारण, सूक्ष्म और स्थूल तक आया है। यह निर्गुण शब्द के ऊपर से नीचे की ओर आया है। इसका स्पष्टीकरण हम इस भाँति कर सकते हैं-एक नाम (शब्द) नीचे से ऊपर की ओर और दूसरा ऊपर से नीचे आता है। एक नाम (शब्द) सगुण है और दूसरा निर्गुण है। एक शब्द पिंड से नाभिचक्र से आरंभ होकर पिंड के मुखस्थान में समाप्त होता है। दूसरा शब्द ब्रह्मांड के परे से निकलकर नीचे पिंड तक जाता है। इस प्रकार एक दूसरे का उलटा होने के कारण इसको ‘उलटा नाम’ की संज्ञा दी गयी। इसी निर्गुण ध्वन्यात्मक ध्वनि की साधना के द्वारा वाल्मीकि जी ब्रह्म में समाकर ब्रह्मवत् हुए थे।
कहते हैं-सृष्टि के आरंभकाल में परम प्रभु परमात्मा में मौज हुई, मौज हुई तो कम्प हुआ। कम्प शब्दमय और शब्द कम्पमय होता है। इसलिए स्वाभाविक है कि कम्प अपने सहचर ध्वन्यात्मक शब्द के साथ होगा। यह ध्वन्यात्मक शब्द ऊपर से नीचे की ओर आया है। इसका अपना कोई अर्थ नहीं होता, इसलिए इसको निरर्थक कहते हैं और यह निर्गुण शब्द है तथा यही एक दूसरे का उलटा है। इसी ध्वन्यात्मक, निरर्थक, निर्गुण शब्द की साधना वाल्मीकिजी ने की थी। शब्द-साधना के संबंध में गोस्वामीजी ने रामचरितमानस में लिखा है-
उलटा नाम जपत जग जाना।
बाल्मीकि भये ब्रह्म समाना ।।
दूसरी बात यह है कि शब्द में तीन प्रकार के गुण होते हैं-1- ऊपर का शब्द नीचे दूर तक जाता है। 2- सुननेवाले को अपने केन्द्र की ओर आकर्षित करता है। 3- शब्द में जो गुण होता है, सुननेवाले को उससे गुणान्वित करता है। इसलिए जो शब्द परम प्रभु परमात्मा से आया हुआ है, उसको जो कोई पकड़ लेता है, वह परमात्मा तक पहुँच जाता है तथा परमात्मा के गुण से गुणान्वित होकर परमात्मा ही हो जाता है। इस स्थिति को प्राप्त कर लेनेवाले के लिए ही गोस्वामी जी की ‘जानत तुम्हहिं तुम्हइ होइ जाई’ वाली वाणी चरितार्थ हो जाती है।
इस आदिनाद वा सारशब्द की चर्चा हम पवित्र बाइबिल में भी पाते हैं- “In the beginning was the word, the word was with God and the word was God” आरंभ में शब्द था। शब्द ईश्वर के साथ था और शब्द ईश्वर था। इसी शब्द की ओर इंगित कर संत कबीर साहब ने कहा था-
साधो शब्द साधना कीजै।
जेहि शब्द से प्रगट भये सब, सोई शब्द गहि लीजै।।
गुरु नानक साहब की वाणी में है-
शब्द तत्तु बीर्ज संसार । शब्दु निरालमु अपर अपार ।।
शब्द विचारि तरे बहु भेषा । नानक भेदु न शब्द अलेषा ।।
शब्दै सुरति भया प्रगासा । सभको करै शब्द की आसा ।।
पंथी पंखी सिऊँ नित राता । नानक शब्दै शब्दु पछाता ।।
हाट बाट शब्द का खेलु । बिनु शब्दै क्यों होवै मेलु ।।
सारी स्त्रिष्टि शब्द कै पाछै । नानक शब्द घटै घटि आछै ।।
संत दादू दयालजी महाराज इस विषय की परिपुष्टि इस भाँति करते हैं-
एक सबद सब कुछ किया, ऐसा समरथ सोय ।
आगै पीछै तौ करै, जे बलहीणा होय ।।
इस आदि शब्द की क्या विशेषता है, संत कबीर साहब की वाणी में श्रवण कीजिए-
आदि नाम पारस अहै, मन है मैला लोह ।
परसत ही कंचन भया, छूटा बंधन मोह ।।
जो कोई आदिनाम को पकड़ लेता है, तो उसके आकर्षण से आकर्षित हो वह परम प्रभु परमात्मा तक चला जाता है और उनसे एकमेक हो अद्वय हो जाता है। कविकुल-कमल-दिवाकर गोस्वामी जी की भाषा में-
सरिता जल जलनिधि महँ जाई ।
होहिं अचल जिमि जीव हरि पाई ।।
अर्थात जिस तरह सरिता का जल सागर में समाकर सागर ही हो जाता है, उसी तरह जीव भी पीव को पाकर पीव हो जाता है। इसी संदर्भ में भगवान श्रीराम ने भक्त श्रीहनुमानजी को उपदेश देते हुए कहा था-
दर्शनादर्शने हित्वा स्वयं केवल रूपतः ।
य आस्ते कपिशार्दूल ब्रह्म स ब्रह्मवित्स्वयम् ।।
(मुक्तिोपनिषद्)
हे कपिशार्दूल! दृश्य और अदृश्य को त्यागकर (पुरुष) कैवल्यस्वरूप हो जाता है। वह केवल ब्रह्मज्ञानी नहीं; बल्कि स्वयं ब्रह्म ही हो जाता है। वह दृश्य और अदृश्य अर्थात् दर्शन और अदर्शन क्या है? दर्शन है ज्योति और अदर्शन है नाद। जो ज्योति और नाद को पार कर जाता है, वह नाम-रूप को पार करके अनामी और अरूपी प्रभु में जाकर मिलता है। यही है-एक अनीह अरूप अनामा। अज सच्चिदानंद पर धामा।।-यही परम प्रभु परमात्मा है, उसे पाकर वह वही हो जाता है।
संतमत यही बतलाता है। ईश्वर-प्राप्ति का यही एक रास्ता है। सर्वेश्वर की सर्वोत्कृष्ट साधना पराभक्ति है। परा भक्ति में ये कान काम नहीं करते, ये आँख काम नहीं करतीं, यह नाक काम नहीं करती। कोई भी इन्द्रिय काम नहीं करती, फिर भी बिना श्रवण के सुनते हैं, बिना नेत्र के देखते हैं, बिना जिभ्या के उच्चारण होता है, बिना चरण के नृत्य करते हैं, बिना हाथ के ताल बजाते हैं, बिना अंग का संग होता है, बिना शीश के सेव्य को नमन करते हैं, आदि बड़ी ही अद्भुत बातें होती हैं। संत सुन्दरदासजी के शब्दों में-
श्रवण बिना धुनि सुनै, नयन बिनु रूप निहारै ।
रसना बिनु उच्चरै, प्रशंसा बहु विस्तारै ।।
नृत्य चरण बिनु करै, हस्त बिनु ताल बजावै ।
अंग बिना मिलि संग, बहुत आनन्द बढ़ावै ।।
बिनु शीश नवे जहँ सेव्य को, सेवक भाव लिये रहै ।
मिलि परमातम सों आतमा, परा भक्ति सुन्दर कहै ।।
यह परा भक्ति है। हमारे गुरु महाराज ने भी कहा है, यह परा भक्ति का प्रसिद्ध मार्ग है। जैसे सरिता का जल समुद्र में जाकर समुद्र हो जाता है, वैसे ही जीव भी प्रभु से मिलकर प्रभु ही हो जाता है।
विहंग मीनी चाल चलि ज्यों, सरित सों सरित समाहिं ।
त्यों नाद सों नादों में चलि, प्रभु पास भक्तन जाहि ।।
संतों का मेँहीँ मार्ग यह, ‘मेँहीँ’ सुनो दे कान ।
यहि परा भक्ति प्रसिद्ध मार्गहि, धरु हिय धरि ध्यान ।।
(महर्षि मेँहीँ-पदावली)
हमारे परम पूज्य गुरुदेव का उद्घोष है-
सार शब्द ही नाह मिलावै और नहीं कोई ।
मेँहीँ कही जो संतन भाखी बात नहिं निज की ।।
इससे बढ़कर और कोई ऊँची भक्ति नहीं है और न कोई ऊँची गति ही है। यही आत्मनिवेदनम् है अथवा जीव का पीव में मिलन कहिये, आत्मा परमात्मा का मिलन कहिये, चाहे आप जो इसकी संज्ञा दीजिए। यही संतमत बतलाता है। इसके लिए घर-वार, परिवार, रोजगार छोड़ने की जरूरत नहीं है। आचार्य बिनोवा भावे ने कहा था-मछली पानी में रहती है। मछली कहे कि पानी की कीमत कुछ नहीं है, मैं दूध में जाकर रहूँगी अथवा उससे अधिक कीमत की चीज घी है, उसमें जाकर रहूँगी, तो मछली न तो दूध में जी सकती है और न घृत में ही जीवित रह सकती है। तो वह पानी में ही और वहाँ ही अपना विकास भी कर सकती है। उसी तरह जिस कुटुम्ब में, जिस परिवार में, जिस समाज में हम हैं, उसी में रहकर हम अपनी उभयलोक उन्नति कर अपना परम कल्याण बनावें।
(शान्ति-सन्देश, मई, 1978 ई0)
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जैसे कमलपत्र पर पानी पड़ने से वहाँ वह नहीं ठहरता, ढरक जाता है, नीचे गिर जाता है, वैसे ही इस पिंड से प्राण-पखेरू कब प्रस्थान कर जाए, इसका ठिकाना नहीं। संत कबीर साहब ने कहा है-
पाँच तत्त्व का पिंजड़ा, ता में पंछी पौन ।
रहिबो को अचरज है, गये तो अचरज कौन ।।
पुनः वे कहते हैं-
यह तन काँचा कुम्भ है, लिये फिरै थे साथ ।
टपका लागा फूटिया, कछु नहिं आया हाथ ।।
शरीर की नश्वरता के संबंध में परम भक्तिन सहजोबाई कहती हैं-
पानी का सा बुलबुला, यह तन ऐसा होय ।
पीव मिलन को ठानिये, रहिये ना पड़ि सोय ।।
रहिये ना पड़ि सोय, बहुरि नहिं मनुखा देही ।
आपुन ही कूँ खोज, मिलै जब राम सनेही ।।
हरि कूँ भूले जो फिरै, सहजो जीवन छार ।
सुखिया जब ही होयगो, सुमिरेगो करतार ।।
इस असार संसार में भगवद्भजन ही सार है। इसलिए ईश्वर का भजन करो। यही सब संतों ने एक स्वर से कहा है। जगत के जितने काम हैं, वे सारे के सारे आपके अभाव में भी पूरे हो सकते हैं; लेकिन एक काम ईश्वर-भजन है, जो आपके बिना आपका यह काम कोई पूरा नहीं कर सकता। जैसे आपको भूख लगे और जिसको आप बहुत प्यारा मानते हैं, उसको भरपेट भोजन करा दें, तो क्या आपका पेट भर जाएगा? कोई रोग आपको हो गया है, उस रोग को दूर करने के लिए आपका जो परम प्रिय है, उसको उस रोग की दवा खिला दें, तो क्या आपका रोग दूर हो जाएग? पाखाने-पेशाब की हाजत आपको लगे और जो आपके अत्यन्त प्रेमी हैं, उनको कहें कि मेरे बदले में आप हो आइए, मुझे फुर्सत नहीं है, तो क्या काम चल जाएगा! वास्तविक बात तो यही है कि खाना आपको है, पीना आपको, सोना आपको, दवा लेनी आपको है, पाखाना आपको जाना है, पेशाब जाना आपको है। ये आपके शरीर-संबंधी जितने आपके काम हैं, जैसे आपके बिना दूसरा कोई नहीं कर सकता, उसी तरह आत्मा-संबंधी जो आपका काम है, वह आपके बिना दूसरा कोई नहीं कर सकता। यहाँ ठीकेदारी से काम चलने की आशा नहीं कीजिए। यह स्पष्ट और सीधी बात समझिए। कोई कहता है-11000 बेल-पत्रें पर रामनाम लिखकर मैं शिव पर चढ़ा दूँगा, 21000 रुपये दक्षिणा के रूप मे मुझको दे दीजिएगा। आपका काम हो जाएगा। इस तरह से काम चलने को नहीं है। भगवद्भजन आपको स्वयं करना होगा। संतों का जो उपदेश है, बिल्कुल ठोस। उसमें टस-मस होने की कोई बात नहीं है। कुछ भजन-कीर्तन गा लिये, कुछ किताबें पढ़ लीं, कुछ कथाएँ सुन लीं। बहुत-से प्रवचन रटकर लंबा भाषण कर दिया, इससे क्या हुआ? कठोपनिषद् कहती है-
नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन ।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैषआत्माविवृणुते तनू ँ ् स्वाम् ।।
अर्थात् यह आत्मा वेदाध्ययन-द्वारा प्राप्त होने योग्य नहीं है और न धारणा-शक्ति अथवा अधिक श्रवण से ही प्राप्त हो सकता है। यह (साधक) जिस (आत्मा) का वरण करता है, उस (आत्मा) से ही यह प्राप्त किया जा सकता है। उसके प्रति यह आत्मा अपने स्वरूप को अभिव्यक्त कर देता है। श्रवण, मनन और अध्ययन द्वारा अर्जित ज्ञान आचरण में उतारने के लिए होता है। श्रवण-मनन किया; किन्तु आचरण नहीं किया, तो क्या लाभ होगा?
स्वामी विवेकानंदजी ने लिखा है- “ हम भले ही सारा जीवन पुस्तकों का अध्ययन करते रहें और बड़े बौद्धिक हो जाएँ, पर अंत में हम देखेंगे कि हमारी तनिक भी आध्यात्मिक उन्नति नहीं हुई है। यह बात सत्य नहीं कि उच्च स्तर के बौद्धिक विकास के साथ-साथ मनुष्य के आध्यात्मिक पक्ष की उतनी ही उन्नति होगी। पुस्तकों का अध्ययन करते समय हमें कभी-कभी यह भ्रम हो जाता है कि इससे हमें आध्यात्मिक सहायता मिल रही है, पर यदि हम ऐसे अध्ययन से अपने में होनेवाले फल का विश्लेषण करें, तो देखेंगे कि उससे अधिक-से-अधिक हमारी बुद्धि को ही कुछ लाभ होता है, हमारी अंतरात्मा को नहीं। पुस्तकों का अध्ययन हमारे आध्यात्मिक विकास के लिए पर्याप्त नहीं है। यही कारण है कि यद्यपि लगभग हम सब आध्यात्मिक विषयों पर बड़ी पांडित्यपूर्ण बातें कर सकते हैं, पर जब उन बातों का कार्यरूप में परिणत करने का यथार्थ आध्यात्मिक जीवन बिताने का अवसर आता है, तो हम अपने को सर्वथा अयोग्य पाते हैं। जीवात्मा की शक्ति को जाग्रत करने के लिए किसी दूसरी आत्मा से ही शक्ति का संचार होना चाहिए।” संत पलटू साहब ने कहा है-
इलम सीखा पर अमल नहीं,
अमल बिना इलम खाक है जी।
बेहद्द कथै और हद रहै, उसका तो मुँह नापाक है जी।
कुछ करने के लिए ही कुछ पढ़ा-सुना जाता है और जो कुछ किया जाता है, वह कुछ पाने के लिए ही। साथ ही, यह भी समझ लेना आवश्यक है कि प्राप्तव्य वस्तु भी कुछ ऐसी होनी चाहिए कि फिर कुछ पाना बाकी न रहे, वह क्या है? ईश्वर-प्राप्ति- आत्म-लाभ, इसके बिना सब सूना है। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज कहते हैं-
चौदह चारो अष्टदश रस समझब भरपूर ।
नाम भेद जाने बिना, सकल समझ महँ धूर ।।
अर्थात् कोई व्यक्ति चारो वेद, छहो शास्त्र, आठो व्याकरण और अठारहो पुराण याद कर लें, छन्द, अलंकार और काव्यरस के भी मर्मज्ञ हों, किन्तु यदि नाम-भेद नहीं जाना, तो भरपूर जानना भी धूल वत् है। आजकल कितने लोग इतिहास-पुराण की कथा लोगों को सुनाते हैं, लोग सुन-सुनकर बाग-बाग हो जाते हैं और कथावाचक की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हैं। लेकिन यह सुनिश्चित समझ लें-कितनी ही अच्छी कथा क्यों न हो, उससे भव-व्यथा दूर नहीं होती। और तो और, जब कथावाचक की व्यथा दूर नहीं होती, तब श्रोता की तो बात ही क्या? किसी सुभाषितकार ने कितना अच्छा कहा है-
पढ़े छहो शास्त्र वो अठारहो पुराण पढ़े ।
वेद उपवेद आदि अन्त कोई छाना है ।।
गीता रामायण और श्रुति स्मृति पढ़े ।
सांख्य योग न्याय आदि दर्शन भी जाना है ।।
जाना है बनाना छन्द सोरठा चौपाई को ।
जाना है ध्रुपद राग भैरवी का गाना है ।।
इतना जो जाना सब खाक धूर छाना है ।
जाना है सोई जो स्वरूप पहिचाना है ।।
संतों और सद्ग्रंथों की सम्मति है-आत्मा की पहचान करो कि तुम कौन हो? आत्मज्ञान हो गया, फिर अन्य कोई ज्ञान बाकी नहीं रह जाता। जैसे हाथी के पदचिह्न में अन्य सभी जीवों के पदचिह्न समा जाते हैं, उसी प्रकार आत्मज्ञान के अंदर अन्य सभी ज्ञान आ जाते हैं। आत्मज्ञान कैसे होगा? नाम-भेद को जानने से। लेकिन बिना गुरु के इस नाम-भेद का ज्ञान नहीं होता। श्रीगोस्वामीजी ने लिखा है-
भेद जाहि विधि नाम महँ, बिन गुरु जान न कोय ।
तुलसी कहहिं विनीत वर, जौं बिरंचि सिव होय ।।
अर्थात् विरंचि के समान सृष्टि करने की कुशलता तुममें आ जाए या शिव के सदृश संहार करने की शक्ति तुममें हो जाए, फिर भी संत सद्गुरु के अभाव में नाम के भेद को नहीं जान सकते। इसलिए किसी ने कहा है-
भेद यह गुप्त पाना किसी ग्रंथ से ।
है असंभव समझ लो, किसी संत से ।।
बिन दया संतन की मेँहीँ जानना इस राह को ।
हुआ नहीं होता नहीं वो होनहारा है नहीं ।।
(महर्षि मेँहीँ-पदावली)
इसलिए नाम का भेद जानो। पहले ही प्रत्यक्ष में जानना तो दूर की बात है। इसलिए पहले समझकर जानो। यह नाम क्या है?
श्रवणात्मक ध्वन्यात्मक, वर्णात्मक विधि तीन ।
त्रिविध शब्द अनुभव अगम, तुलसी कहहिं प्रवीण ।।
(गो0 तुलसीदासजी महाराज)
वह नाम-भजन कैसे होगा? रामचरितमानस के मर्म को नहीं जाननेवाले धर्म के ठीकेदार का कथन है कि हम तो राम-राम जपते हैं, नाम-भेद जानना क्या है? रत्नाकर जैसा बड़ा पापी, जो राम-राम नहीं कह सकता था, मरा-मरा जपकर तर गया। हम तो स्पष्ट रूप से राम-राम कहते हैं, हमारा उद्धार क्यों नहीं होगा? इसकी पुष्टि में वे रामचरितमानस की इन चौपाइयों की दुहाई देते हैं-
उलटा नाम जपत जग जाना।
बाल्मीकि भये ब्रह्म समाना ।।
जान आदि कवि नाम प्रतापू।
भयेउ सुद्ध करि उलटा जापू ।।
(रामचरितमानस)
सज्जनो! जरा गंभीरतापूर्वक विचारिये, उलटा नाम क्या होता है? उलटा नाम का तात्पर्य क्या होता है? कितने ही लोगों का यह कथन है कि रत्नाकर बहुत बड़ा डाकू था, हत्यारा था। उसने बहुतों की हत्या की थी। वह इतना बड़ा पापी था कि मुँह से राम-राम का उच्चारण नहीं कर सकता था। चूँकि बहुत लोगों को उसने मारा था, इसलिए उसके मुँह से ‘राम-राम’ न निकलकर ‘मरा-मरा’ शब्द निकलता था। इस तरह ‘मरा-मरा’ कहते-कहते ‘राम-राम’ हो गया और उसका उद्धार हो गया।
आज जो थोड़ा-सा भी ज्ञान रखते हैं, थोड़ी-सी भी विद्या जिनके पास है, थोड़ा-सा भी विवेक जिनका संबल है, वे कोई भी बुद्धिजीवी व्यक्ति सोच सकते हैं कि जो कोई वर्णमाला के ‘म’ और ‘रा’ का उच्चारण कर सकता है, उससे ‘रा’ और ‘म’ का उच्चारण नहीं हो सकते, यह कब संभव है? भले ही जिससे ‘म’ का और ‘रा’ का उच्चारण नहीं हो सकते, तो उससे ‘रा’ और ‘म’ का भी उच्चारण नहीं हो सकता है। ये तो देवनागरी वर्णमाला के वर्ण हैं, अक्षर हैं। अतएव यह सरलतापूर्वक समझा जा सकता है कि जो ‘मरा-मरा’ कह सकेगा, वह ‘राम-राम’ भी कहेगा।
दूसरी बात समझने की यह है कि गोस्वामी जी ने ‘उलटा नाम’ लिखा है, न कि ‘उलटा अक्षर।’ ‘राम’ की जगह ‘मरा’ कहने से तो ‘अक्षर’ का उलटना होता है, न कि नाम का।
अतएव अत्यावश्यक है कि हम यह समझने की कोशिश करें कि उलटा नाम क्या है? विपरीत को उलटा कहते हैं। नाम कहते हैं शब्द को। ये शब्द दो प्रकार के होते हैं। एक वर्णात्मक और दूसरा ध्वन्यात्मक। वर्णात्मक शब्द वह है, जो वर्णों में लिखा जाता है और जिसका अर्थ होता है। वर्णात्मक शब्द का अर्थ होता है, इसलिए इसको सार्थक कहते हैं। वर्णात्मक का विपरीत होता है ध्वन्यात्मक। वह वर्णों में नहीं लिखा जाता है और उसका अर्थ भी नहीं होता, इसलिए उसको निरर्थक कहते हैं। हम जो मुँह से राम शब्द का उच्चारण करते हैं, वह वर्णात्मक शब्द है और इसका अर्थ भी है, जैसे-रघुवंशी राम, भृगुवंशी परशुराम, यदुवंशी बलराम। लेकिन एक ऐसा भी राम-नाम है, जो वर्णात्मक नहीं, ध्वन्यात्मक है। उसी ध्वन्यात्मक रामनाम के लिए गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने लिखा है-
बन्दउँ राम नाम रघुवर के।
हेतु कृषानु भानु हिमकर के ।।
विधि हरिहरमय वेद प्रान सो।
अगुन अनुपम गुन निधान सो ।।
राम अर्थात् जो सबमें रमण करे, जिसमें योगी जन रमण करें। रामनाम=सर्वव्यापक शब्द। गो0 तुलसीदासजी कहते हैं-मैं रघुवर के रामनाम की वंदना करता हूँ। जो कृशानु, भानु और हिमकर का हेतु है। कृशानु का अर्थ होता है-अग्नि। भानु का अर्थ होता है-सूर्य और हिमकर का अर्थ होता है-चन्द्रमा। कृशानु में से ‘र’ निकाल लीजिए, तब क्या होगा? किशानु, जिसका अर्थ अग्नि नहीं होगा। भानु में से ‘आ’ निकाल लीजिए, तब क्या होगा? भनु, जिसका अर्थ सूर्य नहीं होगा। हिमकर से ‘म’ निकाल लीजिए, तब क्या होगा? हिकर, जिसका अर्थ चन्द्रमा नहीं होगा। तात्पर्य क्या हुआ? कृशानु में से ‘र’ लिया, भानु में से ‘आ’ लिया और हिमकर में से ‘म’ निकाल लिया, तीनों मिलाकर क्या हुआ? राम। यही राम उक्त तीनों-अग्नि, सूर्य और चन्द्रमा का कारण है। यह भेद है नाम का। पुनः रामनाम की विशेषता बतलाते हुए गोस्वामीजी कहते हैं-
विधि हरिहर मय वेद प्रान सो।
अगुन अनुपम गुन निधान सो।।
अर्थात् वह ब्रह्मा, विष्णु और महेशमय है। ब्रह्मा, विष्णु और महेश क्या हैं? ब्रह्मा उत्पादक शक्ति है, विष्णु पालक शक्ति और रूद्र विनाशक शक्ति है। जिस राम से तीनों शक्तियाँ उत्पन्न हुई हैं, वह कौन है? वह है-ओ3म्। इस ओ3म् की विशद व्याख्या हमारे गुरुदेव ने इस भाँति की है-
अव्यक्त अनादि अनन्त अजय, अज आदि मूल परमातम जो ।
ध्वनि प्रथम स्फुटित परा धारा, जिनसे कहिये स्फोट है सो ।।
है स्फोट वही उद्गीथ वही, ब्रह्मनाद शब्दब्रह्म ओ3म् वही ।
अति मधुर प्रणव ध्वनि धार वही, है परमातम-प्रतीक वही ।।
प्रभु का ध्वन्यात्मक नाम वही, है सारशब्द सत्शब्द वही ।
है सत् चेतन अव्यक्त वही, व्यक्तों में व्यापक नाम वही ।।
है सर्वव्यापिनि ध्वनि राम वही, सर्व-कर्षक हरि कृष्ण नाम वही ।
है परम प्रचण्डिनि शक्ति वही, है शिव शंकर हर नाम वही ।।
पुनि राम नाम है अगुण वही, है अकथ अगम पूर्णकाम वही ।
स्वर-व्यंजन-रहित अघोष वही, चेतन ध्वनि-सिन्धु अदोष वही ।।
है एक ओम् सत्नाम वही, ऋषि-सेवित प्रभु का नाम वही ।
x x x x x मुनि-सेवित गुरु का नाम वही ।
भजो ॐ ॐ प्रभु नाम यही, भजो ॐ ॐ ‘मेँहीँ’ नाम यही ।।
(महर्षि मेँहीँ-पदावली)
इसलिए उसको वेद का प्राण कहा है। वेद के जितने मंत्र हैं, प्रत्येक के आरंभ में ओ3म् जुड़ा हुआ है। यही हेतु है कि बिना ओ3म् का उच्चारण किये वेदमंत्र का उच्चारण नहीं किया जाता है। स्मरणीय है कि जिस ओ3म् का हम मुँह से उच्चारण करते हैं, वह ओ3म् यह नहीं है। वह ओ3म् कैसा है? ज्ञान-संकलिनी तंत्र में लिखा है-
अघोषमव्यंजनमस्वरं च अतालुकण्ठोष्ठमनासिकञ्च ।
अरेफजातं परमुष्मवर्ज्जितं तदक्षरं न क्षरते कदाचित् ।।
और भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता में ओ3म् के संदर्भ में बतलाया है-
सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च ।
मूध्र्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम् ।।12।।
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन् ।
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम् ।।13।।
समस्त इन्द्रिय-द्वारों का संयमन करके, मन को हृदय में निरुद्ध करके, प्राण को धारण करके, आत्म-समाधि रूप योग का आश्रय लेकर इस ओ3म् ब्रह्मरूप एकाक्षर शब्द का ध्यान करते हुए जो शरीर का त्याग करते हैं, वे परम गति को प्राप्त करते हैं।
उनके कहने का आशय यह है-अगर ओ3म् को जानना चाहते हो, तो इन्द्रियों के जितने द्वारा हैं, सभी का संयमन करो और मन को हृदय में निरुद्ध कर लो, तब ओ3म् का स्मरण करो। विवेकी जन विचार सकते हैं कि जब सब इन्द्रियों के द्वार बंद हो जाएँगे और मन की गति भी नियंत्रित (अवरुद्ध) हो जाएगी, तब ओ3म् का उच्चारण कैसे किया जा सकता है? यदि इसके उत्तर में कहा जाएगा कि बाहर की इन्द्रियों का संयम कर मन-ही-मन उच्चारण किया जाएगा, तो यह भी युक्ति-युक्त नहीं है; क्योंकि मन को हृदय में रोककर रखने के लिए कहा गया है।
‘मनो हृदि निरुध्य च’। ऐसी स्थिति में जिज्ञासा हो सकती है कि जब समस्त इन्द्रियों के द्वार बंद हो गये, मन भी निरुद्ध हो गया, तब ओ3म् को जानेगा कौन? इसके उत्तर में संत दरिया साहब कहते हैं-
मन बुद्धि चित हंकार की, है त्रिकुटी लग दौड़ ।
जन दरिया इनके परे, ब्रह्म सुरत की ठौर ।।
तथा हाथरस-निवासी संत तुलसी साहब के वचन में है-
सहस कँवल दल पार में, मन बुद्धि हिराना हो ।
प्रान पुरुष आगे चले, सोइ करत बखाना हो ।।
आशय यह है कि जहाँ मन, बुद्धि आदि इन्द्रियों की गति नहीं रहती, वहाँ सुरत-प्राणपुरुष-चेतन आत्मा चलेगी। इसी को इसका ज्ञान होगा और यही तत्संबंधी साधना करेगी।
इस दृष्टि से यह स्पष्ट है कि वर्णित ओ3म् वर्णात्मक नहीं, ध्वन्यात्मक है। ध्वन्यात्मक में भी जड़ात्मक मंडल का जड़ शब्द नहीं, चेतन-मंडल का चेतन शब्द है। इसी को श्रीमद्भागवत में प्राणमय शब्द कहा गया है। यथा-
शब्दब्रह्म सुदुर्बोधं प्राणेन्द्रियमनोमयम्।
अनन्तपारं गम्भीरं दुर्विग्राह्यं समुद्रवत्।।36, अ031।।
अर्थात् शब्दब्रह्म अत्यन्त दुर्बोध है। यह प्राणमय, मनोमय और इन्द्रियमय तीन प्रकार का है तथा समुद्र के समान अनंतपार, गंभीर और कठिनता से पार किये जाने योग्य है। इन्द्रियों के द्वारा जिन शब्दों को हम ग्रहण कर सकते हैं, वे इन्द्रियमय हैं। मन के द्वारा गृहीत वा मन के संचरण में जो शब्द होता है, वह मनोमय है तथा प्राण के द्वारा जो शब्द ग्रहण होता है, वह प्राणमय है, कथित ओ3म् प्राणमय है।
इतने विवेचन के बाद भी यदि किन्हीं की समझ में आवे कि वह ओ3म् वा राम-नाम सगुण ही है, तो उनके भी भ्रम निवारणार्थ गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज की उपर्युक्त चौपाइयों के बाद पुनः कहते हैं-
विधि हरिहर मय बेद प्रान सो।
अगुन अनुपम गुन निधान सो।।
अर्थात् भाई! वह शब्द सगुण नहीं, अगुण- निर्गुण है। अनुपम=उपमारहित है और गुणनिधान यानी गुणों का खजाना है। उस रामनाम के संदर्भ में प्रातः स्मरणीय परम पूज्य अनंत श्रीविभूषित सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज कहते हैं-
रामनाम अमर नाम, भजो भाई सोई ।
सोई सतधुन सब, घट-घट होई ।। 1 ।।
परा न पश्यन्ति न, मधिमा न बैखरि न,
वर्णात्मक हतधुन नहि कोई ।। 2 ।।
अनहत अनाहत, परसावे सत पद,
पहुँचि जहाँ पुनि, भव नहि होई ।। 3 ।।
गुरु भेद धरि-धरि, दिव्य दृष्टि करि-करि,
तीन बन्द बन्द करि, भजो नाम सोई ।। 4 ।।
‘मेँहीँ’ मेँहीँ ध्वनि, अन्तर अन्त सुनि,
सुरत रमे गुरु आश्रित होई ।। 5 ।।
(शांति-सन्देश, मई 1978)
श्रीमद्भगवद्गीता के पन्द्रहवें अध्याय में भगवान् श्रीकृष्ण ने तीन पुरुषों-क्षर पुरुष, अक्षर पुरुष और पुरुषोत्तम का वर्णन किया है, यथा-
द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश््याक्षर एव च ।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते ।।16।।
उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः ।
यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः ।।17।।
अर्थात् इस संसार में विनाशी और अनाशी, ये दो प्रकार के पुरुष हैं। इन दोनों में समस्त प्राणियों के शरीर तो नाशवान यानी क्षर हैं और उन नाशवानों में निवास करनेवाली जो जीवात्मा है, उसको नाशहीन यानी अक्षर कहते हैं।
पुनः उन दोनों विनाशी और अनाशी पुरुषों से भी उत्तम अविनाशी पुरुष है, जो पुरुषोत्तम पुरुष कहलाता है और त्रयलोक में व्यापक होकर सबका धारण-पोषण करता है, वस्तुतः वही परमात्मा-परमेश्वर है। संत कबीर साहब कहते हैं-
सर्गुण की सेवा करो, निर्गुण का करु ज्ञान ।
निर्गुण सर्गुण के परे, तहैं हमारा ध्यान ।।
सगुण क्षर है और निर्गुण अक्षर। इन दोनों के परे परमात्मा है, ऐसा संत कबीर साहब का भी विचार है। श्रीमद्भगवद्गीता के भाव को इन्होंने अपनी भाषा में इस भाँति अभिव्यक्त किया है। यथा-
छर अच्छर निःअच्छर बूझै, सूझि गुरू परिचावै ।
छर परिहरि अच्छर लौ लावै, तब निःअच्छर पावै ।।
भगवान् श्रीकृष्ण ने जिसको पुरुषोत्तम पुरुष कहा है, संत कबीर साहब ने भी उसकी को निःअच्छर शब्द से संबोधित किया है-
अच्छर गहे विवेक करि, पावै तेहि से भिन्न ।
कहै कबीर निःअच्छरहिं, लहै पारखी चीन्ह ।।
संत गुरु नानकदेवजी भी सगुण-निर्गुण के परे का परमात्मा मान्य है। उन्होंने बतलाया है कि वह सर्वेश्वर-सर्वाधार सगुण यानी रज, सत, तम के परे है। इसका अर्थ यह नहीं कि वह निर्गुण है। बल्कि निर्गुण से भी वह परे है और निर्लिप्त रहते हुए सर्वत्र भरकर है।
निर्गुण सर्गुण त्रिहु गुण ते दूरि ।
नानक अलिप्तु रहिआ भरपूरि ।।
इस विषय पर प्रातः स्मरणीय परम पूज्य अनंत श्रीविभूषित संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज के विचार पठनीय हैं। उन्होंने कहा है- “ परम प्रभु सर्वेश्वर व्याप्य अर्थात् समस्त प्रकृति मंडल में व्यापक हैं; परन्तु व्याप्य को भर कर ही वे मर्यादित नहीं हो जाते हैं। वे व्याप्य के बाहर और कितना अधिक है, इसकी कल्पना भी नहीं हो सकती; क्योंकि वे अनंत हैं।” गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज के शब्दों में हम कह सकेंगे-
व्यापक व्याप्य अखंड अनंता।
अखिल अमोघ शक्ति भगवंता।।
प्रकृति पार प्रभु सब उर बासी।
ब्रह्म निरीह बिरज अबिनासी।।
संत दादू दयालजी महाराज के विचार में है- प्रभु अगम है, अकथ है, अविगत है, सर्वगत है और अंतरपट के अंत में अवगत होता है। वह सगुण तो है ही नहीं, अगुण भी नहीं है; किन्तु तीन शून्यों-अंध- कार, प्रकाश और शब्द के परे विद्यमान है; यथा-
अविगत अंत अंत अंतरपट, अगम अगाध अगोई।
सुन्नी सुन्न सुन्न के पारा, अगुण सगुण नहिं दोई।।
संत गरीबदासजी महाराज ने सगुण और निर्गुण को प्रभु का अंश माना है और कहा है कि पिंड-ब्रह्मांड सबको भरपूर करने के बाद भी वे रमते राम हैं अर्थात् इसके भी परे हैं। यथा-
निरगुन सरगुन सब कला, बहुरंगी बरियाम ।
पिंड ब्रह्मांड पूरन पुरुष, अवगत रमता राम ।।
अंत में, परम पूज्य सद्गुरुदेव के वचन में हम कह सकेंगे-जड़ात्मक सगुण प्रकृति वा अपरा प्रकृति नाना रूपों में रूपान्तरित होती रहती है। इसलिए इसे क्षर और असत् कहते हैं। चेतनात्मक निर्गुण प्रकृति वा परा प्रकृति रूपांतरित नहीं होती, इसीलिए इसको अक्षर और सत् कहते हैं। परम प्रभु सर्वेश्वर सत् और असत् तथा क्षर और अक्षर से परे हैं।
सब क्षेत्र क्षर अपरा परा पर, औरु अक्षर पार में।
निर्गुण सगुण के पार में, सत् असत् हू के पार में।।
(शांति-सन्देश, जून 1978)
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तीन प्रकार के प्राणी हुआ करते हैं। एक को जड़ प्रधान, दूसरे को कर्म प्रधान और तीसरे को ज्ञान प्रधान कहते हैं। जड़ प्रधान प्राणियों में वृक्ष, पर्वत आदि हैं। कर्म-प्रधान प्रािणयों में पशु-पक्षी आदि हैं। ज्ञान-प्रधान प्राणी में मानव हैं। मानव बुद्धिमान प्राणी हैं, ज्ञानवान प्राणी हैं। और इसके ज्ञान का विकास इतना हो सकता है कि वह अपना विकास करते-करते उस परब्रह्म परमात्मा का प्राप्त कर उस स्वरूप में एकमेक हो सकता है।
हमलोगों का शरीर अस्वस्थ होता है। डॉक्टर और वैद्य के पास जाते हैं, चिकित्सा कराते हैं। महात्मा गाँधीजी ने कहा- “ स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मन का वासा हो, तो पूर्ण स्वस्थ हैं।” अपने शरीर की स्वस्थता के लिए अच्छे-से-अच्छे वैद्य, अच्छे-से- अच्छे डॉक्टर से अच्छी-से-अच्छी चिकित्सा कराते हैं। शरीर की चिंता जितनी हमलोगों को रहती है, मन की चिंता शायद कम रहती है। हमारा मन रोगी है या नीरोगी है, इसकी परवाह हमलोग नहीं करते। जबकि शरीर रोगाक्रान्त होकर अगर छूट भी जाए, तो उससे एक जन्म का जीवन जाता है, किन्तु मन अगर अस्वस्थ होकर इस शरीर के साथ चला जाय, तो जन्म-जन्मांतर दुःखों में भटकना पड़ता है।
साधारणतया लोग कहते हैं कि हमलोगों का मन बीमार कहाँ है? रोगी कहाँ है? मन तो बिल्कुल साफ है, स्वच्छ है, पवित्र है। संत-महात्मा लोग कहते हैं-गहराई में पैठकर देखो, तुम्हारा मन स्वस्थ है या अस्वस्थ है? जो चीनी हमलोग खाते हैं, देखने में बड़ी अच्छी मालूम पड़ती है-साफ। कुछ भी मैल उसमें मालूम नहीं पड़ती। लेकिन चूल्हे पर उसे चढ़ाओ, पानी में घोल दो, नीचे से आग दो, तो देखोगे कि मैल उससे निकल रही है। फिर उसमें दूध डालते हैं और उसकी मैल काटकर निकालते हैं। जिस तरह चीनी साफ मालूम पड़ती है; लेकिन उसमें मैल है, उसी तरह हमलोग समझते हैं कि हमारा मन नीरोग है, लेकिन मन में रोग है। इस मन के रोग का पता कब चलता है? जिस तरह से चीनी को चूल्हे पर चढ़ाकर आँच देते हैं, तो मैल मालूम पड़ती है, उसी तरह जब आप ध्यान करने बैठिये, तब देखिये आपका मन रोगी है या नहीं है। बैठते हैं हम जाप करने के लिए; लेकिन जाप करते-करते ही हम कितना पाप करने लगते हैं, ठिकाना नहीं। बैठते हैं हमलोग पूजा करने के लिए; लेकिन विषय का भूँजा फाँकने लग जाते हैं वहाँ। यह क्या है? यह नीरोग मन का लक्षण नहीं है। जिसके मन में काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य-ये षट विकार हैं, क्या वह मन भी कभी नीरोग कहा जा सकता है? जबतक हम षट्विकार के शिकार होते जाते हैं, तबतक हमारा मन रोगी है। अपने हृदय पर हथेली रखकर क्या हम कोई कह सकते हैं कि हमारे मन में कोई विकार नहीं। गो0 तुलसीदासजी महाराज कहते हैं-
काम वात कफ लोभ अपारा।
क्रोध पित्त नित छाती जारा ।।
प्रीति करहिं जौं तीनिउ भाई।
उपजहिं सन्निपात दुखदाई ।।
काम का विकार वात रोग है, कफ का विकार ‘लोभ अपारा’। ‘क्रोध पित नित छाती जारा’। अब किन्हीं अच्छे कविराज से पूछिए, जहाँ ये तीनों मिल जाएँ-कफ, पित्त, वात; उस रोगी की क्या हालत होगी? त्रिदोष की बीमारी हो गई। ‘उपजै सन्निपात दुखदाई’। जब हमारे अंदर में काम, क्रोध, लोभ-ये तीनों हैं, तो हमारा मन स्वस्थ है या अस्वस्थ है, समझिए। किस प्रकार का रोग है, यह भी समझिए।
विषय मनोरथ दुर्गम नाना।
ये सब सूल नाम को जाना।।
ये सब रोग हैं। ये ही रोग हमलोगों को बंधन में डालते हैं। बंधन ही दुःख का कारण है। ‘मन एव मनुष्याणां कारण बन्धमोक्षयोः।’ मन ही बंधन में डालता है, मन ही मुक्त करता है। जबतक हमारे अंदर के विकार हैं, बंधन है। इन विकारों से मुक्त हो जाएँ, तो हम बंधन से मुक्त हो जाएँगे। इन विकारों से हम कितने आक्रान्त हैं कि आध्यात्मिकता हमको सूझ नहीं रही है। मूचिर््छत है अध्यात्म-ज्ञान की ओर से। संत महात्मा लोग कहते हैं-देखो मन की अवस्था। खोज करके देखो, टटोल करके देखो। विचार की दृष्टि से देखो। संसार में तीन प्रकार के लोग हैं-
विषयी साधक सिद्ध सयाने।
त्रिविध जीव जग बेद बखाने।।
-गोस्वामी तुलसीदास
एक विषयी प्राणी होते हैं, दूसरे साधक होते है और तीसरे सिद्ध होते हैं। संतों ने उपमा दी हैं। विषयी लोग कैसे होते हैं? जिस तरह से गुबरैला मक्खी होती है। साधक लोग कैसे होते हैं, जैसे हमलोगों के घरों की जो मक्खियाँ हुआ करती हैं, वैसे और जो लोग सिद्ध होते हैं, वे कैसे होते हैं? वे होते हैं मधुमक्खी जैसे। गुबरैला कहते हैं, उस मक्खी को जो बाहर मैदान में लोग टट्टी (शौच) करने जाते हैं न, उन टट्टियों को वह इकट्ठा करती है गोली बना-बनाकर। नजदीक ही में फुलवाड़ी हो, अच्छे-से-अच्छे फूल लगे हों, कितनी भी उत्तम सुगंध उस फुलवाड़ी में क्यों न हो; लेकिन वह गुबरैला मक्खी फुलवाड़ी में नहीं जाती है। एक संत ने कहा-
भूत पिशाच जो पूजते हैं, वे जाकर होवै भूत है जी।
भगवान श्रीकृष्ण ने भी तो कहा है-‘भूतों की पूजा करनेवाले भूतलोक को जाते हैं, पितृ की पूजा करनेवाले पितृलोक को जाते हैं। मेरा भजन करनेवाले मेरे पास आते हैं। संत कहते हैं-
भूत पिशाच जो पूजते हैं, वे जाकर होवै भूत है जी ।
भूत जोनि भरमत फिरै, याको नहीं याकूत है जी ।।
गुबरैला फूल पर न बैठे, वह जाकर बैठे गुह-मूत पे जी ।
पलटू कुल रीत नहिं छोड़ै, जहाँ बाप गया वहाँ पूत है जी ।।
जैसे वह गुबरैला मक्खी पाखाने की गोलियाँ बनाती है, उसी तरह जो विषयी लोग होते हैं, वे विषयों का ही मंथन करते रहते हैं। कितनी भी सत्संग की चर्चा हो; लेकिन वे वहाँ नहीं जायेंगे; क्योंकि उनको विषयों से ही फुर्सत नहीं है। ये होते हैं विषयी। दूसरे होते हैं साधक। साधना करनेवाले साधना करते हैं। उनकी उपमा दी गई है घरों की मक्खियों से। हमारे घरों में जो मक्खियाँ होती हैं, वे क्या करती हैं? हमारे यहाँ जो मिठाइयाँ बनती हैं, उन मिठाइयों का स्वाद लेती हैं। यदि बच्चे ने पाखाना कर दिया है, तो उड़कर पाखाना पर भी जा बैठती हैं। पाखाने पर भी जायेंगी वे उड़कर और मिठाई पर भी उड़कर आयेंगी। यह साधक की अवस्था है। साधना करता है भगवान की भक्ति का रसास्वादन करने के लिए; लेकिन उसका मन उड़-उड़कर कभी विषयों की फुलवाड़ी में भी जाता है और इधर से उड़ा दीजिए तो भगवान का जप-तप करने लगेगा। यह है साधक की गति। और जो सिद्ध लोग होते हैं, वे मधुमक्खी के समान केवल मधु-संग्रह करते हैं-भगवद्रस केवल लेते हैं। अब हम अपने को समझ लें कि किसमें हैं? दूसरे को कहने की आवश्यकता नहीं है, हम किस श्रेणी में हैं, अपने समझ लें और उसके लिए उपाय करें।
रोगी मन के लिए दवा चाहिए। लक्ष्मणजी को वाण लग गया मेघनाद का। मूर्च्छित हो गये। अब बतलाया गया कि अगर रातभर में औषधि आयी, तब तो लक्ष्मण के प्राण बचेंगे, अन्यथा बचने की आशा नहीं है। वहाँ जाने में कई साल का समय लगता है। केवल रातभर की अवधि है। भगवान बड़े चिंतित हुए। हनुमानजी ने देखा कि हमारे प्रभु बहुत ही चिंतित हैं, उन्होंने कहा, ‘भगवन्! आप क्यों चिंतित हैं?’ तो भगवान ने कहा, ‘देखो, रातभर की अवधि है। अमुक-अमुक औषधियाँ हैं। अगर लायी जायँ, तो लक्ष्मण बच सकते हैं, अन्यथा लक्ष्मण के जीवन से हाथ धोना पड़ेगा। लक्ष्मण नहीं रहेगा, तो कौन-सा मुँह लेकर मैं अयोध्या जाऊँगा।’ हनुमानजी ने कहा, ‘भगवन्! आपको चिंता करने की कोई आवश्यकता नहीं। मैं ले आऊँगा दवा।’ भगवान राम ने पूछा, ‘जाने-आने में दस साल लगते हैं। रातभर में ला सकोगे?’ उन्होंने कहा, ‘आपकी कृपा चाहिए, आपका आशीर्वाद चाहिए।’
हनुमानजी चले औषधि लाने के लिए। चार प्रकार की औषधियाँ उनको बतलायी गयी थीं, सुषेण वैद्य ने बतलायी थी। हनुमानजी चले। इधर गुप्तचर लगा हुआ था रावण का कि राम क्या कर रहे हैं? गुप्तचर खबर देता है रावण को कि औषधि लाने को चल पड़ा है हनुमान। रावण के वश में सभी देवता थे। उन्होंने सूर्य से कहा, ‘जाकर तुम उदयाचल पर उदित हो जाओ।’ सूर्य ने कहा, ‘अभी आधी रात हुई है, आधी रात अभी बाकी है। रात पूरी होगी, तभी मैं उदित होऊँगा।’ रावण ने कहा, ‘नहीं, तुम्हें अभी उदित होना है।’ तबतक हनुमानजी पहुँच गये वहाँ, जहाँ औषधि थी। औषधि खोज रहे हैं पहाड़ पर। इधर कुछ साफ-सा मालूम पड़ने लगा। हनुमानजी ने सोचा, ‘अन्याय हो गया। उदित हो गया सूर्य, तो दवाई लेकर मैं क्या करूँगा?’ मारी छलांग, पहुँच गये सूर्य के पास। सूर्य से कहा, ‘सुनिये, आप देवता के पक्ष में हैं कि दानव के पक्ष में?’
सूर्य ने कहा, ‘हूँ तो देवता के पक्ष में; लेकिन दानव के वश में हूँ, तो उपाय क्या है?’ हनुमानजी ने पूछा-‘तो क्या आप उदित हो जायेंगे?’ उन्होंने कहा, ‘रावण की आज्ञा है, उदित होने की।’ हनुमानजी ने कहा, ‘एक बात मैं आपके कान में कहता हूँ। मेरी बात सुन लीजिए। फिर आपको उदित होना हो, तो हो लीजिएगा।’ सूर्य को अपने पास जैसे ही बुलाया कि पकड़कर अपनी काँख में दबा लिया। चले गये पहाड़ पर। औषधि लेकर आये लक्ष्मणजी के पास।
सुषेण वैद्य ने उन औषधियों को निकाला। कथा लंबी है, उस ओर नहीं जाऊँगा। एक औषधि का नाम था विशल्यकरणी, दूसरी औषधि का नाम था अस्थिसंचारिणी, तीसरी औषधि का नाम था सुवर्णकरणी, चौथी औषधि का नाम था मृतसंजीवनी। पहली औषधि सुँघायी गयी लक्ष्मणजी को, तो उसका नाम ही था विशल्यकरणी, जितनी लगी हुई थीं उनके शरीर में तलवारें, तीर, भाले सबके-सब आप ही निकल गये। दूसरी अस्थि संचारिणी जड़ी सुँघायी गयी। जो उनकी हड्डियाँ टूट गयी थीं, मुड़ गयी थीं, इसके सुँघाने से सारी-की-सारी हड्डियाँ अपनी- अपनी जगह पर जुट गयीं। हड्डियाँ जुट गयीं, लेकिन हथियार लगने के घाव शरीर में थे। सुवर्णकरणी जड़ी सुँघायी गयी। सभी घाव मिट गये, दाग कुछ भी नहीं रहा। सोने के समान शरीर सुवर्णकरणी जड़ी के सुँघाने से हो गया। पीछे उनको मृतसंजीवनी जड़ी सुँघायी गयी। जीवित हो उठे।
लक्ष्मणजी को तो मेघनाद का वाण लगा हुआ था और हमलोगों को काल का वाण लगा हुआ है। काल के गाल से कोई बच नहीं सकता। काल के आगे किसी की दाल नहीं गल सकती। लेकिन परमात्मा-रूपी लाल को जो पा सकता है, उसी का जीवन निहाल हो सकता है। ये जड़ियाँ, ये ज्ञान हमलोगों को भी चाहिए। संतमत बतलाता है कि ये जड़ियाँ हैं-जिसको विशल्यकरणी कहते हैं, वह है मानस जप। जिसको अस्थिसंचारिणी कहते हैं, वह है मानस ध्यान। जिसको सुवर्णकरणी कहते हैं, वह है दृष्टियोग। जिसको मृतसंजीवनी कहते हैं, वह है नादानुसंधान। जो कोई ठीक-ठीक मानस जप कर पाता है, उसके जितने विकृत विकार हैं, वे सब दूर हो जाते हैं। जप में जप और जापक रहे, बीच में कुछ न रहे, वह है जप। यह जप नहीं है, यह सुमिरन नहीं है कि-
माला तो कर में फिरै, जीभ फिरै मुख माहिं ।
मनुआँ तो दह दिसि फिरै, यह तो सुमिरन नाहिं ।।
एक बार बादशाह अकबर गये शिकार खेलने के लिए और समय हो गया नमाज पढ़ने का। उसी जंगल के एक बगल में उन्होंने चादर बिछा दी और नमाज पढ़ने लग गये। एक कोई महिला थी, जिसके पति को विदेश गये कुछ वर्ष हो गये थे। किसी ने आकर कहा, ‘तुम्हारे पति आ रहे हैं।’ विह्वल होकर उनसे मिलने के लिए वह बढ़ी अपने घर से। बादशाह की चादर पर होती हुई वह आगे बढ़ गयी। बादशाह अकबर नमाज पढ़ रहे थे, उस समय वे कुछ बोले नहीं। मन में कुछ खेद हुआ तो जरूर। वह महिला जब वापस लौटी कि नमाज समाप्त हो गया। बादशाह लाल-लाल आँखें करके बोले कि तुमको कुछ तमीज नहीं है! तुमने देखा नहीं कि मेरी चादर बिछी थी नमाज पढ़ने की, उसपर से तुम चली गयी। वह महिला कहती है-
नर राची सूझी नहीं, तू कस लखे सुजान ।
पढ़ी कुरान बौरे भये, ना राची रहमान ।।
वह महिला कहती है, ‘मैं तो जागतिक पुरुष के प्रेम में इतनी पग गयी थी कि मेरा पग कहाँ पड़ रहा था, यह मुझे मालूम नहीं था। लेकिन आप तो जगत्पति की आराधना कर रहे थे, आपकी दृष्टि कैसे पड़ गयी मुझपर!’ तो यह जप नहीं है। जप में एकाग्रता चाहिए। जप जब एकाग्रतापूर्वक होता है, तो शास्त्र कहता है, ‘जपात् सिद्धिः’ जप से सिद्धि मिल जाती है।
एक सत्संगी का लड़का अभी भी मौजूद है। जिस समय गुरु महाराज स्वस्थ थे, स्वयं दीक्षा दिया करते थे, वह लड़का उस समय आई0एससी0 में पढ़ता था। दीक्षा ली थी गुरु महाराज से। उसने कुछ किया। उसमें यह सिद्धि आ गयी थी कि आप जो प्रश्न करते, उस प्रश्न का उत्तर वह मुँह से नहीं दिया करता था। लकड़ी के कोयले को पीसकर पुड़िया बनाकर रखे हुए था। जब कोई प्रश्न पूछते तो उस काजल को वह अपनी बाँह पर लेप लेता है। प्रश्न का उत्तर उसकी बाँह में निकल आता। यह तमाशा करने लगा वह। गुरु महाराज को यह बात मालूम हुई। गुरु महाराज ने उसके पिता से कहा, ‘लड़के को मना कर दीजिए। यह सब तमाशा की चीज नहीं है।’ उसको मनाही की गयी। लेकिन लड़के ने मानी नहीं बात। गुरु महाराज ने कहा, ‘उसको यहाँ भेज दीजिए।’ उसके पिता उसको लेते हुए यहाँ कुप्पाघाट आये। कुप्पाघाट आश्रम में बहुत-से लड़के रहते हैं। उनलोगों ने पूछा, ‘बताओ, इस बार हम परीक्षा में फेल होंगे या पास? कितने नम्बर आयेंगे?’ वह बताने लगा उनको। लड़के की बारी जब खत्म हो गयी, तो बड़के की बारी आयी। कहा-‘चलो, गुरु महाराज के सामने ही पूछेंगे, उत्तर देना, तो समझेंगे कि ठीक है।’ गुरु महाराज ने तो मनाही कर दी थी।
मायापति सेवक सन माया ।
करइ तो उलटि परइ खगराया ।।
जिनकी माया था, उनके सामने ही वह माया दिखाने पहुँच गया। गुरु महाराज बैठे हुए थे और जो सत्संगी लोग वहाँ थे, वे सब भी बैठ गये। प्रश्न कर दिया। काजल उसने पोता। काजल पोता ही रह गया, कुछ नहीं निकला, समाप्त हो गया।
जो एकाग्रतापूर्वक जप भी कर पाता है, उसमें सिद्धि आ जाती है; लेकिन यह दिखलाने की चीज नहीं है। एक बंगाली महात्मा ने कहा है-
जाँक जम के कर्ले पूजा, अहंकार हय मने मने ।
तूमि लुकिये ताँरे कर्बे पूजा, जानबे ना रे जगज्जने ।।
रामकृष्ण परमहंसजी महाराज ने कहा, ‘यथार्थ में जो ध्यान करनेवाले होते हैं, रात में जब सब सो जाते हैं, तो वे ध्यान करते हैं।’ लगता है कि वे सोये हुए हैं। यह दिखाने की चीज नहीं है। एकाग्रतापूर्वक यदि जप हो जाए, तो जितने दुर्विकार है, दूर हो जाते हैं, जैसे सभी शल्य निकल जाते हैं।
जो कोई मानस ध्यान करते हैं, वह ध्यान अस्थिसंचारिणी जड़ी का काम करता है। अस्थि संचारिणी जड़ी से टूटी हुई हड्डियाँ आकर जुड़ जाती हैं अर्थात् हमारी बिखरी हुई वृत्तियाँ आकर जुड़ जाती हैं। अगर मानस ध्यान ठीक से कोई कर पाता है, तो गुरु नानक देवजी कहते हैं-
सतगुर की मूरति रिदै बसाए। जो ईछै सोई फल पाए।
अगर ठीक-ठीक मानस ध्यान कर पाता है, तो जो कामना करेगा, वह पूरी हो जाएगी। आपलोगों ने पढ़ी होगी कथा एकलव्य की। एकलव्य आचार्य द्रोण के पास गया था धनुर्विद्या सीखने के लिए। लेकिन द्रोणाचार्य ने धनुर्विद्या नहीं सिखलायी। उन्होंने कहा, ‘मैं केवल राजपुत्रें को ही यह विद्या सिखलाता हूँ। लेकिन इसने धारण कर लिया अपने मन में कि ये ही गुरु हैं। आचार्य द्रोण की मूर्ति की प्रतिष्ठा करता है वह जंगल में आकर। उनका वह ध्यान करता है और जैसे-जैसे संकेत मिलता है, वैसे वैसे वह शर- संधान करता है। शर-संधान करते-करते वह इतना कुशल निकलता है कि कोई उसकी बराबरी नहीं कर सकता। आचार्य द्रोण ने अर्जुन से कहा था कि तुमसे बेशी किसी को नहीं सिखलाऊँगा। वह अर्जुन से भी विशेष निकला। जब सब-के-सब पाँचो भाई पांडव गये जंगल में आचार्य द्रोण के साथ, तो उनके साथ में एक कुत्ता भी गया था।
एकलव्य बैठकर ध्यान कर रहा था। कुत्ता भूँकने लग गया। ध्यान उसका भंग हो गया। इतने तीर मारे उस कुत्ते के मुँह में कि उनका मुँह तरकश हो गया। एक भी बूँद खून की नहीं निकली। मुँह भर गया, वापस हुआ कुत्ता। अर्जुन की दृष्टि पड़ी कुत्ते पर। अर्जुन ने पूछा-‘गुरुदेव! आपने तो कहा था कि तुमसे बढ़कर धनुर्विद्या की शिक्षा किसी को नहीं दूँगा। मुझसे बढ़कर यह विद्या किसको दी?’ द्रोण ने कहा, ‘मैंने तो इस तरह की विद्या किसी को नहीं दी है। चलो, आगे इसका भेद खुलेगा।’ सब-के-सब वहाँ पहुँच गये, जहाँ एकलव्य ध्यान कर रहा था। पग की आहट से उसका ध्यान भंग हुआ, तो देखता है कि आचार्य द्रोण हैं। पैर छूकर प्रणाम करता है।
आचार्य द्रोण पूछते हैं, ‘कुत्ते को इस तरह किसने वाण मारा है।’ एकलव्य ने कहा, ‘आपका जो शिष्य है, उसने मारा है।’ द्रोण ने पूछा, ‘वह मेरा शिष्य कौन है?’ उसने कहा, ‘मैं।’ द्रोण ने पूछा, ‘कब तुमने मुझसे शिक्षा ली, कब तुम मेरे शिष्य बने?’ उसने कहा, ‘महाराज! मैं जब आपके यहाँ दीक्षा लेने गया था, तो आपने मुझे दीक्षा नहीं दी थी, तो मैंने आपको गुरु मान लिया और आपकी मूर्ति का गठन करके साधना की, उसका जो परिणाम है, सो आपके सामने है।’ एकलव्य के मन में केवल यही कामना थी कि धनुर्विद्या में मैं कुशल हो जाऊँ, तो कुशल हो गया। यह मानस ध्यान में गुण है। जो मानस जप, मानस ध्यान एकाग्रतापूर्वक कर लेते हैं, तो उनमें वह शक्ति आ जाती है कि वे दृष्टिसाधन करें।
दृष्टि-साधन करने से क्या होता है? दृष्टि की धार जो फैली हुई है, उसको एक करना, यही क्रिया सभी संतों ने बतलायी है। चाहे वे वैदिक धर्मावलंबी हों, चाहे इस्लाम धर्मावलंबी वा ईसाई धर्मावलंबी हों या किसी भी धर्म के माननेवाले क्यों न हों। ईसा मसीह ने कहा था- “ यदि तुम्हारी आँख एक हो जावे, तो तेरा सारा शरीर उजियाला होगा। यदि तुम्हारी आँख एक नहीं है, तो देख लो कितना बड़ा अंधकार है।” यह दृष्टिसाधन की क्रिया है।
मुहम्मद साहब यही सीधा रास्ता बतलाने के लिए आये थे। यही हमलोगों को वेद कह रहा है। उपनिषद् कह रही है- “ तमसो मा ज्योतिर्गमय।’ प्रकाश में जाने की कला है दृष्टि-साधन। जो यह कला जानते हैं, वे अंधकार से प्रकाश में जायेंगे।
कितने तो कहते हैं-प्रकाश तो है नहीं, ज्ञान का विकास हो गया, यही प्रकाश है। लेकिन ज्ञान का विकास होता है कहाँ है? केवल स्कूल और कॉलेज के ज्ञान से जो नॉलेज आता है, वह क्या है? वह पोथी की थोथी बुद्धि है। यथार्थ में अगर प्रकाश पाना चाहें, यथार्थ में जो ज्ञान पाना चाहें, तो ज्ञान का लोक कहाँ है? ज्ञान का लोक आँख से ऊपर है। ज्ञान का लोक आँख से नीचे नहीं है। आँख के नीचे जितना जाइए, अज्ञानता है। आँख से ऊपर जाइये ज्ञान है। ज्ञान की दिशा आँख से ऊपर है।
स्वामी विवेकानन्दजी बी0ए0 थे। आजकल कितने बी0ए0 हैं, ठिकाना नहीं। मगर उतनी प्रतिभा क्यों नहीं है? स्वामी विवेकानंद ने कहा था-‘यह मनुष्य का मस्तिष्क अनंत ज्ञान का भंडार और अछोर पुस्तकालय है।’ अगर विद्वान् बनना चाहते हो, तो मस्तिष्क का अध्ययन करो। कबीर साहब पढे़-लिखे नहीं थे। कभी स्कूल-कॉलेज गये नहीं। ‘मसि कागज छुऔं नहीं, कलम गही न हाथ।’ उनसे किसी ने प्रश्न कर दिया-‘आप स्कूल-कॉलेज गये नहीं, आप इतने बड़े विज्ञानी कैसे हो गये? उन्होंने कहा-
मैं मरजीवा समुँद का, डुबकी मारी एक ।
मुठी लाया ज्ञान का, जामें वस्तु अनेक ।।
कबीर साहब ने समुद्र में डुबकी लगायी और ज्ञान प्राप्त किया। किस समुद्र में डुबकी लगायी थी-हिन्द महासागर में, अरब सागर में, प्रशान्त महासागर में, एटलांटिक महासागर में? पूछा उनसे किसी ने-‘किस समुद्र में डुबकी लगायी, जो ज्ञान मिला। उन्होंने कहा-
कबीर काया समुँद है, अन्त न पावै कोय ।
मिरतक होय के जो रहै, मानिक लावै सोय ।।
‘यह शरीर सागर अवगाहा।
यहि कर कोइ पावत नहिं थाहा।।’
‘अन्तर उलटि निरेखै जोय।
आपा मेटिहैं जावै सोय।।’
संत कबीर साहब कहते हैं-
‘उलटि समाना आप में, प्रगटे ज्योति अनन्त।’
संत गुलाल साहब कहते हैं-
उलटि देखो घट में जोति पसार ।
मुहम्मद साहब ने कहा है, जो कुरान के पहले पन्ने में लिखा हुआ है-हे परवरदीगार! मुझे सीधा रास्ता बतला। उसका रास्ता कौन-सा है? एक फकीर ने बतलाया-
सुन ऐ तकी न जाइयो जिनहार देखना ।
अपने में आप जलवए दिलदार देखना ।।
अपने आप में ही प्रकाश है। बाहर देखने की जरूरत नहीं।
बेहोश हो मत छोड़ियो गर चाहे तू जलवा पिया ।
होगा फजल दरगाह तक खोफो खतर की जा नहीं ।।
सीधे चला जाना वहाँ मुर्शद ने ये फतवा दिया ।।
किसी ने पूछा-आप जो सीधा रास्ता बतला रहे हैं, उसपर कोई चला है क्या? तो कहा-
मन्सूर सरमद बूअली ओ शम्स मौलाना हुए ।
पहुँचे सभी इस राह से जिसने कि दिल पुख्ता किया ।।
यही भगवान श्रीकृष्ण का उपदेश है श्रीमद्- भगवद्गीता के आठवें अध्याय में-
कविं पुराणमनुशासितारमणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः ।
सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूपमादित्यवर्णं तमसः परस्तात् ।।9।।
और वेद में भी है-
वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं तमसः परस्तात् ।
तमेव विदित्वाति मृत्युमेति नान्यः पंथा विद्यतेऽयनाय ।।
-ऋग्वेद 31, मंत्र 18, खं0 2 पृ0 531
वेद जो कह रहा है, वही कुरान कह रहा है, वही बाइबिल कह रहा है। लेकिन खोजकर देखिये, ढूँढ़ करके देखिये, सबका मूल है वेद। वेद से ही सब ज्ञान निकले हैं।
स्वामी विवेकानंदजी महाराज जब शिकागो गये हुए थे, उस समय वहाँ के लोग यही जानते थे कि भारत में आध्यात्मिक ज्ञान कुछ भी नहीं है। बड़ी हेय दृष्टि से देखा करते थे। वहाँ पर क्या किया गया था! मंच जो सजाया गया था, हर धर्म की पुस्तक को सजाया गया था। सबसे ऊपर बाइबिल को रखा गया था। उसके नीचे कुरान को और जितने- जितने धर्म के लोग इकट्ठे हुए थे, सबकी पुस्तकें नीचे और सबसे नीचे वेद रखा गया था।
स्वामी विवेकानंदजी जब पहुँचे, तो उन्होंने पुस्तकों की सजावट देखी। उन्होंने कहा-‘पुस्तकों को जिस ढंग से सजाया गया है, बिल्कुल ठीक है। मैं देखकर बहुत प्रसन्न हुआ हूँ, इसी तरह की सजावट होनी चाहिए। इसमें दिखलाया गया है कि आपलोगों के जितने ज्ञान के ग्रंथ हैं, उनमें सबका आधार वेद है। वेद को यदि आप खींच लेंगे, तो सारी पुस्तकें भरभरा कर गिर पड़ेंगी।’ सारे ज्ञान का आधार है वेद।
जो कोई दृष्टि-साधन की क्रिया करते हैं, तो दिव्य शरीर को प्राप्त करते हैं, यह स्थूल शरीर नहीं, जिसमें मल-मूत्र भरे पड़े हैं। लिंग शरीर मिल जाता है, जड़ के चारो शरीर को देखते हैं। इसके अंदर जो कारण है, इसके अंदर जो महाकारण है, सबको प्रत्यक्ष देखता है व चैतन्य अवस्था को प्राप्त करता है। निर्मल शब्द को प्राप्त करता है। वही सारशब्द है, वही चेतन शब्द है। वही शरीर को सजीव रखता है। जो कोई उस चेतन शब्द को पकड़ता है, उसके सहारे वह परम प्रभु परमात्मा को पाता है। वह है मृतसंजीवनी जड़ी । एक संत ने कहा-यह अमृत क्या है? वह शब्द ही अमृत है-
अमृत नीका कहै सब कोई,
पीये बिना अमर नहिं होई ।।
कोइ कहै अमृत बसै पताल,
नर्क अंत नित ग्रासै काल ।।
कोइ कहै अमृत समुँदर माहिं,
बड़वा अगिन क्यों सोखत ताहि ।।
कोइ कहै अमृत ससि में बास,
घटै बढ़ै क्यों होइहै नास ।।
कोइ कहै अमृत सुरगाँ माहिं,
देव पियें क्यों खिर खिर जाहिं ।।
सब अमृत बातों की बात,
अमृत है संतन के साथ ।।
‘दरिया’ अमृत नाम अनंत,
जा को पी पी अमर भये संत ।।
गुरु नानकदेवजी महाराज कहते हैं-
घर ही महि अंम्रित भरपूर है मनुखा सादु न पाइआ ।
जिउ कस्तूरी मिरगु न जाणै भ्रमदा भरम भुलाइआ ।।
अंम्रितु तजि विखु संग्रहै करतै आपि खुआइआ ।
गुरमुखि विरले सोझी पाई तिना अंदरि ब्रह्मु दिखाइआ ।।
तनु मनु सीतलु होइआ रसना हरि सादु आइआ ।
शबदे ही नाऊ ऊपजै शबद मेलि मिलाइआ ।।
बिनु शबदै सभु जगु बउराना बिरथा जनमु गवाइआ ।
अंम्रित एको शबदु है नानक गुरमुखि पाइआ ।।
जो गुरुमुखी लोग होते हैं, वे ही अमृत पाते हैं। यही चार क्रियाएँ संतमत में बतलायी जाती हैं, अमृत प्राप्त करने के लिए। बस, इतना मैंने कहा।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन भागलपुर नगर सत्संग के अवसर पर दिनांक-31-12-1978, स्थान: मारवाड़ी पाठशाला, भागलपुर में हुआ था। (शान्ति-संदेश, जून 1991 ई0)
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किसी भी कार्य की सफलता के लिए उसमें तत्परता की आवश्यकता होती है। बिना मुस्तैदी के कार्य में सफलता नहीं मिलती, चाहे वह कार्य लौकिक हो या पारलौकिक। लौकिक में जितना श्रम है, उससे अधिक श्रम पारलौकिक कर्म में है। पारलौकिक कर्म के लिए संत कबीर साहब ने बतलाया है कि अपने को कैसा बनाओ, जिसमें तुमको सफलता मिले। उन्होंने बताया कि कि शूर बनो, वीर बनो, योद्धा बनो। शूर, वीर, योद्धा क्या करते हैं? अपनी हथेली पर अपनी जान लेकर समर-क्षेत्र में उतर जाते हैं। उसी तरह धर्म के क्षेत्र में उतरने के लिए अपनी जान अपने हाथ में लो, मुट्ठी में लो और शूर बन जाओ। संत कबीर साहब ने बतलाया।
सूर संग्राम को देखि भागै नहीं,
देखि भागै सोई सूर नाहीं ।
काम औ क्रोध मद लोभ से जूझना,
मँड़ा घमसान तहँ खेत माहीं ।।
सील औ साँच संतोष साही भये,
नाम समसेर तहँ खूब बाजै ।
कहत कबीर कोइ जूझिहैं सूरमा,
कायराँ भीड़ तहँ तुरत भाजै ।।
इनसे युद्ध करना है, घनघोर लड़ाई करनी है। बल्कि एक जगह उन्होंने कहा-ये जो शूर होते हैं, ये तो सतियाँ होती हैं और ये साधु लोग जो होते हैं, इन तीनों के युद्ध में अंतर है।
सूर संग्राम है पलक दो चार का।
सती संग्राम पल एक लागे।
मैदान में युद्ध करने के लिए दोनों दल के लोग आमने-सामने खड़े हैं। इसने उसको मारा, उसने उसको मारा, थोड़ी देर में मैदान साफ हो जाता है। इसीलिए ‘सूर संग्राम है पलक दो चार का’ और ‘सती संग्राम पल एक लागे’। जिसके पति का देहावसान हो जाता है, वह महिला अपने पति के शव को लेकर चिता पर बैठती है। पति के साथ वह भी भस्म हो जाती है। यह ‘सती संग्राम पल एक लागे।’ लेकिन साधु के लिए कहा-‘साध संग्राम रैन दिन जूझना।’
दिन-रात युद्ध करो। कबतक के लिए? तो कहा-‘देह पर्यन्त का काम भाई।’ जबतक तुम्हारा जीवन है तबतक। अगर इसमें कुछ भी चूक हुई तो-
‘कहै कबीर टुक बाग ढीली करै,
उलटि मन गगन से जमीं आई।’
इसलिए साधकों के लिए बड़ी सावधानी की आवश्यकता है, जिसकी चेतावनी कबीर साहब देते हैं। वही गुरु महाराज बतलाते हैं-
आओ वीरो मर्द बनो अब,जेल तुम्हें तजना होगा ।
मन निग्रह के समर क्षेत्र में, सन्मुख थिर डटना होगा ।।
यहाँ डटने की बात है, हटने की नहीं। जब डटने की बात होगी, अभी पटने की बात हो सकती है। साधक साधना के लिए बैठता है। वह बैठता है साधना करने के लिए, मन को एक लक्ष्य पर स्थिर करने के लिए, किन्तु मन एक लक्ष्य पर स्थिर नहीं हो पाता। मन इधर-उधर भागता रहता है, यत्र-तत्र विचरण करता रहता है। साधक उसको समेटना चाहता है। जिस समय साधक अपने मन को समेटता है, उस समय जब वह किसी और की याद करने लग जाता है, तो वह चिंतन इतना मीठा लगता है कि साधक भजन को तीता समझने लगता है, उसके सामने भजन फीका पड़ जाता है। उसी विषय के चिंतन में वह लग जाता है। गुरु महाराज कहते हैं-
जहँ जहँ मन भगि जाइ ताहि तहँ तहँ से तत्छन ।
फेरि फेरि ले आइ, लगाइय ध्येय में आपन ।।
ऐसेहि करि प्रत्याहार, धारणा धारण करिके ।
अरे हाँ रे मेँहीँ औरो आगे बढ़िय,
चढ़िय धर धारा धरिके ।।
जैसे मन भागे, वैसे ही समेट लो। नहीं तो वह घर बनाने लग जाएगा। जब वह घर बना लेगा, तो फिर उसका लौटना मुश्किल हो जाएगा। आजकल यदि कोई किसी की जमीन पर घर बना लेता है, तो वह जल्द हटना नहीं चाहता है। उसी तरह तुम्हारा मन जहाँ घर बना लेगा, तो फिर वह वहाँ से हटना नहीं चाहेगा। बड़ी मुश्किल होगी। इसलिए प्रत्याहार में हारो नहीं। प्रत्याहार में जो हार जाएगा, उसकी विजय कभी नहीं होगी। इसलिए प्रत्याहार में हारो मत। मन भागे समेटकर लाओ। फिर भागे, समेटकर लाओ। बारंबार इस तरह की क्रिया जारी रहेगी, तो परिणाम यह होगा, जैसा कि कबीर साहब ने कहा है-
‘मन तू थकत थकत थकि जाई।’
यह मन प्रत्याहार करते रहने से थकते-थकते थक जाएगा। जिस तरह हाथ को बारंबार मोड़ने और फैलाने से वह इस तरह थक जाएगा कि फिर उसको इधर-उधर करने की इच्छा नहीं होगी, इसी तरह मन भागे, तो समेटकर लाइये, मन थक जाएगा। फिर भागने की इच्छा नहीं होगी और लक्ष्य पर स्थिर हो जाएगा। इसीलिए संत कबीर साहब कहते हैं-
‘साध संग्राम को देखि भागै नहीं ।’
वह भागता नहीं है, लगता है। संत कबीर साहब कहते हैं-
‘लय लागत लागत लागै, भय भागत भागत भागै।’
यह संग्राम है-युद्ध करना है, हारना नहीं है। अपने को न्योछावर कर देते हैं, अपनी मुट्ठी में जो सब कुछ कर लेते हैं, वे ही एक दिन विजयी होते हैं। डरकर जो भागनेवाले होते हैं, विजयी नहीं होते, उनका नाम भी कभी नहीं होता है।
कृषक खेत में खेती करने के लिए जाते हैं, जाड़े के समय में अपने को बर्फ में ठिठुराते हैं, वैशाख-जेठ की गर्मी में अपनी त्वचा को झुलसाते हैं, वर्षा के दिनों में अपने शरीर को सड़ाते हैं, तब कहीं वे अनाज पाते हैं और सालभर सुखमय जीवन बिताते हैं। अगर कोई कृषक वैशाख-जेठ की गर्मी में शरीर नहीं जलाये, वर्षा के दिनों में शरीर नहीं सड़ाये, जाड़े के दिनों में अपने को ठिठुराये नहीं, तो क्या वह कभी अन्न पा सकता है, सुखी हो सकता है?
एक विद्यार्थी है। पढ़ने के समय वह स्कूल- कॉलेज में पढ़ता है और वहाँ से आता है, तो घर में लालटेन जलाकर रात में भी पढ़ता है। लोग सब सोये रहते हैं, तीन बजे रात में जगकर तप करता है-पढ़ता है। तब कहीं वह परीक्षा में अच्छे अंकों से उत्तीर्ण होता है, प्रतिष्ठा पाता है। उसी तरह साधकों के लिए भी है। संत-महात्मा लोग कहते हैं कि साधक को भी बड़ी तपस्या करनी होती है। दस महीने तक खाना-पीना, आराम हराम कर माताएँ रहती हैं, तब कहीं अपने पुत्र का मुख देखकर सुख का अनुभव करती है।
यह संग्राम है। यही तो भगवान श्रीकृष्ण से अर्जुन ने कहा था-हे प्रभु! मन तो भागता है, समेट में नहीं आता है। वायु को वश में करना सहज है; लेकिन मन को वश करना सहज नहीं है।’ भगवान ने बतलाया-
‘अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ।’
अर्थात् अभ्यास और वैराग्य से मन वश में होगा और वश में करने के लिए इसको अच्छी तरह कस लीजिए। जब इसको कस लीजिएगा, तो इसका भागना छूट जाएगा, अर्थात्-
नउ दर ठाके धावत रहाए,
दसवें निज घरि वासा पाए ।।
उथैं अनहद शब्द बजहिं दिनराती।
गुरमति शबदु सुनावणिआ ।।
जबतक नौ दरवाजे में यह मन लगा रहेगा, तबतक विषयों में भागता रहेगा। नौ दरवाजे से समेटकर इसको दसवें दरवाजे में प्रतिष्ठित कीजिए। जब दसवें दरवाजे में प्रतिष्ठित होगा, तब इसको अंतर का रस मिलने लगेगा। गो0 तुलसीदासजी महाराज कहते हैं-
ब्रह्मपियूष मधुर सीतल जौ पै मन सो रस पावै ।
तौ कत मृग जल रूप विषय कारण निसिवासर धावै ।।
(विनय-पत्रिका)
वहाँ उसे ब्रह्म-पीयूष मिलेगा। उसके लिए विषय रस विषरस के समान हो जाएगा। इसलिए संत-महात्मा कहते हैं, गुरु महाराज कहते हैं, अपने को वहाँ पर ठहराने की कोशिश करो। इसकी युक्ति जान लो, कला जान लो, साधना करो, फिर तो गुरु की कृपा होगी ही और सफलता मिलेगी ही। गुरु-कृपा का भरोसा मत छोड़ो। गो0 तुलसीदासजी ने बड़ा ही अच्छा कहा है-
जौ तेहि पंथ चलै मन लाई।
तौ हरि काहे न होहिं सहाई।।
गुरु की कृपा साथ है। गुरु की कृपा मिलती रहेगी और आगे बढ़ते जायेंगे। सफलता मिलती रहेगी। हिम्मत छोड़ने की आवश्यकता नहीं है। हिम्मत करनी है। यह निश्चित है कि एक-न-एक दिन विजय होगी। गुरु महाराज कबीर साहब की वाणी में कहते हैं-
मन जाय तो जाने दे, तू मत जाय शरीर ।
पाँचों आत्मा वश कर, कह गये दास कबीर ।।
कहते हैं, इसका कारण यह है कि मन तन से अलग नहीं रहता। तन स्थिर रहेगा, तो मन भी स्थिर हो जाएगा। जैसे हमलोग पतंग-गुड्डी उड़ाते हैं, तो लटेर हाथ में रखते हैं। गुड्डी उड़ती रहती है, उसका धागा लटेर में लगा रहता है। लटेर को घुमाते रहने से पतंग हाथ में आ जाएगी। अगर लटेर को ही छोड़ दें, तो पतंग उड़कर कहाँ चली जाएगी ठिकाना नहीं। लटेर को कसकर हाथ में पकड़े रहिये और घुमाते रहिए, धीरे-धीरे पतंग आपके हाथ में आ जाएगी। उसी तरह मन जो भागता है, वह तो चला गया। लेकिन अपने तन को स्थिर करके हम रख सकते हैं। फिर मन भी धीरे-धीरे आकर वहाँ स्थिर हो जाएगा।
मन मार दिल में कर, अमल माशूक आवै यौं निकल।
ये वक्त फिर आवै न कल मशहूर है ये सच अमल।।
-संत तुलसी साहब
एक बार कुएँ को भेंट हो गयी समुद्र से। कुएँ ने समुद्र से कहा, ‘तुम सरिता से प्यार करते हो, गोद में बिठाते हो और आलिंगन करते हो; लेकिन तुम मुझे कभी प्यार नहीं करते, आलिंगन नहीं करते, गोद में नहीं बिठाते।’ समुद्र ने कहा, ‘सरिता जब आती है, तो उसके पास कोई दीवार नहीं होती; लेकिन तुम्हारे पास दीवार-ही-दीवार है।’ कुएँ ने कहा, ‘देखो, तुमसे मिलने के लिए मैं बावला हो गया हूँ, इसीलिए मेरा नाम लोग बावली भी कहते हैं।’ समुद्र ने कहा, ‘कुछ भी हो, तुम्हारे अंदर जबतक चहारदिवारी है, तबतक तुम मुझसे नहीं मिल सकते।
यह संतमत जो है, समुद्रमत है। इसमें जो भी ‘मत’ मिलना चाहे, मिल सकता है; लेकिन चहारदिवारी को छोड़कर। संतमत संकुचित मत नहीं, उदार मत है। यह तो यह बतलाता है कि जो कोई जिस धर्म में मानते हैं, वे उसी धर्म पर अवस्थित रहें; लेकिन अपने धर्म के मर्म को वे अच्छी तरह समझ लें। अगर उनके ही धर्म में समझानेवाले हैं, तो वे उनसे समझ लें। यदि उनके धर्म में समझानेवाले कोई नहीं हैं, चाहे वे किसी धर्म के माननेवाले हों, ‘संतमत’ उसको राह बतला देगा। जितने भी प्रकार के धर्म संसार में हैं, सबको राह बतानेवाला संतमत है और यह बिल्कुल उदार मत है। इसलिए हम अपने धर्म के मर्म को अच्छी तरह समझ लें। नहीं तो धर्म को पाल लेने से कोई लाभ नहीं होगा। यथा-
सहि कुबोल सांसति सकल, अंगह अनट अपमान ।
तुलसी धरम न परिहरिय, कहि करि गये सुजान ।।
(गोस्वामी तुलसीदास)
दूसरे के कठोर वचनों को सहो-सहि कुबोल, यातनाओं को सहो, अपमानों को सहो, तुम्हारे ऊपर जो कुछ भी करे, सब सहो; लेकिन अपने धर्म का परित्याग न करो। जो अच्छे लोग हुए हैं, उन्होंने यह कहा है और उन्होंने इसका आचरण भी किया है।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन 71वाँ महाधिवेशन के अवसर पर दिनांक-3-3-1979, स्थान: मानसी, खगड़िया में हुआ था। (ध्यान-सन्देश, नवम्बर+दिसम्बर 1994)
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मन में हुआ कि में आपलोगों को एक कथा सुनाऊँ। किन्तु फिर सोचा, जिस कथा से व्यथा दूर न हो, ऐसी कथा वृथा है। तो क्या कहूँ? फिर मन में आया कि इस सत्संग के अवसर पर प्रेरक प्रसंग ही कहा जाए। तो आपलोगों को मैं श्रीमद्भागवत का एक प्रसंग सुनाना चाहूँगा।
भगवान श्रीकृष्ण और सुदामा दोनों गुरुकुल में एक साथ पढ़ते थे। दोनों में बड़ी मित्रता थी। एक साथ उठना-बैठना, खाना-पीना, सोना-जागना होता था। दोनों में घनिष्ठ मैत्री थी। एक दिन गुरुपत्नी ने आदेश दिया कि तुमलोग जंगल से जलावन हेतु सूखी लकड़ी चयन कर लाओ। दोनों मित्र जंगल की ओर प्रस्थित हुए, तो गुरुपत्नी ने कुछ चबेना साथ में दे दिया और कहा, ‘वहाँ जाओगे, देर हो जाएगी, यदि भूख-प्यास लगेगी, तो इसे दोनों मिलकर खा लेना।’ दोनों जंगल पहुँचे। जलावन एकत्र करने लगे। कुछ अंश एकत्र कर चुके थे कि इतने में जोरों की आँधी आयी और घनघोर वृष्टि होने लगी। भगवान श्रीकृष्ण का शरीर कोमल था। उनकी अपेक्षा सुदामाजी का शरीर बलिष्ठ था। उन्होंने अपने शरीर से कृष्ण को ढँक लिया। वर्षा का प्रभाव अपने शरीर पर सहने लगे। याद आया सुदामाजी को कि गुरुपत्नी ने जो चबेना दिया है, वह तो यों ही पड़ा हुआ है, क्यों न उसे खा लूँ। चना चबाने लगे, तो कटर-कटर की आवाज आने लगी। भगवान कृष्ण ने सुदामाजी से पूछा, ‘क्या मित्र! कुछ खा रहे हो?’ सुदामाजी ने कहा, ‘इतनी ठंढ लग रही है कि दाँत कटकटाने लगे हैं।’ वे चना खा चुके, तूफान भी समाप्त हो चुका। जलावन लेकर दोनों-के-दोनों गुरुगृह पहुँचे।
जबतक गुरुकुल की शिक्षा आवश्यक थी, दोनों मित्र वहाँ रहे। शिक्षा समाप्त कर लेने के पश्चात् दोनों अपने-अपने घर गये। दोनों ने गृहस्थधर्म स्वीकार किया। भगवान श्रीकृष्ण तो भगवान ही थे-द्वारिका- धीश और ये सुदामाजी अपने घर आये, तो दीन बन गये। बहुत गरीबी से इनका दिन कटता था। दिन खायेंगे तो रात क्या और रात खायेंगे तो दिन क्या? दाने-दाने के मुँहताज थे। सुदामाजी की धर्मपत्नी धर्मप्रिया थीं, धर्म में रुचि रखती थीं। वे सुदामाजी को प्रेरणा देतीं कि पतिदेव! आप इतने कष्टों को झेल रहे हैं, भूखे रहने की नौबत आपको आती है और आप अपने मित्र की प्रशंसा करते हैं कि इतने बड़े राजा हैं, वे महान हैं, भगवान हैं, तो आप क्यों न उनके पास जाते, वे आपकी सहायता कर देंगे। आपका दुर्दिन सुदिन में परिवर्तित हो जाएगा। लेकिन सुदामाजी को संकोच होता कि मित्र के यहाँ माँगने जाऊँगा, यह ठीक नहीं है। बारंबार जब पत्नी की प्रेरणा मिलने लगी, तो ये भी राजी हो गये चलने के लिए। सुदामाजी ने पत्नी से कहा, ‘जब मुझसे मित्र माँगेगे कि सन्देश क्या लाये हो, तो मैं क्या दूँगा? कुछ संदेश के लिए दो।’ बेचारी ब्राह्मणी पड़ोस में गयी, तंडुल माँगकर ले आयी और पतिदेव को दे दिया। सुदामाजी वह लेकर चले। उनको रास्ता ठीक-ठीक मालूम नहीं था। पूछने लग गये-किस होकर जाना है, कितनी दूर है? पैदल ही चलना है। चलते-चलते मन में कभी निराशा आती, फिर आशा भी बँधती कि अब इतना रास्ता तय हो गया। कुछ दूर जाने के बाद अँधेरा होने लगा। सुदूर में देखा, एक तारा नजर आया। वह भगवान कृष्ण की अट्टालिका के ऊपर रोशनी जल रही थी। वही नजर आयी। लोगों ने कहा था कि भगवान के महल के ऊपर मणि का प्रकाश जल रहा है। जैसे ही उस प्रकाश को सुदामाजी ने देखा तो उनके मन में ढाढ़स आया कि अब मैं नजदीक आ गया हूँ। फिर धीरे-धीरे नौबतखाने की आवाज सुनायी पड़ने लग गयी। बढ़ते-बढ़ते भगवान कृष्ण के दरवाजे पर पहुँच गये। लेकिन तन पर वस्त्र नहीं, तन पर मात्र चिथड़ा। दरबान ने रोका और पूछा, ‘कहाँ जाओगे इधर?’ सुदामाजी ने कहा, ‘मेरे मित्र हैं भीतर, वहीं जा रहा हूँ।’ दरबान ने पूछा, ‘कौन हैं मित्र तुम्हारे?’ सुदामाजी ने कहा, ‘द्वारिकाधीश भगवान।’ दरबान ने कहा, ‘रुक जाओ जरा, मैं पूछ लेता हूँ। तुम अपना नाम बताओ।’ इन्होंने कहा, ‘सुदामा।’ दरबान ने भगवान कृष्ण से कहा, ‘भगवन्! सुदामा नाम के एक ब्राह्मण आये हैं, उनके तन पर एक फटा चिथड़ा है, पैर में पनही तक नहीं है। लेकिन वे अपने आपको आपका मित्र बतला रहे हैं और आपसे मिलने के लिए आये हैं। भगवान का क्या आदेश होता है?’ सुदामा का नाम सुनना था कि भगवान दौड़ पड़े उनसे मिलने के लिए और अपने हृदय से चिपका लिये। मन में नहीं हुआ कि ये गरीब हैं। इनके तन पर वस्त्र नहीं है और हम राजेश्वर हैं, कुछ भी ध्यान नहीं इन बातों पर, वे प्रेम से मिले। सुदामाजी को बिठा लिया अपने आसन पर। उनकी पत्नी सुदामाजी के चरण धोवन करने लगीं; चँवर डुलाने लगीं। भगवान ने कहा, ‘मित्र! बहुत दिनों के बाद आये हो, कुछ सन्देश लाये हो? कुछ तो भाभी ने दिया होगा मेरे लिए।’ अब सुदामाजी को अपनी बगल से तंडुल निकालना मुश्किल हो रहा है। भगवान ने स्वयं टटोलकर तंडुल निकाल लिया और लगे भोग लगाने।
भगवान प्रेम के भूखे हैं, भाव के भूखे हैं, तंडुल क्या चीज है? कुछ दिन सुदामाजी वहाँ रहे। फिर वहाँ से लौटे अपने घर की ओर। मन में सोचने लगा कि मैं तो पहले ही कह रहा था कि तू कहाँ भेज रही है? कुछ भी दिया तो नहीं। यह सब सोचते हुए वे लौटे। जब वे अपने घर के पास आते हैं, तो देखते हैं कि इनके घर के स्थान पर अट्टालिका बनी हुई है। अब तो इनका माथा और भारी हो गया। जो भी टूटा-फूटा घर था, उसे उजाड़कर किसने घर बना लिया? यदि मैं यहाँ रहता, तो मेरी झोपड़ी नहीं उजड़ती। सुदामाजी के मन में ये सब बातें हो रही थीं। भगवान ही की कृपा से अट्टालिका बनी थी। उसमें खाने- पीने, रहने-सहने की कोई कमी नहीं। सब तरह से सम्पन्न है। ब्राह्मणी को जब मालूम हआ कि आ रहे हैं पतिदेव, तो वह जाती है, पतिदेव की आरती उतारती है। पत्नी के वस्त्र देखकर वे कहती हैं, ‘अरी! तुम्हारे इतने अच्छे वस्त्र! तुम्हारा यह रंग-रूप कैसे? पत्नी ने कहा, ‘यह तो आप जानें। आप गये थे कहाँ?’ फिर दोनों पति-पत्नी महल गये और रहने लग गये।
आपलोगों ने यह कथा सुनी होगी बहुत बार। लेकिन इस कथा में तथ्य क्या है? इसीलिए मैंने यह कथा आपलोगों को सुनायी। इसमें कृष्ण और सुदामा का मिलन है। श्रीकृष्ण अर्थात् ‘परमात्मा’, सुदामा अर्थात् ‘जीव’। तो जीव और पीव के मिलन का यह प्रसंग है। कृष्ण शब्द का अर्थ है-जो आकर्षण करता है। कृष्ण कहते हैं आकर्षण करनेवाले को। भगवान आकर्षण करते हैं कि सब मेरे पास आओ। सुदामा का अर्थ होता है-सु+दामा। सु=अच्छी। दामात्र रस्सी। अर्थात् जो अच्छी तरह बँधा हुआ हो, बेतरह बँधा हुआ हो, वह है सुदामा। यह जीव बेतरह बँधा हुआ है। आप कहेंगे कोई बंधन तो नहीं है? इसके उत्तर में संत राधास्वामी साहब कहते हैं-
बंधे तुम गाढ़े बंधन आन ।।
पहला बंधन पड़ा देह का, दूसर तिरिया जान ।
तीसर बंधन पुत्र बिचारो, चौथा नाती मान ।।
नाती के कहि नाती होवै, फिर कहो कौन ठिकान ।
धन संपत्ति और हाट हवेली, यह बंधन क्या करुँ बखान ।।
चौलड़ पंचलड़ सतलड़ रसरी, बाँध लिया अब बहु विधि तान ।
कैसे छूटन होय तुम्हारा, गहरे खूँटे गड़े निदान ।।
मरे बिना तुम छूटो नाहीं, जीते जी तुम सुनो न कान ।
जगत लाज और कुल की मरयादा, यह बंधन सब ऊपर ठान ।।
लीक पुरानी कभी न छोड़ो, जो छोड़ो तो जग की हान ।
क्या क्या कहूँ विपत मैं तुम्हारी, भटको जोनी भूत मसान ।।
तुम तो जगत सत्त कर पकड़ा, क्यों कर पावो नाम निशान ।
बेड़ी तोक हथकड़ी बाँधे, काल कोठरी कष्ट समान ।।
काल दुष्ट तुम्हें बहुविधि बाँधा, तुम खुश होके रहो गलतान ।
ऐसे मूरख दुख-सुख जाना, क्या कहुँ अजब सुजान ।।
शरम करो कुछ लज्जा जानो, नाहिं तो जमपुर का भोगो हान ।
‘राधास्वामी’ सरन गहो अब, तो कुछ पाओ उनसे दान ।।
इन गाढ़े बंधनों से जो जीव बँधा हुआ है, वही है सुदामा। यहाँ तो एक पुरुष का दूसरे पुरुष से वार्तालाप है, इसलिए कहा गया-‘पहला बंधन पड़ा देह का, दूसर तिरिया जान।’ कहीं यदि सहजोबाई और मीराबाई में बातचीत होती तो वहाँ वे लोग क्या कहतीं? वे कहतीं-‘पहला बंधन पड़ा देह का, दूसर पुरुषा जान।’ जैसे पुरुष के लिए स्त्री बंधन है, वैसे ही स्त्री केि लए पुरुष बंधन है। इसका अर्थ क्या हुआ कि पुरुष स्त्री को छोड़ दे और स्त्री पुरुष को छोड़ दे? नहीं। दोनों को मर्यादित ढंग से रहना है। संत पलटू साहब ने तो बड़ी फटकार लगायी है-
“ यार फक्कीर तू पड़ा किस ख्याल में ,
पाँच पच्चीस संग तीस नारी ।
एक तुम छोड़िया तीस तेरे संग में ,
होय अस ज्ञान नर्क भारी ।।
तीस के कारने भीख तुम माँगता ,
एक ने कवन तकसीर पारी ।
दास पलटू कहै खेल या न बदो ,
छुटै जब तीस तो छोड़ प्यारी ।।”
यह जीव है सुदामा। यह अच्छी तरह बँधा हुआ है। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज क्या कहते हैं-
‘ईस्वर अंस जीव अविनासी।
चेतन अमल सहज सुखरासी।।
सो माया बस भयेउ गुसाईं।
बँधेउ कीर-मरकट की नाईं।।
गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं-यह जीव परम प्रभु परमात्मा का अभिन्न अंश है।
जीवात्म प्रभु का अंश है, जस अंश नभ को देखिए ।
घट मठ प्रपंचन्ह जब मिटै, नहिं अंश कहना चाहिए ।।
-महर्षि मेँहीँ-पदावली
जैसे महदाकाश का अंश घटाकाश, मठाकाश, पटाकाश है, उसी तरह परम प्रभु परमात्मा का यह जीव अभिन्न अंश है। अनार के दानों में से एक दाना नहीं। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज कहते हैं-सहज सुखरासी। यह चेतन है, अमल है-शुद्ध है। सब सुखों की खान है। लेकिन इतना होते हुए भी यह माया के वश में पड़ा हुआ है। यह माया का बंधन कैसा है? तो कहा-‘बँधेउ कीर मरकट की नाईं’। कीर कहते हैं सुग्गे को और मर्कट कहते हैं बंदर को। सुग्गे को फँसानेवाला जो होता है, वह बाँस की नली रखता है, उसमें एक लकड़ी लगी रहती है। उसके नीचे खाने की चीज लटका देता है वह। उसपर सुग्गे की नजर पड़ती है। वह खाने की चीज को पकड़ने के लिए चोंच बढ़ाता है। जैसे ही वह आगे झुकता है, नली घूम जाती है। नली घूम गयी तो उसका मुँह नीचे हो जाता है। वह अपने ही चंगुल से नली को पकड़े हुए है और नीचे लटका हुआ है। अब उस सुग्गे के मन में यह भ्रम हो गया कि किसी ने मुझे पकड़ लिया। किसी ने पकड़ा नहीं, वह स्वयं ही नली को पकड़े हुए है। इतने में सुग्गा बझानेवाला आता है और उसे सरलतापूर्वक पकड़कर पिंजड़े में बंद कर लेता है। इसी तरह हमलोग कहते हैं-माया ने पकड़ रखा है, माया से कहाँ छूट पाते हैं? बात तो सत्य यह है कि माया को हमने पकड़ा है। माया ने नहीं पकड़ा है। इसी तरह बंदर बझानेवाला क्या करता है? एक छोटा मुँहवाला घड़ा लेता है, जिसमें खुला हाथ तो आसानी से घुस जाय, लेकिन मुट्ठी बाँधकर निकाले तो निकले नहीं। वह कुछ मिठाइयाँ लेकर जंगल जाता है। उस घड़े को मिट्टी के अंदर गाड़ देता है। थोड़ी-सी मिठाई के टुकड़े उसके अगल-बगल छींट देता है। बंदर गाछ पर से नीचे उतरता है। मिठाई के टुकड़े जब खाता है, तो बड़ी अच्छी लगती है। ऊपरवाले सब टुकड़े खाने के बाद वह घड़े में झाँकता है, तो उसमें मिठाई दिखाई पड़ती है। मिठाई की सुगंधि भी आती है। वह अपना हाथ घुसाता है। हाथ तो सुगमता से घड़े के अंदर चला गया; लेकिन जब मिठाई को पकड़ा तो मुट्ठी बँध गई। अब मुट्ठी घड़े से निकलती ही नहीं। बंदर के मन में हुआ कि किसी ने मुझे पकड़ लिया। बाजीगर आता है, उसको पकड़कर ले जाता है और दरवाजे-दरवाजे नचाता है। उसी तरह हमलोगों को भी विषय का स्वाद लगा हुआ है, उस स्वाद को लेते-लेते अब उसको इतने जोर से पकड़ लिये हैं कि लगता है कि विषय हमें नहीं छोड़ रहा है। लेकिन बात तो ऐसी नहीं, विषय स्वाद को हमहीं नहीं छोड़ रहे हैं। इसीलिए गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज कहते हैं-‘बँधेउ कीर मरकट की नाईं।’ न स्वाद छूटता है, न हम उसे छोड़ते हैं। किसी ने तो कहा-
मृग मीन भृंग पतंग कुंजर, एक दोष विनासहीं ।
पंच दोष असाध्य जामें, ताकी केतिक आसहीं ।।
मृग की कर्णेन्द्रिय प्रबल है। शब्द में आकर्षण होता है। शिकारी जाल लगा देता है और मीठे-मीठे स्वर में झाँझ बजाता है। शब्द सुनते-सुनते मृग इतना आकर्षित हो जाता है कि आगे में जाल है, उसका ख्याल नहीं रहता। वह शब्द की ओर बढ़ जाता है और जाल में फँस जाता है। जाल में फँसा कि काल के गाल में फँसा। वह काल के गाल में फँस गया। उसकी जान चली गयी।
मीन-मछली की जिभ्या इन्द्रिय प्रबल है। मछली मारनेवाला वंशी में चारा लगाकर पानी में डाल देता है। मछली आती है, चारे को पहले नोंच-नोंच कर खाती है। इसके बाद वंशी को निगल जाती है। जैसे ही वंशी को निगलती है, मछली मारनेवाला उसे उठाकर जमीन पर पटक देता है। मछली की जान जिभ्या के चलते चली गयी।
भृंग-भँवरे को कहते हैं। उसकी घ्राणेन्द्रिय प्रबल है। वह कमल पर गंध या उसके पराग के लिए बैठता है। वह कमल की गंध और पराग लेने में मस्त हो जाता है। शाम होने पर कमल का मुँह बंद हो जाता है। उसी के अंदर वह बंद हो जाता है। सबेरे हाथी आता है, वह कमल को खाता है, तो उसके संग में भृंग भी हाथी के मुँह में चला जाता है। उसकी जान वैसे ही चली गयी।
पतंग-मरकरी या बल्ब को शाम होने पर देखिए। कितने पतंग उसपर जाकर गिरेंगे, ठिकाना नहीं। उसमें वे अपनी जान गँवा देते हैं। उसकी नेत्र इन्द्रिय प्रबल होती है। रूप के आकर्षण में वह आग में भी कूद पड़ता है और उसकी जान चली जाती है।
कुंजर-हाथी को स्पर्श-दोष होता है। जो हाथी को बझानेवाला होता है, वह चतुर हथिनी को साथ लेकर जंगल जाता है। जंगल में वह एक बड़ा गड्ढा बनाता है। उसपर चाल बनाकर रखता है, फिर उसपर घास रख देता है। सिखाई हुई हथिनी हाथी का स्पर्श करती है, हाथी उसके पीछे-पीछे लग जाता है। अपने तो हथिनी बगल से निकलती है और हाथी जो उसके पीछे दौड़ता है, गड्ढे में गिर जाता है। उसको कई दिनों तक तो उसी में छोड़ देता है। जब वह हाथी भूख-प्यास के मारे कमजोर हो जाता है, तब उसे बाहर निकालता है। अब वह शिकारी के वश में आ जाता है। उसको अब कहता है-अगत्त! उठ, बैठ, तो वह सब करने लगता है। इन सबों की तो एक-एक इन्द्रिय प्रधान है, एक-एक विषय के कारण उन सबों की जानें जाती हैं; लेकिन हमलोग! हमलोग तो सुन्दर रूप, सुन्दर शब्द, सुन्दर गंध, सुन्दर रस, सुन्दर स्पर्श चाहते हैं। सब सुन्दर-ही-सुन्दर चाहते हैं। हमलोगों की पाँचों इन्द्रियाँ प्रबल हैं। फिर भी हम बचे हुए हैं। खुदा की खैरियत है। इस तरह जो हम विषयों में बँधे हुए हैं, इसलिए ऐसे जीव का नाम है सुदामा। यह सुदामा अर्थात् जीव चलता है मिलने, किससे? मित्र है कृष्ण। मित्र से मिलने जाता है। इस जीव का भी मित्र है परमात्मा। उपनिषद् में लिखा है-
एक वृक्ष पै दो पक्षी, अति सख्य भाव से थे रहते ।
खाते एक फलों को थे, एक बिना खाये थे हँसते ।।
एक वृक्ष है, उसमें दो डालें हैं। दोनों डालों पर दो पक्षी बैठे हैं। एक पक्षी फल खाता है, दूसरा पक्षी द्रष्टा है, वह मात्र देखता है, फल नहीं खाता है। केवल हँसता है। मतलब यह कि यह हमलोगों का शरीर वृक्ष है। इसपर दो पक्षी मैत्री भाव से बैठे हैं। वे दो पक्षी कोन हैं? एक चेतन आत्मा और दूसरा परमात्मा। चेतन आत्मा भोक्ता है और परमात्मा द्रष्टा है। जो भोक्ता है, वह फल भी तो भोगेगा। यह जीवरूपी सुदामा परमात्मारूपी कृष्ण से मिलने चलता है; लेकिन रास्ता मालूम नहीं। संत सद्गुरु उसको मुक्ति बतलाते हैं कि देखो रास्ता वह है, ऐसे-ऐसे करके जाना। मार्ग में ये सब चीजें मिलेंगी। अमुक स्थान पर पहुँच जाओगे। फिर उनसे भेंट होगी। केवल पुस्तकों को पढ़ लेने से काम नहीं चलता। जो वहाँ पहुँचे हुए हैं, उनसे पूछो, वे बतलायेंगे।
जे पहुँचे ते कहि गये, तिनकी एकै बात ।
सभी सयाने एक मत, तिनकी एकै जात ।।
भगवान श्रीकृष्ण ने क्या कहा है श्रीमद्भगवद् गीता के चौथे अध्याय में-
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ।।34।।
अर्थात् भली प्रकार दंडवत् प्रणाम तथा सेवा और निष्कपट भाव से किये हुए प्रश्न द्वारा उस ज्ञान को जान। वे मर्म के जाननेवाले ज्ञानी जन तुझे उस ज्ञान का उपदेश करेंगे। इसी को संत कबीर साहब ने कहा है। उनके संबंध में प्रसिद्ध है-
कबीर का गाया गावे, तो गजब का धक्का खावे।
कबीर की वाणी बुझै, तो तीनों लोग सूझै।।
‘कबीर की उलटी बाणी। बरसै कम्बल भीजै पानी।।’
कबीर साहब के कहने की कला विचित्र थी। वे एक जगह कहते हैं-
पाप करै बिनु गति नहिं, पाप करै तब चैन ।
कहै कबीर विचारि के, पाप करो दिन रैन ।।
कोई संत पाप करने के लिए कहते हैं? लेकिन वे कहते हैं-‘पाप करै बिनु गति नहीं।’ मतलब क्या हुआ? पाप करे। इसमें पा को अलग कर लीजिए। तब क्या होगा-
पा पकरे बिनु गति नहिं, पा पकरे तब चैन ।
कहै कबीर विचारि के, पा पकरो दिन रैन ।।
‘पा’ अर्थात् संत सद्गुरु के पाँव। संत-महात्मा लोग कहते हैं कि कार्यालयों में मोहरें होती हैं। उन मोहरों के अक्षर सब उलटे होते हैं; लेकिन कागज पर देने से सभी अक्षर सुलटे हो जायेंगे। उसी तरह तकदीर यदि उलटी होगी और तुम जब संतों के चरणों में पड़ोगे, तो तेरी तकदीर सुलटी हो जाएगी। तो संत मार्ग दर्शन देते हैं। सुदामा चलता है, उसको घनघोर अँधेरा मालूम पड़ता है, कुछ सूझता नहीं है। चलेगा कौन? शरीर नहीं चलता, जीवात्मा चलेगा। कहाँ से चलेगा? जहाँ बैठा है, वहीं से चलेगा। चेतन आत्मा भीतर में है, परमात्मा भी भीतर में है। चेतन कहाँ है? बाहर की चीज को देखते हैं आँख खोलकर और भीतर की चीज को देखेंगे आँख बंद कर। क्या मालूम पड़ता है? घोर अंधकार। उसी अंधकार में चेतन आत्मा है। सुदामा यहीं से चलता है। सुदामा को बतलाया गया था कि भगवान श्रीकृष्ण के महल पर मणि का प्रकाश है। संत-महात्मा लोग कहते हैं-तुम भी जैसे-जैसे अंधकार के आगे बढ़ोगे, वैसे-वैसे ही कुछ-न-कुछ प्रकाश अवश्य मालूम पड़ेगा।
‘गगन द्वार दीसै एक तारा’ सुदामाजी द्वारिका में नगाड़ा भी सुनते थे, तो कोई अपने भीतर में तारे को देखता है, तो झनकार को भी सुनता है। इसीलिए कहा- गगन द्वारा दीसै एक तारा ।
अनहद नाद सुनै झनकारा ।।
साहस होता है साधक को कि अब हमारा मार्ग तय हो रहा है। तारा वे देखते हैं, किनारा मालूम पड़ता है, झनकार सुनता है। हमारे गुरु महाराज कहते हैं-‘पाँच नौबत बिरतन्त कहौं सुनि लीजिये।’ एक नौबत नहीं, पाँच नौबतें हैं।
बजती हैं पाँच नौबतें, सुनि एक-एक को ।
पति एक पै चढ़ि जाय के, निज नाह खोजना ।।
स्थूल, सूक्ष्म, कारण, महाकारण और कैवल्य की पाँच नौबते हैं। इसीलिए-
निज तन में खोज सज्जन बाहर न खोजना ।
अपने घट में हरि हैं, अपने में खोजना ।।
तारा कैसे मिलेगा? तो कहा-
दोउ नैन नजर जोड़ि के, एक नोक बना के ।
अंतर में देख सुन-सुन, अंतर में खोजना ।।
कहाँ तक अपनी दृष्टि को ले जाना है?
तिल द्वार तक के सीधे, सुरत को खैंच ला ।
अनहद धुनों को सुन-सुन, चढ़-चढ़ के खोजना ।।
पंचम बजै धुर घर से, जहाँ आप बिराजैं ।
गुरु की कृपा से मेँहीँ’ तहँ पहुँचि खोजना ।।
अंतर में चलने का यही रास्ता है। जीवरूपी सुदामा आगे बढ़ता है। उसके निकट आ जाता है, जो शब्द है, वह क्या है? हमलोगों का शास्त्र कहता है-‘तस्यवाचकः प्रणवः।’ जो प्रणव है, वह प्रभु का वाचक है। प्रभु परमात्मा वाच्य है। जो वाचक को प्राप्त कर लेता है, उससे वाच्य छूट नहीं सकता है। जो प्रणव ध्वनि का श्रवण कर लेता है, वह खिंचकर पहुँच जाता है। भगवान कह रहे हैं-आओ।
‘है आ रही धुर से सदा तेरे बुलाने के लिए ।’
“ क्यों भटकता फिर रहा तू, ऐ तलाशे यार में ।
रास्ता शहरग में है, दिलवर पै जाने के लिए ।।
कुदरती काबे की तू मेहराब में सुन गौर से ।
है आ रही धुर से सदा तेरे बुलाने के लिए ।।”
लेकिन उस शब्द को इस कान से नहीं सुन सकते। किसी कान से सुनेंगे?
“ गोश बातिन हो कुशादा जो करै कुछ दिन अमल ।
ला इलाह अल्लाह हो अकबर पै जाने के लिए ।।”
-संत तुलसी साहब
अल्लाह अकबर कहें वा ईश्वर परमात्मा कहें, एक ही बात है। केवल शब्दान्तर है, जिसको कहते हैं खुदा, उसी को हमलोग कहते हैं स्वयंभू। खुदा-खुद हुआ। स्वयंभू-जो स्वयं हुआ। अंतर क्या है? कुछ नहीं। भाषान्तर है केवल। जो प्रणव को पकड़ता है, वह प्रभु को पाता है। तब भगवान उसको लपेट लेते हैं, छोड़ते नहीं।
हममें तुममें भेद बुद्धि को, जो सकते हैं मिटा ।
वह तुम्हीं तुम वही मेँहीँ, प्रश्न पुनि रहते नहीं ।।
-महर्षि मेँहीँ पदावली
गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं-
सो तुम ताहि तोहि नहिं भेदा ।
वारि बीचि इव गावहिं वेदा ।।
जबतक साधक साधना करता रहता है, जबतक उसका जीवन रहता है, तबतक चढ़ता है, उतरता है। सुदामा कृष्ण से मिलते हैं, फिर अपने घर आते हैं। जब घर की ओर लौटते हैं, तो सुबुद्धि उन्हें परमात्मा से मिलने की प्र्रेरणा करती है। सुदामाजी की पत्नी सुबुद्धिनी थी, जिसने भगवान श्रीकृष्ण से मिलने की प्रेरणा की थी। भगवद्भक्त जो होते हैं, उनकी सुबुद्धि प्रेरणा देती रहती है कि भजन करो, भजन करो। भजन करनेवाले की बुद्धि सुबुद्धि हो जाती है, मेधा शक्ति बढ़ जाती है।
जैसे सुदामाजी घर आये तो अपनी पत्नी को नहीं पहचान सके; क्योंकि पहले वह सामान्य महिला थी; लेकिन अब वह मेधाशक्ति हो गयी है। उसी तरह साधक की बुद्धि भी पहले साधारण रहती है, भजनाभ्यास करते-करते उसकी बुद्धि मेधाशक्ति हो जाती है। साधक परमात्मा को प्राप्त कर एक हो जाता है। जैसे परदा हट जाने पर पटाकाश, महदाकाश एक हो जाता है, उसी तरह अंधकार, प्रकाश और शब्द; ये त्रयपट जीव पर से जब उतर जाते हैं, तो वह परमात्मा से मिलकर एक हो जाता है। वह सदा के लिए त्रयतापों से छूटकर मुक्त हो जाता है, आवागमन छूट जाता है। वह सदा का कल्याण पाता है। यही थोड़ा-सा मैंने आपलोगों क सेवा में कहा। अब गुरु महाराज के श्रीमुख से सुनें।
यह प्रवचन अपराह्णकालीन सत्संग के अवसर पर दिनांक-27-3-1980, स्थान: संतमत-सत्संग मंदिर भवानीपुर राजधाम, पूर्णियाँ में हुआ था।
(शान्ति-संदेश, अक्टूबर 1986)
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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द तथा आदरणीया माताओ तथा भक्तिमती बहनो!
कोयल अपने सुकण्ठ से सुमधुर सुरीले स्वर में संगीत सुनाकर सुख का सहस्त्रांश ही सही, सांसारिक जन को समुचित और समयोचित सुख प्रदान करती है। कुत्ता अन्न के कुछ कौर पाकर स्वस्वामी के काय, कनक, कोष, कामिनी एवं कुटुम्बादि की रक्षा करता है। मृग एवं मृगाधीश मृत्यूपरान्त भी अपने मनोहर-मनभावन त्वक् से मानव-सेवा के अधिकारी होते हैं। गाय, भैंस और छाग आदि स्वदुग्ध-दधि और घृतादि से, इतना ही नहीं, अपनी अस्थि, चर्म एवं गोंत-गोबर से भी बहुविधि लोकोपकार कर सकते हैं।
किन्तु क्या कभी कुछ अपनी निस्बत भी आपने सोचा है कि आपको जो सुर-दुर्लभ, सुन्दर, सुयोग्य और स्वस्थ शरीर मिला है, इसकी क्या उपयोगिता है? आपके इस चिकने-चुपड़े, सफेद, सुगठित, सलोने और साधन-सम्पन्न शरीर से समाज-सेवा, स्वदेश- सेवा, साधु-सेवा वा सर्वेश्वर-सेवा कुछ भी हो सकती है? यदि नहीं, तो इस अनमोल शरीर को अच्छे-अच्छे पदार्थ खिलाकर दाने पर पले हुए सूअर की तरह मोटापा प्रदान करके व्यर्थ ही बर्बाद क्यों कर रहे हैं? भगवान बुद्ध ने कहा है-‘अगर आदमी मोटा हो जाता है और बहुत खाने लग जाता है, अगर वह बहुत सोता है और पड़ा लेटा रहता है, तो वह मूर्ख दानों पर पले हुए सूअर की तरह बार-बार गर्भ में पड़ता है।’ और संत कबीर साहब कहते हैं-
खाय खुराका पहन पोशाका, जम का बकरा पालता है ।
जम बदजाती तोड़े छाती, उससे क्यों नहीं डरता है ।।
गो0 तुलसीदासजी कहते हैं-
तुलसिदास हरिनाम सुधा तजि,
सठ हठ पियत विषय विष माँगी ।
सूकर स्वान शृगाल सरिस जन,
जनमत जगत जननि दुख लागी ।।
ईश्वर-भक्ति-विहीन जन के लिए, चाहे वह वैदिक धर्मावलम्बी हो वा इस्लाम धर्मावलम्बी, संत कबीर साहब फटकार लगाते हुए कहते हैं-
बैल गढ़न्ता नर गढ़ा, चूका सींग अरु पूँछ ।
एकहि गुरु की भक्ति बिन, धिक दाढ़ी धिक मूँछ ।।
उत्तर गीता के द्वितीय अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है-
आहार निद्रा भयमैथुनञ्च सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम् ।
ज्ञानं नराणामधिकं विशेषो ज्ञानेनहीनाः पशुभिः समानाः ।।
अर्थात् आहार, निद्रा, भय, मैथुन; ये सब विषय पशु और मनुष्य में एक समान हैं, कुछ भी प्रभेद नहीं है। केवल ज्ञान-लाभ करने पर ही मनुष्य (पशु से) श्रेष्ठ हो सकता है; सुतरां स्पष्ट प्रतीत होता है कि ज्ञानविहीन मानव पशु-तुल्य है। भगवान के उपर्युक्त वचन के मनन से मन में एक उत्सुकता उत्पन्न होती है कि वह कौन-सा ‘ज्ञान’ है, जिसके अभाव में मानव पशु-संज्ञा से अभिहित किया जाता है।
यदि ‘ज्ञान’ शब्द का अर्थ अभिज्ञता, जानकारी वा जानना हम करते हैं, तो सामान्यतया सभी जन कुछ-न-कुछ अवश्य जानते हैं। मात्र मानव ही नहीं, सृष्टिकर्त्ता की सृष्टि में प्राणिमात्र न्यूनाधिक रूप से जानते हैं। बल्कि कतिपय ऐसे भी ज्ञान-प्रकार हैं, जो मानव से पशु में अधिक है।
क्षेत्रज्ञं चापि मां विि) सर्वक्षेत्रषु भारत ।
क्षेत्र क्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम ।।1।।
अर्थात् हे भारत! समस्त क्षेत्रें-शरीरों में रहनेवाला क्षेत्रज्ञ मुझको जान। क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के भेद का ज्ञान ही ज्ञान है, ऐसा मेरा मत है। इस तरह जबकि क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के भेद-ज्ञान को ही ‘ज्ञान’ कहते हैं, तब इन दोनों के भेद की अभिज्ञता भी अनिवार्य हो जाती है। इसका स्पष्टीकरण करते हुए भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं-
महाभूतान्यहंकारो बुद्धि रव्यक्तमेव च ।
इन्द्रियाणि दशैकं च पञ्चचेन्द्रिय गोचराः।।
इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं संघातश्चेतना धृतिः।
एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम् ।।
-गी0 13।5-6
अर्थात् पंच महाभूत-अहि, अप, अनल, अनिल और आकाश, अहंकार, बुद्धि, प्रकृति, इन्द्रियाँ (ज्ञानेन्द्रियाँ पाँच-नासिका, श्रवण, नेत्र, रसना और त्वक्; कर्मेन्द्रियाँ पाँच-कर, पद, वदन और दो गुह्येन्द्रियाँ), पंच विषय-रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द; इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख, संघात, चेतन-शक्ति, धृति-यह अपने विकारों-सहित क्षेत्र संक्षेप में कहा है। और ‘क्षेत्रज्ञ चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत (गी0 13/2)’ कहकर स्पष्ट ही क्षेत्र-निवासी को क्षेत्रज्ञ कहा गया है। महाभारत शान्ति पर्व (187, 24) में भी लिखा है-
आत्मा क्षेत्रज्ञ इत्युक्तः संयुक्तः प्राकृतैर्गुणैः।
अर्थात् जब आत्मा प्रकृति में वा शरीर में बद्ध रहती है, तब उसे क्षेत्रज्ञ वा जीवात्मा कहते हैं। उपर्युक्त देह और देही के ज्ञान को ही भगवान श्रीकृष्ण ने ज्ञान बताया है। मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम के शब्दों में हम कह सकेंगे-
ज्ञान मान जहँ एकउ नाहीं । देख ब्रह्म समान सब माहीं ।।
(रामचरितमानस, तृतीय सोपान)
अर्थात् ज्ञान वह है, जहाँ एक भी मान न हो, सबमें समान ब्रह्म देखे। ऐसा लगता है, जिस ‘ज्ञान’ का ज्ञान त्रेतायुग में भगवान श्रीराम ने लक्ष्मण को सूत्र-रूप में दिया था, द्वापर युगान्त के कृष्णावतार में उन्होंने उसी ज्ञान का विशद विश्लेषण करके अर्जुन को बताया।
अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम् ।
आचार्योपासनं शौचं स्थैर्ममात्मविनिग्रहः ।।
इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहंकार एव च ।
जन्ममृत्युजराव्याधि दुःख दोषानुदर्शनम् ।।
असक्तिरनभिष्वङ्ग पुत्रदारगृहादिषु ।
नित्यं च समचित्तत्वामिष्टानिष्टोपपत्तिषु ।।
मयि चानन्य योगेन भक्तिरव्यभिचारिणी ।
विविक्त देश सेवित्वमरतिर्जनसंसदि ।।
अधयात्मज्ञान नित्यत्वं तत्त्व ज्ञानार्थ दर्शनम् ।
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा ।।
-गी0 13/7-11
अर्थात् अमानित्व, अदम्भित्व, अहिंसा, क्षमा, सरलता, आचार्य की सेवा, शुद्धता, स्थिरता, आत्मसंयम, इन्द्रियों के विषयों में वैराग्य, अहंकार- रहितता; जन्म, मरण, जरा, व्याधि, दुःख और दोषों को निरन्तर भान; पुत्र, स्त्री और गृह आदि में मोह तथा ममता का अभाव; प्रिय और अप्रिय में नित्य समभाव; मुझमें अनन्य ध्यानपूर्वक एकनिष्ठ भक्ति, एकान्त स्थान का सेवन, जन-समूह में सम्मिलित होने की अरुचि, आध्यात्मिक ज्ञान की नित्यता का भान और आत्मदर्शन-यह सब ज्ञान कहलाता है। इससे जो उलटा है, वह अज्ञान है। इस भाँति श्रवण, मनन और निदिध्यासन ज्ञान के सहित अनुभव ज्ञान के द्वारा क्षेत्रज्ञ वा आत्मा का प्रत्यक्षीकरण करने में ही नर-तन की उपयोगिता है। परमाराध्य सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज का यह अवतरण भी विशेष पठनीय है-‘मननशील होने के कारण ही मानव, मानव कहलाता है। जो परमात्मा को कभी भूलता नहीं, वह तन और मन दोनों से मनुष्य हैै। जो नाशवान पदार्थों में लगा रहता है और अनाश को भूला रहता है, वह मनुष्य कैसे है? किन्तु सत्यासत्य का निर्णय करके असत्य से मन को हटाकर जो सत्य तत्त्व-परमात्मा में सदा लव लगाये रहता है, वह मनुष्य है।’ भगवान श्रीराम ने अपनी प्रजा को यही शिक्षा दी थी कि-
एहि तन कर फ़ल विषय न भाई ।
स्वर्गउ स्वल्प अन्त दुखदाई ।।
नरतन पाइ विषय मन देही ।
पलटि सुधा ते सठ विष लेही ।।
ताहि कबहुँ भल कहइ न कोई ।
गुंजा ग्रहइ परस मनि खोई ।।
जबकि ‘विषय न भाई’, तब उसका अर्थ निर्विषय तत्त्व हो ही जाता है अर्थात् वह पंच विषय-रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द से परे है तथा जिसके लिए यह उपनिषद्वाणी सार्थक होती है कि-
नाम रूप विहीनात्मा परसंवित् सुखात्मकः।
तुरीयातीत रूपात्मा शुभाशुभ विवर्जितः।।
-तेजोविन्दूपनिषद्
अर्थात् ‘आत्मा नाम और रूप से विहीन, परज्ञानस्वरूप, सुखमय, तुरीय से भी अतीत, शुभ और अशुभ से विवर्जित है’ की प्राप्ति के लिए ही नर-तन की उपादेयता है।
अतएव, यह निर्विवाद रूप से सिद्ध है कि उपर्युक्त परमात्मस्वरूप के अपरोक्ष ज्ञान प्राप्त करने में ही मानव-शरीर की सार्थकता है। ज्
यह प्रवचन बिहार राज्यान्तर्गत मधेपुरा जिला के रासबिहारी उच्च विद्यालय के प्रांगण में दिनांक 22-12-1980 ई0 को अपराह्णकालीन सत्संग के सुअवसर पर हुआ था। (शान्ति-संदेश, मार्च 2010 ई0)
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आदरणीय सज्जनवृन्द तथा माताओ एवं बहनो!
प्रातःस्मरणीय अनन्त श्री-विभूषित परम पूज्य सद्गुरु महाराज का आदेश है कि मैं आपलोगों के सामने कुछ कहूँ; लेकिन साथ ही उन्होंने यह भी आदेश दिया है कि देर तक नहीं कहना। सबेरे का सत्संग है और देर तक मैं नहीं कहूँगा। देर तक कहने के लिए आपलोग मुझे घेर नहीं सकते हैं।
अभी प्रातःकाल है। सूर्य को पीठ की ओर करके अगर हम चलें, चाहे कितनी भी तेजी से चलें या दौड़ें, फिर भी अपनी छाया नहीं पकड़ सकते हैं। छाया आगे-आगे ही भागती जाएगी। उसी तरह ईश्वर को पीठ की ओर करके माया को हम पकड़ने चलते हैं, माया आगे भागती चली जाती है। सुख मिलता नहीं है, जिस सुख-शांति के लिए हम सभी लालायित हैं, सभी इच्छुक हैं।
सूर्य को आप सामने करके चलिये। जैसे-जैसे आप सूर्य की ओर चलेंगे, वैसे-वैसे आपके पीछे आपकी छाया चलेगी। भागना चाहें दौड़ करके, तो छाया भी आपके पीछे-पीछे दौड़ेगी, आपका पीछा नहीं छोड़ेगी। उसी तरह यदि ईश्वर को सामने करके चलेंगे, तो माया भी आपके पीछे-पीछे चलेगी। अगर आप भागकर चलेंगे, तब भी आपका संग नहीं छोड़ेगी। ईश्वर के पास जितनी तेजी से चलेंगे, उतनी ही तेजी से माया आपके पीछे चलेगी, खुशामद करेगी, संग छोड़ेगी नहीं। इसलिए अगर सुख चाहते हैं, शांति चाहते हैं, कल्याण चाहते हैं, तो भगवद्भजन करें।
माया को खोजने की आवश्यकता नहीं पड़ती। मेवे की दुकान पर आप जाएँ, मेवा खरीदें, दोना खरीदने की आवश्यकता नहीं पड़ती है। पैसे लगेंगे आपको मेवे के और दोना आपको मुफ्रत में मिलेगा। उसी तरह ईश्वर का भजन करेंगे, तो परम धन मिलेगा ही और माया मुफ्रत मिलेगी। उसकी खुशामद क्यों करें? उसके लिए हाय-हाय क्यों करें?
सूर्य को सिर पर लेकर चलिए, छाया आपके पैर के नीचे आ जाएगी। उसी तरह यदि संत सद्गुरु को सिर पर लेकर चलें, तो माया तेरे चरण चूमेगी, चरण तुम्हारे छोड़ेगी नहीं। ‘लक्ष्मी है सन्तन की चेरी।’ संत पलटूदासजी महाराज ने कहा है-
छाया माया एक सी, बिरला जानै कोय ।
भक्तन के पीछे चलै, सन्मुख भागै सोय ।।
कबीर साहब ने कहा है-
‘गुरु को सिर पर राखिये, चलिये आज्ञा माहिं ।
कह कबीर ता दास को, तीन लोक भय नाहिं ।।’
‘गुरु समरथ सिर पर खड़े, कहा कमी तोहि दास ।
;ि) सिि) सेवा करै, मुक्ति न छाड़ै पास ।।’
सिर पर गुरु को रखिये। अव्यक्त रूप में परम प्रभु परमात्मा तो हैं ही; लेकिन व्यक्त रूप में जो संत सद्गुरु हैं, उनको सिर पर रखिये। तुम्हारा कल्याण होगा। हर समय कल्याण होगा, हर जगह कल्याण होगा।
यह कोई मैं पौराणिक बात नहीं कहता। यह फरवरी का अन्त है। शायद यह जनवरी की घटना है और वे सज्जन बैठे हुए आपके बीच में हैं। गुरु की भक्ति उनमें थी, श्रद्धा थी। उनको एक सज्जन ने प्रीतिभोज में निमन्त्रण दिया। वे उनके यहाँ गये। रात के सात बज गये थे। भोजन करके वे अपने घर लौट रहे थे। मोटर साइकिल से आ रहे थे। बदमाशों ने एक रस्सी सड़क पर बाँध दी थी, इस पार से उस पार तक। वे मोटर साइकिल दौड़ाते चले आ रहे थे। देखा नहीं रस्सी को उन्होंने, मोटर साइकिल तेज गति में थी। मोटर साइकिल उलझ गई रस्सी में। मोटर साइकिल गिरी एक तरफ और अपने गिरे दूसरी तरफ। गिरना था कि चार-पाँच बदमाश आ गये और उनके ऊपर प्रहार करने लग गये। नाक से खून की धारा बहने लगी। ‘गुरु महाराज रक्षा करो! गुरु महाराज रक्षा करो!!’ पुकारने लगे। बदमाश उनको सड़क पर से खींचकर लाए मिट्टी पर, जहाँ की मिट्टी काटकर सड़क पर डाली जाती है। उनका कोट उतार लिया, घड़ी ले ली। इतना ही नहीं, उनलोगों ने चाहा कि इनकी जीवन-लीला ही समाप्त कर दो। बदमाश ने छुरा निकाला और उनके गले पर चलाना चाहा। चलाना ही नहीं चाहा, बल्कि चला चुका। ‘गुरु महाराज रक्षा करो!’ यह अन्तर्ध्वनि उनकी हो रही थी। उस बदमाश को अपने ही हाथ में वह छुरा लग गया। वह ‘ओह! ओह!!’ करने लग गया। इन्होंने कहा-‘अरे एक वकील को मार दोगे तो ठीक है; लेकिन वकील तो तुमलोगों का ही काम करता है।’ गुरु महाराज ने बदमाशों की बुद्धि फेर दी। हथियार उनके ऊपर नहीं चला। तबतक एक जीप आ गई सड़क पर। देखा, उसमें पुलिस है। बदमाश सब भाग गये। इनके सभी सामानों की पोटली बँधी रखी थी। इन्होंने अपना सामान लिया और घर चले आये।
जिनको गुरु पर निष्ठा है, विश्वास है, श्रद्धा है और यथार्थ में गुरु हैं, गोरू नहीं, तो अवश्य ही कल्याण होगा, कोई शक नहीं। निश्चित है, सुनिश्चित। गोस्वामी तुलसी दासजी महाराज के लिए लोग कहते हैं कि वे भगवान राम के बहुत बड़े भक्त थे; लेकिन जब हम उनकी वाणी पढ़ते हैं, तो देखते हैं कि उनका झुकाव किस ओर है। वे कहते हैं कि-
राम नाम कलि काम तरु, राम भगति सुर धोनु ।
सकल सुमंगल मूल जग, गुरु पद पंकज रेनु ।।
वे कहते हैं कि राम-नाम कलियुग में कल्पवृक्ष है-‘राम नाम कलि कल्पतरु।’ उनकी भक्ति सुर धेनु- कामधेनु है। कल्पवृक्ष के नीचे जाइये, जो कुछ माँगिये, कल्पवृक्ष देता है। मनोकामना की पूर्त्ति कल्पवृक्ष करता है। कामधेनु से जो कुछ खाने-पीने की चीज माँगिये वा और जो कुछ माँगिये, वह देती है। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज कहते हैं-कल्पवृक्ष और काम- धेनु को पाकर तुम्हारा आंशिक मंगल हो सकता है; लेकिन सकल सुमंगल चाहो, तो-‘गुरु पद पंकज रेनु।’ अर्थात् ‘सकल सुमंगल मूल जग, गुरु पद पंकज रेनु’ बतलाया कि देखो! वशिष्ठजी महाराज के पास कामधेनु की पुत्री नन्दिनी थी। उनसे जो कुछ माँगो, वह देती थी; लेकिन विश्वामित्र को उसी कामधेनु को लेकर युद्ध ठन गया। इतना वैमनस्य बढ़ा कि वशिष्ठजी के सौ पुत्रें को विश्वामित्र ने मार दिया। मंगल कहाँ? एक पुत्र क्या, सभी पुत्र मारे गये, क्या उसे मंगल कहेंगे? वह मंगल क्या, षड़मंगल हो गया।
कल्पवृ़़क्ष के लिए कहा जाता है कि जो कुछ माँगो, सब कुछ देता है। कथा है-एक सज्जन घूमने गये। घूमते-घूमते वे थक गये। विश्राम के लिए एक वृक्ष के नीचे चले गये। परेशान थे, श्रान्त-क्लान्त थे, पिपासित थे, थके-माँदे थे। मन में सोचा कि इतना थका हुआ हूँ, यदि पानी मिल जाता, तो अपनी प्यास बुझाता। उसको पता नहीं था कि वह कल्पवृक्ष के नीचे है। नजर उठाकर देखता है एक कलकल धारा बह रही है। सोचने लगा-‘अभी तो मैं इसी होकर आया, पानी तो था नहीं, यह कलकल धारा कहाँ से आ गई?’ सोचने लगा कि हो सकता है, मुझे दिग्भ्रम हो गया हो। वह स्नान कर लेता है और एक जलपात्र में जल लेता है, वृक्ष के नीचे बैठकर पीने के लिए। पीना चाहता है, फिर मन में आया कि यदि कुछ भोजन मिल जाता, तो भोजन करके पानी पीता, तो एक थाली में भोजन की सारी सामग्रियाँ आ गईं। जितना भोजन करना था, उसने उतना भोजन कर लिया। सोचने लग गया कि वाह! यह भोजन कहाँ से आ गया? अच्छा अब पानी पी लूँ। पानी पी लिया। फिर सोचा, कुछ विश्राम कर लूँ। मन में आया कि यहाँ तो जंगल है, चींटियाँ, कीड़े, साँप-बिच्छू आदि चलते रहते हैं, यदि एक पलंग हो जाता, तो ठीक से आराम करता। एक पलंग आ गया। फिर सोचा-यदि तोशक-तकिया हो जाते, तो बड़ा अच्छा होता। कल्पना करना था कि सारे सामान आ गये। उसपर वह लेटता है। फिर सोचा, वृक्ष के नीचे हूँ, ऊपर चिड़ियाँ है, कहीं बीट कर दे तो? अगर एक आवरण हो जाता कपड़े का, तो सुरक्षित रहता। कपड़घर बन गया। सिरहाने पर सिर रखता है और सोचता है, भाई! यहाँ तो मैं अकेला हूँ, दूसरा-तीसरा कोई नहीं, अगर बाघ आकर मेरा गला मरोड़ दे तब? बस इतने में ही बाघ आया और उसका गला मरोड़ दिया। उसका ‘राम-नाम सत््’ हो गया। कल्पवृक्ष के नीचे भी दुःख है, यदि तुम्हारी कल्पना शुद्ध नहीं, विचार तुम्हारे शुद्ध नहीं है, तो कामधेनु और कल्पवृक्ष के समीप भी कष्ट होगा, सकल सुमंगल नहीं होगा। इसीलिए गो0 तुलसीदासजी महाराज कहते हैं-
सकल सुमंगल मूल जग, गुरु पद पंकज रेनु।
बस! मैंने इतना कहा। त
यह प्रवचन अखिल भारतीय संतमत-सत्संग के 73वें वार्षिक महाधिवेशन तीर्थराज प्रयाग के त्रिवेणी संगम-तट पर दिनांक 28-02-1981 ई0 को प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था।
(शान्ति-सन्देश, जून, 2010 ई0)
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धर्मप्रिय आदरणीय साधकगण, समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द तथा आदरणीया माताओ तथा भक्तिमती बहनो!
किसी समय समुद्र शांतभाव में बैठा चिन्तन में मग्न था। उसी समय एक कूप उसके निकट पहुँचा और अभिवादन करके एक ओर बैठ गया। सागर ने जब उसकी ओर देखा, तो उसने पाया कि कुएँ का चित्त उदास है, मन खिन्न है; वह दुःखी है। समुद्र ने उससे उसकी उदासी का कारण पूछा। कुएँ ने कहा-‘पिताजी! कहने में संकोच होता है, कुछ भय भी होता है, मन में लज्जा भी आती है।’ समुद्र ने कहा- “ वत्स! पिता के सामने संकोच किस बात का? भय और लज्जा की कोई बात नहीं। क्या तुम भगवान बुद्ध की इस बात को नहीं जानते? भगवान बुद्ध का वचन है-‘जो लज्जा करने का स्थान है, वहाँ यदि लज्जा नहीं करता और जहाँ लज्जा नहीं करनी चाहिए, वहाँ जो लज्जा करता है, वह कुपथ में चलता है और उसका फल उसके लिए दुःखमय होता है। जो स्थान भय का नहीं है, वहाँ यदि भय करता है और जहाँ भय का स्थान है, वहाँ यदि भय नहीं करता है, तो वह कुमार्ग में पग देकर दुर्गति का भागी बनता है।’ और इस बिहार के पड़ोस में जो बंगाल प्रदेश है, वहाँ की कहावत प्रसिद्ध है-‘मिथ्या लज्जा भय, करिते न हय।’ जो कहना हो, स्पष्ट कहो।”
अपने पिता के वचन से आश्वस्त होकर कुएँ ने कहा कि पिताजी! मैं देखता हूँ, आपके पास जब मेरी बहनें-गंगा, यमुना आदि नदियाँ आती हैं, तो आप उन बहनों को प्यार देते हैं, प्रेम से बात करते हैं, आलिंगन करते हैं, यहाँ तक कि आप अपनी गोद में बिठा लेते हैं; लेकिन हमारी आपके यहाँ कोई पूछ नहीं। एक पिता की अनेक संतानें होती हैं। सब संतानें एक-सी नहीं होतीं; लेकिन पिता को तो सब संतानों पर समदृष्टि होनी चाहिए। चाहे वह पुत्र हो या पुत्री हो। गो0 तुलसीदासजी महाराज ने कहा है-
एक पिता के विपुल कुमारा ।
होहिं पृथक गुन सील अचारा ।।
कोई पंडित कोइ तापस ज्ञाता ।
कोई धनवंत सूर कोई दाता ।।
कोई सर्वज्ञ धर्मरत कोई ।
सब पर पितहि प्रीति सम होई ।।
आपकी भी दृष्टि हम सबपर एक-सी होनी चाहिए; लेकिन आपकी दृष्टि एक सम दीखती नहीं। सागर ने कहा- “ पुत्र! जरा विचारो तो, तुम्हारी बहनें हैं, वे सब जब मेरे पास आती हैं, तो निश्छल हृदय से आती हैं, उल्लसित भाव से आती हैं, कोई परदा मेरे सामने नहीं रखती हैं। किनारों को तोड़कर आती हैं। क्या तुमने संत कबीर साहब की वाणी नहीं सुनी?
तेरो को है रोकनहार मगन से आव चली ।।
लोक लाज कुल की मरजादा, सिर से डारि अली ।
पटक्यो भार मोह माया को, निर्भय राह गही ।।
काम क्रोधाऽहंकार कल्पना, दुर्मति दूर करी ।
मान अभिमान दोउ धार पटक्यो, होइ निशंक रली ।।
पाँच पचीस करे वश अपने, करि गुरु ज्ञान छड़ी ।
अगल बगल के मारि उड़ाये, सनमुख डगर धारी ।।
तुमने तो अपनी चारो ओर दीवार बना रखी है, फिर मुझसे कैसे मिल सकते हो?” कुएँ के चारो ओर दीवार होती है और नदी जो बहती रहती है, वह दीवार से घिरी नहीं रहती है।
यह संतमत बतलाता है कि यहाँ भी जो कोई दीवार नहीं रखते हैं, उनके लिए संतमत तैयार है। चाहे वे किसी भी धर्म के हों, किसी भी मजहब के हों, किसी भी सम्प्रदाय के हों, यह संतमत अपना प्यार देने के लिए गोद फैलाकर तैयार है। संतमत में दो शब्द हैं-‘संत और मत।’ संत किनको कहते हैं? किनको हम संत कहें? उपनिषद् में आया है-
भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः ।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे ।।
-महोपनिषद्, अ0 4/82
अर्थात् परे से परे (परमात्मा) को देखने पर हृदय की ग्रंथि खुल जाती है, सभी संशय छिन्न हो जाते हैं और सभी कर्म नष्ट हो जाते हैं।
गो0 तुलसीदासजी ने भी कहा है-
जड़ चेतनहिं ग्रंथि पड़ि गई।यदपि मृषा छूटत कठिनई ।।
जड़-चेतन की ग्रंथि जिनकी खुल जाती है, उनको क्या मिलता है? संत कबीर साहब कहते हैं-
लाल लाल सब कोई कहै, सबकी गाँठी लाल ।
गाँठी खोलि के परखै नहीं, तासे भये कंगाल ।।
जो इस जड़-चेतन की गाँठ को खोल देते हैं, उनको लाल मिलता है। जो लाल संसार में जौहरी के यहाँ मिलता है, वह लाल नहीं; असल में वह लाल है-परमात्मा, अल्लाह, गॉड जो कहिये। जो परमात्मा रूपी लाल को पाता है, उसका जीवन निहाल हो जाता है; कंगाल वह नहीं रह जाता, मालोमाल हो जाता है और वह ऐसा हो जाता है कि उसपर काल की दाल नहीं गलती। उसी लाल को पाने के लिए संत-महात्मागण कहते हैं। जो परमात्मारूपी लाल को प्राप्त कर चुके हैं, वे ही संत कहलाते हैं। वे संत यह नहीं कहते कि परमात्मारूपी लाल तुमको कहीं बाहर में मिलेगा।
एक यात्री था। यात्र कर रहा था। उसके पास में एक लाल था। एक कोई पॉकेटमार था। उसको मालूम हो गया कि इस यात्री के पास एक लाल है। किसी तरह लाल लेना चाहिए। वह उस यात्री का साथी बन गया। ट्रेन से जाते-जाते एक स्टेशन पर दोनों उतरे। एक ही कमरे में दोनों ठहरे। जो पॉकेटमार था, उसने कहा-‘भाई! देखिये हमलोग परदेशी ठहरे। न आपके पास कोई साथी है और न मेरे ही साथ कोई है। आपके पास में भी कुछ जरूर है और मेरे पास में भी कुछ है। हम दोनों यदि एक ही साथ सो जाते हैं, तो हमलोगों का माल कोई लेकर गायब भी कर सकता है। इसलिए हम दोनों में तीन घंटे आप जगें और तीन घंटे मैं जगूँगा। इस तरह सोते-जागते हमलोग रात बितावें।’ यात्री ने कहा-‘हाँ भाई! ठीक कहते हो। देखो, तुम मुझसे उम्र में कम ही मालूम पड़ते हो, इसलिए पहले तुम ही सो जाओ। मैं जगकर रहूँगा।’ वह पॉकेटमार तीन घंटे तक सो गया। इसने भी पॉकेटमार को परख लिया था कि यह जरूर कोई ठग है, मुझे ठगने आया है। इसलिए इसने अपने पास का लाल उसकी गठरी में रख दिया। तीन घंटे बीतने पर उसे जगा दिया और कहा कि भाई! तीन घंटे तुम्हें सोये हो गये, अब तुम जगो और मैं सोता हूँ। पॉकेटमार ने कहा-‘हाँ! भाई साहब! ठीक है, अब आप सोइये।’ यह निश्चिन्त होकर सो गया। जबतक वह सोया रहा, तबतक पॉकेटमार इसकी कमर, जेब, गठरी को टटोलते रहा। खोजते-खोजते तीनों घंटे बीत गये; लेकिन लाल-माल का पता नहीं चला। तीन घंटे के बाद इसको जगा दिया और कहा-‘भाई साहब! सबेरा हो गया। अब हम दोनों दूसरी-दूसरी राह से जाएँगे; लेकिन एक बात आपसे पूछना चाहता हूँ।’ इसने कहा-‘क्या पूछना चाहते हो?’ पॉकेटमार ने कहा-‘देखिये, मैं तो ठग हूँ। मुझे पता चल गया है कि आपके पास में लाल है। उसी लाल को लेने के लिए ही मैंने आपका पीछा किया था। सारी रात उस लाल की खोज में बीत गई। आपकी जेब, कमर को टटोलते-टटोलते मैं थक गया; लेकिन लाल का पता नहीं चला। अब मुझे उस लाल का पता बता दें कि आप लाल को कहाँ और कैसे रखे थे? अब तो आप अपनी ओर चले जाएँगे और मैं भी अपनी ओर।’ इसने कहा-‘अरे! तू दो नम्बर का ठग है। मैं तो एक नम्बर का ठग हूँ। मुझे तो पहले से ही पता चल गया था कि तू ठग है। जिस समय तू सो जाता था, मैं तेरी गठरी में लाल को रख देता था। देखो, अभी भी तेरी ही गठरी में लाल है।’ उसकी गठरी से लाल निकालकर रख लिया और कहा-‘देखो! तेरी ही गठरी में लाल था न।’ कहने का मतलब कि जो दूसरे की गठरी में लाल खोजेगा, उसको लाल कैसे मिल सकता है? लाल है अपनी गठरी में, खोजता है दूसरे की गठरी में। लाल मिलेगा तो कैसे? इसी तरह जड़-चेतन की गाँठ अपने अंदर में है। इसको खोलकर जो अपने अंदर नहीं खोजता है, उसको परमात्मरूपी लाल कैसे मिलेगा? इसीलिए उसकी कंगाली बनी ही रहती है। इसीलिए संत-महात्मा लोग कहते हैं-बाहर में मत खोजो, अपने अंदर में खोज करो। संत-महात्मा लोग अपने अंदर में खोजकर परमात्मा को प्राप्त कर लेते हैं। इसीलिए उपनिषत्कार ने कहा-
‘भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः।’
जहाँ प्रत्यक्षता है, वहाँ संशय कहाँ? परमात्मा को जो प्राप्त कर लेते हैं, उनके हृदय की गाँठ खुल जाती है और सारे संशय दूर हो जाते हैं। हाँ, जहाँ प्रत्यक्षता नहीं है, वहाँ संशय है कि प्रभु हैं या नहीं। जिनको परमात्मा का दर्शन हो जाता है, उनके सारे धर्म नष्ट हो जाते हैं। उनको न अच्छे कर्म बाँध सकते, न बुरे कर्म ही। अशुभ-शुभ कर्म से वे परे हो जाते हैं। सत्-असत् से आगे चले जाते हैं। यदि पाप का बंधन लोहे का है, तो पुण्य का बंधन सोने का है। चाहे अपने को लोहे की जंजीर से बाँधिये या सोने की जंजीर से बाँधिये। आखिर दोनों बंधन-ही-बंधन हैं। संत-महात्मा लोग कहते हैं, इन दोनों से ऊपर उठ जाओ। ऐसे जो होते हैं, वे ही संत-महात्मा कहलाते हैं। संत-महात्माओं की दृष्टि परे-से-परे को देखनेवाली होती है। जड़ से परे चेतन और चेतन से भी परे देखनेवाली उनकी दृष्टि होती है। अपरा से परे परा और परा से भी परे देखने की दृष्टि उनकी होती है। क्षर से परे अक्षर और अक्षर से परे पुरुषोत्तम को देखने की जिनकी दृष्टि होती है, उन्हीं के लिए कहा-‘तस्मिन्दृष्टे परावरे।’स्थूल, सूक्ष्म, कारण, महाकारण के परे जो चेतन है, उनको भी जो पार कर जाते हैं, वे संत कहलाते हैं। ऐसे ही संत का जो मत है, वह ‘संतमत’ है। चाहे वे संत ईसाई हों, मुसाई हों, वैदिक हों, मुसलमान हों, इस देश के हों या अन्य देश के हों, साधु-वेश में हों या गृहस्थ-वेश में हों, चाहे इस जाति के हों या उस जाति के हों वा किसी भी जाति के हों।
जाति पाँति पूछै नहिं कोई। हरि को भजै सो हरि का ह ोई ।।
मुण्डकोपनिषद् में आया है-
यथा नद्यः स्यन्दमानाः समुद्रेऽस्तं
गच्छन्ति नामरूपे विहाय।
तथा विद्वान् नामरूपाद्विमुक्तः
परात्परं पुरुषमुपैति दिव्यम्।।
अर्थात् जिस प्रकार निरन्तर बहती हुई नदियाँ अपने नाम-रूप को त्यागकर समुद्र में अस्त हो जाती हैं, उसी प्रकार संत-महात्मागण नाम-रूप का सहारा लेकर परात्पर दिव्य पुरुष को प्राप्त करते हैं।
ऐसे संतों का जो मत होता है, वह संतमत कहलाता है। ऐसे संत एक ईश्वर पर विश्वास करते हैं और सबको उपदेश करते हैं कि एक ईश्वर पर विश्वास करो। ईश्वर की प्राप्ति अपने अंदर होगी, बाहर में नहीं होगी। इसके लिए अपने को परम पवित्र बनाना होगा। गुरु नानक साहब ने कहा है-
सूचै भाड़ै साचु समावे, विरले सूचाचारी ।
तन्तै कउ परम तंतु मिलाइया, नानक सरणि तुमारी ।।
पवित्रता केवल शरीर धोने से नहीं आती। पवित्रता आती है अन्तःकरण के धोने से। अन्तःकरण धोने का क्या उपाय है? इसके लिए मानस जप करो, मानस ध्यान करो, दृष्टि साधन की क्रिया करो और नादानु- सन्धान करो, तब अन्तःकरण की पवित्रता होगी। इस क्रियाओं के साथ पाँच पापों से अपने को बचाए रखो अर्थात् जो झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार-इन पंच पापों से विरक्त होकर प्रभु-भक्ति में अनुरक्त रहते हैं, वे संत कहलाते हैं। साथ ही संतों ने यह बतलाया कि परमुखापेक्षी मत बनो।
जीवन बिताओ स्वावलम्बी, भरम भाँड़े फ़ोड़िकर ।
संतों की आज्ञा हैं ये मेँहीँ, माथ धार छल छोड़िकर ।।
-महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज
इसलिए स्वोपार्जन करो। अपने पसीने की कमाई से जीवन-यापन करो। परिवार का जीवन-यापन करो। देश की भलाई करो। तुममें क्षमता है, तो विश्व की भलाई करो। यही संतों का मत है। थोड़ा-सा आपलोगों के सामने मैंने संतों के उपदेशानुसार अपना विचार रखा। स (पूज्यपाद महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन 74वें वार्षिक महाधिवेशन, राँची नगर के शहीद मैदान में दिनांक 19-03-1981 ई0 को अपराह्णकालीन सत्संग के सुअवसर पर हुआ था। दिसम्बर, 2009)
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किसी समय भगवान श्रीराम साकेत नगर- अयोध्याजी में उपस्थित थे। उनकी उपस्थिति में ही वहाँ के पुरजन, परिजन, गुरुजन, सज्जन-ये सबके सब दुःखी थे। सभी दुःख-शोक से आकुल-व्याकुल थे, छाती पीटते थे, सिर धुनते थे।
पुनः किसी दूसरे समय का प्रसंग है कि मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम श्रीअयोध्याजी में नहीं थे; परन्तु वहाँ के पुरजन, परिजन, गुरुजन, सज्जन सबके सब सुखी थे, प्रसन्न थे, खुशियाँ मना रहे थे। बात उलटी-सी लगती है; किन्तु उलटी नहीं, सुलटी है। आप कहेंगे-कैसे? रामचरितमानस का वह प्रसंग आपको स्मरण होगा, जबकि भगवान श्रीराम युवराज-पद पर प्रतिष्ठित होनेवाले थे; लेकिन माता कैकेयी के कहने से राजा दशरथजी ने उनको वन जाने की आज्ञा दे दी थी। उस समय श्रीभगवानजी तो अयोध्याजी में ही थे, किन्तु वनवास की बात सुनते ही सब-के-सब महादुःखी हो रोने लगे थे। उस समय वहाँ दुःख का साम्राज्य छा गया था।
भगवान श्रीराम 14 वर्षों के लिए जंगल गये थे। समय बीतते-बीतते इतना बीता कि मात्र एक दिन रह गया था। उस समय भरतजी की कैसी दयनीय दशा थी, गो0 तुलसीदासजी महाराज ने इस भाँति चित्रित किया है-
रहेउ एक दिन अवधि अधारा।
समुझत मन दुख भयउ अपारा।।
कारन कवन नाथ नहिं आयउ।
जानि कुटिल किधौं मोहि बिसरायउ।।
श्रीभरतजी विलाप कर रहे थे। इतने में ही श्रीहनुमानजी आते हैं और खबर देते हैं कि भगवान पुष्पक विमान से पधार रहे हैं। सुनते ही सबके सब प्रसन्न और सुखी हो गये। भगवान श्रीराम इस समय अयोध्या में नहीं हैं; किन्तु पुरवासी खुशियाँ मना रहे हैं। इसी हेतु मैंने उपर्युक्त दोनों प्रकार की बातें कहीं थीं।
हाँ, अब आगे का प्रसंग सुनिये। जब भगवान श्रीराम राजा होकर राज-काज सँभालने लग गये, उस समय उन्होंने गुरु, द्विज, पुरवासी, सज्जन, परिजन एवं समस्त प्रजाओं को बुलाकर इस प्रकार उपदेश दिया था-
आकर चारि लच्छ चौरासी।
जोनि भ्रमत यह जिव अबिनासी।।
फिरत सदा माया कर प्रेरा।
काल कर्म सुभाव गुन घेरा।।
कबहुँक करि करुना नर देही।
देत ईस बिनु हेतु सनेही।।
उनके कहने का तात्पर्य यह है कि चार खानियों में चौरासी लाख योनियाँ हैं। यह अविनाशी जीव माया की प्रेरणा से काल, कर्म, स्वभाव और गुण के घेरे में रहकर इन चारो खानियों-अंडज, पिंडज, उष्मज, स्थावर की चौरासी लाख योनियों में भटकता है। कुछ लोगों ने चौरासी लाख योनियों की गणना इस भाँति बतायी है-
“ तीस लाख स्थावर जानो।
नौ लाख सब जलचर मानो।।
ग्यारह लाख कृमि कवि गाये।
पक्षी गण दस लाख सुहाये।।
बीस लाख पशु जानहु भाई।
चार लाख वानर समुदाई।।
जब यह चौरासी छूटि जावै।
तब मानुष के तन को पावै।।”
‘दासबोध’ में सब इसी प्रकार बतलाकर चार लाख ‘वानर’ की जगह ‘मनुष्य’ लिखा है। खैर! जो कुछ भी हो, जीव को असह्य कष्ट और वेदना से दुःखी होते देखकर करुणा-सागर परम प्रभु करुणा करके मनुष्य का शरीर देते हैं।
भगवान श्रीराम के वचन के अध्ययन से यह आशय निकलता है कि मनुष्य का शरीर पीछे मिला है। इसके पहले तो मनुष्येतर पशु-पक्षी, कीट-पतंग आदि थे। संत तुलसीदासजी के वचन में है-
पूस कीट पतंग होते, किधौं तरबर पच्छि रे।
किधौं जल के जीव होते, किधौं सागर मच्छि रे।।
भ्रमत षट् ऋतु दिवसनिशि, तन सहत है बहु दुक्ख रे।
हरि विमुख सठ जीव कतहूँ, नाहिं पावत सुक्ख रे।।
पशुओं में भी भिन्नता होती है, सबकी बनावट एक-सी नहीं होती। कितने पशुओं को सींग और पूँछ दोनों होते हैं; जैसे गाय, बैल, हिरन, भैंस आदि। कुछ पशुओं को सींग नहीं होते, मात्र पूँछ होती है; जैसे बाघ, सिंह, घोड़ा, हाथी, कुत्ता आदि। लेकिन गोस्वामी तुलसीदासजी के विचार में बिना सींग और पूँछ के भी पशु होते हैं। कौन? इसके उत्तर में वे कहते हैं-
रामचन्द्र के भजन बिनु, जो चह पद निर्वाण ।
ज्ञानवन्त अपि सो नर, पसु बिनु पूँछ विषाण ।।
(रामचरितमानस)
अर्थात् ईश्वर-भक्ति किये बिना ही जो जन मुक्ति चाहते हैं, वे बिना पूँछ और सींग के पशु हैं। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-
आहारनिद्राभयमैथुनञ्च सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम् ।
ज्ञानं नराणामधिकं विशेषो ज्ञानेनहीनाः पशुभिः समानाः।।
अर्थात्-आहार, निद्रा, भय तथा मैथुन; ये सब विषय पशु और मनुष्य में एक समान ही हैं यानी कुछ भी प्रभेद नहीं है। केवल ज्ञान-लाभ करने पर ही मनुष्य पशु से श्रेष्ठ हो सकता है; सुतरां स्पष्ट प्रतीत होता है कि ज्ञानहीन मनुष्य पशुवत् है। और वह, जो अपने स्वल्प ज्ञान के अभिमान में बड़ों के उच्च ज्ञान को तुच्छ कर जानता है, पशु के समान ही है। बोल- चाल की भाषा में नासमझ वा कम समझ के लोगों को भी कुछ लोग बैल, गदहा, ऊँट आदि कह देते हैं। एक संत ने कहा है-एक कुत्ते को भूँकते देखकर अन्य कुत्ते भी भूँकने लगते हैं। एक सियार की ‘हुआँ-हुआँ’ आवाज को सुनकर निकटवर्ती अन्य गीदड़ भी हुआँ-हुआँ करने लगते हैं। उसी तरह किसी एक की बात को सुनकर सत्यासत्य का निर्णय किये बिना उसी की तरह बोलनेवाले, उन कुत्तों और गीदड़ों से कम नहीं है।
जैसे स्वान देखि कछु भूँकै, उसने तो कुछ पाई ।
उसकी भूँक जो सुनि कै भूँकै, सो अहमक कहलाई ।।
संत कबीर साहब कहते हैं-
कामी कुत्ता तीस दिन, अन्तर रहै उदास ।
कामी नर कुत्ता सदा, छः ऋतु बारह मास ।।
गोस्वामी तुलसीदासजजी महाराज विनय- पत्रिका में कहते हैं-
“ ते नर नरक-रूप जीवत जग,
भव-भंजन पद विमुख अभागी ।
निसि वासर रुचि पाप असुचि मन,
खल मति मलिन निगम पथ त्यागी ।।1।।
नहिं सतसंग भजन नहिं हरि को,
स्त्रवन न राम-कथा अनुरागी ।
सुत वित दार भवन ममता निसि,
सोवत अति न कबहुँ मति जागी ।।2।।
तुलसिदास हरिनाम-सुधा तजि,
सठ हठ पियत विषय-विष माँगी ।
सूकर स्वान सृगाल सरिस जन,
जनमत जगत जननि दुख लागी ।।3।।
किसी ने कहा है, जो स्वयं दुःख सहकर दूसरे को सुख देते हैं, वे देवतुल्य हैं। जो अपने सुख के लिए दूसरे को दुःख नहीं देते हैं, वे मनुष्य हैं। जो स्वयं के सुख के लिए दूसरे को दुःख देते हैं, वे राक्षस हैं और जो दूसरे को दुःख देने के लिए स्वयं दुःख सहते हैं, उनके लिए कोई संज्ञा नहीं है। भगवान जानें, वे कौन हैं? अथवा हम स्वयं अपने लिए निर्णय करें, कौन हैं?
गुरु पशु नर पशु नारि पशु, वेद पशु संसार ।
मानव सोई जानिये, जाहि विवेक विचार ।।
इस दृष्टि से मानव-शरीर में आने के पूर्व हम पशु थे तथा मनुष्य-शरीर में आने पर भी विवेकहीन होने के कारण पशु हैं। इन दोनों के संबंध में हमलोगों ने समझ लिया। अब भविष्य में भी पशु होंगे। कौन? इस विषय की पुष्टि के लिए संत कबीर साहब की सूक्ति सुनिये-
लख चौरासी भरमि कै, पौ पर अटके आय ।
अबकी पासा ना पड़ै, फिर चौरासी जाय ।।
पचीसी एक प्रकार का खेल है और चौसर की विसात पर खेला जाता है। इसमें चौरासी कोठे (खाने) होते हैं और चार गोटियाँ होती हैं। सात कौड़ियों को एक साथ मुट्ठी में लेकर नीचे गिरायी जाती हैं। उनमें जितनी कौड़ियाँ चित होती हैं, उसी क्रम से एक-एक गोटी चलती है। इस प्रकार चलती- चलती गोटी जब चौरासीवें कोठे में पहुँचती है, तब वहाँ संज्ञा ‘पौ’ हो जाती है। उस समय जब एक कौड़ी चित होती है, तब गोटी चौरासी से बाहर हो जाती है और उसकी गोटी ‘लाल’ कही जाती है। यदि एक से अधिक कौड़ियाँ चित होती हैं, तो उस गोटी को पुनः चौरासी कोठों में घूमना पड़ता है।
इस दृष्टान्त के द्वारा संत कबीर साहब ने यह सीख दी है कि मनुष्य-शरीर चौरासी लाख योनियों में अंतिम योनि है। इसमें भगवद्भजन करके यदि जीव परम प्रभु परमात्मा को पा लेता है, तो वह भी लाल हो जाता है।
लाली मेरे लाल की, जित देखौं तित लाल ।
लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल ।।
यानी आवागमन से छूट जाता है, अन्यथा पुनः चौरासी लाख योनियों के चक्र में भ्रमण करना पड़ता है। उनके विचार में जो लोग सचेत नहीं, अचेत रहेंगे यानी भगवद्भजन नहीं करके भौतिक भोगों में रमण करते रहेंगे, वे लोग पुनः कूकर-शूकर आदि योनियों में पड़कर दुस्सह दुःख भोगेंगे।
कहै कबीर चेत अजहूँ नहिं, फिर चौरासी जाई ।
पाय जन्म कूकर सूकर को, भोगेगा दुःख भाई ।।
भगवान बुद्ध ने भी कहा-आलसी, बहुत खानेवाला, निद्रालु, करवट बदल-बदलकर सोनेवाला, खिला-पिलाकर पुष्ट किये-गये मोटे सूअर की तरह मंदबुद्धि बार-बार गर्भ में पड़ता है।
मिद्धि यदा हो तिमहग्धसो च निद्दायिता सम्परिवत्त सायी ।
महावराहो’व निवापपुट्टो पुनप्पुनं गब्भमुपेति मन्दो ।।
(धम्मपद नागवग्गो)
संत चरणदासजी महाराज की वाणी में है-
सतगुरु सरना न लगे, किया न हरि का खोज ।
जौं खर कूकर सूकरा, अरु जंगल का रोझ ।।
जैसा तैसा खाय करि, पेट भरे भरि लेह ।
पड़कर सोवै भोर लगि, सो कूकर की देह ।।
जो पावै सोई चरै, करै नहीं पहचान ।
पीठ लदै हरि ना जपै, ताकूँ खर ही जान ।।
संत कबीर साहब प्राप्त अवसर से शीघ्र ही लाभ उठाने का प्रबल आदेश देते हैं और कहते हैं कि इसका शुभ संयोग बार-बार नहीं मिलता। यदि इस जन्म में चूक गया, तो मूक प्राणी बन दिन-रात दुःख के भागी बनोगे। यथा-
काल्ह करै सो हालहि करि ले, फिर न बने यह साथा।
चौरासी में जाय पड़हुगे, भुगतो दिन अरु राता।।
और संत सूरदासजी महाराज कहते हैं-
भजन बिनु बैल विरानै ह्वै हौ ।
पाउँ चारि, सिर सींग, गूँग मुख, तब कैसे गुन गैहौं ।।
चारि पहर दिन चरत-फिरत बन, तऊ न पेट अघैहौं ।
टूटे कंध अरु फूटि नाकनि, कौ लौ धौ भूस खैहौं ।।
लादत जोतत लकुट बाजिहैं, तब कहँ मुँड दुरैहौं ।
सीत घाम धन विपत्ति बहुत विधि, भार तरै मरि जैहौं ।।
हरि सन्तन कौ कह्यौ न मानत, कियो आपुनौ पैहौं ।
सूरदास भगवन्त भजन बिनु, मिथ्या जनम गँवैहौं ।।
इतना ही नहीं, संत कबीर साहब ने तो भक्ति रिक्त लोगों के भविष्य के सात जन्मों की चर्चा एक साथ की है। उन्होंने उसका क्रम बतलाया है कि मानव-शरीर छूटने के बाद तुम किस-किस योनि में जाओगे तथा वहाँ तुम्हारी क्या स्थिति होगी!
दिवाने मन भजन बिना दुख पैहौ ।।टेक।।
पहिला जनम भूत का पैहौ, सात जनम पछितैहौ ।।
काँटे पर लै पानी पैहौ, प्यासन ही मरि जैहौ ।।
दूजा जनम सुवा का पैहौ, बाग बसेरा लेइहौ ।।
टूटे पंख बाज मँडराने, अधफड़ प्रान गँवैहौ ।।
बाजीगर के बानर होइहौ, लकड़िन नाच नचैहौ ।।
ऊँच नीच से हाथ पसारिहौ, माँगे भीख न पैहौ ।।
तेली घर के बैला होइहौ, आँखिन ढाँप ढँपैहौ ।।
कोस पचास घरै में चलिहौ, बाहर होन न पैहौ ।।
पँचवाँ जनम ऊँट के पैहौ, बिन तौले बोझ लदैहौ ।।
बैठे से तो उठै न पैहौ, घुरच घुरच मरि जैहौ ।।
धोबी घर के गदहा होइहौ, कटी घास न पैहौ ।।
लादी लादि आपु चढ़ि बैठे, लै घाटे पहुँचैहौ ।।
पंछी माँ तौ कौवा होइहौ, करर करर गुहरैहौ ।।
उड़ि के जाइ मैला पर बैठौ, गहिरे चोंच लगैहौ ।।
सत्तनाम की टेर न करिहौ, मन हीं मन पछितैहौ ।।
कहै कबीर सुनो भाइ साधो, नरक निसानी पैहौ ।।
संत और भगवंत के वचनों से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि भूत में पशु थे, वर्तमान में पशु है और भविष्य में पशु रहेंगे। अतएव यदि हम इससे मुक्त होना चाहते हैं, तो ईश्वर का भजन करें। गोस्वामी तुलसीदासजी ने रामचरितमानस में कागभुशुण्डिजी और गरुड़जी का संवाद लिखा है-
जिमि थल बिनु जल रहि न सकाई ।
कोटि भाँति कोउ करै उपाई ।।
तथा मोक्ष सुख सुनु खगराई ।
रहि न सकइ हरि भगति बिहाई ।।
अर्थ-जैसे बिना धरती के जल नहीं रह सकता, चाहे कोई करोड़ों उपाय क्यों न करे! हे गरुड़जी! सुनिए, उसी प्रकार हरि-भक्ति को छोड़कर मोक्ष सुख दूसरी जगह रह नहीं सकता। इसलिए यदि हम आवागमन के दुःख से छूटना चाहते हैं, चौरासी में पड़ना नहीं चाहते हैं, भवबंधन से मुक्त होना चाहते हैं, तो ईश्वर का भजन करें। संतों ने कहा है-ईश्वर की भक्ति करो; किन्तु भक्ति की यथार्थ विधि जानकर करो। यानी जैसी भक्ति होनी चाहिए, वैसी भक्ति करो। देखादेखी की भक्ति से बात बनती नहीं। उससे भगवत् भक्ति का रंग लगता नहीं। अभंग भक्ति होती नहीं। फलतः भवभंग होता नहीं।
देखा देखी भक्ति का, कबहुँ न चढ़सी रंग ।
विपति पड़े यों छाड़सी, ज्यों केंचुली भुजंग ।।
गुड़वाा-गुड़िया का खेल खेलकर समय बिताने से कोई लाभ नहीं होगा। संत कबीर साहब के वचन में है-
करो जतन सखी साईं मिलन की।
गुड़वा गुड़िया सूप सुपलिया,
तजि दे बुध लड़कैयाँ खेलन की।
जैसे यदि कला सीखनी है, तो किसी कलाकार से सीखो। उसी तरह भव-पार होना चाहते हो, तो सद्गुरु-कर्णधार से मिलो। ईश्वर की भक्ति करना है, तो किसी जानकार से जानकर करो। मात्र पढ़न्त, सुनन्त और मनगढ़न्त ज्ञान से काम नहीं चलता। यदि किताबों को पढ़ लेने से लोग विद्वान् हो जाते, तो इंजीनियरिंग की पुस्तकों को पढ़कर इंजीनियर, कानून की किताबों को पढ़कर वकील और मेडिकल बुक्स को पढ़कर डॉक्टर बन जाते, विद्यालय-महाविद्यालय और विश्वविद्यालय की क्या आवश्यकता थी? किन्तु ऐसा नहीं होता है। जिन्होंने जिस विषय का अध्ययन किया है, उसमें उत्तीर्णता प्राप्त की है, उनके पास जाकर उस विषय का अध्ययन करना पड़ता है। उसी तरह जिन्होंने भगवद्भजन करके सर्वेश्वर का साक्षात्कार कर लिया है, उस अनुभवी संतों के पास जाकर हम सैद्धांतिक और प्रायोगिक (Practical and Theoritical) दोनों तरह से सीखें।
वे बतलायेंगे कि सत्य क्या है, असत्य क्या है, ईश्वर-स्वरूप क्या है, उसको पाने का रास्ता क्या है, किस तरफ चलना है, किस तरह चलना है आदि। संत राधास्वामीजी महाराज कहते हैं-
“ यह तन दुर्लभ तुमने पाया।
कोटि जनम भटका जब खाया।।
अब याको बिरथा मत खोओ।
चेतो छिन-छिन भक्ति कमाओ।।
भक्ति करो तो गुरु की करना।
मारग शब्द गुरु से लेना।।
शब्द मारगी गुरु न होवे।
तो झूठी गुरुआई लेवे।।”
उनके कहने का प्रयोजन यह है कि जिन्होंने सुरत शब्द-योग की साधना की है, उनको गुरु धारण करें। अन्यथा जिनको नाद-संबंधी ज्ञान नहीं है, ऐसे गुरु धारण करने के योग्य नहीं है। हाथरस निवासी संत तुलसी साहब ने गुरु और शिष्य दोनों के संबंध में कहा है-
मुर्शिदे कामिल से मिल सिद्क और सबूरी से तकी ।
जो तुझे देगा फहम शहरग के पाने के लिए ।।
अर्थात् जो पहुँचे फकीर-संत सद्गुरु है।, सच्चाई और संतोष धारण करके उनसे मिलो, तुम्हें सुषुम्णा के पाने की सूझ देंगे। जहाँ संतोष और सच्चाई रहेगी, वहाँ अच्छाई-ही-अच्छाई है। इसके अतिरिक्त जहाँ लालच और झुठाई होगी, वहाँ अच्छाई की कतई गुंजाइश नहीं। परमाराध्य श्रीसद्गुरु महाराज जी के वचन में है-‘नादानुसंधान (सुरत-शब्द-योग) लड़कपन का खेल नहीं है। इसका पूर्ण अभ्यास यम-नियम-हीन पुरुष से नहीं हो सकता है।
यद्यपि दृष्टियोग से शब्दयोग आसान है, फिर एकविन्दुता प्राप्त करने तक के लिए दृष्टियोग अवश्य होना चाहिए। परन्तु और विशेष दृष्टियोग कर तब शब्द अभ्यास करने का ख्याल रखना आवश्यक है; क्योंकि इसमें विशेष काल तक कठिन मार्ग पर चलते रहना है। ज्योति नहीं मिले तो उतनी हानि नहीं, जितनी हानि कि शब्द के नहीं मिलने से है। नादानुसंधान में पूर्णता के बिना परम प्रभु सर्वेश्वर की भक्ति में पूर्ण होकर अपना परम कल्याण बना लेना असंभव है।
कबीर पूरे गुरु बिना, पूरा शिष्य न होय ।
गुरु लोभी शिष्य लालची, दूनी दाझन होय ।।
जब कभी पूरे और सच्चे सद्गुरु मिलेंगे, तभी उनके सहारे अपना परम कल्याण बनाने का काम समाप्त होगा। (शान्ति-संदेश, अप्रैल 1995)
यह प्रवचन साप्ताहिक सत्संग के अवसर पर दिनांक- 16-1-1983, स्थान: महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट, भागलपुर में हुआ था।
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जिन्होंने अधिक दिनों तक संतों का संग यानी सत्संग किया है, वे समझ पाये हैं कि संसार में यदि सार है, तो वह ईश्वर का भजन है-भगवद्भक्ति है। संत सद्गुरु से दीक्षित होकर वे भजन करने में लग जाते हैं। किन्तु जिस समय वे भजन करने लगते हैं, तो मन की क्या-क्या दशा होती है? मन की कैसी-कैसी अवस्थाएँ होती हैं? यह वे ही समझ पाते हैं। सब कोई ईश्वर-भजन करना चाहते हैं। लेकिन प्रायः यही सबकी ओर से शिकायत रहती है कि भजन में मन लगता ही नहीं है। क्यों नहीं लगता है? इसलिए कि हम मन लगाकर सत्संग नहीं करते हैं।
भगवद्भजन और सत्संग-इन दोनों का आपस में बहुत बड़ा घनिष्ठ संबंध है। जिस तरह कोई तैराक नदी में तैर रहा हो। तैरते-तैरते वह कुछ दूर चला गया हो। पूरी नदी वह अभी पार कर नहीं पाया है। बीच में ही वह थक गया है। थक जाने के कारण वह आगे बढ़ने में असमर्थ हो गया है। अब उस स्थान से हिलना डुलना भी उससे मुश्किल हो गया। है। यानी वह ऐसा थक गया कि कुछ कर नहीं सकता। दम तोड़ने को तैयार हो गया है। वह सोचता है कि अब मेरी अंतिम घड़ी है। लेकिन प्रभु की कृपा हो जाए और एकाएक उसको चट्टान मिल जाए, तब उस समय उसकी प्रसन्नता कैसी होगी? सब कोई समझ सकते हैं। उस चट्टान पर वह टिक जाएगा। उसपर आराम कर लेगा। थकावट दूर कर लेगा। फिर तैरना शुरू करेगा और तैरते-तैरते वह नदी पार कर जाएगा। उसी तरह हमलोग इस संसार-सागर में डूबते-उतराते हैं और दम तोड़ने के लिए ही तैयार हैं। जिस तरह तैराक के लिए चट्टान सहारा का काम करता है, वहाँ वह आराम कर लेता है, उसी तरह यह सत्संग भवसागर से पार होने में चट्टान का काम करता है। मन संसार के विषयों में भागता है और जब वह सत्संग में आकर कुछ सुनता है, समझता है तो वह अपने मन को कहता है-तुम जाते कहाँ हो? तुमको जाना चाहिए किधर और तुम जा रहे हो किधर? समझा-बुझाकर वह सत्संगरूपी चट्टान पर मन को टिका देता है। मन को ठहरा देता है। फिर वह साधना करने में जूट जाता है। साधना करते-करते वह भवसागर पार कर जाता है।
वस्तुतः वह साधना या भगवद्भजन अकेले में करने की चीज है। अगर अकेला नहीं कर मेले में भजन करना चाहेंगे, तो झमेला होगा। क्योंकि मेले का खेला कुछ और होता है। आपलोगों ने देखा होगा। हमलोगों के यहाँ तो बहुत मेले लगते हैं न! और उन मेलों में झुंड के झुंड लोग जाते हैं। स्त्रियाँ जाती हैं, बहुत-से पुरुष जाते हैं, युवक जाते हैं, युवतियाँ जाती हैं, बच्चियाँ जाती हैं, बच्चे जाते हैं, बूढ़े जाते हैं यानी सब तरह के लोग वहाँ जाते हैं। मेले में जब वे लोग घूमने लगते हैं, तो कितने के साथ में छोटा नन्हा-मुन्ना भी रहता है। देखते-देखते कहीं वह बच्चा कुछ देखने लग जाता है और उसकी माँ या उसका बाप आगे बढ़ जाता है। इस प्रकार वह बच्चा वहीं छूट जाता है। थोड़ी देर तक तो वह बच्चा जो तमाशा देख रहा था, उसमें मशगूल था। उस तरफ से उसकी नजर जब हटती है, तो वह देखता है कि न माँ है, न बाबूजी ही हैं। तो वह बच्चा रोना शुरू कर देता है। पहले सिसक सिसककर, पीछे फूट-फूटकर रोने लग जाता है। कोई दयावंत होते हैं, तो वे उस बच्चे को अपनी गोद में उठा लेते हैं और पूछते हैं-‘बेटे! क्यों रो रहे हो?’ बच्चा तो केवल रोना जानता है। वह बेचारा माँ-माँ कहकर जोर से रोने लगता है। छोटा-सा बच्चा है न! पुनः उससे पूछता जाता है, तुम्हारा घर कहाँ है? तुम्हारा नाम क्या है? तुम्हारे पिताजी का नाम क्या है? बच्चा अगर कुछ समझ-बोध वाला हुआ तो अपना नाम, पिताजी का नाम और घर का ठिकाना बता देता है। जिन्होंने गोद में उठा लिया था, वे उसको ठौर ठिकाने पर पहुँचा देते हैं। अगर बच्चा कुछ बोलता नहीं है, केवल रोता ही रहता है, तो वे सज्जन क्या करते हैं? उसको खाने के लिए उसके हाथ में मिठाई देते हैं। बच्चा मिठाई खाकर कुछ देर चुप रहता है। फिर वे सज्जन कुछ खिलौने लाकर उसके सामने रख देते हैं। कुछ देर खिलौने में भी बच्चा भूला रहता है। पीछे जब उसको फिर माँ-बाप की याद आ जाती है, तो खिलौना फेंक देता है, मिठाई भी फेंक देता है और रोना शुरू करता है। अब उस रोते हुए बच्चे को दुःख की हालत से छुड़ाने के लिए क्या उपाय है? उसको दुःख से छुड़ाने का यही उपाय है कि येन-केन-प्रकारेण उसको उसके माँ-बाप के पास पहुँचा दिया जाए; क्योंकि जबतक उसकी माँ या बाप से भेंट नहीं हो जाती, तबतक उसका रोना नहीं छूट सकता।
अब विचारिये! यह मेला क्या है? वह बच्चा कौन है, जो रोता है? वह मिठाई क्या है? गोद में उठानेवाला कौन है, जो माँ-बाप के पास पहुँचा देता है? यह संसार मेला है, इसमें पंच विषयों का झमेला है। हमलोग चलते हैं, उन्हीं पंच विषयों को देखने के लिए, भोगने के लिए। कहीं किसी विषय में हम लसक जाते हैं, तो लगता है-जैसे परमात्मा रूपी माँ- बाप बच्चे के आगे से खिसक गये। उनका संग छूट गया। जब कभी हमें सुधि आती है कि हमारे परम पिता परमात्मा कहाँ हैं? तो हम दुःखी होते हैं और रोने लगते हैं। जिस समय हमलोग विषय-भोग करते हैं, चाहे वह पंच विषयों में से कोई भी क्यों न हो, उसमें हम मशगूल हो जाते हैं, जैसे कि बच्चे मिठाई और खिलौने में होते हैं। लेकिन जब बुद्धि-विवेक संकेत देता है, समझाता है कि कहाँ तुम भूले हुए हो? अरे! ये पंच विषय क्या हैं? विष-युक्त मिठाइयाँ और इन्द्रियाँ ठग हैं। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि बच्चा किसी ठग के हाथ में पड़ जाता है। ठग उस बच्चे को ले जाता है। उसका अंग भंग कर उससे भीख मँगवाता है। कभी किसी के हाथ में बेच भी लेता है। इस प्रकार दो तरह के लोगों के हाथों में बच्चे पड़ जाते हैं। यदि ठग के हाथ में पड़ गये, तो उसका जीवन बर्बाद होता है और यदि कहीं सज्जन के हाथ में पड़ गये, तो वे उसको ठीक ठिकाने पर पहुँचा दते हैं। वे ठीक ठिकाने पर पहुँचानेवाले कौन हैं? संत सद्गुरु। संत तुलसी साहब कहते हैं-
कोइ भेटैं दीन दयाल डगर बतलावैं ।
जेहि घर से आया जीव तहाँ पहुँचावैं ।।
दरसन उनके उर माहिं करैं बड़ भागी ।
तिनके तरने की नाव किनारे लागी ।।
कहिं वे दाता मिल जायँ करैं भव पारी ।
बिन सतगुरु के धृग जीवन संसारी ।।
सत्संग करना मन तोड़ शरण संतन की ।
अन्दर अभिलाषा लगी रहे चरनन की ।।
सूरत तन मन से साँच रहै रस पीती ।
कोइ जावै सज्जन कुफुर काल को जीती ।।
अमृत हरदम कर पान चुवै चौधारी ।
बिन सतगुरु के धृग जीवन संसारी ।।
जो संत सद्गुरु होते हैं, वे परम दयालु होते हैं। जैसे सज्जन लोग बच्चे को गोद में लेकर उसके घर तक पहुँचाते हैं, उसी तरह संत सद्गुरु ईश्वर से मिलाते हैं। यदि कहीं ठग के फेर में पड़ गये, तब क्या होगा? संत कबीर साहब कहते हैं-
पाँच चोर बड़जोर कुसंगी अति घने।
ये ठगियन जीव संग मूसत घर निसिदिने।
सोवत जागत रैन दिवस घर मूसई।
ठाढ खड़े पुठवार भली विधि लुटई।।
इन ठगियन को राव पकड़ सो लीजिये।
जौं कहुँ आवै हाथ छाड़ि नहिं दीजिये।।
संत कबीर साहब कहते हैं-ये चोर हमारे साथ में जबर्दस्ती चोरी कर रहे हैं। हमारी ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ पाँच चोर हैं। चोर किसको कहते हैं? जिसकी जो चीज नहीं है, उसको जो छिपाकर ले लेता है, उसको हमलोग चोर कहते हैं। जिस आँख के लिए जो रूप नहीं रखा गया है, अगर उस रूप की ओर आँख देखती है, उस रूप को पकड़ती है, उस रूप को ग्रहण करती है, उस रूप को लेना चाहती है, तो वह आँख चोरी कर रही है। कान से जो शब्द नहीं सुनना चाहिए, यदि हम उसको सुन रहे हैं, तो यह चोरी कर रहे हैं। इसी प्रकार जो गंध नहीं लेनी चाहिए, वह गंध ले रहे हैं, चोरी है। जिस रस का आस्वादन नहीं करना चाहिए, जिभ्या से उसका रसास्वादन करते हैं, यह चोरी है। उसी तरह से स्पर्श विषय के संबंध में भी जानिए। ये जो पाँच चोर हमारे साथ लगे हुए हैं, ये पाँच बरजोर चोर हैं, कुसंगी हैं। अभी आपलागों ने रामचरितमानस के पाठ में सुना, जो अच्छी संगति होगी, तो गति अच्छी होगी। बुरी संगति होगी तो गति बुरी होगी। गो0 तुलसीदासजी ने लिखा-
हानि कुसंग सुसंगति लाहू।
लोकउ वेद विदित सब काहू।।
किसी ने पूछ दिया-गोस्वामीजी! आपने तो कहा सही है; लेकिन यह बात सही कैसे है? तो इसके उत्तर में उन्होंने कहा, देखो-
गगन चढ़इ रज पवन प्रसंगा।
कीचहि मिलहिं नीच जल संगा।।
धूल जब हवा का संग कर लेती है, तब वह गगनगामिनी बन जाती है, आकाश में उड़ने लग जाती है। लेकिन वही धूल जब पानी का संग कर लेती है, तब वह मिट्टी में मिलकर कीचड़ बन जाती है, पाताल में चली जाती है। कहाँ आकाश में उड़नेवाली थी, कहाँ पाताल चली गयी। उसी तरह अच्छी संगति करोगे, तब तो आकाश में उड़ोगे अर्थात् परम प्रभु परमात्मा के पास जाओगे। अगर कहीं बुरी संगति करोगे, तो नरक के गर्त में गिरोगे, पड़ोगे, सड़ोगे।
पुनः कहा-कुसंगति पाकर धुआँ काजल हो जाता है और सुसंगति पाकर सुंदर स्याही, जिससे वेद, पुराण आदि सद्ग्रंथ लिखते हैं।
धूम कुसंगति कारिख होई।
लिखित पुरान मंजु मसि सोई।।
जैसा संग वैसा रंग, यह स्वाभाविक है। इसमें कोर कसर नहीं। यदि कहीं सज्जन मिल जायेंगे, तो हमको जरूर भव पार कर देंगे। अगर चोर मिल जायेंगे, तो कमजोर कर देंगे और नरक में ले जायेंगे।
ये पंच विषय जो हमलोगों के साथ में हैं, बड़े जबर्दस्त हैं। जिसको हम मामूली समझते हैं, वह भी हमारे दस्त में नहीं है। मान लीजिए खाना-पीना है। हमलोग रोज खाते-पीते हैं। अगर इस खान-पान पर हमारा संयम नहीं है, तो असंयमित जीवन दुःख का कारण बन जाता है। महात्मा गाँधी ने लिखा है-‘जो कोई रसेन्द्रिय का संयम नहीं कर सकता है, वह जननेन्द्रिय का संयम कभी नहीं कर सकता।’ इस संदर्भ में एक बड़ी मनोहर कहानी है-
एक राजा था। वह शिकार खेलने के लिए जंगल गया। बेचारे को घूमते-घूमते एक कुटी मिली। एक साधु बाबा उसमें बैठे हुए थे और आँख बंद करके कुछ क्रिया कर रहे थे। जाप की क्रिया कर रहे होंगे। राजा वहाँ पहुँचता है। साधु को क्या मालूम कि कौन आया वा न आया, क्योंकि उनकी आँखें बन्द थीं। राजा के मन में हुआ-अरे! इसके यहाँ हम आए और इसने हमको पूछा तक नहीं। हमारे राज्य में ही यह रह रहा है। लगता है इसका अहंकार बढ़ गया है। मन में कहा-देखें, तुम कितने बड़े योगी बने हो? वह चला गया और घर लौटकर उन्होंने घोषणा की-फलाने जंगल में जो एक साधु रहता है, उसको जो कोई हमारे दरबार में ले आवेगा, हम उसको मन-वांछित इनाम देकर पुरस्कृत करेंगे।
साधु को राजा के दरबार में ले जाना यह सामान्य बात नहीं थी। यदि सामान्य साधु हो तो सामान्य बात हो सकती है। लेकिन अगर कोई बड़े साधु हों, तो उनका वहाँ पहुँचना मुश्किल है। हुआ था न? जब यूनान का बादशाह सिकन्दर भारत आया था, तो सबसे पहले पंजाब आया था। पंजाब में एक नदी के किनारे उसने अपना डेरा डाला और पता लगाया कि निकट में कोई अच्छे साधु-महात्मा हैं? क्योंकि उसके गुरु ने कहा था कि भारत में संग्रह की मान्यता नहीं है, त्याग की विशेषता है। वहाँ जो जितने बड़े त्यागी होते हैं, उनका उतना ही बड़ा सम्मान होता है। इसलिए भारत से एक त्यागी महात्मा को ले आना। यहाँ आने पर उन्होंने खोज करवायी तो पता चला कि कुछ दूर पर एक साधु बाबा अपनी कुटिया में ध्यान मग्न हैं। सिकन्दर ने अपने मंत्री से कहा-उन महात्मा को सादर यहाँ बुला लाओ। मंत्री ने वहाँ जाकर उनसे प्रार्थना की-‘यूनान का बादशाह यहाँ आये हैं और आपको बुला रहे हैं। वे आपसे मुलाकात करना चाहते हैं। वे कोई मामूली साधु नहीं थे, उन्होंने स्पष्ट उत्तर दिया कि तुम्हारे बादशाह को मुझसे क्या मतलब? वह तुम्हारा बादशाह है, ठीक है। तुम्हारे बादशाह को कोई सेठ-साहूकार चाहिए, तो थैली भेंट करे। मेरे पास तो थैला है नहीं, भेंट क्या करूँगा? तुम्हारे बादशाह को चाहिए नाचने-गानेवाली। मैं नाचने-गाने वाली बाला भी नहीं हूँ। नाच-गान की विद्या मेरे पास नहीं है। तुम्हारे बादशाह को चाहिए कोई मसखरा, जो हँसी-मजाक करके उनका मन बहलाता रहे। मैं मसखरा भी नहीं हूँ, हँसी-मजाक भी नहीं जानता। इसीलिए मेरी आवश्यकता तुम्हारे बादशाह को नहीं है। बात रही मुलाकात की। तो मैं सांसारिक बादशाह से भेंट करना नहीं चाहता। जो संपूर्ण संसार का बादशाह है, उसी से मैं भेंट करना चाहता हूँ। मंत्री लौटकर चला गया और बादशाह सिकंदर से जाकर साधु की सारी बातें कहीं। सिकंदर भी बड़ा तेज था। वह साधारण बुद्धि का नहीं था। वह बड़ा वीर और विवेकशील था। रहस्य समझ गया। उसने मन में सोचा, अगर कोई साधारण साधु होता, तो बादशाह का नाम सुनकर अवश्य आया होता। लेकिन बादशाह का नाम सुनकर भी उसकी हुकूमत-अदुली करनेवाले अवश्य ही कोई गंभीर वजन वाले संत हैं। वे सांसारिक प्रभाव से प्रभावित होनेवाले नहीं हैं। अतएव स्वयं जाना चाहिए। ऐसा विचारकर सिकंदर स्वयं उनके पास गया और प्रणाम करने के पश्चात् उसने उनसे प्रार्थना की-‘आप हमारे देश को चलें।’ उन्होंने कहा कि तुम्हारे देश जाने की मुझे क्या जरूरत पड़ी है। मुझे अपने देश में किसी चीज की कमी नहीं है, फिर तम्हारे देश क्यों जाऊँ? सिकंदर ने जब बहुत तरह से अनुनय-विनय किया, तो महात्मा जी स्पष्ट कह दिया-‘अरे! तुम मुझे अपना देश क्या ले जाना चाहते हो? तुम स्वयं अपने देश पहुँचकर अपनी माँ से भेंट भी नहीं कर पाओगे।’
संत वचन मिथ्या नहीं होता। स्वदेश लौटते समय रास्ते में सिकंदर बीमार हो जाता है। उसकी बहुत तरह की चिकित्सा की गयी; लेकिन सब श्रम विफल हुआ। सिकंदर ने वैद्यों, हकीमों से कहा कि इस तरह की कोई दवाई दो, औषधि दो, जिससे मैं अपनी माँ से जरा भेंट कर सकूँ। वैद्यों ने कहा-अब तुम्हारे जीवन का अंत होने जा रहा है। सिकंदर ने कहा, मैं अपनी सारी संपत्ति दे दूँगा। मेरे श्वास में एक श्वास भी जोड़ दो। वैद्यों ने उत्तर दिया-तुम्हारे अवशेष श्वास में अब एक श्वास भी नहीं जोड़ा जा सकता, चाहे तुम अपनी सारी सम्पत्ति के साथ सारा राज्य क्यों न दे दो। सिकंदर ने कहा, अफसोस! अगर मैं जाना होता कि एक श्वास की इतनी कीमत है, तो इसका सदुपयोग करता, भगवद्भजन करता; किन्तु अब पश्चाताप के सिवा मेरे साथ क्या जा सकता है? फिर उसने अपने अधिकारियों और कर्मचारियों से कहा कि मेरे शरीर छूटने के बाद अर्थी पर मेरी लाश सजाकर दोनों हाथ को नीचे लटका देना, जिससे संसार के लोग सीख ले सकें विश्वविजय की आकांक्षा रखनेवाला सिकन्दर आज खाली हाथ संसार से जा रहा है। किसी कवि ने कहा भी है-
गये लेकर न वह भी कुछ कि जो दुनिया के माली थे ।
सिकन्दर जब चला दुनिया से, दोनों हाथ खाली थे ।।
उन पंजाबी संत के समान जो महान होते हैं, उनके लिए तो कोई बात नहीं; लेकिन ये बेचारे तो जंगल में रहनेवाले सामान्य साधु ठहरे। इनको क्या पता कि जंगल में भी अमंगल हो सकता है। इन्हीं साधु को राजदरबार में लाने की घोषणा राजा की थी।
राजा के यहाँ एक वेश्या थी। वेश्या ने राजा से कहा-‘मैं साधु को ला दूँगी।’ राजा ने कहा-‘क्या तू उस साधु को ले आएगी?’ वेश्या ने कहा-‘जी हाँ, अवश्य ले आऊँगी।’ राजा ने कहा-‘साधु को यहाँ लाने पर तुम जो माँगोगी, वही मुँहमाँगा वरदान तुमको मिलेगा।’
जैसे कोई राजा गुप्तचर को कहीं भेजते हैं, उसी तरह वेश्या ने अपनी बांदी को समझा-बुझाकर कहा-‘सुनो, पहले जाकर बाबाजी की दिनचर्या देखो कि वे क्या-क्या करते हैं? दिनभर वहीं रहकर और उनकी सारी कार्य-तालिका लाकर शाम में मुझे देना।’ बांदी ने वैसा ही किया। उसने साधु की दिनभर की चर्य्या देख ली और शाम में आकर सारी बातें बताती हुई बोली-‘स्वामिनी! साधु बाबा तो बहुत बड़े त्यागी हैं। जंगल में जो पका हुआ फल नीचे गिरता है, केवल वही फल वे खाते हैं। फल तोड़कर भी नहीं खाते। उनका बड़ा संयममय जीवन है।’ वेश्या ने कहा-‘कोशिश करने से क्या फर्क पड़ता है?’ किसी कवि ने कितना अच्छा कहा है-
कोशिश करने में क्या लज्जा,
यदि न सफलता आवै हाथ।
तो क्या करना तुम्हें चाहिए,
तो पुनः करो उद्योग।।
अतएव उद्योग करके देखना चाहिए। ऐसा विचार कर वेश्या एक सुन्दर थाल में बहुत अच्छी-अच्छी भोजन-सामग्रियाँ लेकर साधु बाबा के पास गई। उस समय साधु बाबा ध्यान में बैठे हुए थे। वह बेचारी उनकी प्रतीक्षा करती रही। जैसे ही साधु बाबा का ध्यान टूटता है, वैसे ही उनके सामने वह थाली रखकर प्रणाम करती है और कहती है- ‘मैं बहुत दूर से आपके दर्शन के लिए आई हूँ। मुझे कोई सन्तान नहीं है। आपसे वरदान लेने आई हूँ और यह भोजन-थाल आपकी सेवा में लाई हूँ।’ साधु बाबा ने अपनी आँखें बंद कर लीं। न उसकी ओर देखा, न उसकी थाली की ओर। वेश्या बहुत देर तक बैठी रही और फिर वह उठकर घर चली गई। दूसरे दिन फिर वह साधु बाबा के पास उसी तरह अच्छी-अच्छी चीजें भोजन के लिए बनाकर ले गई। साधु बाबा उस समय भी ध्यान में बैठे हुए थे। उनके सामने थाली हाजिर कर वह चुपचाप बैठ गई। जब बाबा की आँखें खुलती हैं, तो वे देखते हैं कि सामने में भोजन की बहुत-सी चीजें रखी हुई हैं। वेश्या हाथ जोड़कर कहती है-‘महात्मन्! मैं रोज ठाकुरजी की पूजा करती हूँ। मेरी श्रद्धा ठाकुरजी के प्रति अगाध है। मैं जो ठाकुरजी को भोग लगाती हूँ, वही आपके लिए ले आई हूँ। आप भी भोग लगाइए।’ साधु बाबा ने कहा-‘देखो! मैं तो ये सब चीजें खाता नहीं, जंगल में जो पका हुआ फल गिरता है, वही खाता हूँ।’ वेश्या समझ गई, कल तो ये मुझसे बोले भी नहीं थे और न मेरी तरफ देखे ही थे। कम-से-कम आज इन्होंने मुझसे बोल तो लिया। खाना खाए, चाहे नहीं खाए, अठन्नी भर का काम मेरा हो गया। फिर वह अनुनय-विनय करने लगी कि बाबा! यह तो ठाकुरजी का प्रसाद है। गाछ में भी तो ठाकुरजी की ही कृपा से फल लगता है। इसलिए अधिक नहीं, थोड़ा-सा ही अंगुली में लगाकर चाट लीजिए, तो मैं अपना जीवन सफल समझूँगी। मैं एक सम्भ्रान्त परिवार की महिला हूँ। जरा आप मेरी ओर तो देखिए। मेरी प्रतिष्ठा को भी देखिए। भगवान् के प्रसाद का अनादर मत कीजिए। वह बोलने में बड़ी चतुर थी। साधु बाबा ने कहा-‘तुम बहुत जिद्द कर रही हो।’ वेश्या ने कहा-‘बाबा इसमें जिद्द की क्या बात है, जरा अंगुली लगाकर देखिए तो।’ महात्माजी ने अंगुली लगाकर जिभ्या पर रख लिया और प्रसन्नता के स्वर में कहा-‘बहुत अच्छा।’ वेश्या समझ गई-‘अब मेरा बारह आना काम हो गया।’ पश्चात् प्रणाम करके वह घर चली गई। तीन दिन तक बीच में गायब हो गई। चौथे दिन महात्मा के यहाँ वह फिर आई, उसी तरह थाल में सब सजाकर। साधु बाबा जो अंगुली लगाकर पहले खा चुके थे, तो पता चल गया था कि कैसा स्वाद है? आज तो वेश्या केवल थाल आगे में रखती है। बाबाजी ही पूछते हैं-‘अरी! तीन दिनों तक तुम कहाँ थी?’ उसने कहा-‘बाबा! क्या बतलाऊँ?
गृह कारज नाना जंजाला।
ते अति दुर्गम शैल विशाला।।
गृह-जंजाल में फँस गई थी। आपकी याद तो मुझे दिन-रात बनी हुई थी। लेकिन क्या करूँ? अब थाल में जो कुछ आया है, कृपया आप भोग लगाइए।’ स्वाद का पता तो पहले से था ही। बाबा लगे भोग लगाने और प्रेम से उन्होंने पूरा भोग लगा लिया। अब दो-चार दिनों तक लगातार थाली आती रही, बाबा भोग लगाते रहे। उसके बाद फिर एक दिन जब वह आई, तो अनुनय-विनय करती हुई बोली-‘बाबा एक दिन आप मेरे घर को पवित्र कर देते तो मेरा उद्धार हो जाता। आप मेरे घर पर चलें।’ साधु बाबा बोले-‘मैं तो किसी के घर पर जाता नहीं हूँ। मैं तो जंगल में रहता हूँ।’ वेश्या बोली-‘बाबा! थोड़ी-सी कृपा कीजिए। अधम के उद्धार के लिए ही तो आपलोगों का अवतार हुआ है। मेरे घर पर केवल आपके चरण पड़ जाएँ और थोड़ा जूठन गिर जाय और कोई बात नहीं।’ कई दिनों तक उसका स्वादिष्ट भोजन बाबा कर ही चुके थे। अन्न का प्रभाव मन पर पड़ता ही है। बेचारे एक दिन उसके साथ उसके घर चले गए। वेश्या ने वहाँ भी सादर भोजन कराया और उसकी प्रार्थना पर बाबा दो-चार दिन वहाँ रह भी गए। उसके बाद एक दिन वह कहती है कि बाबा! जरा चला जाय, बगल में ही हमारे राजा जी का महल है। उनको भी दर्शन दीजिए। वे बहुत दिनों से आपके दर्शन करना चाह रहे थे। एक बार वे आपके दर्शन करने के लिए कुटिया में भी गए थे; लेकिन आप ध्यानस्थ थे। दर्शन तो उनको आपके हो गए, परन्तु बातचीत कुछ नहीं हुई और न ही आशीर्वाद मिला। अगर आप उनके घर जाते तो उनका भी कल्याण हो जाता। ऐसी उनकी प्रार्थना और इच्छा थी।’ अब बाबा बेचारे क्या करें। कहावत है कि ‘खाता मुँह है, लजाती आँख है।’ उसकी प्रार्थना स्वीकार कर बाबा दरबार में उपस्थित हो गए। राजा सिंहासन पर बैठे हुए थे। बाबा ने उनको आशीर्वाद दिया। राजा ने कहा-‘मेरा अहोभाग्य है। उस दिन जब मैं आपके यहाँ गया, तो आप मुझसे कुछ बोले तक नहीं। आज आपने मेरे घर पर आकर मुझे दर्शन दिए हैं।’ इसलिए विशेष धन्यवाद तो इस देवीजी को है, जिसने आपको यहाँ तक लाने का कष्ट उठाया है। बाबा की आँखें खुल गईं। रहस्य क्या है, वे समझ गए। तुरन्त अपनी कुटी में लौट गए और पश्चात्ताप करने लग गए कि हाय! केवल एक अवश जिभ्या के कारण ही कहाँ-से-कहाँ पहुँच गया। कहाँ तो मेरे दर्शन करने राजा आया था, कहाँ मुझे ही जहाँ-तहाँ जाना पड़ा, जहाँ नहीं जाना चाहिए। जिभ्या वश में नहीं होने के कारण ही मेरा यह पतन हुआ। उन्होंने फिर दृढ़ प्रतिज्ञा की कि अब मैं भूल से भी किसी इन्द्रिय के अधीन नहीं होऊँगा। किसी संत ने ठीक ही कहा है-
जिभ्या इन्द्री एके नाल। जो रोकै सो बाचे काल।।
संत कबीर साहब कहते हैं-
जाकी जिभ्या बंध नहीं, हिरदे नाहीं साँच ।
ताके संग न लागिये, घालै बटिया काँच ।।
संत कबीर साहब ने सीख दी है कि जिभ्या पर दो तरह के बंधन डालो। एक तो बहुत बोलो नहीं और जो बोलो, सत्य सुहाता बोलो। दूसरी बात जो भोजन लो, वह सात्त्विक और परिमित हो। देख लो कि यह भोजन तुम्हारे लायक है या नहीं? इसलिए हितभुक्, मितभुक् आैर ऋतभुक् के लिए संतों ने आदेश दिया है। ये तीनों चाहिए। तीनों में से किसी की कमी रही, तो हमारी मनोदशा अच्छी नहीं रह सकती। संत वचन है-
‘जैसा खाय अन्न, वैसा होय मन।’
तथा- जैसा अन्न जल खाइए, वैसा ही मन होय ।
जैसा पानी पीजिए, वैसी वाणी होय ।।
इसलिए संतों ने जैसे-तैसे भोजन करने के ऊपर प्रतिबंध रखा है। हमारे परम पूज्य गुरुदेव जी महाराज के वचन में है-
खान-पान को प्रथम सम्हारो।
तब रस-रस अवगुण सब मारो।
मांस मछलिया भोजन त्यागो।
सतगुण खान पान में पागो।।
जो सतोगुणी भोज्य पदार्थ है, वही भोजन करो; लेकिन वह भी खूब ठूस-ठूस करके न खाओ। साधकों के हित में बड़ी ही उचित बात भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है-‘युक्ताहारविहारस्य’। अर्थात् खाना- पीना, सोना-जागना और जग-व्यवहारादि कार्य का परिमाण संतुलित होना चाहिए। तभी भजन में मन लग सकता है। इसीलिए तो एक संत ने कहा-
आसन दृढ़ आहार दृढ़, भजन नेम दृढ़ होय ।
तौ प्राणी पावै कछुक, नहिं तो रहे विषय रस मोय ।।
आसन की दृढ़ता कैसे आएगी? हमलोग जो सत्संग में बैठते हैं, अगर ध्यान से सत्संग की बातों को सुनते हैं, तो उसमें भी आसन की दृढ़ता होती है। मन कहीं है, सत्संग-वचन सुन रहे हैं। कभी तो पलथी मारते हैं, तो कभी दाहिना पैर ऊपर, तो कभी बायाँ पैर ऊपर। कभी यह करवट बदलते हैं, तो कभी वह करवट। इससे आसन-सिद्धि नहीं होती। दृढ़ सत्संग के द्वारा आसन-सिद्धि होती है। मनोयोगपूर्वक सत्संग करने से ध्यान में भी सहायता मिलती है। दूसरी तरह से आसन की दृढ़ता कब होगी? जब आहार दृढ़ होगा। जब भोजन की दृढ़ता होगी, तो आसन में भी दृढ़ता आएगी। आप स्वयं प्रयोग करके देखिए। संभवतः आपने कभी अनुभव किया होगा-
जब आप निमंत्रण में कहीं बाहर जाते हैं, तो वहाँ कुछ अच्छी-अच्छी चीजें खाने को मिलती हैं, तो मन पर नियंत्रण नहीं रहने के कारण कुछ चढ़ा-बढ़ाकर खा लेते हैं। परिणामस्वरूप जैसे ही खाते हैं, वैसे ही मन में होता है, जरा तकिया मिल जाए, तो लेट जाएँ। क्या हुआ? अधिक खाते हैं, तो तुरत लेटने की इच्छा हो जाती है। घर में खाते हैं, तो तुरत लेटने की इच्छा नहीं होती; लेकिन बाहर जाने पर क्यों हो जाती है? इसलिए कि परिमाण में अधिक भोजन कर लेते हैं। अधिक खा लेने से अधिक देर तक सरलतापूर्वक फिर कैसे बैठेंगे?
आसन और आहार दोनों का बड़ा संग है। इसीलिए कहा है-‘आसन दृढ़ आहार दृढ़’। आहार की दृढ़ता से आसन की दृढ़ता होगी और आसन की दृढ़ता में यानी तन के बैठते-बैठते भजन में शनैः शनैः मन भी बैठने लग जाएगा। भजन में भी नियमितता होनी चाहिए। अगर भजन की नियमितता नहीं है, तो फिर आगे प्रगति नहीं हो सकती।
संतों ने त्रिकाल संध्या करने को आदेश दिया है। ब्राह्ममुहूर्त में, दिन में स्नान के बाद और संध्या काल। इन तीनों समयों में हमलोगों की संध्या करने के लिए अवश्य बैठना चाहिए। कुछ लोग कहते हैं कि ब्राह्ममुहूर्त में नींद नहीं टूटती है। मान लीजिए यदि एक बजे रात में ट्रेन पकड़नी हो, तो उस दिन क्या करते हैं? सब दिन चार बजे भोर में उठते हैं। उस दिन एक बजे रात के पहले ही उठना पड़ता हैं, उसी तरह जो समय भजन का है, उस समय प्रमाद छोड़कर हमलोग अवश्य भजन करें। जिस तरह ट्रेन को पकड़ना आवश्यक समझते हैं, उसी तरह भजन करना आवश्यक समझें, तो नींद अवश्य टूट जाएगी। तभी कुछ या सब कुछ मिलेगा। अगर नहीं तो ‘रहे विषय रस मोय’ वाली बात चरितार्थ होगी।
हमारे परम पूज्य गुरुदेव जी महाराज कुछ दिन पूर्व कहते थे-एक बार एक अच्छे पढ़े-लिखे विद्वान् सज्जन बाबा देवी साहब के पास आये। उन्होंने जीवन में जितना पढ़ा था, सबमें वे फर्स्ट होते गये थे, कभी सेकेण्ड हुए नहीं। एक दिन बाबा साहब ने उनसे पूछने की कृपा की-‘कहो, कैसा ध्यान बनता है?’ उन्होंने हाथ जोड़कर उत्तर दिया, ‘हुजूर! हनोज रोज अव्वल।’ अर्थात् आज भी पहला ही दिन है। कितने दिन भजनाभ्यास उन्होंने किया था; लेकिन आज भी उसके लिए पहला दिन साबित हुआ। पुनः उन्होंने प्रार्थना की-‘आज तक मैंने जितना पढ़ा, जितनी विद्या मैंने स्कूल-कॉलेजों में सीखी, कभी किसी में फेल नहीं हुआ। फेल इसी साधन-भजन में हो रहा हूँ, बाबा!’
सफलता के संबंध में तो यही बात है कि जो कोई मन लगाकर भजन करेगा, तो वह निश्चित रूप से पावेगा। इसमें संदेह नहीं कि आरंभ में मन नहीं लगता है; किन्तु लगाते-लगाते अवश्य लगने लगता है। संत कबीर साहब ने साधकों को कितना बड़ा ढाढ़स दिया है-
झुठ-मुठ खेलै सचमुच होय।
सचमुच खेलै बिरला कोय ।
जो कोई खेलै मन चित लाय।
होयते होयते होइये जाय ।।
हमारे सद्गुरुदेव महाराज के वचन में है-
जहँ जहँ मन भगि जाइ, ताहि तहँ-तहँ से तत्छन ।
फेरि-फेरि ले आइ, लगाइय ध्येय में आपन ।।
ऐसेहि करि प्रतिहार, धारणा धारण करिके ।
अरे हाँ रे ‘मेँहीँ’ औरो आगे बढ़िय,
चढ़िय धर धारा धरिके ।।
ध्यानाभ्यास करने के लिए जो बैठता है, तो सबसे पहले प्रत्याहार होता है। प्रत्याहार किसे कहते हैं? मन को साधना में लगाते हैं; लेकिन मन लगता नहीं है, भागता है। उसको समेटते हैं, फिर वह भागता है। मन में विविध बातें आती रहती हैं। इस प्रकार मन के भागने और उसको बारंबार लौटाकर लाने की क्रिया को प्रत्याहार कहते हैं। अब दूसरी तरह से समझें-प्रति+आहार=प्रत्याहार अर्थात् जो विचार आया, उसको आहार बना लिया, खा गये, निगल गये। अगर कहीं उस विचार में बहने लग गये, तब साधना में प्रगति नहीं हो सकती। प्रायः ऐसा देखा जाता है कि जब हम ध्यानाभ्यास करने के लिए बैठते हैं, तब दूसरी-दूसरी बहुत-सी बातें मन में आती रहती है और उसी के पीछे मन बहने लग जाता है। कितनी देर बैठ गये, कुछ पता नहीं चलता। उस समय का गुनावन बड़ा मीठा लगता है। वह इतना सरस मालूम होता है कि छोड़ने की इच्छा नहीं होती। पीछे आसन से उठने पर मन में दुःख और ग्लानि होती है कि हमारा इतना समय व्यर्थ के संकल्प-विकल्प में चला गया। इसीलिए संतों ने कहा-जो गुनावन आवे, उसको खा जाओ, निगल जाओ, जीवित मत छोड़ो, नहीं तो तुमको ही वह निगल जाएगा।
जब बारंबार अधिक देर तक प्रत्याहार करेंगे, तब होगी धारणा अर्थात् अल्प टिकाव। जो मन पहले बहुत भागता था, अब वह थोड़ा टिकने लग गया, चाहे वह टिकाव एक सेकेंड का सौवाँ भाग ही क्यों न हो; उसका नाम हो जाएगा ‘धारणा’। जब धारणा में गहराई आ जाएगी, तब उसकी संज्ञा हो जाएगी-ध्यान। और ध्यान की पूर्णता में हो जाएगी समाधि। योग का आठवाँ अंग है समाधि। इसलिए प्रारंभिक साधना-प्रत्याहार से कभी हारें नहीं, तो कभी-न-कभी हमारी जीत सुनिश्चित है।
हमारे गुरुदेव एक अच्छी उपमा देकर कहते हैं-देखो, तुमको प्यास लगी है। पानी पीने के लिए तुम कुएँ के पास चले गये। रस्सी में बाल्टी बँधी हुई है। उसको तुम कुएँ में डाल दिया। बाल्टी चली गयी कुएँ में और रस्सी भी चली गयी कुएँ में, मात्र रस्सी का एक छोटा-सा छोर तुम्हारे हाथ में बचा हुआ है। उस छोर को यदि तुम छोड़ दो, तो रस्सी भी गई और बाल्टी भी। पानी तुमको मिलेगा नहीं, प्यासे मरोगे। लेकिन यदि तुम रस्सी के छोर को नहीं छोड़ो, तो क्या होगा? वही छोर बाल्टी की ओर तक यानी इनारे के किनारे तक पहुँचाएगा। तात्पर्य यह कि उस छोर को पकड़े रहकर धीरे-धीरे रस्सी को खींचो, तो खींचते- खींचते सारी रस्सी तुम्हारे हाथ में आ जाएगी, बाल्टी आ जाएगी और पानी आ जाएगा। पानी पीकर तुम तृप्त हो जाओगे। उसी तरह भजन का जो छोर है, उस छोर को छोड़ो नहीं। अर्थात् सत्संग और भजन करते रहो। पंच पापों से डरते रहो। साधना में बढ़ते-बढ़ते एक न एक दिन पर प्रभु को पाकर तुम भी परम तृप्त हो जाओगे। परम कल्याण होगा।
सत्संग नित अरु ध्यान नित,रहिये करत संलग्न हो।
व्यभिचार चोरी नशा हिंसा, झूठ तजना चाहिए।।
परमाराध्य गुरुदेवजी महाराज के उपदेशों का सार थोड़े शब्दों में आपलोगों से कहा।
स्थान: महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट, भागलपुर दिनांक-19-6-1983 ई0
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विश्व के सारे आस्तिक धर्मों में एक ईश्वर की मान्यता है; चाहे लोग भले ही स्वदेशानुकूल उन्हें विभिन्न नामों से अभिहित करें। जैसे यहूदी उसे जेहोवा, ईसाई (ब्ीतपेजपंद) गॉड (ळव्क्) वा स्वर्गस्थ पिता, मुसलमान अल्लाह, पारसी अहुरमज्द, चीनी तितीन और भारतीय आर्य्य ब्रह्म वा ईश्वर आदि नामों से संबोधित करते हैं।
निखिल विश्व के एक नियन्ता होने पर भी, इस जगतीतल पर भाँति-भाँति के धर्म प्रचलित है। जिसमें तीन प्रकार के (1) वैदिक, (2) ईसाई (ब्ीतपेजपंद) और (3) इस्लाम धर्मावलम्बी विशेष संख्या में दृष्टिगोचर होते हैं। फिर, इनकी भी भिन्न-भिन्न शाखाएँ हैं।
वैदिक धर्म के लिए तो कहना ही कठिन है कि इसके अन्दर कितने प्रकार के और भी पंथ- सम्प्रदायादि समाहित हैं। किन्तु सभी वैदिक धर्माव- लम्बियों के लिए ‘वेद’ सर्वमान्य ग्रन्थ है, जिसके हम दो भाग पाते हैं-(अ) ज्ञानकाण्ड व उपासना कांड और (आ) कर्मकाण्ड। इनके अनुकूल एक श्रेयमार्गी हुए और दूसरे प्रेयमार्गी। ईसाई धर्म (त्मसपहपवद वि ब्ीतपेजपंद) में दो मत हुए, जिसमें एक को प्रोटेस्टेन्ट (च्तवजमेजंदज) और दूसरे को रोमन कैथोलिक (त्वउंद ब्ंजीवसपब) कहते हैं। इसी तरह दीन इस्लाम में भी एक अपने को सरही और दूसरे अपने को सूफी कहते हैं। सापेक्ष जगत में हम कहीं भी एक की टेक नहीं देख पाते।
अस्तु, हम यहाँ कहना चाहेंगे कि वेदविहित ज्ञानकाण्ड वा उपासनाकाण्ड में योग की प्रधानता रही और यह योग भी उभय भागों में विभक्त हुआ। एतदर्थ योगियों के एक सम्प्रदाय ने प्राणस्पन्द निरोध वा प्राणायाम पर और दूसरे ने मनोनिरोध वा मनोनिग्रह पर जोर दिया। रेचक-पूरकादि द्वारा प्राणस्पन्दन निरोध वा प्राण का व्यायाम करनेवाले मत को हठयोग और केवल ध्यान-योग द्वारा मनोव्यापार निरुद्ध करनेवाले मत को राजयोग कहकर विख्यात किया गया, जिन्हें आगे चलकर क्रमशः पिपीलक मार्ग और विहंगम मार्ग के नाम से अभिहित किया गया। वैदिक काल के बाद जब हम उपनिषद् काल में आते हैं, तब यहाँ भी हम उन युगल योगों की ओर का संकेत पाते हैं। यथा-
शुकश्च वामदेवश्च द्वे सृती देव निर्मिते ।
शुको विहंगमः प्रोक्तो वामदेवः पिपीलिका ।। -वाराहोपनिषद्
अर्थात् देवताओं ने शुक और वामदेव नाम के दो मार्गों का निर्माण किया, जिसमें शुकमार्ग विहंगम मार्ग के नाम से और वामदेव पिपीलिका मार्ग के नाम से प्रख्यात है। उपनिषद् काल के पश्चात् जब हम संत-युग में प्रवेश करते हैं तो हमें उन संतों की वाणियों में उन पूर्ववर्त्ती परम्परा की ही छाप लगी मिलती है। जैसे-
भजन में है युगल मारग विहंग और पपीलनं ।
-संत पलटू साहब
किन्तु यदि हम वेद, उपनिषद् एवं संतवाणी पर थोड़ा भी विचार कर सकें-उनकी गहराई में पैठ सकें तो पाएँगे कि उन सबका विशेष ध्यान ‘ध्यानयोग’ की ओर ही है; क्योंकि उन सबों की वाणियों में प्राणायाम-हठयोग को कण्टकाकीर्ण और राजयोग- ध्यान योग को कण्टक-विहीन-सरल, सुखद एवं निरापद बताया है।
‘गीता’ गंगा में गम्भीर गोता लगाने से उसमें भी हम हठयोग-पिपीलिका मार्ग की गौणता और राजयोग-विहंगम मार्ग की प्रमुखता पाते हैं। इसका सद्यः प्रमाण यह है कि गीता-ग्रन्थाभ्यान्तर प्राणायामयोग नाम का कोई एक खास अध्याय नहीं है; किन्तु राजविद्या राजगुह्ययोग और ध्यानयोग आदि नाम के भिन्न-भिन्न स्वतंत्र अध्याय अवश्य हैं। दूसरी बात यह भी है कि उक्त ग्रंथान्तर्गत ध्यानयोग (विहंगम मार्ग) का जिस प्रकार सविस्तार विश्लेषण लब्ध है, उस भाँति प्राणायाम योग (पिपीलिका मार्ग) का नहीं।
उपनिषद् एवं संतवाणी स्पष्ट शब्दों में पिपीलिका राह को कण्टकाच्छादित, संकटोत्पन्न- कारिणी और भयप्रदायिनी बताती है। यथा-
यथा सिंहो गजो व्याघ्रो भवेद्वश्यः शनैः शनैः ।
तथैव सेवितो वायुरन्यथा हन्ति साधाकम् ।। -शाण्डिल्योपनिषद्
‘प्राणायाम का शरीर पर प्रभाव के संबंध में स्वामी कुवलयानन्दजी कैवल्यधाम का कहना है-‘प्राणायाम दुधारे खाँड़े के समान है। इससे लाभ-हानि दोनों हो सकते हैं, बल्कि इससे लाभ उठाने की अपेक्षा इसका दुरुपयोग करना सहज है।’
इसका अर्थ यह नहीं हो सकता है कि प्राणायाम योग वा हठयोग कोई करे ही नहीं। बल्कि इसमें स्पष्ट संकेत है कि जो कोई इस योग को करना चाहें, वे सतत संयम और सावधान-संयुत हो साधना करें। नहीं तो ‘चौबे गए छब्बे कहाने और दूबे बनकर आये’ वाली कहावत चरितार्थ हो जाएगी।
इतना ही नहीं, मान लिया कि ‘चौबे छब्बे नहीं होकर दूबे’ ही हुए, तो इसमें विशेष हानि नहीं, क्योंकि दूबे बनकर भी कम-से-कम जीवन तो रहा। यदि जिन्दगी रही तो जीवनकाल में उन्नति करते-करते क्रमशः ‘दूबे से चौबे और फिर चौबे से छब्बे’ हो जाएँ, संभव है। किन्तु जहाँ जीवन से ही हाथ धोने की नौबत हो-जैसे कि पूर्व वर्णन हो चुका है-वहाँ उन्नति होनी, शुष्क सिकता के मन्थन से तेल और तरल जल से मंथन से मक्खन की प्राप्ति की अभीप्सा करने के समान ही है।
संत पलटू साहब कहते हैं-‘पिपीलिक मार्ग के माध्यम से साधना कर सिद्धि-लाभ कर ‘सिद्ध’ कहलाते हैं और विहंगम-मार्ग से साधना कर शांतिस्वरूप परमात्मा को प्राप्त कर ‘संत’ कहलाते हैं। ‘सिद्ध’ आवागमन के चक्र में पड़े रहते हैं और ‘संत’ संताप से मुक्त होते हैं। सिद्ध हरि से सुदूरतर और ‘संत’ प्रभु के निकटतम होते हैं। इस हेतु पिपीलकमार्गी ‘सिद्ध’ अहर्निश चिन्तायुक्त और विहंगममार्गी ‘संत’ सतत चिन्तामुक्त होते हैं। ‘सिद्ध’ अनेक जन्मों के पश्चात् जब ‘संत’ होते हैं, तब वे आवागमन से मुक्त होते हैं। यथा-
भजन में है युगल मारग विहंग और पपीलनं ।
पपील मद्धे सिद्ध कहिये विहग संत कहावनं ।।
अनेक जन्म जब सिद्ध होवे अंत संत कहावनं ।
सिद्ध से जब संत होवे आवागमन मिटावनं ।।
संत हरि के निकट रहते सिद्ध से हरि दूरिनं ।
सिद्ध चिन्ता रहत निसदिन संत भजन अचिन्तनं ।।
-पलटू साहब
पिपीलिक और विहंगम मार्ग पर थोड़ा और भी प्रकाश डालना आनुषंगिक ही होगा। पिपीलिक कहते हैं-चींटी को। जिस तरह जमीन पर रहनेवाली चींटी किसी पके फल वाले पेड़ पर धीरे-धीरे चढ़ती है और फलों के रस का कुछ देर तक मधुर-मधुर आस्वादन करके फिर जमीन पर उतर आती है, उसी प्रकार एक हठयोगी योग की कुछ क्रियाओं के द्वारा कुछ देर तक अपनी प्राणवायु का नियंत्रण करके अपनी चेतना को ब्रह्मज्योति में लीन कर देता है और आनन्द का आस्वादन करता है; किन्तु उन प्रक्रियाओं का अन्त होते-होते उसे अपनी उच्चतम भावभूमि अथवा मधुमती भूमिका को छोड़कर पुनः पूर्ववत् मर्त्यलोक और उसकी सामान्य भाव-भूमि पर उतर आना पड़ता है।
विहंगमयोग पिपीलिकयोग से भिन्न है। विहंगम कहते हैं-पक्षी को। जिस तरह एक पक्षी सदा सर्वदा पेड़ की ऊँचाई पर रहा करता है और वहीं से उड़- उड़कर अनन्त विस्तृत व्योम-वितान का सैर करता है तथा मनमाने मधुर फलों और उनके रसों का आस्वादन करता है, वह कभी उच्च भाव-भूमि से नीचे नहीं उतरता, उसी प्रकार विहंगमयोगी अथवा ध्यानयोगी अपनी साधना तथा समाधि के लिए किन्हीं विशेष शारीरिक निरोधों एवं यौगिक प्रक्रियाओं पर ही निर्भर नहीं रहता, वह तो ध्यान की सतत शाश्वत मादकता एवं ब्रह्म-मिलन के परमानन्द की अजस्त्र धारा में डूबता-उतराता रहता है और शून्य गगन में स्वच्छन्द विहार करता हुआ परमानन्द रूपी अमृत का छक-छककर पान करता रहता है।
विहंगम और पिपीलिक मार्ग के संबंध में हम ऐसा भी कह सकते हैं कि पिपीलक मार्ग का जो अभीष्ट स्थान है, जो चरम लक्ष्य है, जिसके आगे उसकी गति अवरुद्ध हो जाती है, वह है आज्ञाचक्र। इसके आगे पिपीलिक की गति नहीं हो सकती, क्योंकि चींटी किसी स्थूल वस्तु के सहारे ही आगे बढ़ सकती है। एतदर्थ स्थूल पिंडों के अवलम्ब से वह मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूरक, अनाहत और विशुद्ध चक्र को क्रम-क्रम से पार करती हुई आज्ञाचक्र में पहुँचती है। स्थूल पिंड की यहाँ समाप्ति हो जाती है। इसके बाद रूप ब्रह्माण्ड वा सूक्ष्म गगन में प्रवेश करने की क्षमता बपुरी चींटी में कहाँ? वहाँ तो कोई गगन-विहारी ही विहार कर सकता है जो कि उड़ने की कला में कुशल हो। इसलिए संतों ने यहाँ से विहंगम-मार्ग द्वारा गगन-गमन का निर्देशन किया है।
जैसे शकुन प्रथम अपने दोनों परों को समेट पैर को पीछे की ओर कर पुनः उभय परों को सम करके उड़ जाता है, उसी तरह विहंगम योगी अपनी इन्द्रिय-गत चेतनधारों को समेटकर पंच चक्रों को पीछे छोड़कर दोनों दृष्टि की धारों को सम करके ब्रह्माण्ड जगत-सूक्ष्माकाश में विचरण करता है।
एक पखेरू अपने किसी निर्दिष्ट स्थान का लक्ष्य करके सम्मुख उड़ता है और आकाश ही आकाश चलता विविध दृश्यावलोकन करता हुआ वहाँ पहुँचता है। एक ध्यान करनेवाला गुरु निर्देशानुसार अपने अभिमुख ध्यान-तत्पर हो ध्यानाभ्यास द्वारा स्थूलाकाश से सूक्ष्माकाश, पुनः सूक्ष्माकाश से कारण-महाकारण आदि व्योमों में विचरण करता है, जहाँ उसे विविध ज्योतियों एवं नादों की अनुभूतियाँ होती हैं। और जिनके अवलम्ब से वह सारे मायिक आवरणों को अतिक्रमण कर परमानन्द में पहुँच उनका साक्षात्कार कर तादात्म्य प्राप्त कर लेता है। अर्थात्
जानत तुम्हाहिं तुम्हइ होइ जाई ।
और ‘सो तुम ताहि तोहि नहिं भेदा’ की स्थिति को उपलब्ध कर लेता है। इस सरल साधन- विहंगम योग की चर्चा संतों की वाणियों में हम भरपूर पाते हैं और सबकी वाणियों में हमें आश्चर्यजनक साम्य मिलता है। संत यारी साहब इस साधन-कला के कलाविद हैं। वे इसकी युक्ति इस भाँति बताते हैं-
जोगी जुगति जोग कमाव ।
सुखमना नर बैठि आसन, सहज धयान लगाव ।।१।।
दृष्टि सम करि सुन्न सोवो, आपा मेटि उड़ाव ।
प्रगट जोति अकार अनुभव, शब्द सोहं गाव ।।२।।
छोड़ि मठ को चलहु जोगी, बिना पर उड़ि जाव ।
यारी कहै यह मत विहंगम, अगम चढ़ि फ़ल खाव ।।३।।
संत सुन्दरदासजी चातक और चकोर की उपमा देकर बताते हैं। जिस तरह चातक खग बाह्याकाश के मँडराते हुए काले-काले बादलों को देखकर स्वाति बूँद की आशा से एकटक लगाकर निहारता रहता है। इसी तरह तुम अपने अन्तरस्थ स्थूलाकाश के अंधकार में गुरुनिर्देशित स्थान पर परमात्मा के अणोरणीयाम्- विन्दुरूप की प्राप्ति की अभीप्सा लिए आशाभरी दृष्टि से प्रतीक्षा करते रहो।
जैसे स्वाति बूँदहूँ कूँ चातक रटत पुनि ।
ऐसेहि मनन करै कब बूँद लहिये ।।
इसको गो0 तुलसीदासजी ने रामचरितमानस के द्वितीय सोपान में इस भाँति वर्णन किया है-
लोचन चातक जिन्ह करि राखे ।
रहहिं दरस जलधार अभिलाखे ।।
निदरहिं सरित सिन्धु सर भारी ।
रूप बिन्दु लखि होइ सुखारी ।।
पुनः सुन्दरदासजी कहते हैं-
राति में चकोर जैसे चन्द्रमा को धरै धयान,
ऐसे जानि निदिधयास दृढ़ करि गहिये ।।
अर्थात् जैसे चकोर रात्रि के समय चन्द्रमा की ओर देखते-देखते प्रभात करता है, उसी तरह तुम निदिध्यासन-ध्यान-साधना का ऐसा अभ्यास करो कि तुम्हारे अन्तराकाश में विधूदय हो और तुम उस शीतल शांतिप्रदायक शशि को निहारते अघाओ नहीं। अर्थात् उस ओर अपनी दृष्टि सतत लगाए रहो।
संत कबीर साहब से पूछने पर कि इस संबंध में आपकी कैसी राय बनी है? तो वे कहते हैं-अरे! एक मेरी राय क्या है? जितने संत हुए, उन सभी का एकमत है। इसीलिए तो मैं कहता हूँ-‘मारग विहंग बतावै संत जन।’ पुनः वे कहते हैं-किन्तु सावधान! यह भी समझ लो।
पंछी क खोज औ मीन के मारग ढूँढ़े ना कोई पाया हो ।
इस वचन को सुनकर हृदय में एक ठेस-सी लगती है, मन में उदासीनता छा जाती है और लगी-लगाई सारी आशा-बल्लियों पर तुषारपात हो जाता है। क्या, पक्षी का रास्ता और मीन का मार्ग ढूँढ़ने पर भी किसी को नहीं मिला? यदि वह सर्वथा अलभ्य ही है, तो उसके लिए पुरुषार्थ करना क्या गगन-पद्य-प्राप्त्यर्थ परिश्रम के समान नहीं होगा?
संत कबीर कहते हैं-घबड़ाओ नहीं, केवल एक ही ‘कड़ी’ को लेकर मत उड़ो। अरे! मैंने तो पहले ही कह दिया है-‘बिनु गुरु ज्ञान नाम ना पैहों----। जो गुरु-विहीन-निगुरा है, उसके लिए यह कहा है कि-‘पंछी क खोज औ मीन के मारग ढूँढ़े ना कोइ पाया हो।’ और अंत में तो मैंने और भी स्पष्ट कह दिया है-‘कहै कबीर सतगुरु मिले पूरा भूले को राह बताया हो।’
तुलसी साहब (हाथरस वाले) कहते हैं-तुम परिंद बनना चाहो तो अलल नीड़ोद्भवा बनो। अलल पक्षी अन्तरिक्ष में अनिल के अवलम्ब से अवस्थित रहता है और वहीं अण्डा देता है। नभ से नीचे आते-आते रास्ते में ही उस अण्डे का क्रमशः बड़ा होना, फूटना, शावक होना, पर होना, आँखें खुलनी आदि सारी प्रक्रियाएँ हो जाती हैं। जब वह बच्चा नीचे गिरते-गिरते पृथ्वी छूने-छूने पर होता है, तब उसे ज्ञान हो जाता है कि यह तुम्हारा निवास-स्थल नहीं। वह अविलम्ब ऊपर की ओर उड़ता हुआ अपने माता- पिता के पास पहुँच जाता है।
इसी तरह तुम भी उस अलल-शिशु-सदृश हो और ऊँचे-से-ऊँचे-त्रयवर्ग पर परम पद- अति दुर्लभ कैवल्य परम पद से भी परे परमात्म-पद से उतरते-उतरते इस स्थूलाकाश के तमिस्त्र मंडल में आ गए हो अर्थात् तुम जीव पीव से सुदूर हो गए।
तुम उतरि पड़यो तम माहिं पीव निःशब्द में ।
याहि ते पड़ि गयो दूरि, चलो निःशब्द में ।।
तुम निज निकेतन को भूल कर माया-मोह में फँस जागतिक यंत्रणाओं से जीर्ण-शीर्ण हो जर्जरित हो रहे हो। अब उक्त पक्षी की भाँति उलटकर-बहिर्मुख से अन्तर्मुख होकर-विहंगम मार्ग से आकाश-ही- आकाश उड़ते हुए, पंचाकाश-आकाश, पराकाश, महाकाश और सूर्याकाश के परे परमाकाश-अकथनीय सर्वव्यापक और सर्वोत्तम आनंद परमात्म-पद में पहुँच वहाँ अवस्थित हो अघ-ओघ उत्तीर्ण हो सब दुःखों से मुक्त हो जाओ। महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज का भी कथन है-विहंग मीनी मार्ग दोउ से चलो हे मन-मीत ।
तथा-
विहंग मीनी चाल चलि ज्यों सरित सों सरित समाहिं ।
त्यों नाद सों नादों में चलि प्रभु पास भक्तन जाहिं ।।
अब आप स्वयं अपना निर्णय करें कि आप क्या बनना चाहते हैं-पक्षी या पिपीलिका?
शान्ति-सन्देश, जून, 1984 ई0
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आदरणीय सज्जनो तथा आदरणीया माताओ एवं बहनो!
यद्यपि सामान्यतः सब लोगों के लिए आज शुक्रवार है, तथापि हमलोगों के लिए गुरुवार है; क्योंकि हमलोगों के परमाराध्य गुरुदेव की आज जयंती (जन्मतिथि) है। वैशाख शुक्लपक्ष चतुर्दशी को हमारे प्रातःस्मरणीय परम पूज्य श्रीसद्गुरुदेवजी महाराज का अवतरण इस भारत की पावन भूमि पर हुआ था। इसीलिए आज हमलोगों के लिए यह बहुत मंगलमय दिवस है।
यों तो प्रतिदिन विश्व में असंख्य जीव जन्म लेते और मरते हैं; किन्तु हम उन सबकी जयंती नहीं मनाते। जो अपने युग में विशेष गुणसम्पन्न महापुरुष होते हैं, उन्हीं की जयंती मनाते हैं। यदि वैचारिक दृष्टि से देखा जाय, तो चैत और वैशाख-ये दो महीने बड़े विलक्षण प्रतीत होते हैं। इन्हीं दो महीनों को हम ऋतु वसन्त कहते हैं। इसमें संत और भगवन्त दोनों के अद्भुत अवतरण हुए हैं। गो0 तुलसीदासजी महाराज ने रामचरितमानस में लिखा है।
सन्त उदय सन्तत सुखकारी। बिस्व सुखद जिमि इन्दु तमारी।।
जिस तरह सूर्य और चन्द्र-इन दोनों का उदय संसार को सुख देने के लिए होता है, उसी तरह संतों का अवतार भी संसार के कल्याण के लिए होता है। विचारणीय है, उपमा के सभी अंग लिये नहीं जाते, उसका कोई-कोई अंग ही लिया जाता है। सूर्य का प्रकाश दिन में होता है और चन्द्र का रात में; लेकिन संतों का प्रकाश दिन और रात दोनों में होता है। भगवान बुद्ध ने कहा है-
दिवा तपति आदिच्चो रतिं आभाति चन्दिमा।
सन्नद्धो खत्तियो तपति झायो तपति ब्राह्मणो।
अथ शब्दमहोरतिं बुद्धो तपति तेजसा।।
अर्थात् दिन में सूर्य तपता है, रात में चन्द्रमा प्रकाश करता है। आभूषणों से अलंकृत होने पर राजा तपता है, ध्यानी होने पर ब्राह्मण तपता है और बुद्ध दिन-रात अपने तेज से तपते हैं। हम देखते हैं सूर्य के प्रकाश से सभी सुखी नहीं होते। कुछ सुखी होते हैं, तो कुछ दुःखी भी देखे जाते हैं; किन्तु संतों के ज्ञान से सबको सुख-ही-सुख होता है, जो कोई उसका आचरण करते हैं।
जब सूर्य उदय होता है, तो कमल खिलता है; किन्तु कुमुद सकुचा जाता है और जब चन्द्र उदय होता है, तब कुमुद का मुख खिल उठता है, पर कमल का मुख बन्द हो जाता है। इस प्रकार कमल के लिए सूर्य हितकर है, तो कुमुदनी के लिए चन्द्र। इससे सिद्ध होता है कि पप्र के लिए चन्द्र और कुमुद लिए दिनकर अहितकर है। कहने का तात्पर्य यह है कि उन दोनों में से किसी एक के उदय होने पर इन दोनों को ही एक समान लाभ नहीं होता। बल्कि यह कहना भी अनुचित नहीं होगा कि जिस पूषण के प्रताप से पप्र का विकास होता है, उसी सूर्य के प्रभाव से एक दिन कमल का विनाश भी होता है। सूर्य के प्रकाश से कमल तबतक खिलता है, जबतक उसके नीचे पानी रहता है। कमल के नीचे जल नहीं रहे, मात्र सूखी जमीन रहे, तो वह सूर्य जलज को जला देता है। तात्पर्य यह कि नीरज के नीचे में नीर चाहिए और सूर्य का प्रकाश चाहिए, तभी वह जीवित रहता है और विकास भी करता है। उसी तरह हमलोगों के ऊपर ईश्वर की कितनी ही कृपा क्यों न हो, गुरुदेव की कृपा वारि-वरदहस्त हमारे साथ नहीं हो, तो कमल के समान ही हम भी एक दिन सूख जाएँगे, जल जाएँगे, गल जाएँगे-नामोनिशान नहीं रहेगा। अतएव ईश्वरीय अनुकम्पा के साथ गुरु-कृपा की अनिवार्य आवश्यकता है। बल्कि गुरुभक्तिन सहजोबाई ने निर्भीक हो स्पष्ट शब्दों में कहा है-
हरि किरपा जौं होय तो, नाहीं होय तो नाहिं।
सहजो गुरु किरपा बिना, सकल बुद्धि बहि जाहिं।।
हरि रूठे तो कुछ नहीं, तू भी दे छुटकार।
गुरु को राखो सीस पर, पल-पल करै सम्हार।।
हाँ, यह भी कह देना आवश्यक है कि जैसे श्रीगंगाजी में जल की कमी नहीं है-अथाह जल है। कोई कितना भी जल क्यों न ले जाए, गंगाजी को उसकी परवाह नहीं होती; क्योंकि उसमें कमी आती नहीं। फिर भी कोई कितना जल ले जा सकता है-जितना छोटा या बड़ा पात्र उसके पास में होगा। उसी प्रकार हमारे कृपावन्त गुरु-प्रभु की कृपा को उतने ही अंश में प्राप्त कर सकते हैं, जितना छोटा या बड़ा श्रद्धा-पात्र हमारे पास होगा। इसलिए कृपावन्त गुरु की कृपा के लिए शिष्य को श्रद्धावन्त होना चाहिए। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता (4/39-40) में कहा है-
श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।
ज्ञानं लब्धवा परां शांतिमचिरेणाधिगच्छति।।
अर्थात् हे अर्जुन! जितेन्द्रिय, तत्पर हुआ श्रद्धावान पुरुष ज्ञान को प्राप्त करता है। ज्ञान प्राप्त कर तुरंत ही वह परम शांति को पाता है। तथा-
अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति।
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः।।
अर्थात् जो अज्ञानी श्रद्धा-रहित तथा संशययुक्त है, वह विनाश को प्राप्त होता है यानी परमार्थ से भ्रष्ट होता है। उस संशययुक्त पुरुष के लिए न सुख है और न लोक वा परलोक ही है अर्थात् उभय लोक से वह भ्रष्ट हो जाता है।
‘योग-संगीत’ पुस्तिका में योगी श्रीपंचानन भट्टाचार्यजी का वचन है-
गुरु वाक्ये श्र)ा न होले साधान होय ना कोनो काले।
आज उसी गुरु-कृपा को पाने के लिए, जयंती मनाने हमलोग यहाँ एकत्रित हुए हैं। ‘जयंती’ शब्द स्त्रीलिंग है, जिसका अर्थ होता है-‘विजयिनी।’ अतएव यदि हम अपनी इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करके जयंती मनावें, तो कितना उत्तम हो! वस्तुतः यही असली जयंती होगी। जिज्ञासा हो सकती है, इन्द्रियों पर विजय कैसे हो? उत्तर में निवेदन है-हमारे परम दयालु सद्गुरुदेवजी महाराज ने जो श्रीद्भगवद्गीता की युक्ति हमें दी है, उसका यदि हम संयम-संयुत हो नितप्रति नियमित रूप से अभ्यास करते रहेंगे, तो एक-न-एक दिन विजय अवश्य प्राप्त कर सकेंगे। यह निश्चित है, सुनिश्चित है। इसमें कोई दूसरी बात नहीं हो सकती।
वस्तुतः परम पूज्य गुरु महाराज की विशुद्ध जयन्ती हम तब मना सकेंगे, जब हमारा मन परिशुद्ध होगा, उनके आदेश के अनुकूल हम ठीक-ठीक चल सकेंगे। अगर हम गुरु महाराज की आज्ञा के अनुकूल ठीक-ठीक नहीं चल रहे हैं, तो केवल बाहर के दिखावे की जयंती से कुछ होना-जाना नहीं है। प्रवचन में प्रवीण; किन्तु आचरण में हीन और मन के मलिन जन सदा दीन बने रहेंगे। हमारे गुरुदेव की शिक्षा का सार है-
श्रीसद्गुरु की सार शिक्षा, याद रखनी चाहिये।
अति अटल श्र)ा प्रेम से, गुरु-भक्ति करनी चाहिये।।
सत्संग नित अरु धयान नित, रहिये करत संलग्न हो।
व्यभिचार चोरी नशा हिंसा, झूठ तजना चाहिये।।
बाहर दिखावे की भक्ति, भक्ति नहीं है। भक्ति तो अन्तर की होती है। अगर हम अन्तर से गुरु-भक्ति करते हैं, दूर भी हैं तो गुरुभक्त हैं। निकट ही हैं, अगर हम हृदय की नहीं, दिखावे की भक्ति करते हैं, तो हम भक्त नहीं, कपटी हैं। कपटी भक्त को संत वा भगवन्त कोई भी पसन्द नहीं करते। भगवान श्रीराम ने कहा है-
निर्मल मन जन सो मोहि पावा।
मोहि कपट छल छिद्र न भावा।।
-रामचरितमानस
संत कबीर साहब कहते हैं-
छिमा गहो हो भाई, धरु सतगुरु चरणी धयान रे।
मिथ्या कपट तजो चतुराई, तजो जाति अभिमान रे।।
दया दीनता समता धरो, हो जीवत मृतक समान रे।।
पुनः वे कहते हैं-
गुरु से करे कपट चतुराई। सो हंसा भव भरमे भाई।।
तथा-
कह कबीर देख मन करनी। तेरे अन्तर बीच कतरनी।।
कतरनी की गाँठि न छूटै। तब पकड़ि पकड़ि जम लूटै।।
बहुत वर्ष पूर्व अपने गुरुदेवजी के ही श्रीमुख से मैंने सुना था-
गुरु से कपट मि= से चोरी। की होय निर्धान की होय कोढ़ी।।
और उनकी पदावली में हम पढ़ते हैं-
गुरु से कपट कछू नहिं राखो। उनके प्रेम अमिय को चाखो।।
गोस्वामीजी की यह मान्यता है कि दूसरे के सुख को देखकर जलना क्षयरोग और कपटी-कुटिल दुष्ट मन का होना कुष्ट रोग है।
पर सुख देखि जरनि सोइ छई। कुष्ट दुष्टता मन कुटिलई।।
-रामचरितमानस
अतएव हम अपने हृदय को पवित्र करें। जबतक हम अपना हृदय पवित्र नहीं करेंगे, तबतक परम प्रभु परमात्मा जो परम पवित्र हैं, उनको कैसे पा सकते हैं? नहीं पा सकते। गुरु नानकदेवजी महाराज की वाणी है-
सूचै भाँड़े साँचु समावै, विरले सूचाचारी।
तंतै कउ परम तंतु मिलाइआ, नानक सरनि तुमारी।।
जो कोई अपने को गुरु महाराज के आदेश और उपदेश-रूपी चहारदीवारी में रख सकेंगे, वे ही एक-न-एक दिन परम प्रभु परमात्मा को पाकर परम कल्याण के भागी हो सकेंगे। ईश्वर-भक्ति के संबंध में संत कबीर साहब ने भ्रम को दूर करनेवाली एक बड़ी ही मर्म की बात कही है-
भक्ति प्राण ते होत है, मन दे कीजै भाव ।
परमारथ परतीत में, यह तन जाव तो जाव ।।
आत्मा से ईश्वर की भक्ति होती है। चेतन आत्मा ही परमात्मा से जाकर मिल सकती है और कोई दूसरा नहीं। वास्तविक भक्ति तो चेतन आत्मा से ही होती है; लेकिन मन के द्वारा भाव किया जाता है, प्रेम किया जाता है, लगन लगाया जाता है। लगन लगाते-लगाते ही मन भजन में मगन होता है। संत कबीर साहब कहते हैं-परमार्थ यानी सर्वोत्कृष्ट सत्य, विशुद्ध आत्मज्ञान, जीव-पीव-मिलन का ज्ञान, जीव और ब्रह्म-संबंधी ज्ञान। उस सत्य धर्म को जानने में, विश्वास करने में, परमार्थ को यथार्थ रूप में समझने में अगर एक जीवन चला भी जाए, तो कोई हानि नहीं। समझो कि वह सार्थक जीवन है।
अगर सत् धर्म को जाना नहीं, दिखावे के धर्म में लगे रहे, दिखावा करते रह गये, तो यह मनुष्य-जीवन व्यर्थ को गया। अहैतुकी कृपा करनेवाले करुणा- वरुणालय हमारे गुरुदेवजी महाराज ने हमलोगों को जो साधना की क्रिया बतलायी है, वह सरल साधना है-सहज साधना है। मानस जप, मानस ध्यान, दृष्टि साधन और नादानुसंधान-ये चारो साधनाएँ इतनी सरल हैं कि स्त्रियाँ भी कर सकती हैं, पुरुष भी कर सकते हैं; विद्वान कर सकते हैं, अविद्वान भी कर सकते हैं; धनी कर सकते हैं, निर्धन भी कर सकते हैं; सभी जाति, सभी वर्ग और सभी देश के लोग कर सकते हैं।
परम पूज्य गुरुदेव की जयंती मनाने के उल्लास में आपलोग यत्र-तत्र से यहाँ एकत्र हुए हैं। आपलोगों को मैं बहुत-बहुत धन्यवाद देता हूँ। उनके आदेशानुकूल सत्संग का कार्यक्रम समापन किया जाता है। अब आपलोग अपने-अपने निवास-स्थान के लिए प्रस्थान करें। साथ ही, उनके मानस-रूप को अपने मानस-पटल पर अटल कर घर जा सकें, तो अत्युत्तम। धन्यवाद!
पूज्यपाद महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन दिनांक 03-05-1985 ई0 को गुरु-जयंती के अवसर महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट, भागलपुर में गुरुदेव के आवास पर उनके आदेश से हुआ था। (शान्ति-सन्देश, मई 2012 ई0)
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वर्णित प्रसंग पढ़ने के पश्चात् जिज्ञासा होती है कि-चन्द्र से जैसे चकोर को, बादल से जैसे मोर को और परधन से जैसे चोर को प्रेम होता है, कामी पुरुष को कामिनी से प्रेम से प्रेम होता है अथवा प्रदीप-प्रकाश से पतंग की, वंशीनाद से कुरंग की और त्वचा से जैसे मतंग की प्रीति होती है, इस प्रकार की एक के प्रति एक की अनुरक्ति अनेक में पायी जाती है। किन्तु क्या, कोई ऐसी भी चीज है, जिस एक की प्राप्ति की आकांक्षा रखनेवाले अनेक हों? हाँ, है और वह है-अनेक में एक स्वातिबूँद। अतएव अब हम सर्वप्रथम यह समझने की चेष्टा करें कि ‘स्वातिबूँद’ है क्या?
हमलोगों के यहाँ ज्योतिषशास्त्र के अनुकूल अश्विनी, भरणी, कृतिका, रोहिणी, मृगशिरा, आर्द्रा, पुनर्वसु, पुष्य, अश्लेषा, मघा, पूर्वा फाल्गुनी, उत्तरा फाल्गुनी, हस्त, चित्र, स्वाति, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा, मूल, पूर्वाषाढ़ा, उत्तराषाढ़ा, श्रवणा, घनिष्ठा, पूर्वभाद्रपद, उत्तरभाद्रपद और रेवती-ये सत्ताईस नक्षत्र माने गये हैं। इस दृष्टि से इन नक्षत्रें में ‘स्वाति’ का पन्द्रहवाँ स्थान है। फलित ज्योतिष के अनुसार इस नक्षत्र को शुभ माना जाता है। इस नक्षत्र में बरसनेवाली जलविन्दु को ‘स्वातिबूँद’ कहते हैं। इनकी विशेषता यह है कि यह पात्र के अनुरूप और गुण धारण करती है। जैसे केले के वृक्ष में पड़ने से कर्पूर, बाँस में पड़ने से बंशलोचन, हस्ती में पड़ने से गजमुक्ता, सर्प में मणि, सीप में मोती आदि। इस संबंध में रहीम कवि ने की उक्ति सुप्रसिद्ध है-
कदली सीप भुजंग मुख, स्वाति एक गुन तीन ।
जैसी संगति बैठिये, तैसोई फल कीन ।।
इसमें सन्देह नहीं है कि लघु की लघु शक्ति में जब बड़ों की बड़ी शक्ति मिल जाती है, तो वह महत् रूप धारण कर लेती है। यही कारण है कि सीपी में स्वाति की बूँद गिरने से उसको वह मोती बना देती है। यद्यपि स्वातिबूँद से बहुतों को स्नेह देखा जाता है, फिर भी अन्य की अपेक्षा पपीहा की प्रीति-चर्चा बहुशः पायी जाती है। इस संदर्भ में संत कवि की कविता और विद्वान् कवि की विद्वत्ता में अद्भुत मेल मिल जाता है। ऐसा लगता है कि दोनों ने ही दिल खोलकर इस उपमा-उपमेय का प्रयोग किया है। दोनों ने ही अनेक स्थानों पर अनेक रूपों में स्वातिबूँद और पपीहा का आलंबन लिया है। पपीहा के पर्यायवाची अनेक नाम हैं; यथा-पपहिया, पपीहरा, पपीहा, पपी, चातक, सारंग, नीलकंठक आदि। मैथिली भाषा के एक महान् गीतकार कवि विद्यापति जी कहते हैं-
पिय पिय रटय पपिहरा रे, हिय दुःख उपजाव।
रस कुसुमाकर की रचना में हम पाते हैं-
भेद मुक्ता के जेते, स्वाति ही में होते तेते ।
रतनन हुँ कौ कहूँ भूलिहु न होत भ्रम ।।
इसी प्रकार सुप्रसिद्ध कवि मलिक मुहम्मद जायसी ने भी कहा है-
स्वाति बूँद चातक मुख परी।
सीप समुंद मोती बहुत करी।
हाथरस-निवासी संत तुलसी साहब ने प्रभु को पाने की प्यास का पटतर पपी की प्यास से किया है। उन्होंने एक पद्य में कहा है कि पपी स्वातिबूँद के लिए विह्वल होकर सारी रात पिउ-पिउ रटती हुई भोर करती है, नहीं पाने पर भी आशा छोड़ती नहीं है।
ज्यों पपी को प्यास पीव रात भर रटी ।
अरी स्वाति बूँद बिना भोर भ्यान पौ फटी ।।
पुनः वे कहते हैं-
पिउ पिउ रटी सुरति से पपिया प्यारे।
इसी भाँति संत कबीर साहब ने प्रियतम मिलन की आस की तुलना पपीहा की प्यास से की है-
नैनन तो झरि लाइया, रहट बहै निसु बास ।
पपिहा ज्यों पिउ पिउ रटै, पिया मिलन की आस ।।
गुरु नानकदेवजी महाराज साधक की उपमा सारंग से तथा भगवन्नाम की स्वातिबूँद से देते हैं-
सतगुरु अगम अगम है ठाकुर भरि सागर भगति करीजै।
किरपा किरपा करि दीन हम सारिंग एक बुँद नाम मुख दीजै।
भक्त सूरदासजी की वाणी में है-
जलसुत दुखी दुखी है मधुकर, है पंछी दुख पावत ।
सूरदास सारंग केहि कारण, सारंग कुलहिं लजावत ।।
गोस्वामीजी ने अपनी सुप्रसिद्ध रचना मानस में चातक-चातकी और स्वातिबूँद की उपमा इस भाँति दी है-
जेहि चाहत न नरनारि सब, अति आरत एहि भाँति ।
जिमि चातक चातकि तृषित, वृष्टि सरद रितु स्वाति ।।
-अयोध्याकाण्ड
चातक रटत तृषा अति ओही।
जिमि मुख लहइ न संकर द्रोही।।
(किष्किंधाकांड)
श्रीनरहरिजी कहते हैं-यदि किसी कारणवश सिंह को पचास दिन का उपवास करना पड़े, तो भी वह कभी घास नहीं चरता। इसी प्रकार चातक और चातकी की अपनी एक टेक होती है, वे स्वाति जल को छोड़कर अन्य जलों की ओर नेक निहारते नहीं, चाहे कितनी ही वर्षा क्यों न हो जाए, किन्तु वे पीते नहीं, मात्र स्वातिबूँद पीकर जीते हैं। बात बिल्कुल सत्य है कि सरिता वा सरोवर का कितना ही निर्मल नीर क्यों न हो, चातक पीता नहीं, उसको अपनी मृत्यु स्वीकार है, पर दूसरा जल पीना अंगीकार नहीं।
सरवर नीर न पीवई, स्वाति-बूँद की आस ।
केहरि कबहुँ न तृन चरै, ज्यों व्रत करै पचास ।।
ज्यों व्रत करै पचास, विपुल गज जूह विदारै ।
धन है गर्व न करै, निधन नहिं दीन उचारै ।।
‘नरहरि’ कुल के भाय, मिटै नहिं जब लगि जीयै ।
बरु चातक मरि जाय, नीर सरबर नहिं पीयै ।।
पपीहा के प्रेम की प्रशंसा करते हुए संत कबीर साहब ने अपने एक पद्य में परिचर्चा की है कि वह प्रेम-निर्वाह हेतु प्राण छोड़ सकता है; परन्तु प्रण नहीं तोड़ सकता; क्योंकि उसकी दृष्टि में तन छूटे तो कोई हानि नहीं, किन्तु प्रण टूटे तो बहुत बड़ी ग्लानि है।
पपिया पन छोड़ै नहीं, पन छोड़ै केहि काज ।
तन छूटै तो कछु नहीं, पन छूटै तो लाज ।।
-संत कबीर साहब
संत दादू दयाल जी कहते हैं-सीपी सागर का खारा जल पान नहीं करती, वह तो स्वातिबूँद की तलाश में समुद्र की ऊपरी सतह पर तैरती रहती है। शरद् ऋतु में जैसे ही उसको वह बूँद मिल जाती है, वैसे ही वह अपना मुँह बंद करके समुद्र के अंतस्तल में चली जाती है और मोती बनाने के काम में संलग्न हो जाती है। परिणामतः प्रभु-कृपा से एक-न-एक दिन वह उसमें सफलता प्राप्त कर लेती है। इस प्रकार प्रभु-पथ का प्रेमी-पथिक विषय-रस से विरत हो आंतरिक साधना में रत होता है। अंततोगत्वा गुरु-कृपा से सुधारस पान करता हुआ वह एक-न-एक दिन प्रभुरूप मोती को पा लेता है।
सीप सुधा-रस ले रहै, पिवै न खारा नीर ।
माहैं मोती नीपजै, दादू बन्द शरीर ।।
संत तुलसी साहब के अनुसार वास्तिक स्वाति बूँद तो अधर में साधक को मिलती है-
स्वातिबूँद अधर झरत, नीर आस लखि अकाश ।
पिउ की प्यास अमी से बुझा रे ।।
जिस प्रकार चातक पक्षी आकाश की ओर एकटक लगाकर देखता रहता है, वह अन्य जलों की उपेक्षा करता हुआ स्वातिबूँद की अपेक्षा रखता है और जब उसको वह बूँद मिल जाती है, तो सादर सम्मान करता हुआ उसका पान करता है। इसी प्रकार दृष्टियोग का साधक चारों ओर से अपनी वृत्तियों को मोड़कर, अपने अंतराकाश में गुरु-निर्देशित स्थान पर युगल दृष्टियों को मोड़कर एकटक उस ओर निहारता रहता है। सभी रूपों की अपेक्षा करता हुआ विन्दु-रूप की अपेक्षा रखता है।
कोउ रूप को न देखूँ, एकविन्दु सबमें पेखूँ ।
रिद्धि सिद्धि को न लेखूँ, ऐसी सुरत सिमटा दो ।।
-महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज
फिर तो उस भक्त साधक के लिए संत कबीर साहब की वाणी ‘लखत लखत लखि पड़ै, कटै जमफंद है’ चरितार्थ हो जाती है। अर्थात् देखते-देखते प्रभु का विन्दुरूप देखने में आ जाता है। गोस्वामीजी इस भाव की अभिव्यक्ति रामचरितमानस में इस भाँति की है-
लोचन चातक जिन्ह करि राखे।
रहहिं दरस जलधर अभिलाखे।।
निदरहिं सरित सिन्धु सर भारी।
रूप बिन्दु जल होहिं सुखारी।।
तिन्हके हृदय सदन सुखदायक।
बसहु बंधु सिय सह रघुनायक।।
अर्थात् जो अपनी आँखों को चातक बनाकर दर्शन की अभिलाषा से मेघ में लगाये रखते हैं और भारी तालाब, नदी और समुद्र का निरादर करके विन्दुरूप जल से सुखी रहते हैं, हे रघुनायक! उनके सुख देनेवाले हृदय-मंदिर में आप भाई और सीताजी के सहित निवास कीजिए। इस विषय की विशेष जानकारी के लिए हमारे परम पूज्य गुरुदेव की अनुभूत पूतवाणी का अनुशीलन कीजिए- “ इन तीनों चौपाइयों में दृष्टि-साधन का भेद खोलकर बतलाया गया है। पपीहा स्वाति-जल के लिए बड़ी-बड़ी नदियों, तालाबों और समुद्रों का निरादर कर मेघ को एकटक से (टकटकी लगाकर) देखता रहता है और उसे (स्वाति-जल को) देख लेने पर परम प्रसन्नता से ग्रहण करता है। उसी तरह भक्तियोग का साधक अपने हृदयाकाश के अंधकाररूप बादल में एकटक से टकटकी लगाकर देखता रहता है अर्थात् दृष्टि- साधन करता रहता है और नदी आदि बड़े जलाशयरूपी बड़े-बड़े रूपों (दृश्यों) को निरादर करके नहीं देखता है, पर विन्दुरूप को देखकर परम प्रसन्नता से दृढ़तापूर्वक धारण करता है। ऐसे साधक का हृदय राम के लिए सुखदायक घर है। वाल्मीकि जी श्रीराम को इसी घर में रहने के लिए कहते हैं।
इस संदर्भ में लोगों की यह जिज्ञासा अप्रासंगिक नहीं कि संत कबीर साहब, गुरु नानक साहब, सूर प्रभृति संतों की वाणियों में चातक की चर्चा हम पाते हैं, क्या पूज्यपाद महर्षिजी ने भी अपनी रचना में कहीं चातक को स्थान दिया है? उत्तर में निवेदन है कि जिन्होंने ‘सब संतन्ह की बड़ि बलिहारी’ द्वारा सभी संतों का समादर किया है तथा उन संतों की वाणियों को संचयन कर समन्वय रूप दिया है, भला उनकी रचना ‘चातक’ शब्द से वंचित कैसे रह सकती है? मानस जप और मानस ध्यान के बाद दृष्टि-साधन की क्रिया आती है, उस प्रसंग में आपका संकेत है-
ध्यानाभ्यास करो सद सदही,
चातक दृष्टि बनाई हो।
लखत-लखत छवि बिन्दु प्रभु की,
ज्योति मंडल धँसि धाई हो।।
इस दृष्टि से यह स्वतःसिद्ध है कि लौकिक वा पारलौकिक-किसी भी कार्य की सिद्धि, सफलता वा सुनिष्पन्नता के लिए प्रेम की अनिवार्य आवश्यकता होती है। साथ ही, यह भी स्पष्ट है कि जड़ से जड़ की प्रतीति कभी की नहीं जा सकती। वह तो बालू की भीत की भाँति कभी भी ढह सकती है। जड़ से जड़ की वा क्षर से क्षर की प्रीति सच्ची नहीं हो सकती, कच्ची होती है; क्योंकि दोनों ही नाशवान हैं। इसलिए नाशवान का नाशवान से प्रेम विनाशवान ही तो होगा। वह सतत वा एकरस रहनेवाला नहीं होगा। संतों ने कहा-‘तुम अविनाशी हो, परम प्रभु परमात्मा अविनाशी है। इसलिए अनाशी का अनाशी से प्रेम अविनाशी, सुखराशि और नित्य विलासी होगा। वस्तुतः प्रभु-प्रेम में ही प्रेम है। अन्य प्रेम तो मात्र नेम निभाने का है।
“ हम प्रेम से बढ़कर सुख या आनंद की कल्पना नहीं कर सकते। पर इस प्रेम का अर्थ भिन्न है। इसका अर्थ संसार का साधारण स्वार्थमय प्रेम नहीं है। किसी संसारी प्रेम को प्रेम कहना अधर्म होगा। अपने बच्चों ओर स्त्री के प्रति हमारा जो प्रेम होता है, वह केवल पाशविक प्रेम है। जो प्रेम पूर्णतया निःस्वार्थ हो, वही प्रेम है और वह सचमुच ईश्वर का प्रेम है।” -स्वामी विवेकानंद
संत दादूदयालजी कहते हैं- “ एकमात्र परमेश्वर ही शुद्ध प्रेम-स्वरूप है। अतः ईश्वरीय प्रेम ही सच्चा प्रेम है, जो कि ईश्वर की ही भाँति अगाध होता है। सच्चा प्रेमी इस ईश्वरीय प्रेम के अमृत को नित्य नयी प्यास के साथ आनंदमग्न हो सदा पीता रहता है। पर बाहर से कोई दिखावा नहीं करता।
प्रेमी अपने प्रियतम का गुलाम है। उनके दरवाजे का भिखारी है। लाख अपमान किये जाने पर भी वह अपने प्रियतम का दरवाजा नहीं छोड़ सकता। अपने प्रियतम की महानता और दयालुता की तुलना में अपने प्रेम और सेवा को तुच्छ समझते हुए वह सदा सच्चा दीन बना रहता है। उसे स्वर्ग या किसी ऋद्धि-सिद्धि की कामना नहीं होती। उसे तो बस केवल अपने प्रियतम की ही चाह होती है।
सच्चा प्रेमी विरहाग्नि की प्रबल ज्वाला में जलता रहता है और अपने प्रियतम की एक झलक के लिए तरस-तरसकर अत्यन्त आर्त्तभाव से आँसू बहाता है। अपने प्रियतम के दर्शन के बिना उसका जीवन भार हो जाता है। उसकी अवस्था वैसी ही हो जाती है, जैसे जल के बिना मछली की, स्वाति-बूँद के बिना पपीहे की और माता के दूध के बिना बच्चे की होती है। दीपक पर जलनेवाले पतंग के समान या शिकारी के बाजे पर जान देनेवाले कस्तूरी मृग के समान वह अपने प्रियतम के प्रेम में किसी भी क्षण अपना प्राण न्योछावर करने को तैयार रहता है। ऐसे विरहीजन का ही अपने प्रियतम से मिलाप होता है। पुनः वे कहते हैं-अपने तन को प्रियतम के आगे वोटी-वोटी करके कुरवानी करे और बाँट दे। फिर भी वह मधुर प्रियतम यदि कडुवा न लगे, तब वह तुझे मिलेगा।
भोरे भोरे तन करै, बंडे करि कुरवाण ।
मीठा कड˜़आ न लगे, दादू तोहू साण ।।
-संत दादूदयालजी
इस प्रेम के विषय में परम पूज्य महर्षिजी की कैसी राय बनी है, यह भी पठनीय है- “ ध्यान, उपासना, आरती, पूजन-भजन और भक्ति का प्राण प्रेम है। राम के प्रति प्रेम बिना ये निःसार और निरर्थक है। जिस महल में राम से मिलाप होता है, उसमें केवल राम के प्रेमी ही अपना शीश उतारकर अर्थात् अहंकार को संपूर्ण गँवाकर जा सकते हैं। प्रेमी जिससे प्रेम करता है, उसके बिना उसको रहा नहीं जाता। सच्चा प्रेमी जिससे प्रेम करता है, उसकी ओर एकटक देखता है और चाहता है कि वह भी उसको देखे। वह अपने प्रेमपात्र के पास चल पड़ता है और संपूर्ण विघ्न-बाधाओं को और संपूर्ण विपत्तियों को झेलते हुए कठिन-से-कठिन मार्ग को पार कर उससे जा मिलता है।” संत कबीर साहब प्रेम का कितना उत्तम वर्णन निम्नलिखित शब्दों में करते हैं-
प्रेम सखी तुम करो विचार।
बहुरि न आना यहि संसार ।।1।।
जो तोहि प्रेम खेलनवा चाव।
सीस उतार महल में आव ।।2।।
प्रेम खेलनवा यही विशेष।
मैं तोहि देखूँ तू मोहि देख ।।3।।
प्रेम खेलनवा यही स्वभाव। तू चलि आव कि मोहि बुलाव ।।4।।
खेलत प्रेम बहुत पचिहारी।
जो खेलिहैं सो जग से न्यारी ।।5।।
कहै कबीरा प्रेम समान।
प्रेम समान और नहिं आन ।।6।।
(सितम्बर, 1985)
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प्रायः देखा जाता है कि श्री-विहीन जन का मन दीन, हीन और खिन्न बना रहता है। वही जब श्री-श्रित हो जाता है, तो ‘श्रीमत्’ कहलाता है और जब उसकी बुद्धि को ‘श्री’ मथ डालती है, तब वह ‘श्रीमथ’ हो जाता है। फिर ‘त’ वर्ग का तृतीय वर्ण ‘द’ आ धमकता है और वह श्रीमद-मत्त हो जाता है। ‘मद’ शब्द के अनेक अर्थों में ‘नशा’ भी एक अर्थ है। नशेबाज दूसरे की आवाज नहीं सुनता, वह अपने में ही मस्त रहता है। इसी प्रकार किसी विशिष्ट पद पर आसीन व्यक्ति प्रभुता पाकर अन्यों की ओर से उदासीन हो जाता है। वह किसी का सद्विचार सुनना नहीं चाहता। वह सद्धर्म की और से वधिर हो जाता है। ऐसे लोगों की गति-मति सन्मार्ग-विचलित हो ‘वक्र’ हो जाती है। ऐसे ही लोगों की ओर रविकुल कमलदिवाकर भगवन्त श्रीराम के अनन्य भक्त कविकुलकैरवसुधाकर संत तुलसीदासजी का संकेत है।
श्रीमद वक्र न कीन्ह केहि, प्रभुता बधिर न काहि ।
‘प’ और ‘म’ दोनों ही वर्ण ‘प’ वर्गीय हैं। दोनों की आकृतियाँ करीब-करीब मिलती-जुलती दीखती हैं। उभय वर्णों में मात्र इतना ही अन्तर है कि ‘प’ की अपेक्षा ‘म’ का नितम्ब-भाग कुछ मोटा होता है। यदि ‘प’ के पिछले निम्न भाग को थोड़ा मोटा कर दिया जाए, तो वह सरलतापूर्वक ‘म’ बन जाएगा। यद्यपि यह भाषा-विनोद है, तथापि प्रकृत सत्य भी इसके अन्दर निहित है। तात्पर्य यह कि ‘पद’ पाने में जितनी भी देर क्यों न लग जाए, किन्तु ‘मद’ आने में देर नहीं लगती। यही हेतु है कि सत्ता पाने के पश्चात् ही सत्ताधारी सुराप के समान व्यवहार करने लगता है। ऐसा लगता है, मानों सत्ता पाने का अर्थ सुरापान ही हो। संतों की दृष्टि बड़ी पैनी होती है। संत कबीर ने ‘मद’ को विभिन्न रूपों में देखा है। उन अनेक में से कुछेक की चर्चा उन्होंने इस प्रकार की है-
मद तो बहुतक भाँति का, ताहि न जानै कोय ।
तनमद मनमद जातिमद, मायामद सब लोय ।।
विद्यामद और गुनहु मद, राजमद्द उनमद्द ।
इतने मद को रद करै, तब पावै अनहद्द ।।
चूँकि शीर्षक की पंक्ति में कवि का संकेत ‘राजमद’ की ओर है, अतएव आइए, हम ‘राजमद’ पर ही थोड़ा विचार करें। कवि का कथन है कि ‘राजमद’ ने किसको कलंक नहीं दिया? अर्थात् राजपद पाकर मद में आकर सभी कलंकित हुए। इस विषय की पुष्टि के लिए उन्होंने श्रीलक्ष्मण जी की सूक्ति का आश्रय लेकर छः विशिष्ट व्यक्तियों का चरित्र-चित्रण किया है-
शशि गुरुतियगामी नहुष, चढ़ेउ भूमिसुर जान ।
लोक वेद ते विमुख भा, अधाम न बेन समान ।।
सहसबाहु सुरनाथ त्रिशंकू । केहि न राजमद दीन्ह कलंकू ।।
चन्द्रमा ने अपनी गुरुपत्नी के साथ गमन किया। नहुष ने राज्यमद में आकर ब्राह्मणों से पालकी उठवायी। वेण के समान कौन अधम है, जो लोक और वेद से विमुख हुआ?
राजा वेण ने राजमद में मत्त होकर मुनियों एवं ब्राह्मणों को मूर्ख बताते हुए कहा-‘खेद है, तुमलोगों ने अधर्म में ही धर्म-बुद्धि कर रखी है। जो लोग मूर्खतावश राजा-रूपी परमेश्वर का अनादर करते हैं, उन्हें न तो लोक सुख मिलता है, न परलोक में ही।’ इस प्रकार वेण ने सारे देश को आदेश दिया कि उसे छोड़कर कोई अन्य ईश्वर की आराधना या उपासना नहीं करे। मुनियों और ब्राह्मणों ने उन्हें समझाने की बहुत चेष्टा की; किन्तु उन्होंने किन्हीं की बात न मानी। परिणाम यह हुआ कि मुनियों और ब्राह्मणों ने केवल हुँकार से ही उनका काम तमाम कर दिया।
सब देव, दनुज और मनुज पर विजयी दशभुज को पराजित कर सहस्त्रभुज का विजयोल्लास आकाश छूने चला था। अपने गर्व के सामने वह सबको खर्व समझता था। राजपद के नशे में चूर होकर एकबार वह महर्षि यमदग्नि के आश्रम गया। वहाँ उनकी कामधेनु को देखकर उसका मन लेने के लिए मचल उठा। राज्याभिमान में उसने महर्षि जी के मानापमान पर कुछ भी ध्यान नहीं दिया। बल्कि उनकी इच्छा के विरुद्ध उनकी गाय लेकर चलने लगा। श्री परशुराम जी से यह देखा नहीं गया। उन्होंने उस अहंकारी का अहंकार-सहित संहार कर डाला।
‘सत्ता’ स्वच्छन्दता और उच्छृंखलता का सृजन करती है। सत्ताधारी सुरराज ने त्वष्टा का वध करके ब्र्रह्महत्या का पातक सिर पर लिया। साथ ही उन्होंने ऐसे-ऐसे काज किये, जिस कारण समाज को मुँह दिखाना दूभर हो गया। फलतः सुर-सिरताज होते हुए भी लाज के मारे राज छोड़कर वर्षों छिपे रहे।
राजा त्रिशंकु निःशंक होकर सशरीर स्वर्ग जाना चाहता था। इसके लिए उसने महर्षि वशिष्ठ से प्रार्थना की। वशिष्ठ जी ने अपनी सहायता या सम्मति नहीं दी। फिर भी विश्वामित्र का सहयोग पाकर यद्यपि उसने कुछ अंश में सफलता पाई भी; किन्तु इन्द्र ने सुरपुर से उसको नीचे ढकेल दिया। वह पतित होकर पृथ्वी की ओर आ रहा था कि विश्वामित्र ने नीचे आने से उसको रोक दिया। इस प्रकार वह न ऊपर रहा, न नीचे ही; बीच में ही अर्र्द्धमुख लटका रह गया। इस प्रकार राजाओं के प्रति प्रिय अनुज श्रीलक्ष्मण जी के कहे गए सरोष वचन को श्रीभगवान निज कान से श्रवण करते रहे। मात्र श्रवण ही नहीं, बल्कि वचन-समर्थन में उन्होंने अपनी स्वीकृति की मुहर भी लगाई है।
कही तात तुम नीति सुहाई । सब तें कठिन राजमद भाई ।।
जो अँचवत मातहि नृप तेई । नाहिन साधु सभा जिन सेई ।।
हे तात! तुमने अच्छी नीति कही है। राजमद सबसे कठिन होता है। जो कोई राज्यरूपी मदिरा का पान करते हैं, वे सभी नृप मत्त हो जाते हैं, जिन्होंने साधु-सभा का सेवन नहीं किया है।
अब इस प्रसंग को यदि हम दूसरी दृष्टि से अवलोकन करना चाहें तो प्रतीत होगा कि कविकुल- भूषण गोस्वामी जी ने ‘केहि न राजमद दीन्ह कलूंक’ कहकर प्रश्न चिह्न (?) लगा दिया है। तात्पर्य यह कि क्या ऐसे भी कोई हैं, जिनको ‘राजमद’ ने कलंकित नहीं किया, यदि वे हैं, तो कौन? इस सन्दर्भ में भी हम उन्हीं राघवेन्द्र के श्रीमुख से अपनी जिज्ञासा का समाधान कराना चाहेंगे। देखें, वे क्या कहना चाहते हैं?
जिस प्रकार व्याकरण के सभी शब्द नियम से बँधे होते हैं, किन्तु यदा-कदा अपवादस्वरूप कुछ ऐसे भी शब्द सामने आ खड़े होते हैं, जिनको परे करना, बुद्धि से परे की बात हो जाती है। अन्ततः उसको स्वीकार करना ही पड़ता है। इसी प्रकार शेषावतार की शुरू से शेष तक की सारी बातों का समर्थन यद्यपि प्रभु रमेश ने किया, फिर भी महेश को साक्षी देकर प्रियानुज भरत को सामने रखा। श्रीभरत जी के पवित्र चरित्र की प्रशंसा भूत-भावन शंकर के शब्दों में सुनिए-
अवधराज सुरराज सिहाई । दशरथ धन लखि धनद लजाई ।।
तेहि पुर बसत भरत बिनु रागा । चंचरीक जिमि चंपक बागा ।।
रमाविलास राम अनुरागी । तजत वमन इव जन बड़भागी ।।
(मानस, अयोध्याकाण्ड)
श्रीभरत जी की गुण-गथा गाते कवि अघाते नहीं। उनकी उक्ति कितनी युक्तियुक्त बैठती है! भक्त- हृदय को झकझोरे बिना छोड़ती नहीं।
भरत सरिस को राम-सनेही । जग जपु राम राम जपु जेही ।
श्रीभरत जी के समान श्रीरामचन्द्रजी का स्नेही अन्य कौन है? कि दुनिया तो राम को जपती है और राम ‘भरत’ जी को जपते हैं। इसीलिए तो उनके लिए यह वचन सार्थक है-
जौं न होत जग जन्म भरत को ।
सकल धर्म धुर धारणि धारत को ।।
यदि भरतजी का जन्म जगत में नहीं होता, तो सर्वधर्म की धुरी को पृथ्वी पर कौन धारण करता?
जिस अवध राज्य की सराहना इन्द्र करते हैं, जिस दशरथजी के धनैश्वर्य को देखकर धन के धनी कुबेर लज्जित होते हैं, उस पुर में भरतजी बिना राग-वैराग्ययुक्त हो बसते हैं, जैसे चम्पे के बाग में भौंरा राग-रहित बसता है। हे पार्वती! राम-अनुरागी जन बड़भागी होते हैं। वे (रमा-विलास) धनादिक ब्रह्माण्ड के ऐश्वर्य को वमन के समान त्याग देते हैं।
यदि शंका हो कि जिस राज्य को पाकर प्रायः सभी राजा पथभ्रष्ट हुए, उसी राज्य को पाकर श्रीभरत जी सर्वश्रेष्ठ कैसे बने रहे? उत्तर में निवेदन है कि काम, क्रोध, मद, लोभ आदि विकार मायामुखी मन में उद्भूत होते हैं, ब्रह्ममुखी वा ब्रह्मभूत जन में नहीं। जो प्रभु के अनन्य भक्त होते हैं तथा सतत साधु- संतों की सभा का सेवन करते रहते हैं, उन पर माया का प्रभाव नहीं पड़ता। उनको माया प्रभावित नहीं कर सकती। वे मायिक पदार्थों के आकर्षण में नहीं पड़ते। प्रभु की छत्रच्छाया में रहने के कारण माया उनसे डरती है। इसलिए उनपर अपनी कुछ प्रभुता कर नहीं सकती।
भगतिहिं सानुकूल रघुराया । ताते तेहि डरपति अति माया ।।
रामभगति निरुपम निरुपाधाी । बसइ जासु उर सदा अबाधाी ।।
तेहि विलोकि माया सकुचाई ।करि न सकइ कछु निज प्रभुताई ।।
श्रीभरत जी साधु-संत-सेवी थे, भगवान के अनन्य भक्त थे। भगवदनुरागी होने के कारण स्वभावतः वे विषय-विरागी थे। चक्रवर्ती राजा दशरथ के राज्य वैभव को पाकर भी वे जल-कमलवत् रहते थे। जैसे हाथ में तेल लगाकर कटहल काटनेवाले को उसका लस्सा नहीं लगता, उसी प्रकार भगवद्भक्ति से हृदय को तर करके सांसारिक कार्य करनेवाले को संसारा- सक्ति नहीं होती। वस्तुतः सभी सद्गुणों से सम्पन्न श्रीभरत जी थे। इसीलिए उनके संबंध में मर्यादापुरुषोत्तम भगवान श्रीराम स्पष्ट शब्दों में अत्यन्त दृढ़तापूर्वक चुनौती देते हुए कहते हैं-
सुनहु लखन भल भरत सरीसा ।
विधि प्रपंच महँ सुना न दीसा ।।
भरतहिं होय न राजमद, विधि हरिहर पद पाय ।
कबहुँ कि काँजी सीकरन्हि, क्षीरसिन्धु बिनसाय ।।
तरुण तिमिर तरणिहिं सकु गिलई ।
गगन मग न मकु मेघहिं मिलई ।।
गोपद जल बूड़हिं घट जोनी ।
सहज क्षमा मकु छोड़हिं छोनी ।।
मसक फ़ूँक बरु मेरु उड़ाई । होइ न नृपमद भरतहिं भाई ।।
अर्थात् भगवान श्रीराम कहते हैं-‘हे लक्ष्मण! सुनो, भरत-सरीखा उत्तम पुरुष ब्रह्मा की सृष्टि में नहीं सुना गया,़ न देखा ही गया है। ब्रह्मा, विष्णु और महादेव का पद पाकर भी भरत को राज्य का मद नहीं होने का। क्या काँजी की बूँदों से क्षीर समुद्र नष्ट हो सकता है? अन्धकार चाहे तरुण (मध्याह्न) के सूर्य को निगल जाए। आकाश चाहे बादलों में समाकर मिल जाए। गौं के खुर इतने जल में अगस्त्यजी डूब जाएँ और पृथ्वी चाहे अपनी स्वाभाविक क्षमा (सहनशीलता) को छोड़ दे। मच्छर की फूँक से चाहे पहाड़ उड़ जाए; परन्तु हे भाई! भरत को राजमद कभी नहीं हो सकता।
निष्कर्ष यह कि अध्यात्म-विहीन राजनीति अपवित्र होती है तथा अध्यात्म-संयुक्त राजनीति पवित्र होती है। अतएव अपने जीवन को पावन बनाने के लिए हम अध्यात्म अपनावें।
(शान्ति-सन्देश, फरवरी 1986)
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ये ज्योति और नाद क्या हैं? इसके संबंध में शास्त्र का कहना है-
आसीद्बिन्दुस्ततो नादो नादाच्छक्ति समुद्भवः ।
नाद रूपा महेशानि चिद्रूपा परमा कला ।।
(वायवीयसंहिता)
अर्थात् पहले विन्दु तब नाद और नाद से शक्ति उत्पन्न होती है। चैतन्य-रूपा परमाकला महेशानि (शिवा) नादरूपा है। तथा-
न नादेन बिना ज्ञानं न नादेन बिना शिवः ।
नाद रूपं परं ज्योतिर्नाद रूपी परो हरिः ।।
अर्थात् नाद के बिना ज्ञान नहीं हो सकता है, नाद के बिना कल्याण नहीं हो सकता है, नाद ही श्रेष्ठ ज्योति-स्वरूप है और नाद रूप ही हरि हैं।
नाद के संबंध में श्रुति का यह सिद्धांत है-
वागेव विश्वा भुवनानि यज्ञे वाच इत्सर्वममृतं मर्त्यं च ।
अर्थात् शब्द से ही विश्व विकसित हुआ। शब्द ही अमृत और मृत्युस्वरूप है। और भी,
वागेवार्थ पश्यति वाग्ब्रवीति वागेवार्थ सन्निहितं संतनीति ।
वाचैव विश्वं बहुरूपं निबद्धं तदेतदेकं प्रविभज्योपभुङ्क्ते ।।
अर्थात् शब्द के द्वारा ही अर्थ देखते हैं, शब्द को ही बोलते हैं, शब्द में ही मिले हुए अर्थ का विस्तार करते हैं, शब्द के द्वारा ही यह संसार नाना रूपों में बँटा हुआ है, उस बँटे हुए से एक भाग लेकर हम लोग उपभोग करते हैं।
यजुर्वेद में एक मंत्र आया है, जो बताता है कि विश्व की उत्पत्ति ईश्वर की वाणी (शब्द) से हुई है। यथा-
ताँ सवितुर्वरेण्यस्य चित्रमाहं वृणे सुमति विश्वजन्याम् ।
यामस्य कण्वोऽअदुत्प्रपीनाँ सहस्रधाराम्पयसामहींगाम् ।।
(अ0 17 मं0 74 खण्ड 1)
अर्थात् सबसे श्रेष्ठ सर्वोत्पादक परमेश्वर की अद्भुत (विश्वजन्या) विश्व को उत्पन्न करनेवाली (समुति) उत्तम ज्ञानवती (गाम्) वाणी को मैं (वृणे) सेवन करूँ। (याम् महीम् गाम्) जिस पूजनीय वाणी को सहस्त्रों धारावाली हृष्ट-पुष्ट गाय के समान (सहस्त्र धाराम् सहस्त्रों धारा धारण सामर्थ्य या व्यवस्था- नियमों वाली (कण्व अदुहत्) ज्ञानी पुरुष दोहन करता है, उससे ज्ञान प्राप्त करता है। इस विषय पर परमपूज्य महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज द्वारा टिप्पणी इस प्रकार है-‘परमेश्वर की अद्भुत विश्व को उत्पन्न करने वाली वाणी का मैं सेवन करूँ।’ इसी शब्द वा नाद को ध्यानाभ्यास-द्वारा भजने वा ग्रहण करने का आदेश संत लोग करते हैं।
साधो शब्द साधना कीजै ।
जेहि शब्द से प्रगट भये सब सोई शब्द गहि लीजै ।।
श्रीमदाद्य शंकराचार्य जी महाराज को भी यह मान्य है कि शब्द से सृष्टि हुई है, जो उसके अनुसार उपादान कारण है-
न चेदं शब्द प्रभवत्वं ब्रह्म प्रभवत्वं बहुपादान कारण त्वभिप्रायेण ।
अर्थात् इस शब्द की उत्पत्ति का ब्रह्म की उत्पत्ति के समान उपादान कारण नहीं है।
और तो और, ईसाई धर्म की मूल पुस्तक जो बाइबिल है, उसमें ईसा के शिष्य जॉन ने भी इस विषय का प्रतिपादन किया है कि आरम्भ में शब्द था, शब्द ईश्वर के साथ था और शब्द ही ईश्वर था। यथा-
In the beginning was the word, the word was with God and the word was God.
तथा ब्रह्मज्योति के संबंध में संत ल्यूक ने इस भाँति कहा है-
'The light of the body is the eye, therefore when thine eye is single, thy whole body also is full of light; But when thine eye is evil, thy body also is full of darkness. Take heed therefore that the light which is in thee be not darkness. If thy whole body therefore be full of light, having no part dark, the whole shall be full of light, as when the bright shining of a candle both give the light" St. Luke chapter 11/34-36.
शरीर का दीपक आँख है। इसलिए जब तेरी आँख एक हो, तो तेरा सम्पूर्ण शरीर प्रकाशमय होगा, किन्तु जब तेरी आँख बुरी हो, तो तेरा शरीर भी अन्धकारमय होता है।।34।।
इसलिए इसका ध्यान रख कि वह ज्योति (दीपक) जो तुम्हारे अन्दर है, अन्धकारमय न हो।।35।।
इसलिए अगर तेरा सम्पूर्ण शरीर प्रकाश से पूरित हो, उसका कोई अंश भी अन्धकारमय न हो, तो जिस प्रकार तेज जलनेवाली मोमबत्ती तुझे प्रकाश देती है-सम्पूर्ण उजियारा हो जाएगा।।36।।
संत कबीर साहब, गुरु नानक साहब, दादू दयालजी, राधास्वामी साहब आदि संतों ने भी सृष्टि के आरम्भ में शब्द का होना, एक स्वर से स्वीकार किया है। यथा-
साधाो शब्द साधना कीजै ।
जेहि शब्द से प्रगट भये सब, सोई शब्द गहि लीजै ।।
शब्दहिँ गुरु शब्द सुनि शिष भे, शब्द सो विरला बूझै ।
सोई शिष्य सोइ गुरु महातम, जेहि अन्तर गति सूझै ।।
शब्दै वेद पुराण कहत हैं, शब्दै सब ठहरावै ।
शब्दै सुर मुनि संत कहत हैं, शब्द भेद नहिं पावै ।।
शब्दै सुनि-सुनि भेष धारत हैं, शब्द कहै अनुरागी ।
षट दरशन सब शब्द कहत हैं, शब्द कहै वैरागी ।।
शब्दै माया जग उतपानी, शब्दै केरि पसारा ।
कहै कबीर जहँ शब्द होत है, तवन भेद है न्यारा ।।
(कबीर साहब)
शब्द तत्त्व बीर्य संसार । शब्द निरालम अपर अपार ।।
शब्द बिचारि तरे बहुभेषा । नानक भेदु न शब्द अलेषा ।।
शब्दै सुरति भया परगासा । सभ को करै शब्द की आसा ।।
पंथी पंखी सिउ नितराता ।नानक शब्दै शब्द पछाता ।।
हाट बाट शब्द का खेलु । बिन शब्दै क्यों होवै मेलु ।।
सारी सृष्टि शब्द कै पाछे । नानक शब्द घटै घटि आछै ।।
(गुरुनानक देव)
शब्दैं बन्धया सब रहै, शब्दैं सब ही जाइ ।
शब्दैं ही सब ऊपजै, शब्दैं सबै समाइ ।।
एक शब्द सब कुछ किया, ऐसा समरथ सोय ।
आगैं पीछैं तो करे, जे बलहीना होय ।।
पंच ऊपना शबद थै, शबद पंच सों होय ।
साईं मेरे सब किया, बूझे बिरला कोय ।।
शब्दैं ही सूषिम भया, शब्दैं सहज समान ।
शब्दैं ही निर्गुण मिलै, शब्दैं निर्मल ज्ञान ।।
(संत दादू दयालजी)
सब का आदि शब्द को जान ।अनत सभी का शब्द पिछान ।।
तीन लोक और चौथा लोक । शब्द रचे यह सब ही थोक ।।
(राधास्वामी साहब)
ज्योति और शब्द के विषय का उल्लेख हम छान्दोग्योपनिषद् अ0 3 के त्रयोदश खण्ड में इस भाँति पाते हैं-
अथ यदतः परेा दिवोज्योतिर्दीप्यते विश्वतः सर्वतः पृष्ठेष्वनुत्तमेषु लोकेष्विदं वाव तद्यदिदमस्मिन्नंतः पुरुषेज्योतिस्तस्यैषा दृष्टि।।
य=ै तदस्मिन्´्छृरीरे सेँ् स्पर्शेनोष्णिमानं विजानाति तस्यैषा श्रुतिर्य=तत्कर्णावपिगृह्य निनदमिव नदथुरिवाग्नेरिव ज्वलत उपशृणोतितदेतदृष्टं च श्रुतं चेत्युपासीत् चक्षुस्यः श्रुतो भवति य एवं वेद ।।
अर्थात् जो कि इससे परे स्वर्ग अथवा आकाश में ज्योति चमकती है एवं विश्व की पीठ पर, सबकी पीठ पर तथा उत्तम और अनुत्तम सब लोकों में चमकती है, यह वही है जो अन्तःपुरुष में ज्योति है। उसी की यह दृष्टि है, जो कि इस शरीर में छूने से गर्मी का ज्ञान करते हैं। उसी की यह श्रुति है जो कि इन कानों को बन्द करके ध्वनि के समान और जलती हुई आग के गर्जन के समान सुनते हैं। तो इस तरह उसे देखा भी और सुना भी, अतः चक्षुष्य और श्रुत दोनों से उसकी उपासना करनी चाहिए, जो इसे जानता है।
अतएव कहना पड़ता है कि ज्योति जगत का जीवन तत्त्व है और नाद जगत का आदितत्त्व। बिना नाद के जगत का अस्तितव नहीं और प्रकाशहीन का अर्थ तो प्राण-विहीन ही समझना चाहिए। यही कारण है कि जगत को नादात्मक कहते हैं। यदि विराट प्रकाशपुञ्ज-सूर्य पिण्ड को स्थूलाकाश से हटा दिया जाए, तो सौर जगत् को ठहरने का कहीं ठौर नहीं। अतएव स्वतः सिद्ध है कि ये उभय-ज्योति और शब्द, मानव मात्र के ही नहीं, वरन् प्राणिमात्र के प्राण हैं। जहाँ ज्योति और नाद नहीं, वहाँ जीव का जीवन नहीं-अस्तित्व नहीं। यह तो प्रत्यक्ष ही है कि जिस सद्यःजात शिशु की आँख में तेज नहीं और भूमिष्ठ होते ही जो शिशु क्रन्दन प्रसारित कर हमें शब्द का बोध नहीं दिलाता, उस शिशु को शव जानकर सब त्याग देते हैं।
अन्य प्राणियों के प्रसंग का परित्याग कर हम अपनी ओर दृष्टिपात करें। जबतक हमारे शरीर में उष्णता वा गर्मी रहती है, तबतक शरीर का जीवन रहता है और उष्णता की इतिश्री में देह का भी अवसान हो जाता है। हमारी रुग्णावस्था में डॉक्टर वा वैद्य आते हैं। वे क्या देखते हैं? तापमापक यंत्र (ज्ीमतउवउमजमत) हमारे शरीर के ताप की हो तो माप करते हैं और नाड़ी स्पर्श कर नाड़ी की गति, कम्पन वा स्पन्दन ही तो देखते हैं? साथ ही (ैजमजीवेबवचम) वक्ष-परीक्षण यंत्र द्वारा हमारे हृदय की धड़कन, ध्वनि वा शब्द ही को तो सुनते हैं?
जबतक नाड़ी की गति ठीक रही, हृदय का कम्पन ठीक रहा और शरीर में गर्मी रही, तबतक तो ठीक ही ठीक; अन्यथा इनके अभाव में शरीर के जीवन का भी तिरोभाव हो जाता है। इस दृष्टि से विचार करने पर सरलतापूर्वक समझा जा सकता है कि ज्योति और शब्द क्या है तथा ये हमारे कितने काम की चीजें हैं? ज्योति प्रकाश है, उसमें उष्णता रहती है तथा नाद शब्द है, उसमें गति होती है। दूसरी भाँति से हम ऐसा भी कह सकते हैं-जहाँ कम्प है, वहाँ शब्द है, बिना कम्प के शब्द नहीं। संत दरिया साहब (बिहारी) कहते हैं-
संतो गति में अनहद बाजै ।
झंझकार और झनक-झनक है, यहि मंदिर में साजै ।।
किन्तु यह कोई आवश्यक नहीं कि सृष्टि में जितने प्रकार के शब्द होते हैं, उन सभी शब्दों का ज्ञान सरलतापूर्वक स्वाभाविक रीति से हमें हो अर्थात् हम सभी शब्दों को सुन सकें; क्योंकि हमारी कर्णेन्द्रिय में जो शक्ति है, वह उतनी क्षमता नहीं रखती, जो समस्त शब्दों को ग्रहण कर सके। आज के भौतिक वैज्ञानिकों ने परीक्षण कर इसकी शक्तिसीमा को सीमित सिद्ध कर दिया है। अर्थात् उन्होंने बताया है कि प्रति सेकेण्ड न्यूनतम तीस और उच्चतम तीस हजार फ्रीक्वेन्सी-थ्तमुनमदबल (आवृत्ति संख्या) शब्द को लोग सुन सकते हैं। कोई-कोई चालीस हजार थ्तमुनमदबल शब्द को सुन सकते हैं। मानवीय डॉक्टर सम्पूर्णानन्द महोदय (भूतपूर्व राज्यपाल, राजस्थान) के कथनानुसार- ‘हमारी नाड़ी संस्थान की बनावट ऐसी है कि यदि वस्तु का कम्पन लगभग सोलह बार प्रति सेकेण्ड से कम या लगभग पचास हजार प्रति सेकेण्ड से अधिक हो तो स्वन नहीं सुन पड़ता।’
-योग-दर्शन
यह कहना कोई अनर्गल बात नहीं होगी कि स्थूल भौतिक जगत् के शब्दों को ही हम थ्तमुनमदबल में विभाजित कर सकते हैं, न कि सूक्ष्म वा कारणादि सृष्टि के अनहद वा अनाहत शब्दों को। क्योंकि इन आन्तरिक नादों के श्रवण के लिए न तो यह स्थूल कर्ण योग्य है और न कोई अन्य बाह्य उपकरण ही।
श्रोत्र में स्वल्प शक्ति होने के कारण हम जिन शब्दों को नहीं सुन सकें, उन शब्दों का अस्तित्व है ही नहीं, ऐसा कहना न्याय-संगत नहीं; क्योंकि आकाश में जब हम वायुयान को उड़ते देखते हैं, तो उस समय उसमें जोरों की आवाज सुनाई पड़ती है। किन्तु अत्यधिक दूर होने के कारण हमारी श्रवणेन्द्रिय उस शब्द को ग्रहण नहीं कर पाती। फिर ज्यों-ज्यों वह समीप आता है, त्यों-त्यों उसका शब्द अधिकाधिक स्पष्ट होता जाता है और अत्यन्त निकट आ जाने पर उसका घोर शब्द सुन पड़ता है। पुनः जबतक श्रवण-शक्ति की सीमा के अन्दर वायुयान उड़ता रहता है, हम शब्द सुनते रहते हैं और सीमोल्लंघन के पश्चात् उसी शब्द को नहीं सुन पाते। तो क्या, ऐसा कहना न्याय-संगत होगा कि वायुयान के सुदूर होने पर उसकी गति में शब्द नहीं होता? ऐसा कदापि नहीं कहा जा सकता।
स्थूल-सूक्ष्म भेद से दृष्टि के जितने स्तर हो सकते हैं, सबमें अनिवार्य रूप से शब्द होता है। चन्द्र, सूर्य, तारे प्रभृति जितने ग्रह एवं नक्षत्र हैं, सबमें अपनी-अपनी गति है और सबसे शब्द होते हैं। सम्प्रति जिस पृथ्वी पर हमलोग निवास करते हैं, इस पृथ्वी की गति में भी शब्द होता है, किन्तु क्या हम उसे सुन पाते हैं?
ईसा से छः सौ वर्ष पूर्व इटली में पाइथागोरस (Pythagoras) नाम के महात्मा हुए थे। वे इस शब्द को सुनते थे। शब्दब्रह्म के वे इतने अच्छे अभ्यासी थे कि उनको सृष्टि के मण्डलों की गति का संगीत (Music of the Spheres) निरंतर सुनाई पड़ता था। ज्योति और नाद से हमारे जीवन का आश्चर्यजनक संबंध है। शब्द के द्वारा ही हम लौकिक तथा पारलौकिक ज्ञान पाते हैं। बिना शब्द के हमारा उभय लोक सूना-सूना रहता है। यदि हम थोड़ा भी विचार कर सकें, तो पाएँगे कि जिनके अन्दर शब्द का जितना बड़ा कोष है, वे उतने ही बड़े ज्ञानी हैं। परमार्थ तो परे की वस्तु है, प्रथम हम अपने जागतिक जीवन पर ही दृष्टिपात करें। क्या हम जगत-व्यवहार में, बिना प्रकाश व नाद के किसी व्यक्ति अथवा वस्तु की पहचान कर सकते हैं? कभी नहीं। यह तो स्पष्ट ही है कि यदि प्रकाश नहीं, तो अन्धकार में टटोलने से आखिर मिल ही क्या सकता है? प्राप्य वस्तु भी तम के कारण आप्रप्य-सी हो जाती है।
मान लीजिए, दिन का समय हो, सहस्त्रों की संख्या में लोग उपस्थित हों, किन्तु उस समय यदि सूर्य का प्रकाश नहीं हो अथवा अन्य किसी प्रकार का प्रकाश नहीं हो, तो क्या उस प्रकाश के अभाव में कोई किन्हीं को देख सकते हैं? और बिना देखे कोई किन्हीं की पहचान कर सकते हैं। कदापि नहीं। तात्पर्य क्या हुआ? प्रकाश है, तो पहचान है; प्रकाश नहीं तो पहचान नहीं। हाँ, एक बात और है-प्रकाश के अभाव में भी पहचान वा परिचय प्राप्त करने का एक माध्यम है और वह है-शब्द।
मान लीजिए, सज्जनों की भरी सभा हो, किन्तु वहाँ घनघोर तम का साम्राज्य छाया हुआ हो और सभी चुपचाप-निःशब्द बैठे हों, तो ऐसी अवस्था में कुछ भी पता नहीं चल सकता कि कौन कहाँ बैठे हुए हैं? परन्तु यदि क्रम-क्रम से एक-एक सज्जन बोलना आरम्भ कर दें, तो उनकी वाणी सुनकर हम पूर्वपरिचित जन को सरलतापूर्वक पहचान लेंगे-तनिक भी व्यतिक्रम नहीं होगा। किन्तु स्मरण रहे, जिनसे हमारा पूर्व परिचय नहीं, उनकी वाणी सुनकर भी हम उनको नहीं पहचान सकते। आशय यह हुआ कि प्रथम प्रकाश की सहायता से हम जिनकी प्रत्यक्षता प्राप्त कर सकते हैं, प्रकाश के अभाव में भी मात्र शब्द की सहायता से उनकी हम पहचान कर सकते हैं। इन उदाहरणों से यह स्पष्ट हो गया कि किन्हीं के साक्षात्कार वा उनकी पहचान के लिए प्रकाश और शब्द आश्चर्य-जनक माध्यम है। ठीक इसी भाँति परमात्मा की प्रत्यक्षानुभूति के लिए संत तथा वेदानुमोदित अन्तःप्रकाश और अन्तर्नाद की साधना है।
कहने की आवश्यकता नहीं, अन्तःप्रकाश पाने के लिए दृष्टियोग (वैष्णवीमुद्रा-शाम्भवी मुद्रा) की और अन्तर्नाद की अनुभूति के लिए नादयोग वा नादानुसंधान की क्रिया अत्यन्त अपेक्षित है। हाँ, अब प्रश्न हो सकता है अथवा जिज्ञासा हो सकती है कि अन्तःप्रकाश और अन्तर्नाद पाने की यथानुक्रम साधना क्या है? इस विषय में सभी का मतैक्य नहीं, दो मत हैं। एक पक्ष का कथन है कि नादानुसंधान करते-करते अन्तःप्रकाश मिलता है और दूसरे पक्ष का कथन है कि अन्तःप्रकाश पाने पर-कम-से-कम ज्योतिर्विन्दु ग्रहण के पश्चात् ही नादानुसंधान करना चाहिए। यद्यपि दोनों के वचन अपनी-अपनी जगह ठीक हैं, तथापि प्रथम पक्ष से द्वितीय पक्ष के विचार अधिक दृढ़ और प्रमाणभूत पाए जाते हैं; क्योंकि इनकी विचारधारा के समर्थन में सद्ग्रन्थों से आप्तवचन पर्याप्त रूप में प्राप्त होते हैं। यथा-
विन्दुपीठं विनिर्भिद्य नादलिंगमुपस्थितम् । (योगशिखोपनिषद्)
अर्थात् विन्दुपीठ का भेदन करके नादलिंग उपस्थित होता है।
सि)ासने स्थितो योगी मुद्रां सन्धााय वैष्णवीम् ।
शृणुयाद्दक्षिणे कर्णे नादमन्तर्गतं सदा ।। (नादविन्दूपनिषद्)
अर्थात् सिद्धासन में स्थित होकर वैष्णवी मुद्रा का अभ्यास करते हुए योगी दाहिने कान से आन्तरिक नाद सर्वदा सुने।
बीजाक्षरं परं विन्दुं नादं तस्योपरि स्थितम् ।
सशब्दं चाक्षरे क्षीणे निःशब्दं परमं पदम् ।। (ध्यानविन्दूपनिषद्)
अर्थात् परम विन्दु ही बीजाक्षर है, उसके ऊपर नाद है। नाद अब अक्षर ब्रह्म में लय हो जाता है; तो निःशब्द परम पद है।
कबीर कमल प्रकासिया, ऊगा निर्मल सूर ।
रैन अँधोरी मिटि गई, बाजे अनहद तूर ।।
(कबीर साहब)
सुखमन के घर राग सुन, सुन मण्डल लिव लाई ।
अकथ कथा बीचारिअै, मनसा मनहिँ समाई ।।
(गुरु नानक देव)
बिन्दु में तहँ नाद बोलै, रैन-दिवस सुहावनं ।
(पलटू साहब)
गगन द्वार दीसै एक तारा। अनहद नाद सुनै झनकारा ।।
(तुलसी साहब, हाथरस)
आर्ष वचन विश्वास के योग्य तो होते ही हैं, साथ ही विचार-विमर्श करने पर निष्कर्ष भी यही निकलता है कि ब्रह्मज्योति पाने के लिए दृष्टियोग वा सुरत-शब्द-योग की क्रिया अत्यन्त वांछनीय है। इन उभय साधनाओं में आरम्भ होगा दृष्टियोग से और अंत होगा नादयोग में, जो सबके लिए सरल सुखद और सुगम साधन है। दृष्टिसाधन में सफलता प्राप्त किए बिना नादानुसन्धान करना वैसा ही है जैसे नेत्र-विहीन का ऊँचे वृक्ष से फल तोड़ना।
श्री भर्तृहरि जी ने-‘इति कर्त्तव्यता लोके सर्वा शब्द व्यपाश्रया। यां पूर्व हित संस्कारो बालोऽपि प्रतिपद्यते।’ के द्वारा सद्यःजात शिशु के क्रन्दन की उपमा देकर नाद की नित्यता बतलाई है। किन्तु इसके साथ इससे भिन्न दूसरी उपमा भी ली जा सकती है और वह यह कि, प्रथम हम शिशु को देखते हैं, पश्चात् शब्द सुनते हैं। जबतक शिशु देखा नहीं जाता, तबतक उसकी बोली सुनी नहीं जाती। इससे पहले देखने की क्रिया-दृष्टियोग और पीछे सुनने की क्रिया-नादानुसंधान का स्पष्ट संकेत मिलता है।
हम एक बात पर और भी जरा ध्यान दें, जो कि नित्य हमें प्रकृति देवी सिखलाती हैं। आकाश में काले-काले बादल मँड़राते हैं, बिजलियाँ चमकती हैं और तब ठनके की आवाज सुन पड़ती है, जबतक विद्युत नहीं चमकती, तबतक मेघ-गर्जन नहीं होता। अतएव यह भी उसी विषय की परिपुष्टि करता है कि पहले देखो, फिर सुनो।
ऐसा लगता है, मानो ऋग्वेद सू0 41 मंत्र 9 के तृतीय मंत्र में ऋषि ने इसी ओर इंगति किया हो।
शृण्व वृष्टेरिव स्वनः पवमानस्य शुष्मिणः ।
चरिन्त विद्युतो दिवि ।।
अर्थात् आकाश में बिजलियाँ चमकती हैं और उस समय उस बलवान पाप शोधक का शब्द वृष्टि के शब्द के समान सुन पड़ता है। साधक के मूर्द्धा-स्थल में विद्युत की-सी कान्तियाँ व्यापती हैं वह अनाहत पटह के समान गर्जन अनायास सुनता है। वह स्वच्छ पवित्र आत्मा का ही शब्द होता है।
उपनिषदों तथा संतों की वाणियों में बिजली की चमक तथा मेघ-गर्जन के यत्र-तत्र विस्तृत वर्णन पाए जाते हैं, जिनकी प्रत्यक्षानुभूति अन्तस्साधना करते समय साधक पाते हैं।
आदौ जलधि जीमूत भेरी निर्झर संभव:।
मधये मर्दल शब्दाभो घण्टा काहलजस्तथा ।।
(नादविन्दूपनिषद्)
अर्थात्-आरम्भ में नाद समुद्र, बालक, दुन्दुभि, जलप्रपात से निकले हुए मालूम होते हैं और मध्य में मर्दल, घण्टा और सिंघा जैसे।
योगशिखोपनिषद् में लिखा है-
आधारचक्रमहसा विद्युत्पु़ंज समप्रभा ।
तदामुक्तिर्न सन्देहो यदि तुष्टः स्वयं गुरुः ।।
अर्थात् बिजली-पुंज के समान प्रभावाले आधारचक्र के ज्ञान-प्रकाश से मुक्ति हो जाती है, इसमें संदेह नहीं, जब कि गुरु प्रसन्न रहें।
गगन गराजै दामिनि दमकै अनहद नाद बजावै ।।
(कबीर साहब)
निसि दामिनि जिउ चमकि चंदाइणु देखै,
अहिनिसि जोति निरन्तर पेखै ।
आनन्द रूप अनूपु सरूपा गुरु पूरे देखाइआ ।।
(गुरु नानक)
गगन गरज घन बरसहीं, बाजै दीरघ नाद ।
अमरापुर आसन करै, जिन्हके मते अगाधा ।।
(गरीबदास जी)
जैसे रवि के तेज से, देख पड़े रवि जात ।
तैसे आतम तेज से, आतम रूप लखात ।।
सूर्य को देखने के लिए अन्य किसी प्रकाश की आवश्यकता नहीं पड़ती-सूर्य के प्रकाश से ही सूर्य को देख सकते हैं। ठीक इसी भाँति आत्म- ज्योति से ही आत्म-साक्षात्कार होता है। इस विषय का समर्थन सामवेद का निम्न अवतरण भी करता है कि आत्मा से ही आत्मज्ञान और मोक्ष मिलता है तथा तेज के निवास परमात्मा को भी प्राप्त करता है।
अभि प्रयांसि वाहसा दाश्वाँ अश्नोति मर्त्यः ।
क्षयं पावक शोचिषः ।।२।।
(1557, अ0 15 सं0 3 सू0 9)
अब अन्त में प्रातःस्मरणीय परम पूज्य अनन्त श्री-विभूषित महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज के शब्दों में ‘शब्द-विज्ञान’ का अनुशीलन कीजिए-‘परम प्रभु सर्वेश्वर में सृष्टि की मौज वा कम्प हुए बिना सृष्टि नहीं होती। मौज वा कम्प शब्द-सहित अवश्य होता हैै; क्योंकि शब्द कम्प का सहचर है। कम्प शब्दमय होता है और शब्द कम्पमय होता है। कम्प और शब्द के बिना सृष्टि नहीं हो सकती। कम्प और शब्द सब सृष्टियों में अनिवार्य रूप से अवश्य ही व्यापक है। आदिशब्द सृष्टि का साराधार सर्वव्यापी और सत्य है। अव्यक्त से व्यक्त हुआ है अर्थात् सूक्ष्मता से स्थूलता हुई है। सूक्ष्म स्थूल में स्वाभाविक ही व्यापक होता है। अतएव आदिशब्द सर्वव्यापक है। इस शब्द में योगी जन रमते हुए परम प्रभु सर्वेश्वर तक पहुँचते हैं। अर्थात् इस शब्द के द्वारा परम प्रभु सर्वेश्वर का अपरोक्ष (प्रत्यक्ष) ज्ञान होता है।’
वस्तुतः सृष्टि-सर्जन हेतु सर्वेश्वर ने सर्वप्रथम शब्द का सर्जन किया। वह शब्द सृष्टि के कण-कण में वैसे ही व्यापक हुआ, जैसे एक गीली मिट्टी की गोली बनाने में अंग लियों का प्रकम्पन उसमें ओत-प्रोत व्यापक होता है। संतों ने स्थूल-सूक्ष्मादि भेद से सृष्टि के पाँच स्तर (स्थूल, सूक्ष्म, कारण, महाकारण और कैवल्य वा जड़-विहीन चेतन) बतलाए हैं। सूक्ष्म अपने से स्थूल में स्वाभाविक ही व्यापक होता है और ऊपर का शब्द नीचे दूर तक जाता है तथा सृष्टि-क्रम के निर्माण में पूर्व का पदार्थ पर की अपेक्षा सूक्ष्म होता है। इन कारणों से वह आदिनाद सृष्टि के अन्तस्तल में अविच्छिन्न और अप्रतिहत रूप से सर्वत्र व्यापक है।
सृष्टि से सर्वेश्वर तक लगी हुई अक्षुण्ण धारा यदि कोई है, तो वह शब्दधार ही है। अतएव इसी के माध्यम सर्वेश्वर तक पहुँचने का सीधा मार्ग संतों ने बताया। यदि कहा जाए कि ईश्वर-प्राप्ति का इसके अतिरिक्त कोई अन्य मार्ग नहीं हो सकता, तो यह कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। यजुर्वेद का निम्न मंत्र अत्यन्त दृढ़ता के साथ घोषणा करता है कि दूसरा कोई मार्ग मोक्ष-प्राप्ति का नहीं है।
वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्य वर्णं तमसः परस्तात् ।
तमेव विदित्वाति मृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय ।।
अर्थात् मैं उस बड़े भारी ब्रह्माण्ड भी में व्यापक पूर्ण परमेश्वर को सूर्य के समान तेजस्वी और अन्धकार के दूर विद्यमान जानता और साक्षात् करता हूँ। उसको जानकर मृत्यु को पार कर जाता है। अन्य कोई मार्ग अभीष्ट मोक्ष स्थान को प्राप्त करने के लिए नहीं है। साथ ही संतों ने यह भी बताया कि उस आदिनाद को कहाँ और कैसे पकड़ोगे?
आदिनाद की साधना आरम्भिक वा मध्य की साधना नहीं, वरन् अन्त की है। प्रारम्भ की और मध्यवर्ती साधना किए बिना आदिनाद वा अन्तर्नाद की साधना ‘भूमि पड़ा चह छुअन अकाशा’ की भाँति वा आकाश- कुसुम को तोड़ने के सदृश है। अतएव आवश्यकता है प्रथम प्राथमिक साधनाओं से साधनारम्भ करने की। अर्थात् सर्वप्रथम मानस जप और मानस जप द्वारा मन को कुछ समेट में ला, पुनः गुरु-निर्देशित क्रिया-द्वारा दृष्टि-साधन कर एकविन्दुता प्राप्त करे। एकविन्दुता प्राप्त रहने की अवस्था में स्थूल और सूक्ष्म मण्डल के संधि-विन्दु वा स्थूल मण्डल के केन्द्र-विन्दु से उत्थित नाद को ग्रहण करें; क्योंकि एकविन्दुता रहने के कारण उसकी स्थिति सूक्ष्म में हो जाएगी और तब वहाँ उसके लिए सूक्ष्म मण्डल के नाद का ग्रहण करना सरल और स्वाभाविक होगा। नाद में अपने उद्गम स्थान पर आकर्षण करने का गुण रहने के कारण वहाँ के नाद को ग्रहण कर शब्द से शब्द में खिंचती हुई सुरत क्रमानुसार सूक्ष्म, कारण और महाकारण मण्डलों को अतिक्रमण कर कैवल्य के केन्द्र पर पहुँचेगी। वहाँ उसको उस आदिनाद (रामनाम, सत्यशब्द, सारशब्द, ॐ, स्फोट, उद्गीथ आदि) की प्राप्ति होगी, जिसके सहारे वह परम प्रभु परमात्मा तक पहुँच जाएगी। यहाँ प्रभु की प्राप्ति होगी और काम समाप्त होगा।
(शान्ति-सन्देश, मार्च 1986)
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आपलोगों ने संत सद्गुरु तथा सत्संग के प्रसंग में बहुत-सी कहानियाँ सुनीं। कहानियों को सुनकर मेरे मन में भी हुआ कि मैं भी एक कहानी आपलोगों को सुनाऊँ। लेकिन यह कहानी पौराणिक कहानी नहीं है, न मेरी कहानी है, न किसी नानी की कहानी है। वह एक अजब और लासानी कहानी है। लेकिन वह कहानी अर्वाचीन नहीं, प्राचीन है। फिर भी वह चीन की कहानी नहीं, जापान की है।
जापान में एक संत आश्विन महीने में अपने आसन पर आसीन थे। उसी समय एक लेफ्रटीनेंट वहाँ प्रजेंट होता है। बिल्कुल नया जवान था। जवानी का पानी भी उसपर चढ़ा हुआ था और वह ऐसा जवान था कि जिसकी जबान में लगाम नहीं थी। पद के कारण वह मद में तो था ही और जवानी के कारण किसी की सुनता नहीं था, न गुनता ही था। ऐसे लोग बड़ों के सामने जाकर झुकना नहीं जानते हैं, ऐंठना जानते हैं। बड़ों को वे प्रणाम नहीं करते। बड़ों को प्रणाम करना वे पाप समझते हैं, चाहे अपना बाप ही क्यों न हो। इस कारण उसने महात्माजी को प्रणाम तो नहीं किया, बल्कि मूँछ पर हाथ देकर कहा, ‘महात्माजी! कुछ पूछूँ?’ महात्माजी ने कहा, ‘क्या पूछना चाहते हो? पहले यह तो बताओ कि तुम हो कौन?’ उसने कहा, ‘मैं अमुक रेजीमेंट का लेफ्रटीनेंट हूँ।’ महात्माजी ने आपादमस्तक देखा और कहा, ‘तुम अपने को लेफ्रटीनेंट कहते हो; लेकिन मैं तो समझता हूँ कि तुम उस लेफ्रटीनेंट का असिस्टेंट का सर्वेण्ट भी होने योग्य नहीं हो। तेरा चेहरा तो चुहार जैसा है, तुम क्या लेफ्रटीनेंट बनोगे।’ जवान तो था ही; म्यान से अपनी तलवार निकाली और चाहा कि उनके सर को धड़ से उतारकर धरा पर धर दूँ। उसने उसपर तलवार का वार किया। लेकिन महात्माजी ने अपने कर से वार को सम्हाल लिया और कहा, ‘अच्छा! तेरे पास तलवार भी है।’ मुस्कुराते हुए कहा, ‘अरे! तेरी तलवार एक तिनके को नहीं काट सकती, तो फिर मेरे तन की तो बात ही क्या है।’ वह युवक पुनः आवेश में आया और प्रहार करना चाहा। उसकी तलवार को महात्मा ने एक बाल की तरह मोड़ दिया और कहा, ‘वत्स! तेरे जैसे जवान का जवानी में आना कल्याण के लिए होता है; लेकिन तनिक-सी बात में तुनक जाने के लिए नहीं है। अरे! याद है तुमको! तुमने क्या पूछा था मुझसे।’ उसने पूछा था, ‘बाबा! स्वर्ग और नरक क्या है?’ महात्मा ने कहा, “ मैं तुम्हारे प्रश्न का उत्तर दे रहा था। अभी तक तुम नरक के द्वार पर खड़े हो। अभी तुम तलवार से वार करने, हत्या करने के लिए तैयार हो, इसलिए तुम अभी नरक के द्वार पर खड़े हो।
“ काम क्रोध मद लोभ सब, नाथ नरक कर पंथ ।”
(गो0 तुलसीदासजी)
जब कोई क्रोध में आ जाता है, तो वह अबोध हो जाता है। प्रतिशोध की भावना उत्पन्न हो जाती है, वह इतना अबोध हो जाता है कि क्या कर्तव्य है और क्या अकर्तव्य है, निर्णय नहीं कर पाता। वह अपकर्म करने के लिए तुल जाता है और सारे ज्ञान को वह भूल जाता है, जिस भूल के कारण उसके हृदय में शूल होता है, जिसका निर्मूल करना मामूली बात नहीं।” महात्मा का यह कहना था कि, वह युवक पढ़ा-लिखा तो था ही, नतमस्तक हो गया, महात्मा के चरणों पर वह गिर गया और अपने अश्रुजल से उनके चरणों को धोने लगा। महात्माजी उनकी पीठ को सहलाते हुए कहते हैं, ‘बेटा! अब तुम स्वर्ग के द्वार पर खड़े हो। जब जिसके हृदय में क्रूरता रहती है, तो वह नरक के द्वार पर रहता है। अब तुम्हारी क्रूरता दूर हो गयी। जो तुम्हारी हिंसा वृत्ति थी, वह अहिंसा में परिणत हो गयी। दयाभाव तुम्हारी आत्मा में आ गया। अब तुम स्वर्ग के द्वार पर हो। तुमने मुझसे पूछा था कि स्वर्ग और नरक क्या है? मैं यही बतलाने के लिए ही ऐसा कहा था।
यह तो विदेश की बात थी, अब स्वदेश की बात पर आइये। हमलोगों के यहाँ स्वर्ग और नरक के बाद भी स्थान बतलाया जाता है, जिसको अपवर्ग कहते हैं। उसे त्रयवर्गपर अपवर्ग कहा जाता है। वह अपवर्ग क्या है? अपवर्ग कहते हैं मोक्ष को। मोक्ष मिलता कैसे है? शास्त्र कहता है-ज्ञानान्मोक्षमवाप्नोति। ज्ञान से मोक्ष होता है। गो0 तुलसीदासजी महाराज ने कहा है-
“ धर्म ते विरति जोग ते ज्ञाना ।
ज्ञान मोक्षप्रद वेद बखाना ।।”
शास्त्र कहता है-ज्ञान से मोक्ष होता है। इसलिए उस ज्ञान के जो ज्ञाता होते हैं, वे गुरु कहलाते हैं। जिस गुरु में ज्ञान नहीं है, उसके लिए शास्त्र वचन है-‘त्येजद्गुरुम्’। उसको छोड़ दो। सारी बातों का ज्ञान दे दें; लेकिन यदि वह मोक्ष का ज्ञान नहीं देता है, तो वे गुरु कहला सकते हैं, संत सद्गुरु नहीं हो सकते। जिनसे हम कुछ सीखते हैं, वे गुरु कहलाते हैं। वे संत सद्गुरु नहीं होते हैं। गुरु तो बहुत होते हैं। संत कबीर साहब ने कहा-
प्रथम गुरु है माता पिता ।
रज बीरज का सोई दाता ।।
दूसर गुरु है मन की धाई ।
गिरह बास की बंध छुड़ाई ।।
तीसर गुरु जिन धरिया नामा ।
लै लै नाम पुकारै गामा ।।
चौथे गुरु जिन शिक्षा दीन्हा ।
जग व्यवहार सभै तब चीन्हा ।।
पंचम गुरु जिन वैष्णव कीन्हा ।
रामनाम का सुमिरन दीन्हा ।।
छठे गुरु जिन भरम गढ़ तोड़ा ।
दुविधा मेटि एक से जोड़ा ।।
सातवँ गुरु जिन सतशब्द लखाया ।
जहाँ का तत्त्व सो तहाँ समाया ।।
“ कबीर सात गुरू संसार में, सेवक सब संसार ।
सतगुरु सोई जानिये, जो भवजल उतारे पार ।।”
जो संसार-सागर से पार करनेवाले होते हैं, वे ही संत सद्गुरु होते हैं। और-
“ गुरू नाम है ज्ञान का, शिष्य सीख ले सोय ।
ज्ञान मरजाद जाने बिना, गुरु अरु शिष्य न कोय ।।”
यह गुरु और शिष्य की जो परम्परा है, आदि काल से चली आ रही है। जबसे सृष्टि है, तबसे गुरु है। कोई सिखानेवाला है, तो कोई सीखनेवाला है। कोई माता के पेट से सीखकर नहीं आता है, यहाँ आकर ही सीखता है। लेकिन एक जागतिक गुरु होते हैं और दूसरे पारमार्थिक गुरु होते हैं। सांसारिक गुरु के द्वारा सांसारिक लाभ होता है। पारमार्थिक गुरु जो होते हैं, वे परम तत्त्व का ज्ञान देते हैं। यह जीव जाकर पीव को पावे, जीवात्मा परमात्मा में मिल जाए, यह ज्ञान संत सद्गुरु देते हैं। इसीलिए अन्य गुरुओं की अपेक्षा संत सद्गुरु का स्थान सर्वोपरि है। संत सद्गुरु से बढ़कर किसी दूसरे का दर्जा नहीं हो सकता।
लोग भगवान राम कहते हैं, भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं। मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम ने भी गुरु धारण किया। भगवान श्रीकृष्ण ने भी गुरु धारण किया। मात्र गुरु ही धारण नहीं किया; बल्कि उनकी सेवा भी की। भगवान श्रीकृष्ण लकड़ी तोड़-तोड़कर गुरु के जलावन के लिए लाते थे। भगवान श्रीराम के लौकिक और पारलौकिक दो गुरु थे। लौकिक गुरु विश्वामित्र मुनि थे और पारलौकिक गुरु वशिष्ठजी थे। लौकिक गुरु की भी उन्होंने कम सेवा नहीं की। रामायण में गो0 तुलसीदासजी ने लिखा है-
“ मुनिवर सयन कीन्ह तब जाई ।
लगे चरण चापन दोउ भाई ।।”
लोग कहा करते हैं कि गो0 तुलसीदासजी के इष्टदेव भगवान श्रीराम थे। लेकिन अध्ययन किया जाय तो पता चलेगा कि गो0 तुलसीदासजी ने गुरु को कितना विशेष स्थान दिया है। रामचरितमानस लिखते हैं तो आरंभ करते हैं-
“ बन्दौं गुरुपद कंज, कृपासिन्धु नररूप हरि ।
महामोह तमपुंज, जासु वचन रविकर निकर ।।”
छोटी-सी पुस्तिका उनकी है-हनुमान- चालीसा। बहुत लोगों को वह कंठस्थ भी होगी समूची। वे उसमें आरंभ करते हैं-
“ श्रीगुरु चरण सरोज रज, निज मन मुकुरु सुधारि ।
बरनऊँ रघुवर विमल जसु, जो दायक फल चारि ।।
वर्णन करते-करते आगे बढ़ते हैं तो कहते हैं-
“ जय जय जय हनुमान गोसाईं ।
कृपा करहु गुरुदेव की नाईं ।।”
जिनके इष्ट भगवान राम हैं, वे कहते-
“ जय जय जय हनुमान गोसाईं ।
कृपा करहु रघुपति की नाईं ।।”
वे हनुमानजी की प्रार्थना कर रहे हैं, हनुमान चालीसा लिख रहे हैं, लेकिन वे कहते हैं-
“ बुद्धिहीन तनु जानिकै, सुमिरौं पवन-कुमार ।
बल बुद्धि विद्या देहु मोहिं, हरहु कलेस विकार ।।”
तुलसीदासजी वहीं पर यह कह सकते थे कि बल, बुद्धि तो मुझे है नहीं, इसलिए हे हनुमानजी! ‘जय जय जय हनुमान गोसाईं। कृपा करहु जो तोहि सुहाईं ।।’-सो भी नहीं कहते हैं। बल्कि वे कहते हैं-
“ जय जय जय हनुमान गोसाईं ।
कृपा करहु गुरुदेव की नाईं ।।”
एक जगह लिखते हैं-
“ राम नाम कलि कामतरु, रामभगति सुर धेनु ।
सकल सुमंगल मूल जग, गुरु पद पंकज रेनु ।।”
कलियुग में रामनाम क्या है-‘कलि कामतरु’। कल्पवृक्ष के नीचे आप जाइये, जो कामना कीजिए, सारी पूरी हो जाएगी। तो रामनाम कलियुग में कल्पवृक्ष है और राम की जो भक्ति है, ‘राम भगति सुर धेनु’। कामधेनु से खाने-पीने के लिए जो कुछ माँगिये, सब आपको मिल जाएँगे। यदि हमको कल्पवृक्ष मिल जाए या कामधेनु मिल जाय, तो फिर हमको किसी भी चीज की आवश्यकता ही क्या रह जाएगी? लेकिन गो0 तुलसीदासजी की दृष्टि में बहुत कमी है। वे कहते हैं, ‘कल्पवृक्ष और कामधेनु मिलने पर भी तुम्हारा सुमंगल नहीं होगा। मंगल होगा, मगर सुमंगल नहीं होगा। मौका पड़ने पर मंगल क्या, षड़मंगल ही हो जाएगा।’ अभी आपलोगों ने सुनी थी कहानी विश्वामित्रजी की। विश्वामित्र गये थे शिकार करने के लिए। जब वे शिकार करके लौटते हैं, तो वशिष्ठजी के आश्रम पहुँचते हैं। विश्वामित्र के साथ में चतुरंगिनी सेना थी। विश्वामित्र से वशिष्ठजी ने कहा, ‘भोजन का समय है, आप भोजन ग्रहण कीजिए।’ विश्वामित्र ने कहा, ‘मैं अकेला नहीं हूँ। इतनी फौज मेरे साथ हैं, मैं खा लूँ और वे लोग भूखे रहें, यह तो मुझसे नहीं होगा।’ वशिष्ठजी ने कहा, ‘सबकी सेवा हो जाएगी।’ यह सुनकर विश्वामित्रजी चकित हो गये। देखता हूँ कि इनकी छोटी-सी झोंपड़ी और इतनी बड़ी फौज, इनकी सेवा कैसे करेंगे?
वशिष्ठजी के पास कामधेनु गाय की पुत्री थी-नन्दिनी। नन्दिनी से वशिष्ठजी ने कहा, ‘मेरे यहाँ अतिथि आ गये हैं, सबका तुम सत्कार करो।’ भोजन की इतनी सामग्री प्रस्ततुत की नन्दिनी ने कि सब खाते-खाते थक गये। यह देखकर आश्चर्यचकित हो गये। विश्वामित्र ने कहा, ‘इतने को भोजन आपने कैसे करवाया?’ उन्होंने कहा, ‘मेरे पास है नन्दिनी- कामधेनु। उसी से सबके लिए इतने भोजन प्राप्त हुए।’ विश्वामित्र ने कहा, ‘साधु बाबाजी आपके पास यह गाय रहकर क्या करेगी? यह गाय तो मेरे पास रहनी चाहिए। मेरे यहाँ तो तरह-तरह के लोग आया करते हैं। यह मेरे यहाँ सेवा करेगी। यह आप मुझे दे दीजिए।’ वशिष्ठजी तो संत थे। उन्होंने कहा, ‘ले जाइये।’ विश्वामित्रजी नन्दिनी को ले जाने लगे। वह जा नहीं रही थी। उसके साथ जबर्दस्ती की गयी। फिर भी गाय टस-से-मस नहीं हुई। अब उनकी फौज उसपर टूट पड़ी कि येन-केन-प्रकारेण ले चलेंगे। वशिष्ठजी की ओर नन्दिनी देखने लग गयी। वशिष्ठजी ने कहा, ‘मेरी ओर क्या देखती है, अपना पराक्रम कर।’ सो जो उसने अपना पराक्रम दिखलाया, तो सारी फौज परास्त हो गयी। विश्वामित्र लौट गये। नन्दिनी को नहीं ले जा सके। अब द्वेष वशिष्ठजी के साथ बढ़ गया। उनके सौ पुत्रें का हनन करवा दिया। इस कहानी से क्या सार निकला? जिनके घर में कामधेनु हो, उनके सौ पुत्र मारे जाएँ! विधवा पतोहू नजर में आवे, यह क्या मंगल है? कामधेनु के रहते हुए भी षड़मंगल हो गया।
कल्पवृक्ष की भी कथा है-एक आदमी घूमते- फिरते एक ऐसे जंगल में पहुँचा, जहाँ कल्पवृक्ष था। वह जंगल में पथभ्रष्ट हो गया। रास्ता अपना भूल गया था। वह भूखा था। पिपासित था। संयोग से वह थका-माँदा कल्पवृक्ष के नीचे बैठ जाता है। वह सोचता है, अगर पानी मिल जाता तो अपनी पिपासा को शांत करता। देखता है कि पवित्र जल की कलकल धारा बह रही है। वह सोचता है कि इसी होकर तो अभी मैं आया था। यह धारा कहाँ से आ गयी? सोचा, शायद मैं दूसरी दिशा से यहाँ आया हूँ। उसने उसमें स्नान कर लिया, लोटा में जल भर लिया और सोचने लगा, अगर कुछ खाने को मिल जाता, तो कुछ खाकर ही पानी पीता। खाली पेट पानी पीना अच्छा नहीं। सोचना था कि एक सुन्दर थाल में भोजन की सारी सामग्री आ गयी। वह भोजन करके तृप्त हो गया। भोजन के बाद उसके मन में आया कि कुछ आराम कर लेता, बहुत थका-माँदा हूँ। फिर सोचा कि जमीन पर सोना ठीक नहीं, कीड़े-मकोड़े बहुत होंगे, यदि कोई बिछावन, खाट-पलंग होता, तो आराम से सोता। इतने में उसके सामने ही पलंग लग जाता है-सोने के लिए। फिर सोचता है कि यहाँ गाछ है, कहीं चिड़िया बीट न कर दे। जरा कपड़घर हो जाता, तो निश्चिन्त होकर सोता। कपड़घर भी बन गया। अब गया वह सोने के लिए। सिरहाने पर जब सिर रखता है, तब सोचता है कि यह तो जंगल है, निर्जन वन है, कहीं जंगल से बाघ आ जाए और गला मरोड़ दे, तो मेरी जीवन-लीला समाप्त हो जाएगी। इतने में बाघ आया और उसका गला मरोड़ दिया। वह वहीं मर गया। अब देखिये, कल्पवृक्ष के नीचे रहने पर भी यह हालत हो गयी। तो गो0 तुलसीदासजी महाराज कहते हैं-
“ राम नाम कलि कामतरु, रामभगति सुर धेनु ।”
लेकिन सकल सुमंगल इसमें नहीं है। अगर सकल सुमंगल चाहते हो, तो-
“ सकल सुमंगल मूल जग, गुरु पद पंकज रेनु ।।”
इसलिए गुरु का स्थान सर्वोपरि है। इनसे विशेष किन्हीं का स्थान नहीं हो सकता। हमलोग क्या गाते हैं-
‘परम पुरुषहू तें अधिक, गावें सन्त सुजान ।’
एक तो परम पुरुष परमात्मा ही क्षर पुरुष, अक्षर पुरुष से परे है। लेकिन गुरु उनसे भी अधिक क्यों? गुरुदेव के वचन में आया है-
“ हरदम प्रभु रहैं संग, कबहुँ भव दुख न टरै ।
भव दुख गुरु दें टारि, सकल जय जयति करै ।।”
त्रयतापों से जो हम संतप्त होते रहते हैं, उनसे मुक्त करनेवाले कौन हैं? एक गुरु के सिवा दूसरा कोई नहीं है। इसलिए तो सहजोबाई ने कहा-
“ राम तजूँ पै गुरु न बिसारूँ ।
गुरु के सम हरि कूँ न निहारूँ ।।”
किसी ने पूछ दिया, ऐसी बात क्यों? तो सहजोबाई ने कहा-
“ हरि ने जन्म दियो जग माहीं ।
गुरु ने आवागमन छुटाहीं ।।
हरि ने पाँच चोर दिये साथा ।
गुरु ने लई छुटाय अनाथा ।।
हरि ने कुटुँब जाल में गेरी ।
गुरु ने काटी ममता बेरी ।।
हरि ने रोग भोग उरझायौ ।
गुरु जोगी कर सबै छुटायौ ।।”
कहते-कहते वे अंत में कह देती हैं-
“ चरणदास पर तन मन वारूँ ।
गुरु न तजूँ हरि कूँ तजि डारूँ ।।”
यह है गुरु पर निर्भरता। लेकिन गुरु पर निर्भरता है, गोरू पर नहीं। ‘गुरु नाम है ज्ञान का’। जो ज्ञान जानता है, वह उसका आचरण भी करता है।
“ कहता सो करता नहीं, मुख का बड़ा लबार ।
आखिर धक्का खाएगा, साहिब के दरबार ।।
एक कहै दूजी कहै, दो दो कहै बनाय ।
ये दो मुख का बोलना, घना तमाचा खाय ।।”
इसलिए गुरु का जो स्थान है, वह सभी संतों के यहाँ और सद्ग्रंथों में सर्वोपरि है। गुरु नानकदेवजी कहते हैं-
“ गुरु की मूरति मन महिँ धियानु।
गुरु के शबदि मंत्र मनु मानु ।।
गुरु के चरण रिदै लै धारउ।
गुरु पारब्रह्म सदा नमसकारऊ ।”
संत कबीर साहब कहते हैं-
“ मूल ध्यान गुरु रूप है, मूल पूजा गुरु पाँव ।
मूल नाम गुरु वचन है, मूल सत्य सतभाव ।।”
शिवनारायण स्वामी जी महाराज कहते हैं-
“ निहारो यारो गुरु मूरति की ओर ।
गुरु मूरति सूरति बीच निरखो, तब उर होत इंजोर ।।”
यहाँ तो ‘गुरु मूरति सूरति बीच निरखो’ और गो0 तुलसीदासजी की वाणी में आपलोगों ने अभी सुनी-
“ श्री गुर पद नख मनि गन जोती ।
सुमिरत दिब्य दृष्टि हिय होती ।।
दलन मोह तम सो सुप्रकासू ।
बड़े भाग उर आवइ जासू ।।”
यह कैसे होता है? यह प्रकाश कैसे होता है? हमलोगों के यहाँ जो बिजली का प्रकाश होता है, वह कैसे होता है? दो धारें आती हैं, एक शीत धार, दूसरी उष्ण धार-निगेटिव और पोजिटिव। दोनों धारों को मिलाइये, बल्ब जल जाएगा। हमलोगों की जो दृष्टिधार है, वह एक निगेटिव है और दूसरी पोजिटिव है। इन दोनों धारों को मिलाइये, प्रकाश होगा। इन दोनों धारों को हम कैसे मिलावें? दृष्टि की जो दोनों धारें हैं, वे क्या हैं? समानान्तर रेखाएँ हैं। समानान्तर रेखाएँ कभी मिलती नहीं हैं। लेकिन जब किसी एक वस्तु को एक प्वाइंट पर देखते हैं, तो दृष्टि-धारा मिल जाती है। जैसे सूई के छिद्र में धागा पिरोते हैं, तो दृष्टि एक हो जाती है। लेकिन इसमें भी पूर्ण सिमटाव नहीं है। इस छिद्र से भी जब सूक्ष्म से सूक्ष्म होगा, तब कहीं एक प्वाइंट होगा।
हमलोग रेखागणित में पढ़ते हैं, जिसका स्थान है, लेकिन परिमाण नहीं, जिसमें लंबाई-चौड़ाई कुछ नहीं। इस तरह का विन्दु किसी ने देखा है? परिभाषा में हमलोग पढ़ते, विन्दु के समूह को रेखा कहते हैं। रेखा उसको कहते हैं, जिसमें लंबाई होती है, लेकिन चौड़ाई-मोटाई नहीं होती। इस तरह की रेखा किसी ने देखी है? बाहर की रेखा में कुछ-न-कुछ चौड़ाई हो जाएगी। विन्दु में कुछ-न-कुछ परिमाण हो जाएगा। बाहर में न विन्दु है, न रेखा है, यथार्थ में यौगिक दृष्टि से जो देखते हैं, तो उनको रेखा और विन्दु दीखते हैं। गुरु नानकेदेवजी महाराज ने कहा-‘एक दृसटि करि समसरि जानै, जोगी कहीअै सोई।’ हमारे गुरु महाराज कहते हैं-
“ युग दृष्टि की एक तीक्ष्ण नोक चीर तेजस विन्दु रे ।
सुनो अंदर नाद ही लखो सूर्य तारे इन्दु रे ।।”
(महर्षि मेँहीँ-पदावली)
जो ये क्रिया जानते हैं और करते हैं, तो अंतःप्रकाश होता है। जहाँ अंतःप्रकाश होता है, वहाँ अंतर्नाद की अनुभूति होती है। जहाँ अंतर्नाद की अनुभूति होती है, जहाँ उत्पत्ति होती है, उसका विलय वहीं होता है। उस नाद की उत्पत्ति परम प्रभु परमात्मा से है। उस शब्द को जो ग्रहण करता है, वह शब्द उसको परम प्रभु परमात्मा तक पहुँचाता है। संत सद्गुरु यह बतलाते हैं कि मानस जप करो, मानस ध्यान करो, दृष्टियोग की क्रिया करो। नादानुसंधान करो। बड़ा ही अच्छा गुरुदेव ने कहा-
“ नाद सों नादों में चलि धरु प्रणव सत ध्वनि सार रे ।
एक ओम् सत नाम ध्वनि धरि मेँहीँ हो भव पार रे ।।”
(महर्षि मेँहीँ-पदावली)
इसलिए इस संसार से उद्धार पाने के लिए यही एक सच्चा मार्ग है, जो सद्गुरु महाराज हमलोगों को बता गये हैं, उनके ज्ञान में किसी प्रकार की कमी नहीं है। कमी हमलोगों के करने में है। जो कमी है, उसको हमलोग पूरा करें, इसके लिए उकताना नहीं है-
“ धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय ।
माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आये फल होय ।।”
गुरु महाराज कभी-कभी कहा करते थे- Slow and steady wins the race अर्थात् धीरे- धीरे ही हो; लेकिन अनवरत होना चाहिए। चलते-चलते कभी-न-कभी अवश्य पहुँच जाएँगे। भगवान बुद्ध ने कहा-‘बूँद-बूँद से घड़ा भर जाता है, उसी तरह थोड़ा-थोड़ा अभ्यास करते-करते पूर्ण हो जाओगे। थोड़ा-थोड़ा अपने दोषों को छोड़ते हुए पूर्ण हो जाओगे। जैसे सुनार चाँदी की मैल को धीरे-धीरे जलाकर साफ कर देता है, उसी तरह मन में भी विकार रूपी मैल जो है, वह भी ध्यानाभ्यास करते-करते दूर हो जाती है। गो0 तुलसीदासजी महाराज ने कहा है-
“ निर्मल मन जन सो मोहि पावा ।
मोहि कपट छल छिद्र न भावा ।।”
इसलिए हमलोग ध्यान-सत्संग करते रहें, झूठ, चोरी, नशा, हिंसा, व्यभिचार-इन पंच पापों से बचकर रहें। स्वावलंबी जीवन-यापन करें। गुरुदेव का जो आदेश है, उसी परिवेश में रहें, तभी हमलोग जो अभी गुरु-पूर्णिमा का समारोह मना रहे हैं, यह सार्थक होगा। यही आपलोगों के सामने थोड़ा-सा कहा।
यह प्रवचन गुरु-पूजा पर आयोजित सत्संग के अवसर पर दिनांक-21-7-1986, स्थान: महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट, भागलपुर में हुआ था।
(शान्ति-सन्देश, अगस्त 1986)
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आज भारतीय संतों की अनमोल वाणियाँ सभी को उपलब्ध हैं, यह बड़ी प्रसन्नता की बात है; किन्तु खेद है कि सभी उनकी वाणियों के अर्थ ठीक-ठीक नहीं समझकर अर्थ का अनर्थ करने लगते हैं। कुछ वर्ष पहले की बात है, एक मासिक पत्रिका में संत कबीर साहब की वाणी ‘सत्तपुरुष इक बसै पछिम दिसि तासों करौं निहोर’ में के ‘पछिम दिसि’ का अर्थ एक विद्वान् महोदय ने किया था, जिसका आशय था-कबीर साहब मुसलमान खानदान में पाले-पोसे गये थे, इसीलिए ‘पछिम’ यानी पश्चिम कहकर ‘मक्का’ की ओर संकेत किया है। ऐसी परिस्थिति में प्रश्नोदय होता है कि उक्त स्थल पर संत कबीर साहब ने एक दिशा केवल ‘पश्चिम’ का वर्णन किया है, जिसका अर्थ मक्का हुआ; किन्तु जहाँ पर वे चारो दिशाओं का वर्णन करते हैं, वहाँ उन चारो दिशाओं के क्या- क्या अर्थ होंगे?
जानता कोइ ख्याल ऐसा, जानता कोइ ख्याल ।।टेक।।
पूरब सोधि पछिम दिसि लावै, अर्ध उर्ध के भेद बतावै,
सिला नाथि दक्खिन को धाओ, उत्तर दिसा को सुमरन चाखो,
चारो दिसा का हाल ।।
‘खग जाने खग ही की भाषा’ के अनुकूल संत-संतान ही संतवाणी के यथार्थ अर्थ करने में समर्थ हो सकते हैं। संत सद्गुरु से अध्यात्म-विद्या की शिक्षा-दीक्षा प्राप्त किये बिना लोग स्वयं अंधकार में पड़े रहते हैं और अन्यों को भी भूलभुलैया में डाले रहते हैं। संत कबीर साहब ने ठीक ही कहा है-
बिन सतगुरु नर रहत भुलाना ।
खोजत फिरत राह नहिं जाना ।।
कुछ दिन पहले ट्रेन में एक सज्जन से भेंट हुई। बातचीत के सिलसिले में मुझे संतमतावलंबी जानकर उन्होंने पूछा, ‘संतमत किसे कहते हैं?’ मैंने एक ही वाक्य में कहा-‘पक्षपात-रहित वेद-शास्त्र- नुमोदित तथा सभी संतों के मत से सहमत को संतमत कहते हैं।’ गोस्वामी तुलसीदासजी के शब्दों में-
इहाँ न पच्छपात कछु राखौं ।
वेद पुरान संतमत भाखौं ।।
पुनः उक्त सज्जन ने मुझसे संतमत का सिद्धांत पूछा। मैंने कहा-संतमत के सिद्धांत का सार है- “ एक सर्वेश्वर पर ही अचल विश्वास, पूर्ण भरोसा तथा अपने अन्तर में ही उनकी प्राप्ति का दृढ़ निश्चय रखना, सद्गुरु की निष्कपट सेवा, सत्संग और दृढ़ ध्यानाभ्यास करना-ये तो पंच विधिकर्म हुए। अब निषिद्ध कर्म के लिए भी सुनिये-झूठ बोलना, नशा खाना, व्यभिचार करना, हिसा करनी अर्थात् जीवों को दुःख देना वा मत्स्य-मांस को खाद्य पदार्थ समझना और चोरी करनी; इन पाँचों महापापों से मनुष्यों को अलग रहना।” उक्त सज्जन कुछ भिन्नाते हुए बोल उठे-वाह साहब! आप अपने मत को संतमत भी कहें और पापों से अलग रहने के लिए भी कहें, यह दुमुखी बात क्यों? मैंने पूछा, ‘क्यों? किसी संत ने पाप करने के लिए भी कहा है क्या? उक्त सज्जन ने कहा-‘हाँ, संत कबीर साहब ने ही तो कहा है-
पाँच पचीसो मारिया, पापी कहिये सोय ।
यह परमारथ जानि के, पाप करो सब कोय ।।
क्या लोगों को पाप करने के लिए उनकी ओर से यह स्पष्ट आदेश नहीं है? उक्त सज्जन की बात को सुनकर मैं मन-ही-मन मुस्कुराया और हँसते हुए कहा-‘संत कबीर की वाणी के लिए एक कहावत विख्यात है, शायद आप जानते हों, वह है-
कबीर का गाया गावै, तो गजब का धक्का खावै।
और कबीर की वाणी बूझै, तो तीनों लोक सूझै।।
विवेकीजन विचार सकते हैं कि जब सामान्य ज्ञान प्राप्त जन भी जानते और मानते हैं कि पापकर्म नहीं करना चाहिए, तब एक महान संत के मुखारविन्द से यह वाक्य प्रस्फुटित हो कि ‘सब कोई पाप करो-महान आश्चर्य का विषय बन जाता है। यों तो कबीर साहब की उक्त वाणी योग्यजन की दृष्टि में अवश्य ही असंयत, विचित्र और बुरी मालूम होगी; किन्तु नहीं, संतों के कथन में उनकी अपनी एक अनूठी शैली, कला और मौज होती है। हो न हो इसमें कुछ रहस्य अवश्य छिपा हुआ है। अतएव आइए, इस रहस्यमयी वाणी पर कुछ विचार करें।
दादू जानै न कोई संतन की गति गोई।।
जिनकी गति गुप्त है, उन संतों के गुप्त रहस्यात्मक कथन को समझना कोई आसान काम नहीं, टेढ़ी खीर ही है। संत शिवनारायण स्वामी का वचन सुनिये-
मारत सेंध प्रीति अति आवै।
मगन रूप से ध्यान लगावै।।
द्वादश अंगुल सेंध परमाना।
पैठत सोइ जे चतुर सुजाना।।
मुर्दा मन ठहराइ ले, अन्ते मति कहि जाव।
अदग रूप देखि आपना, दिल चाहे सो खाव।।
संत कीनाराम जी महाराज कहते हैं-
मदिया मैं पियवौं बनाइ, मैं कलबारिन होयबौं ।।
मन महुआ गुरुज्ञान जवर कर, तन को भठी बनइबौं ।
ब्रह्म अग्नि को प्रगट कियो है, मदुए नाम चुएबौं ।।
यह तन बोतल नीके साफ करि, निर्मल ज्ञान भरैबौं ।
प्रेम प्याला ढारि ढारि पियबौं, तब हरि के दास कहैबौं ।।
ये मद पियलें सुर नर माते, सन्त भये मतवाले ।
शिव सनकादि आदि ब्रह्मा ले, पियते प्रेम पियाले ।।
पियत पियत मन मगन भयो है, प्रगटे ज्ञान लखैबौं ।
‘किनाराम’ गुरु के सत महिमा, फिर ना यह तन पैबौं ।।
संत पलटू साहब प्रेम का प्याला पीकर मस्त हो जाते हैं और बेहोश होकर संसार को भूल जाते हैं।
पिया है प्रेम का पियाला। हुआ मन मस्त मतवाला ।।
भया दिल होश से भाई। बेहोशी जगत बिसराई ।।
किसी संत ने यह भी कह दिया है-
नदी किनारे घर किया, करजा करि करि खाय ।
करजा दाता माँगन जब आये, घुसक नदी में जाय ।।
इतना ही नहीं, संतों ने (जीवतमृतक) जीते-जी मर जाने का भी आदेश दिया है-
जीवन से मरना भला, जो मरि जानै कोय ।
मरने से पहले जो मरै, तो अजर अरु अम्मर होय ।।
‘नानक जीवतिया मरि रहिअै, ऐसा जोगु कमाईअै।।’
संतों की उपर्युक्त वाणियों को पढ़कर, क्या कोई कह सकेंगे कि संतों ने सेंध मारने, चोरी करने, नशा का सेवन करने, स्वेच्छाचारी बनने, कर्ज लेकर बेईमानी करने और यहाँ तक कि आत्महत्या तक करने को कहा है? कभी नहीं। संतों की वाणी में यथार्थ अर्थ की बोधगम्यता के हेतु प्रमाणस्वरूप भगवान बुद्ध के एक वचन का यहाँ उल्लेख किया जाता है-
अस्सद्धो अकतञ्ञू च सन्धिच्छेदो च यो नरो ।
हतावकासो वन्तासो वे उत्तम पोरिसो ।।
-धम्मपद, गाथा 97
इसका ऊपरी अर्थ होता है, जो श्रद्धाहीन, अकृतज्ञ, सेंध मारनेवाला, अवकाशहीन, निराश है, वही उत्तम पुरुष है। किन्तु इसका यथार्थ अर्थ है, जो अंधविश्वास-रहित है, अकृत निर्वाण का ज्ञानी है, पुनर्जन्म होना जिससे संभव नहीं है, जिसने सारी तृष्णा का नाश कर दिया है, वह उत्तम पुरुष है।
सम्प्रति संतों की वाणियों में जो गूढ़ आशय भरा हुआ है, उसके परिज्ञान के लिए सच्चरित्र, क्रिया वान, विद्वान गुरु की नितांत आवश्यकता है। हाँ, तो मैं कहना चाहूँगा कि वे पाँच और पचीस क्या है? जिन्हें केवल संत कबीर साहब ही नहीं, अपितु सभी संतों ने मारने वा वश करने के लिए कहा है। निम्नलिखित कुछ संतवचनों से परिचय प्राप्त कीजिए-
पाँच पचीस करै बस अपने, करि गुरु ज्ञान छड़ी ।
अगल बगल के मारि उड़ाये, सन्मुख डगर धरी ।।
‘पाँच चोर बरजोर कुसंगति अति घने ।
ये ठगियन जिव संग मुसत घर निसिदिने ।।’
‘मन पाँचो के वश पड़ा, मन के वश नहिं पाँच ।
अपने-अपने स्वाद में, सबहिं नचावे नाच ।।’
‘काया कुंज करम की वाड़ी, करता बाग लगाया ।
किनका तामें अजर समाना, जिन बेली फैलाया ।।
पाँच पचीस फूल तहँ फूले, मन अलि ताहि लुभाया ।
वोहि फूलन के विषै लपटि रस, रमता राम भुलाया ।।
मन भँवरा यह काल है, विषय लहरि लपटाय ।
ताहि संग रमता बहै, फिरि फिरि भटका खाय ।।
-संत कबीर साहब
इसीलिए कहा है-
पाप पुण्य के बीज दोउ, विज्ञान अग्नि में जारिये जी।
पाँचो चोर विवेक से वश करि, विचार नगर में मारिये जी।।
‘धावतु पंच रहे घरु जाणिया, काम क्रोध विषु मारिआ।
पंच दूत तुधु वश कीते, काल कंटकु मारिआ।।’
‘ज्ञान खड्ग लै मनु सिउँ लूझै।
मरम दशाँ पंचा का बूझे।।
पंच मारि घर बहै संतोषि।
हउ मैं दुविधा मेटै दोष।।
-गुरु नानकदेव
पाँचइ पाँच परस रस, शब्द गंध अरु रूप।
इन्ह कर कहा न कीजिए, बहुरि पड़व भवकूप।।
-गोस्वामी तुलसीदासजी
“ यार फक्कीर तू पड़ा किस ख्याल में ,
पाँच पच्चीस संग तीस नारी ।
एक तुम छोड़िया तीस तेरे संग में ,
होय अस ज्ञान नर्क भारी ।।
तीस के कारने भीख तुम माँगता ,
एक ने कवन तकसीर पारी ।
दास पलटू कहै खेल या न बदो ,
छुटै जब तीस तो छोड़ प्यारी ।।”
बुधवारी को फल घने, जो पै देवै बाड़ ।
रखवारी के किये बिन, पाँचो करै उजाड़ ।।
पाँचो करै उजाड़, पचीसो चरि चरि जाई ।
सावधान जो होय, सोई वाके फल खाई ।।
‘कैसे छूटे खेद पंच कू जीते नाहीं ।
और पचीसो संग रहै उनके ही माहीं ।।
पाँचो इन्द्री वश करौ, मन जीतन की ठान ।
पवन रोक अनहद लगौ, पावौ पद निर्वाण ।।
आदि संत भगवान बुद्ध कहते हैं-
पंच छिन्दे पंच जहे पंच चुत्तरि भावये ।
पंच संगातिगो भिक्खु ओघतिण्णोति बुच्चति ।।
-धम्मपद, गाथा 370
उपर्युक्त संत-वचन से महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज के निम्नलिखित वचन में बिल्कुल साम्य है।
पाँचो अघ दैत्य साल, पाँच को कराल काल ।
पंच कोष दहन ज्वाल, प्रीतम हिय माला ।।
पाँच तत्त्व की पच्चीस प्रकृतियाँ हैं, जिनका वर्णन निम्न प्रकार है-
पृथ्वी-हाड़, मांस, नाड़ी, त्वचा, रोम।
जल-वीर्य, रक्त, मूत्र, लार, पसीना।
पावक-क्षुधा, तृषा, आलस्य, निद्रा, जँभाई।
वायु-चलना, बोलना, बल करना, परसना, सिकुड़ना।
आकाश-काम, क्रोध, लोभ, मोह, अंधकार।
पाँच तत्त्व (शरीर) को काबू करना, इन पाँच तत्त्वों के पच्चीस स्वभाव-काम, क्रोधादिक विकार-आलस्य, निद्रा, क्षुधा, पिपासादि को वश करना, वचन पर काबू करना, पंचेन्द्रिय को पंच विषयों की ओर से रोकना-यही रोकना, काबू करना, वश में करना, मारना है। इस प्रकार के मारने को यदि कोई हिंसा-पाप समझे तो यह अनिवार्य है। जिस प्रकार कृषकों के लिए कृषिकर्म, राजाओं के लिए युद्ध, रोगियों के लिए औषधि, प्राणिमात्र के लिए श्वास-प्रश्वास की क्रिया अनिवार्य है, ठीक उसी प्रकार मुमुक्षु जन के लिए पाँच-पचीसो को वश में करना या मारना अनिवार्य है; किन्तु यह दृढ़ निश्चय जानना चाहिए कि यह हिंसा कदापि नहीं है; क्योंकि इन्द्रियों को दमित किये बिना कोई विषय-भोगों से नहीं बच सकता। विषय-भोगों में आसक्त होने के कारण ही पापकर्म होते हैं और विषयासक्ति से हटे बिना, पाप-रहित हुए बिना कोई परमात्मा की उपलब्धि नहीं कर सकता। कठोपनिषद् में लिखा है-
नाविरतो दुश्चरितान्नाशान्तो नासमाहितः।
नाशान्तमानसो वापि प्रज्ञानेनैनमाप्नुयात्।। 24।।
जो पापकर्मों से निवृत्त नहीं हुआ है, जिसकी इन्द्रियाँ शान्त नहीं हैं और जिसका चित्त असमाहित या अशान्त है, वह इसे आत्मज्ञान-द्वारा प्राप्त नहीं कर सकता है और ब्रह्मांडपुराणोत्तरगीता में तो भगवान श्रीकृष्ण में तो भगवान श्रीकृष्ण ने साफ कह दिया है कि ब्रह्मवत् परिशुद्ध हुए बिना कोई ब्रह्म को नहीं पाप्त कर सकता।
नवछिद्रान्विता देहाः स्नुवत्ते जालिका इव।
नैव ब्रह्म न शुद्धं स्यात् पुमान् ब्रह्म न विन्दति।। 54।।
अर्थात्-नवछिद्र विशिष्ट शरीर से ज्ञान- विज्ञानादि निरन्तर निःसृत होते रहते हैं। मानवगण इन्द्रिय-संयम करके देहाभिमान और रागादि-परित्याग पूर्वक साक्षात् ब्रह्मवत् परिशुद्ध न होकर किसी प्रकार ब्रह्म को लाभ नहीं कर सकते।।
गुरु नानकदेवजी कहते हैं-
सूचै भाँड़े साँचु समावे विरला सूचाचारी ।
तंते कउ परम तंतु मिलाइआ, नानक सरणि तुमारी।।
अंत में हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि संतवाणी का सही अर्थ जानने के लिए हमें संतों का संग करके उनके पारिभाषिक और द्वि-अर्थक शब्द की अभिज्ञता प्राप्त करनी चाहिए। साथ ही संत-साधना की वास्तविक पद्धति को जानकर उसका नित्य अभ्यास करना चाहिए।
(शान्ति-सन्देश, सितम्बर 1986 ई0)
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“ ऐसी मूढ़ता या मन की ।
परिहरि राम-भगति सुर-सरिता,
आस करत ओस कन की ।। 1।।
धूम-समूह निरखि चातक ज्यों,
तृषित जानि मति घन की ।
नहिं तहँ सीतलता न बारि पुनि,
हानि होत लोचन की ।। 2।।
ज्यों गच काँच विलोकि स्येन जड़,
छाँह आपने तन की ।
टूटत अति आतुर अहार बस,
छति बिसारि आनन की ।। 3।।
कहँ लौं कहौं कुचाल कृपानिधि,
जानत हौ गति जन की ।
तुलसिदास प्रभु हरहु दुसह दुख,
करहु लाज निज पन की ।। 4।।”
हमलोग देखते हैं कि चीनी बहुत साफ, बिल्कुल उज्ज्वल है, रंग उसका सफेद है। उसमें गंदगी नहीं है, मैल नहीं है। लेकिन जब उसी चीनी को कड़ाही में डालकर, पानी मिलाकर उसके नीचे अग्नि प्रज्वलित करते हैं, तो देखते हैं कि थोड़ी ही देर में कड़ाही में ऊपर-ऊपर काफी मैल आकर इकट्ठी हो जाती है; ऊपरी सतह पर मैल तैरने लगती है। जब उस चीनी के घोल को आँच के ऊपर नहीं चढ़ाया गया था, तब उस चीनी की मैल को हम नहीं देख पाते थे। चीनी से गंदगी हटाने के लिए, मैल हटाने के लिए उस कड़ाही में हम दूध के छींटे मारते हैं। कड़ाही के चीनी के घोल पर जब दूध का छींटा पड़ता है, तो मैल चीनी से अलग हो जाती है और साफ चीनी अलग हो जाती है।
हम ध्यान करने बैठते हैं, तो हम देखते हैं कि यद्यपि हम अत्यन्त ही पवित्र, साफ मन से ध्यान करने बैठे हैं; किन्तु मन की दशा देखते ही बनती है। पता नहीं, कहाँ-कहाँ से जमाने की बात, जिसके बारे में हाल में हमने कुछ सोचा भी नहीं होगा, आकर इक्टठी होने लगती है। जिस किसी से मेल नहीं था, मेल हो जाता है; जिससे बैर नहीं था, बैर हो जाता है। मन की ये बातें चलती रहती हैं; ध्यान ही नहीं रहता कि हम बैठे थे क्या करने और करने लगे क्या? होश होता है, तो समझ में आता है कि हम तो संकल्प-विकल्प के चक्कर में पड़ गये। ऐसी ही प्रथम दशा होती है साधक की। हम भजन करने बैठते हैं, पर मन भजन में नहीं लगता। क्यों, ऐसा क्यों होता है? सत्संग के द्वारा हमें यह ज्ञान होता है कि विषय में तृप्ति नहीं है, सुख नहीं, चैन नहीं, कल्याण नहीं है; फिर भी यह मन उन विषयों के पीछे ही क्यों दौड़ लगाता है? उनकी तरफ ही उन्मुख हो उन्हें ही भोगने में क्यों पड़ा रहता है? जिस बात को जानते हैं कि नहीं करना चाहिए, फिर भी करते हैं। ऐसा होता क्यों है?
एक गरीब किसान है। उसके यहाँ एक गाय है। बेचारा गरीब किसान उस गाय के लिए रूखी-सूखी घास किसी प्रकार जुटाता है और उस गाय को खिलाता है। रूखी-सूखी घास भी उस गाय को भरपेट नहीं मिल पाती है। किसी प्रकार काम चलता है, दिन व्यतीत होते हैं। वह बेचारी गाय करेगी भी तो क्या? एक दिन एक सेठ जी उस किसान के यहाँ आते हैं। देखते हैं कि गाय की नस्ल तो अच्छी है। इस गाय को दूध भी अच्छा देना चाहिए और इससे जो बछड़े पैदा होंगे, वे भी अच्छी जाति के बैल बनेंगे। इसे खाने के लिए ठीक से नहीं मिलता है, इसीलिए यह इतनी दुबली-पतली है। सेठजी सोचते हैं कि यदि यह मेरे यहाँ चली जाए, तो इसे खाने के लिए हरी-हरी घास और बढ़िया दाना, खल्ली आदि मिला करेगा और यह वहीं सुखपूर्वक रह सकेगी। सेठजी उस किसान से उक्त गाय बेच देने को कहते हैं और आपस में सौदा तय हो जाता है तथा गाय को सेठजी अपने यहाँ ले जाते हैं। आखिर सेठजी ही ठहरे। गाय को हरी-हरी घास, दाना, खल्ली आदि खाने के लिए देते हैं तथा गाय के रहने के लिए घर भी होता है। किसान के यहाँ तो उस गाय के लिए रूखी-सूखी घास, रूखा-सूखा भोजन आधा पेट भी नहीं जुट पाता था, किन्तु सेठजी के यहाँ उसको भरपेट अच्छा दाना, खल्ली तथा हरी-हरी घास खाने के लिए बराबर मिलने लगी। संयोग से एक दिन उस गाय की रस्सी खुल जाती है, तो वह गाय क्या करती है? सीधे अपने पुराने गरीब मालिक के घर पर जाकर ठंढी साँस लेती है और वह गाय उस गरीब किसान के यहाँ रहने में सुख मानती है। वह गाय यह नहीं सोचती है कि मुझे इस किसान के यहाँ तो भरपेट सूखी घास भी नसीब नहीं होगी और उन सेठजी के यहाँ तो हरी-हरी घास, दाना, खल्ली आदि भरपेट खाने को मिलता था। सेठजी फिर उस किसान के यहाँ जाते हैं और गाय को खड़ी देखकर उसको पकड़ फिर अपने यहाँ लाकर मजबूत रस्सी से मजबूत खूँटे में बाँध देते हैं। अब वह विवश होकर सेठजी के यहाँ अच्छी खासी रसदार हरी-हरी घास, दाना, खल्ली खाने लगती है। अब जब वह गाय उन्हीं सेठजी के यहाँ रहते-रहते अभ्यस्त हो जाती है, तब उस गाय की रस्सी को यदि जानकर भी खोल दिया जाए, तो वह गाय वहाँ से हटकर न तो उस किसान के यहाँ ही जाएगी और न और किसी के यहाँ। अब वह उन सेठजी के यहाँ ही रहना पसंद करती है। यही हालत इस मन की है। जन्म-जन्मान्तर की परत इसपर पड़ी है। इस मन को विषय का रस मिल चुका है। अब ईश्वर-भजन में क्या सुख है, उस सुख का आनंद जब इस मन को मिलेगा, तब यह मन उस सुख की ओर मुड़ सकेगा। इसीलिए साधकरूपी सेठ मन को घुमा-घुमाकर लाता है, लक्ष्य की ओर लगाता है। सुषुम्ना रूपी मजबूत खूँटे में उसे बाँधता है; सुरत की डोर से बाँधता है। अब यह मन भजन करता है। भजन करते- करते जब इस मन को भजन का स्वाद आने लगता है, तब फिर यह मन उस भजन के स्वाद को भूलकर अन्यत्र कहीं नहीं जाता है। वही गोस्वामीजी कहते हैं-‘ऐसी मूढ़ता या मन की।’ क्या मूढ़ता है? क्या मूर्खता है? ‘परिहरि राम-भगति सुर-सरिता, आस करत ओस कन की ।’ गरमी पड़ रही है; प्यास लगी हुई है; उस प्यास को हम बुझाना चाहते हैं और उस प्यास को बुझाने के लिए हम घास पर पड़ी चंद ओस की बूँदों को चाटना चाहते हैं और चाहते हैं कि उस ओस कणों को चाट-चाटकर हम प्यास बुझा लें। कहीं ओस को चाटने से भी प्यास बुझती है? अगर प्यास ही बुझानी है, तो पानी लोटे में अथवा गिलास में लेकर पियें अथवा गंगाजी के किनारे जाकर दोनों हाथों की अंजलि बनाकर जितना मन हो, उतना पानी पियें और प्यास बुझाएँ। गंगाजी में जाकर डुबकी लगाकर स्नान करके शांति प्राप्त करें, गर्मी मिटाएँ और प्यास बुझाएँ। सो हम करना चाहें नहीं और चाहें कि ओस- कण के ऊपर उलट-पलट कर गर्मी शांत कर लें अथवा चाट-चाटकर प्यास बुझा लें, सो कब होने को है? अर्थात् नहीं होने को है। उसी के लिए गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज समझाकर कहते हैं कि यदि सुख प्राप्त करना चाहते हो, शांति चाहते हो, आनंद चाहते हो, तो ईश्वर की भक्ति करो। हम सुख चाहते हैं, शांति चाहते हैं, आनंद चाहते हैं विषयों से। उसी के लिए गोस्वामीजी कहते हैं कि यह मूर्खता है हमारी। यह मन की मूढ़ता है, जो ईश्वर-भक्तिरूपी गंगा की धारा को छोड़कर ओसरूपी विषय की बूँदों से अपनी इच्छा की पूर्ति करना चाहते है। उसी तरह से सुख-शांति विषयोपभोग में नहीं है। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज लिखते हैं-‘बुझै न काम अगिनि तुलसी कहुँ, विषय भोग बहु घी ते।’ यदि अग्नि प्रज्वलित हो और उसे बुझाने के लिए हम चाहें कि उसमें घी की आहुति दें, तो क्या वह अग्नि बुझेगी? आग को बुझाना है, तो उसपर पानी डालो। हमारी कामाग्नि को विषय का भोग देकर शांत नहीं किया जा सकता। विषय-भोग से यह कामाग्नि शांत कभी नहीं होगी; बल्कि और ज्यादा लहकेगी, दहकेगी। दूसरी उपमा गोस्वामीजी चातक पक्षी की देते हैं। चातक एक पक्षी होता है। वह समुद्र, तालाब, नदी आदि का जल नहीं पीता। आश्विन मास में जब स्वाति नक्षत्र आता है, तो वह एकटक लगाकर ऊपर मुँह करके बादल की ओर निहारता रहता है। स्वाति नक्षत्र के दिनों में जब बादल से बूँदें गिरती हैं, तो वह उन बूँदों को ग्रहण करता है। इसी चातक पक्षी की उपमा देते हुए गोस्वामीजी कहते हैं-
“ धूम-समूह निरखि चातक ज्यों,
तृषित जानि मति घन की ।
नहिं तहँ सीतलता न बारि पुनि,
हानि होत लोचन की ।।”
धुएँ का बादल है। प्यासा पपीहा समझता है कि स्वाति की बूँद गिरनेवाली है। इसलिए वह एकटक लगाकर उस बूँद के गिरने की प्रतीक्षा में ऊपर देखता रहता है; परन्तु वहाँ न तो पानी है और न शीतलता ही। फिर भी वह आशा लगाकर ऊपर की ओर ही निहारता है। उसका वह परिश्रम व्यर्थ ही जाता है; क्योंकि वह धुआँ बादल-सा भासता है, वास्तव में बादल है नहीं। उसी तरह अज्ञजन को विषय-भोग में सुख भासता है; परन्तु वास्तव में वहाँ सुख है नहीं। विषय-भोग से क्या कभी किसी की तृप्ति हुई है? जीव विषयरूपी बादल से तृप्ति चाहता है। इसलिए अतृप्त जीवन ही बिताकर वह संसार से चलता बनता है। गोस्वामीजी तीसरी उपमा देकर समझाते हैं-
“ ज्यों गच काँच विलोकि स्येन जड़ ,
छाँह आपने तन की ।
टूटत अति आतुर अहार बस ,
छति बिसारि आनन की ।।”
एक बाज पक्षी है, जो आसमान में उड़ते हुए काँच के चबूतरे में अपनी छाया देखता है। वह समझता है कि नीचे एक पक्षी है। उस पक्षी को पकड़ने के लिए जोर से उस काँच के चबूतरे पर चोंच और पंजे से झपट्टा मारता है। वहाँ कोई चिड़िया है नहीं। काँच के चबूतरे की ठोकर से उसकी चोंच और पंजे में घाव हो जाता है। वह दुःखी होकर और ऊपर उड़ता है। फिर जैसे ही वह काँच के चबूतरे में अपनी परछाईं देखता है, तो वह समझता है कि वहाँ कोई चिड़िया है। वह सोचता है कि मेरा निशाना चूक गया। पुनः वह अपने मन से और सँभलकर झपट्टा मारता है। परिणामस्वरूप अपनी चोंच और पंजे को क्षत-विक्षत करता है। इस प्रकार बारम्बार वह बाज अपने ही शरीर में चोट खा-खाकर जब उड़ने लायक भी नहीं रह जाता है, तो वहीं पर अपना जीवन समाप्त करता है। इसी तरह विषयों को पाकर हम सुखी होना चाहते हैं; किन्तु विषयों में सुख है नहीं और हम अपनी शक्ति का दुरुपयोग करके बलहीन होते हैं, शक्तिहीन होते हैं तथा अंत में अपनी जीवनलीला समाप्त करते हैं।
राजा ययाति ने अपने पुत्र से जवानी लेकर विषयों को भोगा; लेकिन तृप्त नहीं हो सके। अंत में पुत्र को जवानी वापस देते हुए कहा-‘मैंने समझा था कि विषयों से तृप्ति मिलेगी; किन्तु विषयों में तृप्ति कहाँ? विषयों को मैं क्या भोगूँगा? विषयों ने ही मुझको भोग लिया। मैं समझ रहा था कि मेरी तृष्णा भोग भोगते-भोगते मंद पड़ जाएगी; किन्तु यह मेरी भूल थी। यह तृष्णा न तो मंद ही पड़ी, न थकी ही और न समाप्त ही हुई। तृष्णा तो क्या थकेगी, मैं स्वयं ही थक गया, बूढ़ा हो गया; किन्तु यह तृष्णा युवती- की-युवती ही बनी रही। श्रीमदाद्य शंकराचार्यजी महाराज ने कहा है-
अंगं गलितं पलितं मुण्डं दशनविहीनं जातन्तुण्डम् ।
कर धृत कम्पित शोभित दण्डं तदपि न मुंचत्याशा भाण्डम् ।।
“ पलित हो गये बाल शीश के गलित हुआ सब गात,
टूट गये त्यों ही क्रम-क्रम से मुँह के सारे दाँत ।
पकड़ा हुआ हाथ में कँपता कैसा फबता दण्ड ?
फिर भी नहीं छोड़ता आशा-भाण्ड अहो पाखण्ड ।।”
अंत में गोस्वामी तुलसीदासजी प्रार्थना करते हैं। वे प्रार्थना क्या करेंगे? हमलोगों की सीख के लिए कहते हैं-
“ कहँ लौं कहौं कुचाल कृपानिधि ,
जानत हौ गति जन की ।
तुलसिदास प्रभु हरहु दुसह दुख ,
करहु लाज निज पन की ।।”
हे भगवान! यह तुम्हारा भक्त है, जिसके तुम भगवान हो। कैसी दुर्दशा है इसकी? तुम्हारा यह भक्त बहुत दुःखी है। अपने भक्त की लाज रखो-रक्षा करो, बचाओ इसको।
यदि कल्याण चाहते हैं, सुख चाहते हैं, शांति चाहते हैं, चैन चाहते हैं, आराम चाहते हैं, तो निर्विषय की ओर चलें। वह निर्विषय तत्त्व है परमात्मा। यदि विषय से किसी को भी सुख मिला होता, तृप्ति हुई होती, तो इतिहास में कहीं तो चर्चा होती कि अमुक को विषय-भोग में शाश्वत सुख-सदा के लिए सुख मिला; लेकिन कहीं भी इसकी चर्चा नहीं है। इसीलिए हम सदा के सुख की प्राप्ति हेतु परमात्मा की ओर चलें। उनका भजन करें। संतों के बताये मार्ग पर उनके निर्देशानुकूल चलें, तभी पूर्ण संतोष, अमित तोष और परम कल्याण की प्राप्ति होगी।
यह प्रवचन स्थान: संतमत-सत्संग मंदिर, मुरलीपहाड़ी, बाराहाट-ईशीपुर, भागलपुर में दिनांक-28-11-1986 को रात्रिकालीन सत्संग में हुआ था।
(शान्ति-संदेश, दिसम्बर 1997)
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ज्ञानसंकलिनी तंत्र में लिखा है-
“ ब्रह्माण्डलक्षणं सर्व्व देहमध्ये व्यवस्थितम् ।
साकारश्च विनश्यन्ति निराकारो न नश्यति ।।”
वह ज्ञान ही असल में ज्ञान है। वह ज्ञान इस जागतिक ज्ञान से बहुत विलक्षण है, अद्भुत है। संत जन आँख से ऊपर के ज्ञान में निष्णात होने के कारण समस्त पिंड-ब्रह्मांड के ज्ञान में पारंगत होते हैं। स्कूल और कॉलेज का जो नॉलेज है, वह ज्ञान आँख से नीचे का है। हम देखते हैं कि हमारे देश के कितने लोग विदेश की शिक्षा प्राप्त कर अपने देश लौट आते हैं। लेकिन क्या करते हैं? बोलते हैं फूस और लेते हैं घूस तथा करते हैं-अत्याचार, अनाचार, दुराचार, व्यभिचार आदि न जाने कितने-कितने कदाचार। आज देश में घूस का इतना बोलवाला हो गया है कि क्या कहना! नीचे से ऊपर प्रायः सभी जगहों में घूस घुस चुका है। घूस को संस्कृत भाषा में ‘उत्कोच’ कहते हैं। ‘उत्कोच’ अर्थात् जो ऊपर से कोंच दिया जाए। आज यही यहाँ होता है। क्या यही विद्वानों की, ज्ञानवानों की, सुशिक्षितों की और सज्जनों की परिभाषा है? यह विद्या-प्राप्त-जन की परिभाषा नहीं है। ‘सा विद्या या विमुक्तये’-विद्या वह है, जिससे मुक्ति मिलती है। जबतक हम आँख से नीचे की विद्या में रहेंगे, इसी हालत में रहेंगे।
यदि हम विद्वान बनना चाहते हैं, ज्ञानवान बनना चाहते हैं, अपने को मानवीय गुणों से सुसम्पन्न करना चाहते हैं, तो आँख से ऊपर का ज्ञान प्राप्त करें। इसका अर्थ यह नहीं हो जाता कि स्कूल-कॉलेज के ज्ञान को हम तिलांजलि दे दें। स्कूल-कॉलेज के ज्ञान के साथ-साथ अध्यात्म-ज्ञान को भी सम्मिलित कर दें, तो सोने में सुगंध हो जाएगा। विवेकानंदजी महाराज मात्र बी0ए0 पढ़े हुए थे। आज भी हमारे घरों में बी0ए0 और एम0ए0 की डिग्री प्राप्त किये हुए कितनी ही बहु-बेटियाँ होंगी, लड़कों के लिए तो कहना ही क्या; किन्तु वह ओज, वह तेज, वह प्रभाव किसी में क्यों नहीं है? इसलिए कि स्वामी विवेकानंदजी महाराज को कॉलेज-शिक्षा के बाद आँख के ऊपर का भी नॉलेज था। संत कबीर साहब ने कहा है-
‘त्रिकुटी महल में विद्या सारा ।’
अमेरिका में विश्वधर्म-सम्मेलन के अवसर पर विभिन्न देशों के विद्वानों ने जब स्वामी विवेकानंदजी महाराज से प्रवचन सुना, तो उनलोगों ने दाँतों तले अंगुली दबायी और कहा-‘भ्म पे समंतदमक इमलवदक समंतदपदहण्’ अर्थात् वह विद्या से बाहर का विद्वान है। आज हमें विद्वान बनना है, ज्ञानवान बनना है तो हमें आँख से ऊपर का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। यह आँख से ऊपर का ज्ञान कैसे प्राप्त किया जाता है? विन्दु-ध्यान और नाद ध्यान के अभ्यास से। विन्दु-ध्यान का दूर-दर्शन और नाद-ध्यान से दूर-श्रवण होता है। इस प्रकार विन्दु-ध्यान और नाद-ध्यान का अभ्यास कर, उसमें कुशलता प्राप्त करनेवाले किसी भी जगह बैठकर किसी भी जगह की, किसी भी प्रकार की जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। पिंड वा ब्रह्मांड, बाह्य जगत वा अंतर्जगत् की कोई भी बात उनसे छिपी नहीं रहती। विन्दु-ध्यान की महिमा बतलाते हुए गोस्वामीजी ने लिखा है-
“ यथा सुअंजन आंजि दृग, साधक सिद्ध सुजान ।
कौतुक देखहिं सैल बन, भूतल भूरि निधान ।।”
शब्द-साधना के द्वारा प्रथम ‘शम’ की प्राप्ति होती है, फिर ‘सम’ की। फिर तो शब्द-ब्रह्म की ऐसी महिमा है कि वह पार-ब्रह्म परमात्मा तक पहुँचा देता है। यह ज्ञान हमको दूसरा कोई नहीं बतला सकता। यह ज्ञान तो हमें वे ही बतला सकते हैं, जिन्होंने संत-साधना के अनुकूल ध्यानाभ्यास किया है, सदाचार का पालन किया है और उस सत्य तत्त्व का साक्षात्कार किया है। पोथा-पोथी का थोथा ज्ञान अपनी वाचालता के कारण कोई भी भले ही कुछ बतला दे, यह दूसरी बात है; किन्तु उस ज्ञान से हमारा कल्याण नहीं होगा। अवश्य ही खद्योत-ज्ञान से हमारा मनोरंजन हो सकता है; किन्तु उससे तम का नाश नहीं हो सकता। वह हमारा भवदुःख भंजन का कारण नहीं हो सकता। भव-दुख-भंजक ज्ञान हेतु हमें संतों की शरण में जाना चाहिए, जो अहैतुकी कृपा कर हमको परम प्रभु तक पहुँचने का सेतु बता सकते हैं। उनसे ज्ञान प्राप्त कर उनके आदेशानुकूल हमें आचरण करना चाहिए।
“ संत शरण जो पड़ा, ताहि का लगा ठिकाना ।
और कहीं नहिं कुशल सकल वैराट चबाना ।।”
‘संत’ की परिभाषा संत की भाषा में सुनिये-‘शान्ति स्थिरता वा निश्चलता को कहते हैं । शान्ति को जो प्राप्त कर लेते हैं, सन्त कहलाते हैं ।’ और भी सुनिये संत कैसे होते हैं? वे अनीह अर्थात् इच्छा-रहित होते हैं। उनको कुछ नहीं चाहिए। वे मितभोगी होते हैं। संसार में रहना है, इसलिए सीमित आवश्यकता रखते हैं उनमें किसी प्रकार का व्यसन नहीं होता; किन्तु जागतिक जीवन-यापन के लिए कुछ अशन, वसन और शयन के लिए कुछ जगह तो चाहिए ही, फिर भी सबमें वे मितभोगी होकर रहते हैं। सत्य सार=सत्य के वे सारस्वरूप होते हैं। असत्य की ओर वे जाते नहीं। कवि होते हैं। पंडित होते हैं, योगी होते हैं।
योगी किसे कहते हैं? जो योग करते हैं, योगी कहलाते हैं। योग क्या है? योग का अर्थ है मिलाप। वे जीव को पीव से मिलाते हैं। वे महाधीर योगी, विषय-रस-वियोगी, हृदय अति अरोगी और परम शांति भोगी होते हैं।
योगी-जो अपने को संजोकर, इन्द्रियों को काबू कर और मन को अपने वश कर रखते हैं। ऐसे संत होते हैं। लेकिन जिनकी इन्द्रियाँ बे-लगाम हैं, मन बे-काबू है, जिभ्या पर नियंत्रण नहीं है, हृदय पवित्र नहीं है, ऐसे वेशधारी महात्मा से अलग रहने में ही मंगल है, अन्यथा पग-पग पर डर है। संत कबीर साहब ने बहुत पूर्व से चेतावनी दे रखी है-
“ जाकी जिभ्या बन्ध नहीं, हिरदे नाहीं साँच ।
ताके संग न चालिये, घालै बटिया काँच ।।”
कब खायँ, क्या खायँ, खाने के लिए जियें अथवा जीने के लिए खायँ, उचित विचार नहीं, सत्य आचार नहीं, साँच-झूठ के बीच रेखा नहीं। ऐसे लोग क्या संत हो सकते हैं?
“ कपड़े रंग कर जो न कपट का जाल बिछावै ।
तन पर जो न विभूति, पेट के लिए लगावै ।।
हमें चाहिये सच्चा दिल वाला वह साधू ।
देश जाति जग हितकर जो निज जनम बनावै ।।”
तथा-
“ आँखों को खोल, भरम का परदा डालै ।
जी का सारा मैल कान को फूँक निकालै ।।
गुरू चाहिए हमें ठीक पारस के ऐसा ।
जो लोहे कसर मिटा सोना कर डालै ।।”
माननीय डॉ0 सम्पूर्णानन्द की भाषा में-मैं तो इस (संत) शब्द को योगी के अर्थ में ही लेता हूँ।------प्राचीन परम्परा को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि कोई व्यक्ति संत कहलाने का अधिकारी तब ही होगा, जब उसके लिए-‘भिद्यते हृदयग्रंथिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः । क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे ।।’ यह उपनिषद्-वाक्य सार्थक हो चुका हो। इसके पहले वह कितना ही बड़ा भक्त या उपासक क्यों न हो, विद्वान, महात्मा, साधु, सज्जन या और चाहे जो कहलाये, पर संत नहीं कहला सकता।’ गुरु नानकदेवजी महाराज ने योगी की परिभाषा इस प्रकार दी है-
“ जोगु न खिंथा जोग न डंडै, जोगु न भसम चड़ाईअै ।
जोगु न मुंदी मूंड़ि मूंड़ाइअै, जोग न सिंञी वाईअै ।
अंजन माहि निरंजनि रहीअै, जोग जुगति इव पाईअै ।।
गली जोगु न होई ।
एक द्रिसटि करि समसरि जाणै, जोगी कहीअै सोई ।।
जोग न बाहरि मड़ी मसाणी, जोग न ताड़ी लाईअै ।
जोगु न देसि दिसंतरि भविअै, जोग न तीरथि नाईअै ।
अंजन माहि निरंजनि रहीअै, जोग जुगति इव पाईअै ।।
सतिगुरु भेटै ता सहसा तूटै, धावतु वरजि रहाईअै ।
निझरु झरै सहज धुनि लागै, घर ही परचा पाईअै ।
अंजन माहि निरंजनि रहीअै, जोग जुगति इव पाईअै ।।
नानक जीवतिया मरि रहीअै, अैसा जोगु कमाईअै ।
बाजे बाझहु सिंञी बाजे, तउ निरभउ पदु पाईअै ।
अंजन माहि निरंजनि रहीअै, जोग जुगति इव पाईअै ।।”
गुदड़ी पहन ली, इसलिए वह योगी है, ऐसी बात नहीं। कमंडल लेकर घूम रहा है, इसलिए वह योगी है; ऐसी बात भी नहीं। देह पर विभूति लगा ली है, लंबी दाढ़ी बढ़ा ली है, जटा बढ़ा ली है, कमर में मूँज की करधनी पहन ली है, इसलिए वह योगी है; बात भी सही नहीं। सिर के बाल मुँड़ा लेने से भी कोई योगी नहीं होता। संत कबीर साहब ने कहा-
“ मुँड़ मुँड़ाये हरि मिलै, तो सब कोइ लेय मुँड़ाय ।
बार बार के मुँड़ते, भेंड़ बैकुण्ठ न जाय ।।”
वास्तव में बाहरी वेश-भूषा से कोई साधु या संत नहीं होता। जो लोग माया में रहकर माया-रहित होकर रहते हैं, वे साधु संत कहलाते हैं।
श्रीरामकृष्ण परमहंसजी महाराज ने कहा था-‘जल में नाव रहे, कोई हानि की बात नहीं; किन्तु नाव में जल नहीं आना चाहिए, नहीं तो वह नाव को डुबो देगा। उसी तरह भक्त संसार में रहे, कोई हानि की बात नहीं है; किन्तु भक्त में सांसारिकता नहीं आनी चाहिए, नहीं तो वह उसको डुबो देगी।
“ जैसे जल महि कमलु निरालमु, मुरगाई नैसाणै ।
सुरति सबदि भवसागरु तरीअै, नानक नामु बखाणै ।।”
गुरु नानकदेव जी महाराज कहते हैं-जल में कमलवत् रहो और सुरत-शब्द की साधना भी करो। सुरत-शब्द यानी नादानुसंधान। पुनः उन्होंने कहा-
‘एक द्रिसटि करि समसरि जाणै ,
जोगी कहीअै सोई ।’
जो अपनी दृष्टिधारों को मिलाकर एक करता है, वह योगी कहलाता है, चाहे वह गृहस्थ हो अथवा विरक्त। लेकिन जबतक अपनी दृष्टिधारों को मिलाकर एक नहीं कर पाता, तबतक योगी नहीं कहला सकता। वैसे जबसे हम विद्यालय जाना प्रारंभ करते हैं, तबसे विद्यार्थी कहलाने लगते हैं। जबतक एम0ए0 पास नहीं कर लेते, विद्यार्थी ही कहलाते हैं। जब एम0ए0 पास कर लेते हैं, तब मास्टर हो जाते हैं। एम0ए0 यानी मास्टर ऑफ आर्ट्स। उसी तरह जबसे हम योग-साधना का आरंभ करते हैं, तबसे ही योगी की संज्ञा हो, यह बात अलग है; किन्तु योग की पूर्णता में पूर्ण योगी होते हैं। फिर भी, युग दृष्टिधारों को मिलाकर एक करने की क्षमता जिनमें हो, वे योगी कहलाने के अधिकारी हो सकते हैं। संत तुलसी साहब की वाणी घट-रामायण में है। उन्होंने लिखा है-
“ तिल परमाने लगे कपाटा ।
मकर तार जहँ जीव का बाटा ।।
इतना भेद जाने जो कोई ।
तुलसीदास साध है सोई ।।”
तिल छोटा होता है और उसका रंग काला होता है। इसी प्रकार साधक को प्रथम छोटा-सा काला चिह्न दिखाई देता है। तिल का रंग उजला भी होता है। जब साधक उस काले तिल पर अपनी दृष्टि टिकाकर कुछ देर रख सकता है, तब उसे श्वेत विन्दु के दर्शन होते हैं। काले तिल को ही कपाट कहा गया है। संत वाणी में इसकी भरपूर चर्चा मिलती है-
‘गुरु मिले ताके खुले कपाट,
बहुरि न आवै योनी बाट ।।’
‘बन्द कर दृष्टि को फेरि अंदर करै,
घट का पाट गुरुदेव खोलै ।’
(संत कबीर साहब)
‘बजर कपाट मुकते गुरमती निरभै ताड़ी लाई ।’
(गुरु नानकदेवजी महाराज)
‘खोलि कपाट महल के दीन्हे, थिर स्थान बताया।’
(संत दादू दयाल साहबजी)
“ जानि ले जानि ले सत्त पहिचानि ले,
सुरति साँची बसै दीद दाना ।
खोलो कपाट यह बाट सहजै मिलै,
पलक परवीन दिव दृष्टि ताना ।।”
(संत दरिया साहब बिहारी)
हम अपने पूज्य गुरुदेव की वाणी में पाते हैं-
‘वज्र कपाट खुलै तम टूटै, ब्रह्मज्योति झलकान ।’
अन्यान्य संतों ने जिसको पाट, कपाट या वज्र कपाट कहा है, संत शिवनारायण स्वामीजी महाराज ने उसको केवाड़ और ‘ताला- कुंजी’ की संज्ञा दी है। यथा-
“ लागी है कुंजी केवाड़ी ताला ।
लखाई हंसा जाको गुरु मिला ।।”
वह कपाट तिल के समान है। तिल कहने का मतलब छोटे-से-छोटा। जो कोई उस तिल में पिल जाएँगे, वे कभी-न-कभी अवश्य ईश्वर से जाकर मिल जायेंगे। हमारे गुरुदेव इसके साक्षी हैं। वे कहते हैं-
“ स्थूल सूक्ष्म कारण महाकारण, कैवल्यहु के पार ।
सुष्मन तिल हो पिल तन भीतर, होंगे सबसे न्यार ।।
ब्रह्म-ज्योति ब्रह्म-ध्वनि को धरि-धरि, ले चेतन आधार ।
तन में पिल पाँचो तन पारा, जा पाओ प्रभु सार ।।”
यह छोटा-सा तिल क्या है? यही वज्र कपाट है। सोचकर देख लीजिए, यह कैसा वज्र कपाट है? आज भजन-भेद लिये हमें कितने दिन हो गये हैं। वह वज्र कपाट (तिल कपाट) आज तक टूटा है या नहीं? संत तुलसी साहब एक और बात कहते हैं, ‘मकर तार जहँ जीव का बाटा।’ मकर-तार यानी मकड़े का तार। यह कैसा होता है? वह बहुत पतला होता है, बारीक होता है, महीन होता है। उसी पतले तार के सहारे मकड़ा ऊपर से नीचे आता है और नीचे से ऊपर जाता है। उसी तरह यह जीवात्मा परमात्म-धाम से शब्द के सहारे इस शरीर और संसार में आया है। पुनः उसी शब्द-धार को पकड़कर वह संसार को पार करके परमात्म-धाम में पहुँचेगा। इस उपमा-उपमेय के द्वारा संत तुलसी साहब दृष्टियोग और शब्द योग-नादानुसंधान की क्रिया का संकेत करते हैं। जबतक उस तार का पता नहीं मिलेगा, तबतक कोई भव-पार नहीं हो सकता है, चाहे वह कितना कारबार कर ले या लोक-व्यवहार सीख ले।
हमलोग तुलसी साहब की आरती प्रतिदिन पढ़ते हैं, जिसमें एक कड़ी यह भी आती है, ‘उलटि अलल तुलसी तन तीजै।’ यह पंक्ति भी हमें अंतर्मुख होकर उलटने की ओर इंगित करती है। संतवाणी में तो ‘अलल’ शब्द का प्रयोग हुआ है; किन्तु वेद में ‘अलज’ शब्द आया है।
अलल एक पक्षी होता है। वह घोंसला नहीं बनाता, आकाश में ही रहता है। वहाँ-आकाश में ही नर-मादा का संयोग होता है। वहाँ से ही वह अंडा देती है। वह अंडा जैसे-जैसे नीचे की ओर आता है, वैसे-वैसे शनैः शनैः वह पुष्ट होता जाता है। और भी नीचे आने पर पूरा पुष्ट होकर अंडा फूट जाता है। उसमें से बच्चा निकलता है। नीचे आते-आते उसके डैने भी निकल आते हैं। और नीचे आने पर आँखें खुलती हैं, तो वह समझता है कि यहाँ उसका घर नहीं है। वहाँ से ही वह उलटकर अपने स्थान-आकाश में पहुँच जाता है। उसी तरह यह जीवात्मा जो परम प्रभु परमात्मा का अभिन्न अंश है, परम धाम के शब्द के आधार पर पिंड में अाया हुआ है। अब वह उसी शब्द धार को पकड़े और उसी के सहारे जाते-जाते सर्वेश्वर सर्वाधार परम प्रभु परमात्मा से मिल जाए। किन्तु यह मिलन होगा कैसे? इसके लिए संत सद्गुरु की आवश्यकता पड़ती है। किसी शायर ने कहा है-
“ जो बात दया से ना होती, वह बात दुआ से होती है ।
मिल जाते जब पूरे मुर्शिद, तो बात खुदा से होती है ।।”
हमारी बात खुदा से क्यों नहीं होती है? इसलिए कि हम खुदा से जुदा हो गये हैं। यह जीव पीव से अलग हो गया है। अब यह जीव पीव से कैसे मिले, इसी का यत्न सद्गुरु बतलाते हैं। यह रूह खुदा से अलग हो गयी है। यह रूह खुदा अर्थात् परमात्मा से कैसे मिले, इसी का यत्न संत सद्गुरु बतलाते हैं। सबसे पहले तो सवाल यह है कि आखिर यह खुदा से जुदा हुई तो कैसे? दोनों को पृथक-पृथक करनेवाला कौन है? इसके जवाब में शायर कहते हैं-
“ खुदा जुदा की एक सूरत नुकता भेद बताता है ।
नुकता ऊपर नुकता नीचे नुकता आता जाता है ।।
नुकते के हेर फेर से तुमसे जुदा हुआ ।
नुकता जो धरा सर पर खुद ही खुदा हुआ ।।”
नुकता अर्थात् विन्दु। फारसी भाषा में ‘जिम’ और ‘खे’ का रूप करीब-करीब एक-सा होता है। अंतर इतना ही है-‘जिम’ के पेट में विन्दु (नुक्ता) रहता है और ‘खे’ के ऊपर। इसी नुक्ते के नीचे रहने से जुदा और ऊपर रहने से खुदा शब्द बनता है। इसी तरह जबतक हमारी वृत्ति नीचे है, तब हम जुदा हैं और जब हमारी वृत्ति ऊपर उठ जाएगी, जिससे ऊपर उठा नहीं जा सकता, तब हम खुद ही खुदा हो जाएँगे। लेकिन कब? इसका उत्तर शायर देता है, ‘मिल जाते जब पूरे मुर्शिद।’ अर्थात् जब पूरे गुरु मिल जाते हैं।
संत तुलसी साहब कहते हैं-
“ मुर्शिदे कामिल से मिल, सिदक और सबूरी से तकी ।
जो तुझे देगा फहम, शहरग के पाने के लिए ।।”
शहरग अर्थात् सुषुम्ना। ध्यानाभ्यास करते- करते जिसका सुषुम्ना-मार्ग उन्मुक्त हो जाता है, उसका अंदर का कान खुल जाता है और उसे आवाजेगैब सुनायी पड़ती है, जिसके सहारे क्रमशः आगे बढ़ते-बढ़ते वह अल्लाह ताला को पा लेता है। संत तुलसी साहब कहते हैं-
“ गोश बातिन हो कुशादा, जो करे कुछ दिन अमल ।
ला इलाह अल्लाह हो, अकबर पै जाने के लिए ।।”
फकीर का फरमान है, अगर अल्लाह से मिलना चाहते हो, तो पहले ‘नुक्ता’ को पकड़ो यानी विन्दु को धारण करो। जो कोई विन्दु को धारण करता है, वही एक दिन भवसिन्धु को पार कर जाता है। जो कोई आंतरिक साधना सारधार-चेतनधार को धारण करता है, वही भव पार होता है और सर्वाधार परमात्मा को पाता है। इसलिए संतमत की साधना में विन्दु और नाद की उपासना बतायी जाती है।
(शान्ति-सन्देश, सितम्बर 1988)
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सामान्यतया लोग मोटी-मोटी भक्ति को ही ईश्वर की सर्वांगपूर्ण भक्ति समझते हैं। वे देव-विग्रह के समक्ष धूप, दीप, चंदन, नैवेद्य आदि अर्पण करके आरती उतार लेते हैं और समझते हैं कि भक्ति पूरी हो गयी। लेकिन बात ऐसी नहीं है। यह तो बच्चों के वर्णमाला सीखने जैसी बात है। भक्ति के संबंध में संत कबीर साहब ने कहा है-
“ भक्ति प्राण ते होत है, मन दे कीजै भाव ।
परमारथ परतीत में, यह तन जाव तो जाव ।।”
गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं-
“ तीन अवस्था तजहु, भजहु भगवन्त ।
मन क्रम वचन अगोचर, व्यापक व्याप्य अनंत ।।”
और संत सुंदरदासजी महाराज की वाणी में हम पढ़ते हैं-
“ श्रवण बिना धुनि सुनै, नयन बिनु रूप निहारै ।
रसना बिनु उच्चरै, प्रशंसा बहु विस्तारै ।।
नृत्य चरण बिनु करै, हस्त बिनु ताल बजावै ।
अंग बिना मिलि संग, बहुत आनन्द बढ़ावै ।।
बिनु शीश नवे जहँ सेव्य को, सेवक भाव लिये रहै ।
मिलि परमातम सों आतमा, परा भक्ति सुन्दर कहै ।।”
हमारे प्रातःस्मरणीय परम पूज्य श्रीगुरुदेव जी महाराज की वाणी में है-
“ क्षेत्र क्षर अक्षर के पार में, परमालौकिक जेह ।
मेँहीँ अन्तर वृत्ति करिके, भजहु निशि दिन तेह ।।
युग दृष्टि की एक तीक्ष्ण नोक से, चीरि तेजस विन्दु ।
सुनो अन्दर नाद ही, लखो सूर्य तारे इन्दु ।।
विहंग मीनी चाल चलि ज्यों, सरित सों सरित समाहि ।
त्यों नाद सों नादों में चलि, प्रभु पास भक्तन जाहि ।।
सन्तों का मेँहीँ मार्ग यह, ‘मेँहीँ’ सुनो दे कान ।
यहि परा भक्ति प्रसिद्ध मार्गहि, धरु हिय धरि ध्यान ।।”
यह पराभक्ति है, सर्वोत्कृष्ट भक्ति है। लेकिन भक्ति का आरंभ पराभक्ति से नहीं होता, वह तो अपरा भक्ति से होता है। जैसे जबतक कोई मोटे-मोटे अक्षरों को नहीं लिख लेता, तबतक महीन लिखने की योग्यता नहीं होती। जबतक सरलाक्षर नहीं सीख लेता, तबतक संयुक्ताक्षर लिखने की क्षमता उसमें नहीं आती। इसीलिए आवश्यकता है पहले मोटी भक्ति की। मोटी भक्ति के लिए कहा गया है कि पहले जप करो। लेकिन वह जप कैसा हो? जिसमें जप हो और जापक हो, उसके बीच में और कुछ नहीं हो। संत दूलनदासजी महाराज इसकी सही विधि इस प्रकार बतलाते हैं-
“ कोइ बिरला यहि विधि नाम कहै ।।
मंत्र अमोल नाम दुइ अच्छर, बिनु रसना रट लागि रहै ।।
होठ न डोलै जीभ न बोलै, सुरति धरनी दिढ़ाइ गहै ।।
दिन और राति रहै सुधि लागी, यहि माला यहि सुमिरन है ।।
जन दूलन सतगुरन बतायो, ताकी नाव पार निबहै ।।”
सुमिरण किस तरह करो तथा इससे क्या लाभ होता है? संत कबीर साहब ने कहा है-
“ सुमिरन से सुख होत है, सुमिरन से दुख जाय ।
कह कबीर सुमिरन किये, साईं माहिं समाय ।।
सुमिरन सुरत लगाइके, मुख ते कछू न बोल ।
बाहर का पट देइ कर, अन्तर का पट खोल ।।”
पुनः कबीर साहब कहते हैं-
“ भक्ति सब कोई करै, भरमना ना टरै ।
भक्ति जंजाल दुख द्वन्द्व भारी ।।”
लोग भक्ति करते हैं; लेकिन भ्रम मिटता नहीं। क्यों? इसलिए कि असली भक्ति जानते नहीं। शास्त्र में आया है-
“ पूजा कोटि समं स्तोत्रं, स्तोत्र कोटि समं जपः ।
जापः कोटि समं ध्यानं, कोटि समो लयः ।।”
यह सीढ़ी है। जैसे बाल वर्ग से विद्यालय में पढ़ना प्रारंभ करते हैं। फिर प्रथम वर्ग, द्वितीय वर्ग, तृतीय वर्ग, चतुर्थ वर्ग पास करते हुए अपर पास करते हैं। पश्चात् मिड्ल, मैट्रिक पास करते हैं। तत्पश्चात् आई0ए0, बी0ए0, एम0ए0 पास करते हैं। जिस तरह विद्यालय, महाविद्यालय और विश्वविद्यालय में पाठड्ढक्रम है, उसी तरह साधना के भी क्रम हैं। पूजा से स्तुति, स्तुति से जप, जप से ध्यान और ध्यान से लय विशेष है। पूजा में पूजा की विविध सामग्रियों में मन बिखरा रहता है। पूजा की अपेक्षा स्तुति में विशेष सिमटाव होता है; क्योंकि पूजा में पूजन की विविध साम्रगियों में मन बँटा रहता है। इसमें मन की स्थिरता नहीं होती, चंचलता रहती है। मन में चंचलता रहने पर भी पूजा की ओर मन लगा हुआ है, इष्टमूर्ति की ओर मन लगा हुआ है, भगवद्विग्रह की ओर मन लगा है। इसलिए अन्यान्य चिंतन की अपेक्षा इष्ट-विग्रह का पूजन अच्छा तो है ही।
स्तुति में बाह्य उपकरण की आवश्यकता नहीं होती। इस हेतु एकाग्रता में सरलता होती है और अपनी सुविधा के अनुकूल जहाँ भी कर सकते हैं। एक सत्संगी हैं बाबू रामप्रताप जी अग्रवाल। ये मुजफ्रफरपुर के रहनेवाले रिटायर्ड इंजीनियर हैं। अच्छे सत्संग-प्रेमी हैं। उनका नियम है नित्यप्रति प्रातःकाल ईशादि स्तुति करने का। एक बार वे सपत्नीक ट्रेन से यात्र कर रहे थे। उनकी धर्मपत्नी भी वास्तव में धर्ममति की हैं। प्रातः का समय था। ट्रेन में ही दोनों दम्पति ने नियमानुसार स्तुति आरंभ की। ईश-स्तुति, संत-स्तुति और सद्गुरु-स्तुति की। नाम-संकीर्तन के पश्चात् संतमत-सिद्धांत और संतमत की परिभाषा का पाठ किया। इस प्रकार सारे-के सारे पाठ समाप्त कर दोनों ने आरती का पाठ किया। उसी कम्पार्टमेंट में उनकी सीट के सामने वाली सीट पर दो साधु बाबा बैठे हुए थे, जो अच्छे पढ़े-लिखे थे। श्रीअग्रवाल जी ने सविनय हाथ जोड़कर उन दोनों बाबा से आग्रह किया, ‘बाबा! हमलोगों ने जो प्रातःकालिक नित्य नियम था, सो तो हमलोग कर चुके; अब आप अपने श्रीमुख से हमलोगों को कुछ ज्ञानोपदेश कीजिए।’ दोनों साधु बाबा बड़े सज्जन थे। इंजीनियर साहब के सात्त्विक आचार और आस्तिक विचार से वे लोग बड़े प्रभावित हुए थे। उन्होंने कहा, ‘भाई! आपने तो अपने पाठ-क्रम में सारे ज्ञान सुना दिये। अब मुझे कहने के लिए बाकी क्या रहा! झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार; इन पंच पापों से बचना चाहिए, एक ईश्वर पर विश्वास करना, उनकी प्राप्ति अपने अंदर में होगी, सत्संग करना, ध्यान करना, गुरु-सेवा करनी आदि सारी बातें सुना दीं। प्रभु पाने की साधना मानस जप, मानस ध्यान, दृष्टि-साधन और शब्द- साधन, सब तो तुमने बतला दिये। अब मेरे बताने के लिए क्या बचा, जो तुमको बतलाऊँगा। तुम किनके शिष्य हो? ये सारी बातें कहाँ तुमने सीखी है।’ रामप्रताप बाबू ने कहा, ‘हमारे गुरुदेव का नाम है परम पूज्य महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज और वे बिहार के रहनेवाले हैं तथा कुप्पाघाट भागलपुर में रहते हैं।’ साधु बाबा ने कहा-‘अभी तो मैं जल्दी में हूँ। जहाँ जा रहा हूँ, वहाँ से लौटूँगा, तो मैं उन संतजी का दर्शन अवश्य करूँगा।’
हाँ, तो मैं स्तुति के संबंध में कह रहा था। जो ट्रेन में हो, उसको वहाँ पूजा की सामग्रियाँ-धूप, दीप, नैवेद्य आदि के जुटाने में कितनी कठिनाई होगी, विचार सकते हैं। यदि किसी प्रकार पूजन- सामग्रियाँ इकट्ठी करके पूजा भी की जाए, तो शास्त्र कहता है, ‘करोड़ों पूजा के समान एक स्तुति होती है। ‘पूजा कोटि समं स्तोत्रं।’ और करोड़ों स्तुति के समान एक जप होता है। क्यों? इसलिए कि स्तुति में अनेक शब्द होते हैं। अतएव उसमें भी पूर्ण सिमटाव नहीं हो पाता। अब उससे आगे बढ़ी। पुनः शास्त्रेक्ति है, ‘स्तोत्र कोटि समं जपः।’ यानी करोड़ों स्तुति के समान एक जप है। जप में बहुत-से शब्द नहीं होते। एक ही शब्द की पुनरावृत्ति होती रहती है। जपों में मानस जप श्रेष्ठ है। जप की महिमा गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज बतलाते हैं-
“ मंत्र परम लघु जासु वश, विधि हरिहर सुर सर्व ।
महामत्त गजराज कहँ, वश कर अंकुश खर्व ।।”
परम लघु शब्द पर ध्यान दीजिए। एक तो ‘लघु’ शब्द होता है, जिसका अर्थ होता है-छोटा। किन्तु गोस्वामीजी के विचार में जप का शब्द परम लघु यानी अत्यन्त छोटा होना चाहिए। परम लघु मंत्र के जपने से उसके परिणाम और फल को लघु मत समझो। लघु की विशेषता मानस में है-
“ रवि मंडल देखत लघु लागा ।
उदय तासु त्रिभुवन तम भागा ।।”
परम लघु मंत्र का जप यदि एकाग्रतापूर्वक किया जाए, तो उसका महान फल होता है। जैसे अंकुश बहुत छोटा होता है; लेकिन वह महामत्त गजराज को काबू में लाता है। उसी तरह मानस जप मदमत्त मनरूप गजराज को वश में करता है, उससे सिद्धि मिलती है।
इसी पंडाल में कहीं बैठे होंगे एक सत्संगी सज्जन, जो अच्छे साधक भी हैं। रहते तो वे सादे वेश में हैं; किन्तु वास्तव में साधु हैं। उनका पूर्व नाम बाबू रामनंदन प्रसादजी वर्मा तथा वर्तमान नाम रामानंद स्वामीजी है। उनके ज्येष्ठ पुत्र का नाम-श्रीकृष्ण कुमार। वह एम0एससी0 तक पढ़ा हुआ है। वह मेरा पुत्रवत् प्रिय है। जिस समय वह आई0एससी0 में पढ़ रहा था, परम पूज्य गुरुदेव से उसने दीक्षा ली थी। उनकी अनुकम्पा से उसको जप में सिद्धि मिल गयी। शास्त्र में लिखा है, ‘जपात् सिद्धिः।’ उसको वह मिल गया था। जो कोई कुछ प्रश्न करते तो उसका उत्तर वह मुँह से नहीं देकर इस प्रकार देता था। वह लकड़ी के कोयले को पीसकर उसकी पुड़िया बनाकर अपने पास रखता था। जैसे ही जो कोई प्रश्न उससे करता थे, तो वह उस कोयले के चूर्ण को अपनी बायीं बाँह में पोत लेता था। प्रश्न का सही उत्तर नागरी लिपि में वहाँ आ जाता था। वह अक्षर परम पूज्य गुरुदेव के हस्तलेखन अक्षर-सा होता था।
मेरे कहने का मतलब यह कि कोई मंत्र जप एकाग्रतापूर्वक कर लेता है, तो उसको सिद्धि मिल जाती है। पांडवों की माता कुन्ती देवी को भी मंत्र सिद्ध था। वह जिस देवता का जब आह्वान करती थी, उसी समय वे देव उनके सामने उपस्थित हो जाते थे।
यह तो जप-सिद्धि की बात हुई; लेकिन जप के आरंभिक काल में क्या होता है, सो भी सुनिये-
आरंभ में जप करने के लिए बैठते हैं, तो मन में विविध बातें आती हैं। उनमें कितनी ऐसी बातें हैं, जो सबके सामने रखने योग्य नहीं होतीं। गुरुदेव से दीक्षित एक वाइस-प्रिंसिपल साहब थे। गुरुदेव उस समय सिकलीगढ़ धरहरा में थे। उनके दर्शन करने के लिये वे आये थे। गुरुदेव ने पूछने की कृपा की- “ भजन-ध्यान किया करते हैं?” उन्होंने हाथ जोड़कर उत्तर दिया- “ गुरुदेव! दीक्षा लेने के बाद कुछ दिनों तक तो किया था; किन्तु अब छोड़ दिया है।” गुरुदेव ने पुनः पूछने की कृपा की- “ क्यों?” उन्होंने कहा- “ गुरुदेव! क्या बतलाऊँ, जब ऑफिस के कामों में लगा रहता हूँ अथवा लड़कों को पढ़ाता हूँ, तब तो मन ठीक रहता है, लेकिन जब पूजा करने के लिये बैठता हूँ तो ऐसी गंदी-गंदी बातें आती हैं, जिनके विषय में तो मैंने कभी सोचा भी नहीं था। मैंने विचार किया कि जब ध्यान करने से ही गंदी-गंदी बातें सामने आती हैं, तो ध्यान करना ही नहीं चाहिये। इसलिये मैंने ध्यानाभ्यास करना छोड़ दिया।” परमाराध्यदेव ने उनको ध्यानाभ्यास की उपयोगिता समझाने की कृपा की। उनकी समझ में बात आ गयी।
शाम का समय था। मैं टहलने जा रहा था। वाइस-प्रिंसिपल साहब ने मुझसे पूछा- “ आप कहाँ जा रहे हैं?” मैंने कहा- “ टहलने जा रहा हूँ।” प्रिंसिपल साहब ने पूछा- “ मैं भी साथ चलूँ?” मैंने कहा- “ चलिये।” दोनों एक साथ चल पड़े। वहाँ सत्संग-मन्दिर के पीछे आम का बगीचा है। जब हमलोग वहाँ आये तो मैंने उनका नाम लेकर पूछा- “ फलाँने बाबू! गुरु महाराज जी के पूछने पर आपने जो उत्तर दिया, वह सुनकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। आप तो कितने जानवर को आदमी बनाते हैं; कितने बन्दर को सुन्दर बनाते हैं, फिर आपने कैसे कह दिया कि ध्यानाभ्यास नहीं करते हैं।” उन्होंने बड़े ही सरल और सहज शब्दों में उत्तर दिया- “ क्या बताऊँ? झूठ तो कभी भी किसी से भी बोलना नहीं चाहिये, किन्तु हमलोग कभी-कभी, कहीं-कहीं झूठ बोल भी देते हैं। लेकिन जहाँ स्वयं गुरुदेव जी महाराज ही पूछ रहे हैं, तो उनके सामने झूठ कैसे बोलता! जो बात सच्ची थी, मैंने निवेदन कर दिया।”
मैंने उनसे कहा- “ एक बात आप बतलाइये, आप कभी कपड़ा भी धोते हैं?” उन्होंने कहा- “ हाँ, कपड़ा प्रायः धोना ही पड़ता है।” मैंने पूछा- “ आप कपड़ा क्यों धोते हैं?” उन्होंने कहा, “ मैल साफ करने के लिये।” मैंने पूछा- “ आप जब कपड़ों में साबुन लगाते हैं, तो उससे क्या निकलता है?” उन्होंने कहा- “ मैल निकलती है।” मैंने कहा, यह कैसी उल्टी बात हो गयी? कपड़ा साफ होने के बजाय उससे मैल निकलने लगी। उन्होंने कहा- “ मैल नहीं निकलेगी, तो कपड़ा साफ कैसे होगा?” मैंने कहा- “ प्रिन्सिपल साहब! उसी तरह जब आप जप-ध्यान करने के लिए बैठते हैं, तो जन्म-जन्मांतर की जो मैल मन में बैठी हुई है, वह निकलती है, फिर आप घबड़ाते क्यों हैं? जबतक मन की मैल नहीं निकलेगी, मन साफ कैसे होगा?” मेरी बात सुनकर वाइस-प्रिन्सिपल साहब बड़े प्रसन्न हुए और उन्होंने प्रतिज्ञा की- “ बाबा! आज से मैं नित्य नियमित रूप से अवश्य त्रयकाल संध्या करूँगा।” (श्रोतागण द्वारा श्री सद्गुरु महाराज की जय का नारा) (शान्ति-सन्देश, नवम्बर 1988)
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एक दिन चीनी अपनी सहेली से बोली, ‘बहन! मुझसे बढ़कर अधिक और साफ कौन है?’ सहेली ने उत्तर दिया, ‘सुनो बहन! अपनी गंदगी अपने को दिखती नहीं है। अपने को तो दूसरे की गंदगी सूझती है। लोग अपने को बराबर पाक-साफ समझते हैं और दूसरे को ऊँगली उठाते हैं। संत तुलसीदासजी महाराज ने कहा है-
“ देखिके पर दोष रज सम, कहत गिरि सम सोय रे ।
दोष अपने मेरु सम, तिन्हें राखत गोय रे ।।”
एक जापानी कहानी सुनाता हूँ-जापान में एक लड़की की शादी हुई। जब वह अपनी ससुराल जाने लगी, तो उसकी माँ ने उससे कहा, ‘बेटी! मेरी एक बात याद रखना। जब कोई तुम्हारी निंदा करे तुम पर ऊँगली उठाये, तो देख लेना कि उसकी ऊँगली तुम्हारे ऊपर ठीक बैठती है या नहीं? यानी ठीक बैठती है यानी सचमुच ही तुममें दुर्गुण है, दोष है, तो तुम अपने को सँभाल लेना, सुधार लेना; यदि नहीं तो यह समझ लेना कि वह तुमसे तीन गुणा अधिक अपने को दोषी साबित करता है; क्योंकि जब कोई किसी की ओर ऊँगली करता है, तो उसकी एक ऊँगली दूसरे की ओर और तीन ऊँगलियाँ अपने ओर इंगित करती है। इसीलिए तुम किसी की बुराई मत करना। और एक बात समझो। दूसरों की दिखाई जानेवाली ऊँगली टेढ़ी-मेढ़ी भी हो सकती है; किन्तु उसकी अपनी तरफ की ऊँगुलियाँ तो टस-से-मस नहीं कर सकतीं; क्योंकि उन ऊँगलियों को दृढ़ता के साथ अँगूठा पकड़े रहता है।’ हाँ, तो वह चीनी कह रही थी कि देखो, मैं कितनी साफ हूँ! सहेली ने कहा, ‘मैं अभी दिखला देती हूँ कि तुम कितनी साफ हो?’ उसने क्या किया? चीनी को पानी में घोल दिया और चूल्हे पर चढ़ाकर नीचे से आँच देना शुरू किया। जैसे-जैसे पानी गर्म होने लगा, बर्तन के ऊपरी हिस्से पर मैल तैरने लगी। सहेली ने कहा, ‘अब बताओ बहन! तुम तो कहती थी कि तुममें मैल नहीं है, तुम बहुत साफ हो। अब कहो, सही बात क्या है?’ चीनी ने कहा, ‘हाँ बहन! मुझे तो यह मालूम ही नहीं था। अब इस मैल को निकाल दो।’ सहेली ने क्या किया, दूध का छींटा दिया और मैल को छाँटकर अलग निकाल दिया। उसी तरह जब हम जप करने के लिए बैठते हैं, तो हमारे भीतर जो मैल जमी रहती है, वह बाहर आने लगती है। लेकिन यदि हम जप करने में जोर लगा दें और दृढ़ता के साथ जप करते रहें, तो वह दूध के छींटे की तरह काम करेगा। मैल कट- कटकर बाहर निकल जाएगी। तो यह जप की बात है। (मानस) जप के बाद आती है बारी (मानस) ध्यान की। जप से करोड़ गुणा ध्यान को बतलाया है-‘जाप कोटि समं ध्यानं ।’
ध्यान की सुप्रसिद्ध परिभाषा है-‘ध्यानं निर्विषयं मनः।’ किन्तु यह ध्यान आरंभिक नहीं है। पहले स्थूल ध्यान होता है, फिर सूक्ष्म ध्यान। पहले सगुण ध्यान किया जाता है, फिर निर्गुण ध्यान होता है। भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भागवत, स्कंध 11, अध्याय 14, श्लोक 42-43 में कहा है-
“ इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यो मनसाऽऽकृष्य तन्मनः।
बुद्ध्या सारथिना धीरः प्रणयेन्मयि सर्वतः।। 42।।”
अर्थात् बुद्धिमान पुरुष को चाहिए कि मन के द्वारा इन्द्रियों को उनके विषयों से खींचकर उस मन को बुद्धि-रूपी सारथी की सहायता से सर्वांग-युक्त मुझमें ही लगा दे ।।42।।
“ तत्सर्वव्यापकं चित्तमाकृष्यैकत्र धारयेत्।
नान्यानि चिन्तयेद् भूयः सुस्मितं भावयेन्मुखम्।। 43।।”
अर्थात् सब ओर से फैले हुए चित्त को खींचकर एक स्थान में स्थिर करे और फिर अन्य अंगों का चिन्तन न करता हुआ केवल मेरे मुस्कान-युक्त मुख का ही ध्यान करे।।43।।
संतों के स्थूल ध्यान में अपने इष्ट की मूर्ति का ध्यान बतलाया गया है। संत कबीर साहब कहते हैं-
“ मूल ध्यान गुरु रूप है, मूल पूजा गुरु पाँव ।
मूल नाम गुरु वचन है, मूल सत्य सतभाव ।।”
गुरु नानकदेवजी महाराज के वचन में भी हम गुरुरूप का ध्यान पाते हैं। यथा-
“ गुर की मूरति मन महि धिआनु ।
गुर कै शबदि मंत्र मनु मानु ।।
गुरु के चरन रिदै लै धारउ ।
गुरु पारब्रह्म सदा नमसकारउ ।।”
तथा संत शिवनारायण स्वामीजी की दृष्टि भी गुरु मूर्ति की ओर ही है-
“ निहारो यारो गुरु मूरति की ओर ।
गुरु मूरति सूरति बिच निरखो, तब उर होत इंजोर ।।”
जब हम अपने परम पूज्य गुरुदेवजी के अनुपम साहित्य का अध्ययन-मनन करते हैं, तो उन संतों की वाणियों से इनकी वाणी में अभिन्नता पाते हैं। इनके कथनानुसार प्रथम मानस जप करना चाहिए, पश्चात् मानस ध्यान। इस प्रकार की साधना से शीघ्रतापूर्वक सुरत का शुद्धिकरण होता है।
“ गुरु जाप मानस ध्यान मानस, कीजिए दृढ़ साधकर ।
इनका प्रथम अभ्यास कर, स्त्रुत शुद्ध करना चाहिए ।।”
(महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज)
स्थूल सगुण साकार के ध्यानाभ्यास से मन का इतना सिमटाव होता है कि वह सूक्ष्म सगुण साकार ध्यान करने के योग्य हो जाता है। सूक्ष्म सगुण साकार ध्यान विन्दुध्यान है। विन्दु उसको कहते हैं, जिसका स्थान होता है, परिमाण नहीं। इसलिए यह मन से बनाया नहीं जाता, देखने के कौशल से देखा जाता है। गुरु निर्देशित स्थान पर युगल नेत्रें की धाराएँ जुड़कर जब एक होती हैं, तब वहाँ स्वतः तेजोमय विन्दूदय होता है। तेजोविन्दूपनिषद् में लिखा है-‘तेजोविन्दुः परं ध्यानं विश्वात्महृदि संस्थितम्।’
संतों ने इस विषय को अपनी-अपनी भाषा में विभिन्न भाँति से समझाने की चेष्टा की है। संत कबीर साहब ने कहते हैं-
“ गगन मंडल के बीच में तहँवा झलके नूर ।
निगुरा महल न पावई, पहुँचेगा गुरु पूर ।।
बाँका परदा खोलि के, सन्मुख ले दीदार ।
बाल सनेही साइंयाँ, आदि अन्त का यार ।।”
गुरु नानकदेवजी महाराज की वाणी में है-
“ तारा चड़िआ लंमा किउ नदरि निहालिआ राम ।
सेवक पूर करंमा सतिगुर सबदि दिखालिआ राम ।।
गुर सबदि दिखालिआ सचु समालिआ
अहिनिसि देखि विचारिआ ।
धावतु पंच रहे घरु जाणिआ कामु क्रोध विषु मारिआ ।।
अंतरि जोति भई गुरु साखी चीने राम करंमा ।
नानक हउमै मारि पतीणे तारा चड़िया लंमा ।।”
गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा कि यह एक गुप्त मत है, जिसका उपदेश भगवान श्रीराम ने अपनी प्रजा को त्रेतायुग में दिया था। यथा-
“ औरउ एक गुप्त मत, सबहिं कहउँ कर जोरि ।
संकर भजन बिना नर, भगति न पावइ मोरि ।।”
हाथरस निवासी संत तुलसी साहब ने घटरामायण में लिखा है कि दृष्टि साधन क्रिया के द्वारा जो अपने अंतराकाश में तारा को पाता है, वह ‘अनहद झनकारा’ को भी सुनता है। अर्थात् जो अंतर्ज्योति का दर्शन करता है, वह अंतर्नाद का श्रवण करता है।
“ गगन द्वार दीसै एक तारा ।
अनहद नाद सुनै झनकारा ।।”
जब हम अपने गुरुदेव की वाणी पढ़ते हैं, तो उसमें बड़े स्पष्ट रूप से साधना संबंधी बातें पाते हैं। वे दृष्टि-साधना की क्रिया के बाद नादानुसंधान की विधि बताते हैं। उनका कथन है कि दोनों दृष्टियों की धारों को गुरु के बताये लक्ष्य स्थान पर स्थिर करने की कोशिश करो। जैसे जिसको कभी लिखने की आदत नहीं है, वह जब कुछ लिखना प्रारंभ करता है, तो उसका हाथ काँपता है। धीरे-धीरे लिखते-लिखते जब वह अभ्यस्त हो जाता है, तो फिर हाथ काँपता नहीं, स्थिर हो जाता है। उसी प्रकार दृष्टियोग के अभ्यास में पहले दृष्टि काँपती है; किन्तु नित्य नियमित रूप से साधना करते रहने से आप-ही-आप कम्पन छूट जाता है, दृष्टि स्थिर हो जाती है और आगे का रास्ता खुल जाता है।
“ दृष्टि योग अभ्यास अतिहि, करतहि करत ।
कँपनी सहजहि छुटै, प्रौढ़ होवै सुरत ।।
तिल दरवाजा टुटै, नजर के जोर से ।
अरे हाँ रे ‘मेँहीँ’ लगे टकटकी खूब,
जोर बरजोर से ।।”
मानस जप, मानस ध्यान और दृष्टि-साधन काल में केवल मुँह और आँखें बंद करनी चाहिए। नादानुसंधान करते समय दोनों आँखों, दोनों कानों और मुँह को बंद करना चाहिए। दृष्टि-साधन की क्रिया-द्वारा जब एकविन्दुता प्राप्त होती है, तो आंतरिक नाद की अनुभूति होने लगती है। उस समय सुरत को शब्द में लगाना चाहिए। शब्द-साधना करनेवाले को मालूम होता है कि जितने भी शब्द सुनने में आते हैं, वे सभी ऊपर की ओर से आ रहे हैं। शुद्धाचारी संत सद्गुरु से शब्द-साधना की दीक्षा पाकर केन्द्रीय शब्द को पकड़ना चाहिए। अपने अंदर स्थूल-सूक्ष्मादि भेद से पाँच मंडलों के पाँच केन्द्र हैं। शब्द में यह गुण होता है कि वह सुननेवाले को अपने केन्द्र की ओर आकर्षित करता है। प्रत्येक ऊपर के केन्द्रीय शब्द का संबंध उसके नीचे के केन्द्र से रहता है। जो स्थूल मंडल के केन्द्रीय शब्द को पकड़ेगा, वह उसके आकर्षण से आकर्षित हो सूक्ष्म के केन्द्र पर पहुँच जाएगा। इस प्रकार शनैः शनैः क्रम-क्रम से एक केन्द्र से दूसरे केन्द्र में चलते हुए वह जड़ावरण को पार कर जाएगा। कैवल्य के केन्द्र में पहुँचकर वहाँ सारशब्द को ग्रहण कर परमप्रभु परमात्मा तक पहुँच जाएगा। परम प्रभु परमात्मा को प्राप्त कर वह त्रयतापों से मुक्त हो जाएगा, आवागमन के चक्र से छूट जाएगा। इसलिए सभी संतों और सद्ग्रंथों ने नादानुसंधान की प्रशंसा मुक्त कंठ से की है।
संत कबीर साहब कहते हैं-
‘शब्द गह्यो जीव संशय नाहीं, साहब भयो तेरो संग ।’
तथा-
“ साधो शब्द साधना कीजै ।
जेहि शब्द से प्रकट भये सब, सोई शब्द गहि लीजै ।।”
गुरु नानकदेवजी महाराज की वाणी में है-जिनको संत सद्गुरु मिल जाते हैं, उनका कार्य सिद्ध होता है। आंतरिक पाँच केन्द्रों पाँच केन्द्रीय नादों की अनुभूति होती है। ॐकार का ध्यान होता है, प्रभु की प्राप्ति होती है। ‘पंच मिले पावे प्रभु सोय, नानक गुरु मिल्ये कार्यसिद्ध होय। पंच मिलहिं परिवार सिधार मूल ध्यान धर ओ ओंकार सतिगुरु मिले भउ भजन गाइय नानक अनहद शब्द समाये।’
भगवान शंकराचार्य ने मन के लय को सर्वोत्तम साधन नादानुसंधान अपने ‘योगतारावलि’ ग्रंथ मेंं नीचे के श्लोकों में बताया है-
“ सदा शिवोक्तानि सपादलक्षलयावधनानि वसन्ति लोके ।
नादानुसंधानसमाधिमेकं मन्यामहे मान्यतमं लयानाम् ।
नादानुसंधान नमोऽस्तु तुभ्यं त्वां मन्महे तत्त्वपदं लयानाम् ।
भवत्प्रसादात् पवनेन साकं विलीयते विष्णु पदे मनो मे ।।”
“ सर्वचिन्तां परित्यज्य सावधानेन चेतसा ।
नाद एवानुसन्धेयो योगसाम्राज्यमिच्छता ।।”
“ योग-शास्त्र के प्रवर्त्तक भगवान शिवजी ने मन के लय होने के सवा लक्ष साधन बतलाए हैं, उन सबमें नादानुसंधान सुलभ और श्रेष्ठ है । हे नादानु- सन्धान! आपको नमस्कार है, आप परमपद में स्थित कराते हैं, आपके ही प्रसाद से मेरा प्राण-वायु और मन, ये दोनों विष्णु के परम पद में लय हो जाएँगे । योग-साम्राज्य में स्थित होने की इच्छा हो, तो सब चिन्ताओं को छोड़कर सावधान हो एकाग्र मन से अनहद नादों को सुनो।”
नादानुसंधान के द्वारा किस प्रकार सर्वेश्वर की प्राप्ति होती है और आवागमन के चक्र से छूटा जाता है, हमारे पूज्य गुरुदेव की अनुभूत पूत वाणी इस प्रकार है-
“ आगे शून्य समाधि, नाद ही नाद की ।
लहै सन्त का दास, जाहि सुधि आदि की ।।
मीठी मुरली सुनै सुरत के कान से ।
अरे हाँ रे ‘मेँहीँ’ बड़ा कौतुहल होइ,
ध्वनिन के ध्यान से ।।
सद्गुरु भेदी मिलै सैन, ध्वनि ध्यान बतावै ।
अनुपम बदले नाहिं, शब्द सो सार कहावै ।।
सोहू ध्वनि हो लीन, अध्वनि में जाइके ।
अरे हाँ रे ‘मेँहीँ’ अध्वनि अशब्द अनाम,
सन्त कहैं गाइ के ।।
सार शब्द ध्वनि संग, सुरत हो अकह में लीनी ।
अध्वनि अशब्द अनाम, परम पद गति की भीनी ।।
द्वैत द्वन्द्व सों रहित, सो प्रभु पद पाइके ।
अरे हाँ रे ‘मेँहीँ’ सुरत न लौटइ,
बहुरि न जन्मइ आइके ।।”
(शान्ति-सन्देश, दिसम्बर 1988 ई0)
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जिस फाटक से हमलोग प्रवेश करते हैं, वहाँ पर लिखा हुआ है कि यह संतमत का सत्संग है। संतमत के संबंध में गत कल संध्याकाल कह चुका हूँ। आज अभी संतमत के संबंध में सुनिए। सत्संग में दो शब्द है-सत् और संग। सत् क्या है? भगवान् श्रीकृष्ण ने श्रीगीता में बतलाया है-
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।
अर्थात् जो असत् है, उसका अस्तित्व नहीं है और सत् है, उसका कभी अभाव नहीं होता। जिज्ञासा होती है-यह सत् और असत् क्या है? जिसको सत् कहते हैं-वह था, है और रहेगा अर्थात् त्रयकाल- अबाधित तत्त्व को सत् कहते हैं। जो असत् है, वह हमलोगों को इन्द्रियगोचर है, वस्तुतः उसकी स्थिति नहीं है। जो कुछ भी दीख पड़ता है, सभी भासमान है, नाशवान है। जो कुछ इन्द्रियग्राह्य है, सभी चीजें विनाशशील हैं। संत कबीर साहब के शब्दों में हम कह सकेंगे-
अखण्ड साहिब का नाम, और सब खण्ड है ।
खण्डित मेरु सुमेरु, खण्ड ब्रह्मण्ड है ।।
वह परम प्रभु परमात्मा और उसका नाम ही अखण्ड है, अनाशी है, अविनाशी है। उनके अतिरिक्त और जितने जो कुछ पिण्ड-ब्रह्मादि है, सब-के-सब नाशवान हैं, विनाशी हैं। जो संसार हम बाहर देख रहे हैं, उसी का छोटा रूप यह शरीर है। जितने तत्त्वों से यह संसार बना हुआ है, उतने ही तत्त्वों से यह शरीर बना हुआ है अर्थात् पाँच तत्त्व इस संसार में हैं, उसी तरह इस शरीर में भी वे ही पाँच तत्त्व हैं। (क्षिति, जल, पावक, गगन और समीर) बाह्य संसार में तीन गुण काम कर रहे हैं, इस शरीर में भी तीन गुण काम करते हैं। तीन गुण-रजोगुण, सत्त्वगुण और तमोगुण अर्थात् उत्पादक शक्ति, पालक शक्ति और विनाशक शक्ति। संसार के जितने स्तर हैं, इस शरीर के भी उतने ही स्तर हैं। शरीर के जिस स्तर पर जब हम रहते हैं, संसार के भी उसी स्तर पर हम रहते हैं। शरीर के जिस स्तर को जब हम छोड़ते हैं, संसार के भी उसी स्तर को तब हम छोड़ते हैं। इस दृष्टि से यदि हम शरीर के सब स्तरों को पार कर जाएँ, तो संसार के भी सभी स्तरों को पार कर जाएँगे।
विचारणीय विषय यह है कि शरीर नाशवान है, लेकिन इस शरीर में रहनेवाला जीवात्मा अजर, अमर, अविनाशी है। जिस तरह इस शरीर का शरीर पर के वस्त्र से संबंध है, उसी तरह शरीरस्थ जीवात्मा का इस शरीर से संबंध है। जबसे हमलोगों ने जन्म धारण किया अर्थात् जबसे यह शरीर हमें मिला है, अबतक हमारी जितनी उम्र हो गयी, अबतक कितने कपड़े पहने हैं, कितने कपड़े फटे हैं, याद है किसी को? किसी को याद नहीं। अब भी शरीर का जीवन काल जितना बाकी है, उसमें भी कितने कपड़े पहनेंगे, कितने कपड़े फटेंगे, ठिकाना नहीं। उसी तरह एक जीव के जीवनकाल में कितने शरीर होते हैं और नष्ट होते चले जाते हैं, ठिकाना नहीं। जबसे सृष्टि है, जबसे सृष्टि में हम हैं अर्थात् जीवात्मा है, इसने कितने शरीरों को पहना है, कितने शरीरों को छोड़ा है, किसी को याद है? किसी को याद नहीं। अब भी जबतक यह जीवात्मा परमात्मा को प्राप्त न कर ले, न मालूम कितने शरीरों को धारण करेगा और छोड़ेगा। भगवान् श्रीकृष्ण श्रीमद्भगवद्गीता, अ0 2, श्लोक 22 में कहते हैं-
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि ।
तथा शरीराणि विहाय
जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही ।।
अर्थात् जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रें को त्यागकर दूसरे नये वस्त्रें को ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्यागकर दूसरे नये शरीरों को प्राप्त होता है।
जरा सोचकर देखिए। अभी हमारे शरीर पर जो वस्त्र हैं, वै कैसे हैं? हमारी जैसी कमाई है यानी कमाई के अनुरूप हमारे शरीर पर वस्त्र है। यदि भविष्य में कमाई अच्छी होगी, तो इससे भी अच्छे वस्त्र हम पहन सकते हैं। अगर घाटे की ओर चले गये, तो इससे कम कीमत के कपड़े पहनेंगे। उसी तरह चौरासी लाख योनियों में घूमते-घूमते, भटकते- भटकते यह सुन्दर मानव-शरीर मिला है यानी यह सुन्दर कपड़ा मिला है। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने अपनी प्रजा को उपदेश दिया था-
आकर चारि लाख चौरासी।
जोनि भ्रमत यह जीव अविनासी।।
फिरत सदा माया कर प्रेरा।
काल कर्म सुभाव गुन घेरा ।।
कबहुँक करि करुना नर देही।
देत ईस बिनु हेतु सनेही।।
अकारण ही स्नेह करनेवाले ईश्वर ने हमको मनुष्य का शरीर दे दिया है। आज तो कृपा करके प्रभु ने हमको मनुष्य का शरीर दे दिया है। अगर हमारी अच्छी कमाई रही अर्थात् हमने भगवद्-भजन किया, तब तो इससे भी अच्छा शरीर हमको मिलेगा। अगर हमारी कमाई अच्छी नहीं रही अर्थात् भगवद् भजन नहीं किया, तो फिर संत कबीर साहब की वाणी चरितार्थ होगी-
कहै कबीर चेत अजहू नहिं, फिर चौरासी जाई ।
पाय जनम कूकर सूकर को, भोगेगा दुख भाई ।।
वह कूकर-सूकर शरीर भी मिलने को तैयार है। जैसे एक शरीर पर विविध कपड़े पहनते हैं और फटते हैं। उसी तरह एक जीव के जीवनकाल में विविध शरीर होते और नष्ट होते हैं। लेकिन हम स्वयं-‘ईस्वर अंस जीव अविनासी। चेतन अमल सहज सुखरासी।।’ है। हम मरनेवाले नहीं हैं। हम तो अजर, अमर, अविनाशी स्वयं हैं। जिसका अंश अजर, अमर, अविनाशी है, उसका अंश कैसा होगा? वह भी तो अजर, अमर, अविनाशी होगा। उसका भी कभी विनाश नहीं होता है। उस अविनाशी परमात्मा से इस अविनाशी जीवात्मा का संग करा दीजिए। यह भी सत् है, वह भी सत् है। इस सत् का उस सत् से मिला दीजिए, यह असली सत्संग हो जाएगा। (श्रोतागण की ओर से श्रीसद्गुरु महाराज की जय-ध्वनि) हाथरस के संत तुलसी साहब ने लिखा है-
सत सुरत समझि सिहार साधौ,
निरखि नित नैनन रहौ।
इस सत् का उस सत् से संग होना सर्वोच्च श्रेणी का सत्संग है। लेकिन लोग जो पढ़ते हैं-प्रथम श्रेणी, दूसरी श्रेणी, तृतीय श्रेणी-क्रम-क्रम से बढ़ते जाते हैं। उसी तरह से वह तो सर्वोच्च श्रेणी है, पर उससे निम्न श्रेणी पहले और उसके बाद भी पहले निम्न श्रेणी चाहिए, तब क्रम-क्रम से उठेंगे। तो वह प्रथम श्रेणी का (सर्वोच्च श्रेणी का) सत्संग है, वह कैसे होगा? किन्तु यह ‘सत्संग’ सर्वप्रथम सुलभ नहीं है। सुलभ क्या है? जिन्होंने अपने जीवात्मा को परमात्मा से मिलाया है, वे सत् जन हैं-सज्जन हैं। ऐसे सज्जन का संग करें, यह द्वितीय श्रेणी का सत्संग है। यह द्वितीय श्रेणी का सत्संग सुलभ नहीं है; क्योंकि संतों की पहचान बहुत कठिन है। आज हम जिनकी बड़ाई सुनते हैं, आगे चलकर कल उनकी ही कुछ और सुनने लग जाते हैं। कुछ दिन पहले एक अखबार निकला था, उसमें आजकल के बहुत-से भगवानों के चित्र बने थे और नीचे लिखा हुआ था-हे भगवान्! कितने भगवान्?
आज जिनको हम संत-महात्मा कहकर उनके चरणों में सिर टेकते हैं, कल सुनने में आता है कि उनमें यह गंदगी है, तो हमारा विश्वास डगमगा जाता है। फिर वैसे संतों की खोज हम कहाँ करें? संसार में ऐसे संत नहीं हैं, ऐसी बात नहीं है; लेकिन हमारे पास कोई मीटर नहीं है कि हम जाँच करके देख लें, ये ठीक संत हैं या नहीं? कोई मैट्रिक पास एम-ए- पास का इंटरव्यू लेगा, क्या यह संभव है? एम-ए- पास मैट्रिक पास का इंटरव्यू ले सकता है; लेकिन मैट्रिक पास एम-ए- पास का इंटरव्यू नहीं ले सकता। उसी तरह हमारी जो अध्ययन-मनन की शक्ति है और जिन्होंने साधना की है, उनकी जो अनुभूति शक्ति है, हम कैसे जान सकते हैं? उनकी साधना-शक्ति के माप-दंड को हम कैसे नाप सकते हैं? इस ताल-तलैया में जिस लग्गी से हम नाव खेते हैं, उसी लग्गी से समुद्र के जहाज को खेना क्या संभव है? कभी नहीं हो सकता।
साधु-सन्तों की पहचान सामान्य बात नहीं है। और तो और, हम अपने संगी-साथी की पहचान नहीं कर सकते, जिनके साथ 24 घंटे रहते हैं। वर्षों से जो नौकर हमारे पास रह रहा है, उसकी पहचान हम नहीं कर सकते हैं। चाबी दे देते हैं, कहते हैं-इतने रुपये ले आओ, गिनकर इतने रुपये तिजोरी में रख दो। एक दिन वही नौकर रुपये लेकर चम्पत हो जाता है। तब हम कहते हैं-इतना विश्वासी नौकर था, हम तो कभी विश्वास नहीं कर सकते थे कि हमारे साथ वह ऐसा कर सकता है। जब एक नौकर को हम नहीं पहचान सकते हैं, जो हमारे अधीन 24 घंटे रहता है, तब जो एक संत हैं, महात्मा हैं, वे कहाँ तक पहुँचे हैं, उनकी गति कहाँ तक है, उनकी पहचान हम कैसे कर सकते हैं! ऐसी परिस्थिति में स्वाभाविक प्रश्नोदय होता है, सच्चे संत की पहचान कैसे की जाए? यदि उनकी पहचान नहीं हो, तो उनके अभाव में सत्संग कैसे हो? उत्तर में निवेदन है-जिन संतों पर आजतक किसी ने ऊँगली नहीं उठाई है, जो सर्वमान्य है अर्थात् जिनको संतों की दृष्टि से पूर्व से अबतक सभी देखते चले आ रहे हैं, भले ही वे संत आज इस जगती-तल पर नहीं हो; किन्तु उन संतों की वाणियाँ तो हैं, वे सत् वाणी हैं। उन संतों की वाणियों का संग करें, यह भी सत्संग है। यह तीसरी श्रेणी का सत्संग है। अगर सच्चे संत मिल जाएँ, तब तो कहना ही क्या, हमारा अहोभाग्य है। महोपनिषद् में लिखा है-
भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः ।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे ।।
अर्थात् उस परे-से-परे (ब्रह्म) को देख लेने पर हृदय की ग्रंथि (गिरह-गाँठ) टूट जाती है, सभी संशय छिन्न हो जाते हैं और सभी कर्म नष्ट हो जाते हैं। इन विभूतियों से विभूषित होते हैं-संत (ऋषि)। उपनिषद् में आया-जिनके हृदय की ग्रंथि विच्छिन्न हो गयी हो। यह हृदय की ग्रंथि कौन-सी है? इस संदर्भ में गो0 तुलसीदासजी महाराज ने रामचरितमानस में कहा है-
जड़ चेतनहिं ग्रंथि पड़ि गई।
यद्यपि मृषा छूटत कठिनई ।।
इस जड़-चेतन की ग्रंथि को जिन्होंने खोल डाला है। जड़ और चेतन की ग्रंथि को खोलने से क्या मिलता है? यदि किन्हीं ने खोल ही डाला, तो उनको क्या मिला? हमलोग जब गाँठ देते हैं, तो गाँठ में कुछ रखते हैं। जब गाँठ को खोलते हैं, उसमें जो कुछ माल रहता है, वह मिलता है। क्या माल मिलता है? संत कबीर साहब ने कहा है-
लाल लाल जो सब कोइ कहै, सबकी गाँठी लाल ।
गाँठी खोलि के परखै नाहीं, तासों भये कंगाल ।।
वह कौन-सा लाल है? परमात्मारूपी लाल है। उस लाल को जो कोई पा लेता है, वह मालोमाल हो जाता है, तब वह कंगाल नहीं रहता है। उसका जीवन निहाल हो जाता है और काल की दाल उसपर नहीं गलती। परमात्मा को प्राप्त किये हुए परमात्म- स्वरूप हो जाते हैं। गोस्वामीजी के शब्दों में-
सोइ जानइ जेहि देहु जनाई।
जानत तुम्हहिं तुम्हइ होइ जाई ।।
उस ब्रह्म को प्राप्त करनेवाले ब्रह्म ही हो जाते हैं। ऐसे संतों का जो संग है, वही द्वितीय श्रेणी का सत्संग कहलाता है। इस दृष्टि से सबसे ऊँचे दर्जे का सत्संग हुआ-जीव और पीव का मिलन। दूसरे दर्जे का सत्संग हुआ-संतों का संग और तीसरे दर्जे का सत्संग हुआ-संतवाणी का संग। अभी जिस सत्संग के नाम पर हमलोग यहाँ एकत्र हुए हैं, यह कौन-सा सत्संग है? ईश्वर का संग तो है नहीं। वैसे पहुँचे हुए सच्चे संत भी यहाँ उपस्थित नहीं हैं। तब संतों की जो सत् वाणी है, उसको सुनने के लिए हमलोग यत्र-तत्र से यहाँ एकत्र हुए हैं। इसकी भी बड़ी महिमा है। संत वाणी का संग करके जो उसे आचरण में उतारते हैं, उनका कल्याण होता है। अकल्याण कभी होता नहीं, क्यों? सुनिए-
संत वचन वह सुधा देव भी जिसके सदा भिखारी ।
संत वचन वह धन जिसका है नर प्रधान अधिकारी ।।
मर्त्य अमर बन जाता जिससे वह संजीवन रज है ।
संत वचन सब भव रोगों का रामवाण भेषज है ।।
वेद शास्त्र अनुभूति तपस्या का जिसमें संचय है ।
संतों का वर वरद वचन यह मंगलमय निर्भय है ।।
क्यों बैठा कर्तव्यमूढ़ नर बन चिन्ता का वाहन ।
संत वचन के सुधा सिन्धु में कर सन्तत अवगाहन ।।
यदि संतवचन में अवगाहन करोगे, तो परिणाम क्या होगा?
दूर असत से कर सतपथ की ओर लगाने वाला ।
और मृत्यु से हटा अमरता तक पहुँचाने वाला ।।
तम से परे ज्योति के जग में होता जो जगमग है ।
सच्चिन्मय उस परम धाम का संत वचन शुचि मग है ।।
कौन बताये संतों की वाणी में कितना बल है ।
दासी सुत देवर्षि बन गया जीवन हुआ सफल है ।।
उसी संत के प्रवचन ने यह चमत्कार दिखलाया ।
दैत्यवंश में देवोपम प्रीांद प्रगट हो आया ।।
अगणित बार संतवाणी ने निज प्रभाव प्रगटाया ।
मान उसे बालक ध्रुव ने हरि का पद पाया ।।
एक लुटेरा था जो मन से मान संत की वाणी ।
वाल्मीकि बन गया आदि कवि भुवन विदित विज्ञानी ।।
यह संतवाणी का ओज है। संतों का संग, संत-वाणी का संग कुसंग को हटाता है, सत्संग का संग कराता है। आप जानते हैं कि जब रेलगाड़ी चलते-चलते, उसका इंजन लौह-लीक से नीचे उतर जाता है, तब सैकड़ों आदमी मिलकर भी उसको उठाकर लौह-लीक पर नहीं रख सकते। लेकिन एक क्रेन आता है, उस इंजन को उठाकर लौह-लीक पर रख देता है, पुनः पूर्ववत् गाड़ी चलने लग जाती है। इसी तरह कोई पतित-से-पतित आदमी क्यों न हो, यदि वह संतों का संग करता है, संत वाणी का संग करता है, तो वह ठीक लीक पर यानी सही राह पर चला आता है। जबतक संतों का संग नहीं करता, तबतक लीक पर आने की संभावना नहीं। संत जन सन्मार्ग पर चलने के लिए सिखलाते हैं, संत-वाणी सन्मार्ग दिखलाती है। इसीलिए संत वाणी की, सत्संग की आवश्यकता है। यह सत्संग है क्या? गो0 तुलसीदासजी महाराज विनय-पत्रिका में लिखते हैं-
देहि सत्संग निज अंग श्रीरंग,
भवभंग कारण शरण शोकहारी ।।
अर्थात् सत्संग प्रभु श्रीरंग का निज अंग है, भव-भंग का कारण तथा शरण-शोकहारी है।
एक लघु कथा सुनिए-सीता-हरण हो चुका था। भगवान् श्रीराम ससैन्य समुद्र किनारे पहुँच चुके थे। पुल बनवा रहे थे। नल-नील मुख्य कारीगर थे। बंदर, भालूगण वृक्ष, पत्थर, पहाड़ आदि ला-लाकर उनको देते थे और वे (नल-नील) अपने हाथ में लेते और पानी पर रख देते थे। जैसे ही वे पानी पर रखते थे, वह पत्थर, पहाड़ वा वृक्ष पानी पर ज्यों- का-त्यों ठहर जाता था, नीचे डूबता नहीं था। बंदर-भालुओं को यह देखकर बड़ कौतुहल हुआ। वे दौड़कर भगवान् श्रीराम के पास गये और हाथ जोड़कर बोले-भगवन्! बड़ा आश्चर्य है! हमलोग बड़े-बड़े पहाड़ ला-लाकर नल-नील को देते हैं, वे पानी पर रखते हैं, पहाड़ नीचे डूबता नहीं है, पानी पर ही रह जाता है। भगवान् भी तो बड़े कौतुहली होते हैं! वे भक्तों के कौतुहल को बढ़ाने के लिए अनजान-से पूछते हैं-क्या यह बात सच है? कपियों ने कहा-हाँ, भगवन्! बिल्कुल सच है। चलिये न, हमलोग दिखलाते हैं। भक्तों की बात मान भगवान् चलते हैं। वहाँ पहुँचकर देखते हैं कि बंदर-भालू नल-नील को पहाड़ आदि देते हैं, वे हाथ में लेकर पानी पर रख देते हैं। वृक्ष, पहाड़ आदि पानी पर तैरने लगते हैं, ज्यों-के-त्यों रह जाते हैं, डूबते नहीं। भगवान् ने पूछा-नल-नील! इतने वजन के पहाड़ आदि तुम पानी पर रखते हो, फिर भी पानी पर तैरते हैं, किस कारण से डूबते नहीं? उन्होंने हाथ जोड़कर उत्तर दिया-भगवन्! यह तो आपकी महिमा है। आपकी महिमा से ही पत्थर पानी पर तैरते हैं, नहीं तो कहीं पानी पर पत्थर तैरता! भगवान् ने कहा-यदि मेरी ही महिमा से पानी पर पत्थर तैरता है, तो मैं जिस पत्थर को पानी पर रखूँगा, उसको नहीं डूबना चाहिए? नल-नील ने कहा-भगवन्! हाथ कंगन को आरसी क्या? एक पत्थर रखकर देख लिया जाए। एक कपि ने पत्थर का एक टुकड़ा भगवान के हाथ में दिया। उन्होंने उस टुकड़े को पानी पर छोड़ा, तो वह गड़-गड़ाकर पानी के नीचे चला गया। भगवान ने कहा-नल-नील! तुमलोग कह रहे थे-मेरी महिमा से पानी पर पत्थर तैरता है, तो मेरे हाथ का छोड़ा हुआ पत्थर पाताल कैसे चला गया? नल-नील ने हाथ जोड़कर कहा-भगवन्! यह तो जड़ पत्थर है। आपके हाथ से यदि ब्रह्मा भी छूट जाए, तो किस रसातल को चला जाए, ठिकाना नहीं। (श्रोतागण की ओर से जयकार की ध्वनि)
इसलिए सत्संग जो कि भगवान् का निज अंग है, उसको छोड़कर जो रहेगा, अलग होकर रहेगा, उसकी क्या दुर्दशा होगी, ठिकाना नहीं।
बहुत वर्षों की बात है। हमारे गुरुदेव सत्संग प्रचार के लिए यात्र कर रहे थे। देहात से आते-आते बाराहाट रलेवे स्टेशन जो कि भागलपुर (अब बाँका) जिले में पड़ता है, पहुँचे। गाड़ी आने में देर थी। स्टेशन पर बहुत-से लोग बैठे हुए थे। ट्रेन आने की प्रतीक्षा कर रहे थे। कुछ श्रद्धालु सज्जन हमारे गुरुदेव को देखकर नजदीक आकर प्रणाम करके बैठ गये। इन लोगों ने गुरुदेव से कहा-महाराज! सुनते हैं आप सत्संग-प्रचार करते हैं। सत्संग से क्या लाभ होता है, हमलोग सुनना चाहते हैं। यदि कुछ प्रकाश डाला जाए, तो बड़ी कृपा होती। हमारे गुरुदेव बड़े सीधे सरल शब्दों में बात करते थे। उन्होंने पूछने की कृपा की-आपलोग क्या चाहते हैं? कहिए। उनलोगों ने कहा-हमलोग तो घर-गृहस्थी वाले आदमी हैं, चाहना का ठिकाना नहीं? कितनी चाहनाएँ हमलोगों को है, क्या कहा जाए। गुरुदेवजी बोले-आपलोग पढ़े-लिखे सज्जन हैं, चाहनाओं को समेटकर समास रूप में बतलाइए। परमाराध्यदेव की वाणी सुनकर वे लोग चुप हो गये। अहैतुकी अनुकम्पा करनेवाले हमारे गुरुदेव बोले-अच्छा, यदि आपलोग कुछ नहीं बोलते हैं, तो मुझसे ही सुनिए और जो पूछता हूँ, उसका अपने विचारानुकूल उत्तर दीजिए।
‘आप सुबुद्धि चाहते हैं या कुबुद्धि?’ उनलोगों ने एक स्वर से कहा-सुबुद्धि चाहते हैं। गुरुदेव- जबतक आप संसार में जीवित रहें, खायें-पियें, ऐश आराम करें, मौज से रहें और शरीर छूटने के बाद आप शुभगति चाहते हैं या दुर्गति? उनलोगों ने कहा-शुभगति चाहते हैं। ‘संसार में आपलोग ऐश्वर्यवान होकर रहना चाहते हैं या दीन-हीन, कंगाल होकर?’ उनलोगों ने कहा-ऐश्वर्यवान होकर रहना चाहते हैं। गुरुदेव ने पुनः पूछने की कृपा की-संसार में आप अपनी भलाई चाहते हैं या बुराई? उनलोगों ने कहा-भलाई। गुरुदेव बोले-देखिए, गो0 तुलसीदासजी महाराज ने पहले ही लिख दिये हैं-
मति कीरति गति भूति भलाई।
जब जेहि जतन जहाँ जेहि पाई ।।
सो जानब सत्संग प्रभाऊ।
लोकहु वेद न आन उपाऊ।।
अगर ये पाँचों चीजें मिल जाएँ, तो और छठी क्या चीज चाहिए? उनलोगों ने कहा-महाराज! तब तो सब पूरा हो गया। गुरुदेव बोले-तो समझिए, सत्संग से अच्छी-अच्छी चीजें मिलती हैं। इसलिए सबको सत्संग करना चाहिए। गो0 तुलसीदासजी महाराज ने लिखा है-
सठ सुधरहिं सत्संगति पाई।
पारस परसि कुधातु सुहाई।।
यह सत्संग क्या है? सत्संग ही संतों के दर्शन कराता है। संतों के दर्शन हो जाने पर वे ही सत्यस्वरूप सर्वेश्वर यानी परम प्रभु परमात्मा के दर्शन कराते हैं। यह माध्यम है। चाहे कितना भी हम पढ़ लें, कितने ही बड़े विद्वान हो जाएँ; लेकिन चरित्रवान होना एक दूसरी बात है।
एक अच्छे विद्वान् थे। शायद आपलोगों ने सुना होगा, उनका नाम था-भिक्षु जगदीश काश्यप। वे बौद्ध जगत् के एक सुप्रतिष्ठित महात्मा थे। हमलोगों के भूतपूर्व प्रधानमंत्री पं0 जवाहरलाल नेहरूजी जब बौद्ध देशों में जाते थे, तो वे उनको साथ ले जाते थे। काश्यपजी ने जब गुरु महाराजजी की शरण ग्रहण कर दीक्षा ली, तो एक दिन गुरुदेव के निकट बैठे थे। विद्वान् और चरित्रवान के संदर्भ में चर्चा चल रही थी। हमारे गुरुदेव बोले-
पढ़ना गुनना चातुरी, यह तो बात सहल ।
काम दहन मन वश करन, गगन चढ़न मुश्कल ।।
यह सुनकर वे जैसे चौंक उठे और उन्होंने जिज्ञासा की-किनकी वाणी है महाराज! गुरुदेव ने कहा-संत कबीर साहब की। काश्यपजी ने उस साखी को पुनः दुहराने की प्रार्थना की। हमारे गुरुदेव ने उन पंक्तियों को दुहराने की कृपा की। काश्यपजी ने कहा-महाराज! अक्षरशः सत्य है। वास्तव में काम दहन, मन वशकरण और अंतर्गगन आरोहण आसान काम नहीं है। एक कथा है-
श्रीव्यासदेवजी श्रीमद्भागवत लिखते थे और उनके शिष्य जैमिनी जी उसको देखते जाते थे। ये बड़े विद्वान् थे। मीमांसा के आचार्य थे। श्रीमद्भागवत में व्यासेदवजी ने लिखा था-‘बलवान इन्द्रियग्रामो विद्वांसमपि कर्षति।’ अर्थात् इन्द्रियाँ इतनी बलवती होती हैं कि वह विद्वानों को भी आकर्षित कर लेती हैं। यह पढ़कर जैमिनीजी ने कहा-गुरुदेव! यह पंक्ति ठीक नहीं जँचती है। इसको ठीक से पुनः देख लिया जाए। यहाँ तो ऐसा होना चाहिए-‘बलवान् इन्द्रियग्रामो विद्वांसनापि कर्षति।’ अर्थात् इन्द्रियग्राम विद्वानों को आकर्षित नहीं कर सकता।
वेदव्यासजी ने मन में सोचा, केवल वचन द्वारा समझाने पर मेरी बात स्वीकार नहीं करेंगे। इसलिए उन्होंने एक लीला की। कहा-अच्छा, मैं थोड़ा घूमकर आता हूँ। तुम यहाँ बैठो। इतना कहकर व्यासदेवजी चले गये। वेदव्यासजी ने माया रची। जोरों की आँधी-तूफान ले आये। होता क्या है-एक षोडशी, जो कि देखने में बहुत सुंदर थी, वस्त्रभूषणों से विभूषित होकर, वर्षा-पानी में भींगती हुई वहाँ आती है। जैमिनीजी ने कहा-तुम यहाँ क्यों भींग रही हो! भीतर चली आओ। उसने कहा-पुरुषों पर मुझे विश्वास नहीं होता। जैमिनीजी ने कहा-मेरे जैसे पुरुष पर भी! जानती हो, मैं कितना बड़ा विद्वान् हूँ। मीमांसा का आचार्य हूँ। श्रीवेदव्यासजी के लिखे महापुराणों को पढ़-पढ़कर ठीक कर रहा हूँ। चली आओ। वह भीतर चली आती है।
काम ने किसको बदनाम नहीं किया। उस युवती के सौंदर्य को देखकर इन्द्रियाँ बलवती हो उठीं, इन्होंने अपनी दुर्बलता उसके सामने रखी। उस युवती ने कहा-अवश्य ही मेरी अभी शादी नहीं हुई है, मैं आपसे शादी कर लूँगी। मेरा अहोभाग्य है! आप जैसे विद्वान्, इतने बड़े तपस्वी के साथ मेरा विवाह होगा। लेकिन मेरे कुल की एक रीति है, यदि आप उसका पालन कीजिए, तो मैं आपसे शादी करने के लिए तैयार हूँ। जैमिनीजी ने जिज्ञासा की-तुम्हारे कुल की क्या रीति है? युवती बोली- हमारे कुल की रीति यह है कि जिस लड़के के साथ लड़की का विवाह होता है, उसको घोड़ा बनना पड़ता है और लड़की उसके मुँह में लगाम लगाकर उस घोड़े पर सवार होती है। इसी तरह से दोनों ही देव-मंदिर जाकर देवता को प्रणाम करते हैं। इस प्रकार शादी होती है। आप घोड़ा बनिए। मैं लगाम लगाऊँगी। आपके ऊपर चढ़कर देवमंदिर जाऊँगी, देवी को प्रणाम करके लौटूँगी, फिर शादी हो जाएगी। जैमिनीजी ने देखा, यहाँ कोई नहीं है। सोचा, थोड़ी देर के लिए घोड़ा बन ही जाऊँ, तो क्या हर्ज है! शादी तो हो जाएगी। इधर-उधर देखकर वे घोड़ा की तरह बन गये। वह लड़की लगाम लगाकर उसकी पीठ पर बैठ गयी और चली देव-मंदिर दर्शन करने के लिए। वहाँ पहुँचने पर देखते हैं कि पहले से ही उस बरामदे पर वेदव्यासजी बैठे हुए हैं। व्यासदेवजी ने पूछा-कहो जैमिनी! कहाँ जा रहे हो? तुम्हारी बात ठीक है या मेरी बात? लज्जा के मारे जैमिनीजी सिर झुका लिये और दबी जबान में कहते हैं-गुरुदेव! आपही का वचन ठीक है। इस कथा का तात्पर्य क्या हुआ? कोई कितना बड़ा विद्वान् क्यों न हो जाए; लेकिन उसके पास कोई हथियार नहीं है कि वह विकार को काटकर निकल सके। विकार को काटने के लिए साधना है। जबतक कोई अंतस्साधना नहीं करेगा, आत्मस्वरूप की पहचान नहीं होगी, स्वरूप-ज्ञान विहीन मन पर विजय प्राप्त नहीं कर सकता और मन पर विजय प्राप्त किये बिना वह षट् विकारों का शिकार होता रहेगा। भगवान् श्रीकृष्ण ने श्रीगीता 2/59 में कहा है-
विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः ।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते ।।
अर्थात् यद्यपि इन्द्रियों के द्वारा विषयों को न ग्रहण करनेवाले पुरुष के भी केवल विषय तो निवृत्त हो जाते हैं; परन्तु राग नहीं निवृत्त होता और इस पुरुष का तो राग भी परमात्मा को साक्षात् करके निवृत्त हो जाता है। किसी सुभाषितकार ने कितना अच्छा कहा है-
पढ़े छहो शास्त्र और अठारहो पुराण पढ़े,
वेद उपवेद आदि अन्त कोउ छाना है।
गीता रामायण श्रुति स्मृति पढ़े,
सांख्य योग न्याय आदि दर्शन भी जाना है।
जाना है बनाना छन्द सोरठा चौपाई को,
जाना है ध्रुपद राग भैरवी का गाना है।
इतना जो जाना सब खाक धूर छाना है,
जाना है सोई जिन आतम पिछाना है।।
जबतक कोई आत्मा की पहचान नहीं कर ले, उस ओर अग्रसर नहीं हो, तबतक उसको आत्मबल कहाँ से मिलेगा? उसकी आत्मा बलवती कैसे हो सकती है? जैसे जबतक कोई व्यायाम नहीं करे, उसका शरीर बलवान कैसे हो सकता है? दूध-दही, हलुआ, पूड़ी, टिकड़ी, बर्फी, पिस्ता, अखरोट आदि पौष्टिक भोजन कोई कर ले, तो बलवान हो जाएगा? अरे, उसको पचाने के लिए तो कुछ करना ही पड़ेगा। दंड-बैठक कीजिए, व्यायाम कीजिए या अन्य किसी प्रकार का शारीरिक श्रम कीजिए, तब शरीर में बल आएगा। उसी तरह साधना है। मन की गति कहाँ-कहाँ है, यह कहाँ-कहाँ जाता है, कोई ठिकाना नहीं। इस मन को रोकने के लिए आपके पास क्या कोई उपाय है? कैसे रोकिएगा इसको?
नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनू ँ ् स्वाम्।।
-कठोपनिषद्
यह आत्मा वेदाध्ययन-द्वारा प्राप्त होने योग्य नहीं है और न धारणा-शक्ति अथवा अधिक श्रवण से ही प्राप्त हो सकता है। भगवान श्रीराम ने श्रीहनुमानजी से कहा था-
उपविश्योपविश्यैकां चिन्तकेन मुहुर्मुहुः ।
न शक्यते मनो जेतुं विना युक्तिमनिन्दिताम् ।।
-मुक्तिकोपनिषद्
अर्थात् पुनः पुनः एकान्त में बैठने पर भी बिना सत् युक्ति के कोई भी मनोजय करने में समर्थ नहीं हो सकता। मैं नहीं कहता, उपनिषद् कहती है-एकांत में तुम घंटों बैठे रहो, दिन-रात बैठे रहो। लेकिन जबतक तुम्हारे पास संतों की सद्युक्ति नहीं है, मन को किसी प्रकार काबू नहीं कर सकते। वह युक्ति क्या है? मन जीतने की युक्ति भगवान् श्रीराम ने हनुमानजी को बतलाई थी। इस संदर्भ में मुझे एक प्रसंग स्मरण हो आया है। सुनिए, जब समुद्र के किनारे सीताजी की खोज में बंदर-भालू सब इकट्ठे हुए, तो सबके सामने एक समस्या पैदा हो गयी कि जबतक कोई सौ योजन समुद्र लंघन नहीं करेगा, सीता की खोज नहीं हो सकती। अतएव सब कोई अपना-अपना बल बतलावें कि वे कितना लाँघ सकते हैं? इसपर सब कोई अपना-अपना बल-पराक्रम बतलाने लगे। क्रम-क्रम से 10, 20, 50, 95 योजन तक बोल गये; लेकिन सौ योजन सागर पार करनेवाले कोई नहीं हो सके। तब अंगद ने कहा-‘मैं सागर के उस पार तो जा सकता हूँ; लेकिन उधर से लौटने में सन्देह है।’ अंगद ने संशयात्मक बात क्यों कही, यह विचारणीय विषय है। एक तो अंगद के पिता बालि से रावण की मैत्री थी। मैत्री होने के नाते रावण उसके पितातुल्य थे। इसलिए शिष्टाचार के नाते रावण के समक्ष अंगद अपना विचार रख सकता था, न कि दबाव डाल सकता था। अपने उद्देश्य की पूर्ति होने की संभावना नहीं देखकर भी वह जाना नहीं चाहता था। दूसरी बात यह कि-एक मुनि ने अंगद को शाप दिया था कि जिस जल का वह एक बार उल्लंघन करेगा, पुनः दूसरी बार नहीं कर सकता। तीसरी बात-गुरुकुल में पढ़ते समय एक दिन अंगद ने अकारण ही अक्षय कुमार को बहुत पीटा था। आचार्य ने शाप दिया कि तुमने निर्दोष को दुःख दिया है, इसलिए उसके एक घूँसे से तुम्हारी मृत्यु हो जाएगी। चौथी बात यह कि लंकापुरी त्रैलोक्य सुन्दरी की नगरी थी। अंगद नवयुवक था, युवराज था-कामदहन, मन वशकरण और अंतराकाश-गमन की युक्ति नहीं जानता था। इसलिए लंका जाकर वहाँ से आने में संदेह था। मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम ने निर्मल मन सेवक पवनसुत को यह सद्युक्ति बतलायी थी, जिससे निर्भीक होकर वह लंका गया और राम-काम संपादन कर सकुशल लौट गया। वह युक्ति क्या थी-
एकतत्त्वदृढाभ्यासाद्यावन्न विजितं मनः ।।
प्रक्षीणचित्तदर्पस्य निगृहीतेन्द्रियद्विषः ।
पद्मिन्य इव हेमन्ते क्षीयन्ते भोगवासनाः ।।
अर्थात् हे हनुमान्! जबतक मन नहीं जीता गया हो, तबतक एक तत्त्व का दृढ़ अभ्यास करो, तन-मन वश में होगा। जिस प्रकार हेमन्तकाल में कमल गलकर समाप्त हो जाता है, उसी तरह एक तत्त्व के दृढ़ाभ्यास करने से भोग-वासना समाप्त हो जाती है।
भगवान श्रीराम ने हनुमान्जी को मनोजय करने का जो यत्न बतलाया था, वही युक्ति हमारे गुरुदेव ने हमलोगों को बतलायी है। हम साधना करें वा न करें, यह दूसरी बात है। अरे! हमें डकैत का, चोर का, बदमाश का डर होता है, तो हम राज्य सरकार से पिस्तौल लेकर अपने घर में रखते हैं। जब हमारे घर में चोर-डकैत आवे, उस समय हम पिस्तौल का प्रयोग न करें, तो इसमें सरकार का क्या दोष? चोर-बदमाश हमें सताते रहेंगे। इसी भाँति संत सद्गुरु से हमने युक्ति तो ले ली; किन्तु साधना नहीं की। परिणाम क्या होगा? काम-क्रोधआदिक विकार हमें सतायेंगे ही। एक तत्त्व क्या है? विन्दु है। ज्योतिर्मय विन्दु का ध्यान परम ध्यान है। तेजोविन्दूपनिषद् में लिखा है-
तेजोविन्दुः परं ध्यानं विश्वात्महृदि संस्थितम् ।
आज के दिन कुछ लोग दीपक जलाकर उसकी ज्योति का ध्यान करते हैं। कोई-कोई मोमबत्ती जलाकर उसका ध्यान करते हैं। कोई आँखों को जोर से दबाने पर जो ज्योति मालूम पड़ती है, उसका ध्यान करते हैं। कोई कल्पना करते हैं कि उनके गुरु से या इष्ट से ज्योति आ रही है, उस ज्योति का ध्यान करते हैं। लेकिन ये सारे के सारे काल्पनिक ज्योति-ध्यान हैं, वास्तविक ज्योति आपके अंदर है, उस ज्योति को जगाइए। ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय------’ को रटते-रटते जीभ मोटी हो जाए; लेकिन कभी उस चोटी पर नहीं पहुँचेंगे, जहाँ पर ज्योति के दर्शन होते हैं। जरा हृदय पर हथेली रखकर सोचिए-आजतक बहुत-से मंत्रें का पाठ किया, किन्तु क्या कभी ज्योति के दर्शन हुए? ज्योति-दर्शन कैसे होते हैं, इसका सही भेद जानिए। रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने लिखा है कि भगवान् श्रीराम ने अपनी प्रजा को स्वर्गसुख की स्वल्पता, नरतन की दुर्लभता, क्षणभंगुरता तथा उपादेयता का उपदेश करते हुए अंत में कहा था-
औरउ एक गुपुत मत, सबहिं कहउँ कर जोरि ।
संकर भजन बिना नर, भगति न पावै मोरि ।।
एक बहुत बड़े रामायणी पंडितजी भागलपुर शहर में आये थे। वे घूमते-घूमते कुप्पाघाट आश्रम आ गये। अपना परिचय देते हुए उन्होंने बतलाया कि वे रामायण बाँचने के लिए वहाँ आये थे। मैंने कहा-‘बड़ी कृपा की महाराज, आपने दर्शन देने की। कहिए, आपकी क्या सेवा की जाए?’ उन्होंने कहा-‘नहीं, ऐसे ही देखने के लिए आ गया।’ मैंने पूछा-‘आप तो रामायण-पारायण करते-करते उसमें पारंगत हो गये होंगे?’ उन्होंने गर्व से उत्तर दिया-‘हाँ, आप रामायण में जहाँ से जो कुछ पूछना चाहें, पूछ सकते हैं।’ मैंने पूछा-‘भगवान श्रीराम ने अपनी प्रजा को ‘गुप्त मत’ बतलाया था, वह क्या था?’ उन्होंने उत्तर दिया-‘हाँ-हाँ, यह तो रामचरितमानस के उत्तरकांड में है-‘औरउ एक गुपुत मत’। मैंने कहा-‘पंडितजी! यदि आप इसका अर्थ भी बतला देते, तो बड़ा अच्छा होता।’ उन्होंने कहा-‘हाँ, सुनिए, भगवान् श्रीराम मर्यादा पुरुषोत्तम थे। सबकी मर्यादा रखते थे। इसीलिए नम्रतापूर्वक प्रजा के सामने उन्होंने हाथ जोड़कर कहा है-मैं एक गुप्त बतला रहा हूँ कि शंकर-भजन किये बिना कोई भी मेरी भक्ति नहीं पा सकता।’ मैंने कहा-पंडितजी! तब तो इसका अर्थ यह है कि जो शंकर के भक्त नहीं होंगे, वे राम के भक्त नहीं हो सकते?’ उन्होंने कहा-‘हाँ, राम-भक्त बनने के लिए शंकर-भक्त तो बनना ही पड़ेगा।’ मैंने कहा-‘आप श्रीलक्ष्मणजी, बालिपुत्र अंगदजी, श्रीहनुमानजी को राम के भक्त मानते हैं? पंडितजी ने कहा-हाँ, क्यों नहीं, ये सब के सब राम के भक्त थे।’ मैंने कहा-‘इन लोगों ने तो लंका में जाकर रावण और मेघनाद को शंकर की चुनौती दी। यथा-
संकर सहस विस्नु अज तोही।
सकहिं ना राखि राम कर द्रोही ।।
जौं सत संकर करै सहाई।
तौ तोहि मारउँ राम दोहाई ।।
इस प्रकार भगवान शंकर को चुनौती देनेवाले भगवान श्रीराम के भक्त कैसे हो गये? और तो और, भगवान श्रीराम ने स्वयं शंकर को चुनौती दी है, यह कैसी बात हुई? यथा-
सुनु सुग्रीव मारिहऊँ, बालिहि एकहिं बान ।
ब्रह्म रुद्र सरनागत, गएँ न उबरिहिं प्रान ।।
यह सुनकर पंडितजी का माथा चकराया। उन्होंने कहा-‘हाँ, यह तो समझने की बात है।’ मैंने कहा-‘समझा दीजिए मुझको।’ उन्होंने कहा-‘इस पर मैंने मनन नहीं किया है। आपही प्रकाश डालने की कृपा करें।’ मैंने कहा-‘भगवान शंकर की बाह्य पूजा संसार में विदित है; लेकिन गुप्त मत क्या है? भगवान श्रीराम ने जो ‘कर जोरि’ शब्द का प्रयोग किया है, यहाँ ‘कर’ का अर्थ ‘हाथ’ नहीं, ‘किरण’ है। रामचरितमानस के आरंभ में गुरु-वंदना करते हुए गो0 तुलसीदासजी ने ‘कर’ शब्द का व्यवहार ‘किरण’ के लिए ही किया है। यथा-‘बन्दौं गुरुपद पंकज सेवा-------कर निकर।’ तथा विनय-पत्रिका में भी ‘रविकर नीर बसै अति दारुन मकर रूप ता माहीं---।’ इस प्रकार भगवान श्रीराम ने ‘कर’ शब्द का प्रयोग करके दृष्टि की युगल किरणों के मिलन का संकेत किया है। युगल नेत्रें की धाराओं के मिलन से तीसरी आँख खुलती है। भगवान शंकर ने यह भजन किया था। इसलिए भी इसको ‘शंकर- भजन’ कहा गया है। दूसरी बात-गोस्वामी तुसलीदास जी ने रामचरितमानस में तालव्य ‘श’ और दन्त्य ‘स’ में अंतर नहीं रखा है। यदि दन्त्य ‘स’ के ऊपर अनुस्वार देकर ‘संकर’ लिखते हैं, तो संकर शब्द का अर्थ क्या होता है-दो जातियों के मेल से जो संतान उत्पन्न होती है, उसको वर्णसंकर कहते हैं। यहाँ दो जातियों का मेल क्या है? दोनों तो एक ही जाति मानव हैं। स्त्री भी मानव जाति और पुरुष भी मानव जाति। लेकिन वर्णभेद के अनुसार जाति में अंतर है। इसी तरह संकर-भजन में दो जातियों का वर्णभेद है। एक बंगाली महात्माजी का वचन सुनिए-
बायें इड़ा नाड़ी दक्षिणे पिंगला
रजस्तमोगुणे करिते छे खेला ।
मध्य सत्त्वगुणे सुषुम्ना विमला,
धरऽ धरऽ ताँर सादरे ।।
इन दोनों इड़ा-पिंगला को मिलाओ। यद्यपि ये दोनों ही चेतन-धाराएँ हैं, फिर भी एक रजोगुणी और दूसरी तमोगुणी धारा है। एक निगेटिव है और दूसरी पोजिटिव। एक शीत धार है, दूसरी उष्ण धार। गुरु नानकदेवजी महाराज की वाणी में हम कह सकेंगे-
दिन महि रैणि रैणि महि दीनी
अरु उसन सीत विधि सोई।।
इन शीत और उष्ण धार को मिलाओ, यह शंकर-भजन है। शीत और उष्ण धार दोनों के मिलन से क्या होगा? बल्ब जलेगा? अंतःप्रकाश होगा, विमल ज्ञान का विकास होगा और विषय-वासना का विनाश होगा। इसी दिशा की ओर इंगित करते हुए गोस्वामीजी ने रामचरितमानस में लिखा है-
तब सिव तीसर नयन उघारा।
चितवत काम भयेउ जरि छारा।।
तीन आँखें हमें भी हैं और तीन आँखें शिवजी को भी। अंतर इतना ही है कि शिवजी ने उसका प्रथम उद्घाटन किया था, इसलिए उसका नाम पड़ा ‘शिवनेत्र’। हमलोग भी शिवजी की संतान हैं। हमलोग भी उसका उद्घाटन करें। जब यह तीसरी आँखें खुलती हैं, तभी ‘चितवत काम भयेउ जरि छारा’ होता है। आँख की निस्बत प्रभु ईसामसीह ने बाइबिल में कहा है-यदि तेरी आँख एक हो, तो तेरा सारा शरीर उजियाला होगा। दोनों आँखों की धारों को मिलाना ज्योति जलाने की कला है। जबतक अंतः प्रकाश की प्राप्ति नहीं होगी, स्वप्न में भी सुख नहीं मिलेगा। चाहे कितना भी ऊँचे-से-ऊँचा पद पा लो, कितनी भी प्रतिष्ठा पा लो; किन्तु शान्ति नहीं मिलेगी, सुख नहीं मिलेगा।
जब लगि नहिं निज हृदि प्रकास
अरु विषय आस मन माहीं ।
तुलसिदास जब लगि जग जोनि,
भ्रमत सपनेहुँ सुख नाहीं ।।
यह प्रकाश कहाँ मिलेगा और इसके प्राप्त होने से अन्य क्या लाभ है, गोस्वामी तुलसीदासजी के शब्दों में सुनिए-
जब ते राम प्रताप खगेसा ।
उदित भयउ अति प्रबल दिनेसा ।।
पूरि प्रकास रहेउ तिहुँ लोका ।
बहुतेन्ह सुख बहुतन मन सोका ।।
जिन्हहि सोक ते कहउँ बखानी ।
प्रथम अबिद्या निसा नसानी ।।
अघ उलूक जहँ तहाँ लुकाने ।
काम क्रोध कैरव सकुचाने ।।
बिबिध कर्म गुन काल सुभाऊ ।
ए चकोर सुख लहहिं न काऊ ।।
मत्सर मान मोह मद चोरा ।
इन्ह कर हुनर न कवनिहुँ ओरा ।।
धरम तड़ाग ग्यान बिग्याना ।
ए पंकज बिकसे बिधि नाना ।।
सुख सन्तोष बिराग बिबेका ।
बिगत सोक ए कोक अनेका ।।
यह प्रताप रबि जाकें, उर जब करइ प्रकास ।
पछिले बाढ़हिं प्रथम जे, कहे ते पावहिं नास ।।
जैसे दीपक के प्रकाश में फतिंगे जा-जाकर जलकर मर जाते हैं, उसी तरह अंदर के प्रकाश में सभी विकार जल-जलकर विनाश हो जाएँगे। आवश्यकता है अपने अंतःप्रकाश को पाने की। प्रकाश करने का यत्न क्या है, गुरु से जानो। नहीं तो भटकते रहोगे।
बिन दया संतन की मेँहीँ जानना इस राह को ।
हुआ नहीं होता नहीं वो होनहारा है नहीं ।।
(महर्षि मेँहीँ-पदावली)
एक तो अंतर्ज्योति की बात जानो और दूसरी अंतर्नाद की। संत चरणदासजी महाराज अंतर्नाद की महिमा इस भाँति गाते हैं-
जब से अनहद घोर सुनी।
इन्द्रिय थकित गलित मन हूआ आशा सकल भुनी ।।
अंतर्नाद की साधना से इन्द्रियाँ थक जाएँगी, मन गल जाएगा। विचारणीय विषय है कि इन्द्रियाँ विषयों में कैसे जाती हैं? मन की प्रेरणा से। जब नाद साधना से मन गल जाएगा, तब इन्द्रियों की विषयों में प्रेरित कौन करेगा? इस प्रकार अंतर्नाद की साधना से मन वशीभूत होता है और इन्द्रियों की चपलता छूटती है। नादविन्दूपनिषद् में लिखा है-
मनोमत्तगजेन्द्रस्य विषयोद्यानचारिणः।
नियामनसमर्थोऽयं निनादो निशितांकुशः।। 44।।
अर्थ-नाद मदान्ध हाथी-रूप चित्त को, जो विषयों की आनन्द-वाटिका में विचरण करता है, रोकने के लिए तीव्र अंकुश का काम करता है।
जो अंतर्ज्योति और अंतर्नाद की साधना करते हैं, उनके सारे विकार समूल नष्ट हो जाते हैं। लेकिन यह आरंभ की साधना में नहीं, सुनिष्पन्न अवस्था में होने की बात है। साधना-आरंभ-काल में मन की जो दशा होती है, उसका गोस्वामी तुलसीदासजी ने बड़ा ही अच्छा चित्रण किया है, उन्होंने रामचरितमानस में लिखा है-
विषयी साधक सिद्ध सयाने।
त्रिविध जीव जग बेद बखाने ।।
एक तो विषयी, दूसरे साधक और तीसरे सिद्ध होते हैं। जो विषयी होते हैं, उसकी उपमा दी गई है गुबरैले मक्खी से। गुबरैला मक्खी वह होती है, जो पाखाने की गोलियाँ बनाकर उनको इधर से उधर, उधर से इधर उलटाती-पुलटाती रहती है। निकट में ही फुलवाड़ी है, जिसमें सुंदर-सुंदर फूल खिले हैं, जो अपने सौरभ से आस-पास को सुरभित कर रहा है; लेकिन वह मक्खी उस बगीचे में नहीं जाएगी। उसी तरह निकट में ही सत्संग होता है; लेकिन विषयी आदमी वहाँ नहीं जाएगा। साधक की उपमा हमलोगों के घरों की मक्खियों से दी गई है। वह कभी मिठाइयों पर बैठकर उनका स्वाद लेती है, तो कभी विष्ठा पर बैठकर उसका भी। इसी प्रकार की स्थिति साधक की होती है। वह कभी भगवान का भजन करता है, तो कभी विषयों की ओर दौड़ता है। यह बहुत डाँवाडोल स्थिति है। तीसरे होते हैं सिद्ध। सिद्ध की उपमा मधुमक्खी से दी गयी है। वह जब बैठेगी, तो फूल का पराग ही लेगी। जिस तरह मधुमक्खी को फूल के पराग से अनुराग होता है, उसी तरह सिद्ध को भगवान के पद-पप्र-पराग में अनुराग रहता है। जो कोई नादानु- संधान की क्रिया करते हैं, उनका मन उनके वश में हो जाता है। संतमत-साधना के माध्यम से जो कोई चलेंगे, तो चलते-चलते एक दिन वे प्रभु को प्राप्त करेंगे, यह सुनिश्चित है। अभी आदरणीय डॉ0 रामजी बाबू ने कहा-संतमत की जो क्रिया है, संतमत की जो साधना है, संतमत का जो आचार-विचार है, उस आचार-विचार को यदि कोई व्यवहार में लावे, तो यह अनाचार-दुराचार, व्यभिचार कैसे होगा? हो ही नहीं सकता है। ये बातें उन्होंने बड़ी अच्छी और बिल्कुल सही कही है। वास्तव में एक पाप से भी वर्जित हो, तो कल्याण हो जाएगा। जैसे-संतमत में झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार का वर्जन है, तो इन पंच पापों में से यदि कोई झूठ नहीं बोले, तो कल्याण हो जाएगा। चोरी नहीं करे, तो कल्याण हो जाएगा। नशा नहीं ले, तो शरीर की बर्बादी नहीं होगी, जीवन की बर्बादी नहीं होगी। संत जन यह नहीं कहते कि नशा-सेवन नहीं करो, तो उससे जो पैसे बचे, वे हमको दो। पैसे बचेंगे, तो तुम्हारे पास रहेंगे। तुम उसको अपने पास रखो, अच्छे कार्य में लगाओ। हिंसा नहीं करो। आज क्या है-हिंसा प्रवृत्ति फैली हुई है। क्यों? इसलिए कि खान-पान का संयम नहीं है। आहार-विहार की नियमितता नहीं है। हमारे परम पूज्य गुरुदेव का अमोघ वचन है-
खान पान को प्रथम सम्हारो।
तब रस-रस सब अवगुण मारो।।
महात्मा गाँधीजी ने लिखा है-ब्रह्मचर्य-पालन करना कोई कठिन काम नहीं है; लेकिन कठिन हम उसको इसलिए बना देते हैं कि अन्य सब इन्द्रियों को तो खुली छोड़ देते हैं और एक इन्द्रिय जननेन्द्रिय को बाँधना चाहते हैं। मात्र शुक्र की रक्षा को ही वे ब्रह्मचर्य नहीं कहते थे। उन्होंने कहा है-ब्रह्मचर्य प्राप्ति के लिए जितने आवश्यक आचरणीय नियम हैं, उन सबका पालन ब्रह्मचर्य है। गृहस्थ होकर भी ब्रह्मचारी हो सकते हो। परिवार में रहकर-स्त्री-पुरुष पुत्र-पौत्र आदि के साथ रहकर भी ब्रह्मचारी बन सकते हैं। महात्मा गाँधीजी ने यह भी कहा-पशु चारागाह से भरपेट भोजन करके लौटना जानता है; लेकिन मनुष्य अपने पेट का अंदाजा नहीं जानता। यही कारण है कि मानव-जननेन्द्रिय से पशु जननेन्द्रिय अधिक संयमित होती है। जिसकी जिभ्या इन्द्रिय वश में नहीं है, उसकी जननेन्द्रिय कभी भी वश में नहीं हो सकती है। संत-वचन है-
जिभ्या इन्द्री एकै नाल ।
जो रोकै सो बाचै काल ।।
संत कबीर साहब ने कहा है-
खट्टा मीठा चरपरा, जिभ्या सब रस लेय ।
चारों कुतिया मिल गयी, पहरा किसका देय ।।
और भी-
घास पात जो खात है, ताहि सतावै काम ।
हलुआ पूड़ी खाय जो, ताकी जानै राम ।।
जो कोई संयमित जीवन बिताते हैं, आचर- णीय नियमों का पालन करते हैं, वे ही साधना में आगे बढ़ते हैं और उनको ही साधनानुभूति का रस मिलता है। एक बंगाली महात्मा ने कहा है-
आनन्दे आनन्द बाढ़े प्रतिक्षण ,
दशेन्द्रिय थाके शून्येते बन्धन ।
रिपुचय पराजय सकलि आनंदमय ,
अनुभव मात्र रय आर पाय सब लय ।
जेमन जीवने जीवन थाके ना ।।
इस स्थिति को प्राप्त करो। गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है-
ब्रह्म पियूष मधुर शीतल, जो पै मन सो रस पावै ।
तो कत मृग जल रूप, विषय कारन निसिवासर धावै ।।
जिसको ब्रह्म-पीयूष मिल जाएगा, ब्रह्म अमृत मिल जाएगा, वह विषय-विष-पान करने क्यों जाएगा! अरे! जो लाखपति बन जाएगा, वह खाक छानने क्यों जाएगा? जो करोड़पति बन जाएगा, वह कौड़ी चुनने क्यों जाएगा अर्थात् ब्रह्म-रस पानेवाला विषय-रस की ओर नहीं जाएगा।
संतमत पंच पापों से विरत और एक ईश्वर-चरण में अनुरक्त रहने के लिए बतलाता है, सत्संग करने और सदाचार का पालन करने के लिए बतलाता है। साथ ही संतमत की शिक्षा है-परमुखापेक्षी मत बनो और जीवन-यापन के लिए पवित्र कमाई अवश्य करो। यह संतमत की थोड़ी-सी शिक्षा आपलोगों से कही।
(भागलपुर विश्वविद्यालय पुस्तकालय के प्रांगण, दिनांक 1-1-1989 ई0 प्रातःकालीन सत्संग)
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सृष्टि की ओर दृष्टि करने से इस विषय की परिपुष्टि हो जाती है कि सृष्टि-विकास-क्रम सूक्ष्मता से स्थूलता की ओर हुआ है। पूर्व का पदार्थ पश्चात् के पदार्थ से सूक्ष्म होता है और सूक्ष्म अपने से स्थूल में व्यापक होकर अपना मंडल ऊपर रखता है। उदाहरणार्थ हम स्थूल जगत के पाँच तत्त्वों-गगन, पवन, अनल, जल और स्थल पर विचार करें।
इन पाँच तत्त्वों में सबसे पूर्व का आकाश तत्त्व मानना अनिवार्य होता है; क्योंकि अवकाश के बिना किसी वस्तु का रहना असंभव है। यही हेतु है कि आकाश अपने बाद के चार तत्त्वों-अनिल, अनल, जल और स्थल में व्यापक होकर इन सबसे ऊपर अवस्थित है। इसी भाँति अनिल तीन तत्त्वों-अनल, जल और स्थल में, अनल दो तत्त्वों-जल और स्थल में तथा जल मात्र स्थल में व्यापक होकर अपना मंडल ऊपर रखता है।
इस विषय को अति सरलतापूर्वक हम इस प्रकार समझ सकते हैं। थोड़ी-सी मिट्टी को पानी में घोलकर एक शीशे के गिलास में रख दें। कुछ घंटों के बाद हम देख पाएँगे कि मिट्टी का अंश गिलास के पेंदे में जमा है और उसके ऊपर वारि विराजित है। इसका मतलब यह नहीं कि अहि में अप नहीं है, बल्कि क्षिति में अप व्यापक होकर अपना अस्तित्व ऊपर भी रखता है।
इस दृष्टि से आकाश से पूर्व पदार्थ का उसमें व्यापक होकर उससे ऊपर रहना अस्वाभाविक नहीं।
अब हमें देखना है कि व्योम के पूर्व का क्या-क्या पदार्थ है तथा वह कैसा-कैसा है?
संत सुन्दरदासजी ने इसकी क्रमिक अभिव्यंजना बड़ी उत्तमता से की है; यथा-
भूमि पर अप आपहू के, परे पावक है ।
पावक के परे पुनि, वायुहू बहत है ।।
वायु के परे व्योम, व्योमहू के परे इन्द्री दश ।
इन्द्रिन के परे, अन्तःकरण रहत है ।।
अन्तःकरण पर, तीनों गुण अहंकार ।
अहंकार पर, महतत्त्व कूँ लहत है ।।
महतत्त्व पर मूल माया, माया पर ब्रह्म ।
ताहितें परातपर, सुन्दर कहत है ।।
यह संत-वचन सोचने के लिए बाध्य करता है कि परमात्म-स्वरूप कैसा होगा-स्थूल, सूक्ष्म, सूक्ष्मतर वा उसके भी परे सूक्ष्मतम होगा?
सद्ग्रंथों में परमात्म-स्वरूप की उपमा कहीं गगन से, तो कहीं पवन से दी गई है; यथा-मण्डल- ब्राह्मणोपनिषद् के चतुर्थ ब्राह्मण में पाँच आकाशों की चर्चा करते हुए ऋषि ने पंचम आकाश की ओर संकेत किया है। संत कबीर साहब इससे पूरे सहमत हैं, वे कहते हैं-
नौबत घरत है रैन दिन सुन्न में, कहै कबीर पिउ गगन गाजै।
गुरु नानकदेवजी कृत प्राण संगली भाग-1 में हम इस प्रकार पाते हैं-
गगनंतरि गगन गवन करि फि़रै । जाय त्रिवेणी मंजनु करै ।।
सहज निरंतर धारै धिआनु । नानक ऐसा ब्रह्म गिआनु ।।
महर्षि मेँहीँ-पदावली में है-
प्रभु वरनन में आवै नाहीं ।
अकथ अनामी अहैं सब माहीं ।।
प्रति परमाणु अणु लघु दीर्घ सर्व तनु ।
प्रभु जी व्यापक जनु गगन रहाहीं ।।
कठोपनिषद्, अध्याय 2, वल्ली-5, श्लोक 10 में यम ने नचिकेता को उपदेश दिया है-
वायुर्यथैको भुवनं प्रविष्टो रूपं रूपं प्रति रूपो बभूव ।
एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा रूपं रूपं प्रतिरूपो बहिश्च ।।
अर्थात् जिस प्रकार इस लोक में प्रविष्ट हुआ पवन प्रत्येक रूप के अनुरूप हो रहा है, उसी प्रकार सम्पूर्ण भूतों का एक ही अन्तरात्मा प्रत्येक रूप के अनुरूप हो रहा है और उनसे बाहर भी है।
हम देखते हैं-फुटबॉल में हवा का रूप गोला- कार, गाड़ी के चक्के में चक्राकार और लम्बे बैलून में लम्बाकार होता है। तो प्रश्न होता है-हवा का रूप गोलाकार है, चक्राकार है अथवा लम्बाकार? वास्तव में हवा का रूप इन सब रूपों से भिन्न अरूप है।
इसी भाँति परम प्रभु परमात्मा सब रूपों में व्यापक रहकर सबसे भिन्न अरूप है, अव्यक्त है। इस विषय में संतों की भरपूर वाणियाँ हैं। उदाहरणार्थ यहाँ कुछ वाणियाँ उपस्थित की जाती हैं-
है सबमें सब ही तें न्यारा ।
जीव जन्तु जल थल सब ही में, शब्द वियापत बोलनहारा ।।
-संत कबीर साहब
एक महि सरब सरब महि एका, एह सतगुर देखि दिखाई ।
जिनि कीए खंड मण्डल ब्रह्मण्डा, सो प्रभु लखनु न जाई ।।
तथा-
बाहरि भीतरि एको जानहु, इहु गुरु ज्ञान बताई ।
जन नानक बिन आपा चीन्हे मिटै न भ्रम की काई ।।
-गुरु नानक देवजी
प्रकृति पार प्रभु सब उरवासी ।
ब्रह्म निरीह विरज अविनासी ।।
-गो0 तुलसीदासजी
फ़ूलि रह्यो सब ठाँव तो धारनि अकास में ।
सो त्रिभुवन पतिनाथ निरखि लियो आप में ।।
-संत केशवदासजी
फ़ूल माहिं ज्यों वास काठ में अगिन छिपानी ।
खोदै बिनु नहिं मिलै अहै धारती में पानी ।।
दूधा मँहै घृत रहै छिपी मिंहदी में लाली ।
ऐसे पूरण ब्रह्म कहूँ तिल भर नहिं खाली ।।
-संत पलटू साहब
हम इन आँखों से फूल को देखते हैं; किन्तु उसमें व्यापक वास को नहीं। काठ को देखते हैं, किन्तु उसमें व्यापक आग को नहीं। पृथ्वी को देखते हैं; किन्तु उसमें अन्तर्निहित पानी को नहीं। मेंहदी को देखते हैं; किन्तु उसके अन्दर छिपी लाली को नहीं।
इसी भाँति बाह्य जगत की वस्तुओं को हम देखते हैं; किन्तु उसमें व्यापक ब्रह्म को नहीं। हमारी नेत्र-शक्ति इतनी क्षीण है कि जागतिक सभी वस्तुओं को भी कहाँ देख पाते हैं? क्या गगन और पवन को इस नयन से हम निहार सकते हैं? यदि नहीं तो विश्व में व्यापक ब्रह्म को इन नेत्रें से ग्रहण करने की भावना कितनी भ्रामक है!
हमारा सुप्रसिद्ध ग्रंथ सामवेद स्पष्ट कहता है-
ओ३म् स योजत उरुगायस्य जूतिं वृथा क्रीडन्तं मिमिते न गावः।
परीणसं कृणुते तिग्म शृंगो दिवा हरिर्ददृशे नक्तमृज्रः।।
अर्थात् इस मंत्र के द्वारा वेद भगवान उपदेश करते हैं कि हे मनुष्यो! हाथ, पैर, गुदा, लिंग, रसना, कान, त्वचा, आँखें, नाक और मन-बुद्धि आदि इन्द्रियों के द्वारा ईश्वर को प्रत्यक्ष करने की चेष्टा करनी, झूठ ही एक खेल करना है; क्योंकि इनसे वह नहीं जाना जा सकता, वह तो इन्द्रियातीत है।
(शान्ति-सन्देश, जनवरी, 1989 ई0)
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भक्ति क्या है? संत कबीर साहब ने कहा-
“ भक्ति निसेनी मुक्ति की, संत चढ़े सब धाय ।
जिन-जिन मन आलस किया, जनम जनम पछताय ।।
लख चौरासी भटकि के, पौ पर अटके आय ।
अबहूँ पासा ना पड़ै, फिर चौरासी जाय ।।”
चौपड़ एक खेल होता है, जिसमें चौरासी कोठे होते हैं। चार गोटियाँ होती हैं। कौड़ियाँ भाँज-भाँज कर उलटाते हैं। जितनी कौड़ियाँ चित होती हैं, एक-एक गोटी उसी क्रम से उतने घर चलती है। चलते-चलते 83 घर पार करके जब 84वें कोठे में वह गोटी आती है, उस घर का नाम है-पौ। अब यदि कहीं एक कौड़ी चित हो जाए, तो गोटी लाल हो जाती है। उसको कहते हैं-पौ बारह। कहीं एक कौड़ी चित नहीं हुई, दो, तीन वा चार कौड़ियाँ चित हो गयीं, तो वह गोटी आगे नहीं बढ़ सकती, बल्कि क्रमशः 2-3-4 कोठे पीछे उलटते हुए, उसको पुनः उलटते हुए उसको पुनः चौरासी कोठे तय करने होते हैं। इस प्रकार घूमते-घूमते जब कभी 84वें घर में वह गोटी जाएगी और एक कौड़ी चित होगी, तभी वह गोटी लाल होगी। कहने का मतलब यह कि संत कबीर साहब कहते हैं-84 लाख योनियों में भटकते-भटकते, घूमते-घूमते मनुष्य-शरीर रूप पौ पर तुम आ गये हो। जिस तरह एक कौड़ी चित होती है, तो गोटी लाल हो जाती है, उसी तरह तेरा चित एक हो, प्रभु में लग जाए, तो तेरा मानव-जीवन सार्थक हो जाएगा। (श्रोतागण की ओर से जय-जयकार की ध्वनि।)
कहीं तुम्हारा एक चित नहीं हुआ, तब तो बात विचित्र हो जाएगी। फिर चौरासी लाख योनियों में घूमना पड़ेगा। इस प्रकार घूमते-घूमते फिर जब कभी मनुष्य-शरीर में आ पाओगे, एक चित कर पाओगे, ईश्वर की भक्ति करोगे, ईश्वर को पाओगे। अपना परम कल्याण बना सकोगे।
सामान्यतया लोग जिसको भक्ति की संज्ञा देते हैं, वास्तव में वह भक्ति नहीं है। संत कबीर साहब कहते हैं-‘भक्ति सतोगुर आनी।’
संत सद्गुरु की बताई हुई भक्ति की जो विधि होती है, युक्ति होती है, वह भिन्न ही है। तुम अपने मन से जो कर रहे हो, वह तो उससे सर्वथा भिन्न ही है। वास्तविकता वहाँ है, जो संत सद्गुरु बतलाते हैं। ‘भक्ति सतोगुरु आनी’ क्या है? उत्तर में वे कहते हैं-
“ नारी एक पुरुष दुइ जाया, बूझो पंडित ज्ञानी ।
पाहन फोड़ गंग एक निकसी, चहुँ दिशि पानी-पानी ।
तेहि पानी दोउ पर्वत बूड़े, दरिया लहर समानी ।।
उड़ि माखी तरुवर के लागे, बोलै एकै बानी ।
उस माखी के माखा नाहीं, गरभ रहा बिन पानी ।।
नारी सकल पुरुष वा खाया, तातें रहा अकेला ।
कहे कबीर जो अबकी समझे, वही गुरु हम चेला।।”
यह कौन-सी नारी है? जड़ात्मिका मूल प्रकृति- रूपा नारी है, जिसने ब्रह्म और जीवरूप दो पुरुषों को उत्पन्न किया और यह ‘पाहन’ क्या है? पहाड़ क्या है? पत्थर क्या है? आँखें बंद करके देख लो, काला पहाड़ तुम्हारे सामने है। इसी को तुलसी साहब ने कहा है-
“ सम सील लील अपील पेलै,
खेल खुलि-खुलि लखि पड़ै ।”
जो शम की साधना करेगा, वह उस नील पर्वत को काटकर निकल जाएगा। इसी विषय को हमारे गुरुदेव ने इस भाँति कहा है।
‘बज्र कपाट खुलै तम टूटै, ब्रह्म ज्योति झलकान ।’
और गुरु नानकदेवजी ने कहा-
‘बजर कपाट मुकते गुरमती निरभै ताड़ी लाई ।’
यह अंधकार वज्र कपाट है, पहाड़ है। इसको जो कोई छेदता है, तो स्थूल जड़ता को पार कर जाता है। वहाँ वह क्या देखता है? ‘चहुँ दिशि पानी- पानी’ अर्थात् प्रकाश-ही-प्रकाश को देखता है।
‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ हो जाता है। पश्चात् नादानुसंधान की साधना कर शुद्ध निर्मल सुरत जड़ के सूक्ष्म, कारण और महाकारण को पार कर चेतन-सिन्धु में समा जाती है, जहाँ चेतन-ही-चेतन है, जिसके परे चेतन को भी सचेतन रखनेवाला परम प्रभु परमात्मा है। यह भक्ति का भेद है। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने कहा-ईश्वर का भजन तुम करना चाहते हो, तो ‘तीन अवस्था तजहु भजहु भगवन्त’ अर्थात् तीन अवस्था यानी जाग्रत की, स्वप्न की और सुषुप्ति की। इन अवस्थाओं का त्याग करो, चौथी में जाओ। यह तुरीय अवस्था है। भक्ति का आरम्भ यहाँ से होता है। संत कबीर साहब ने कहा है-
“ भक्ती का मारग झीना रे ।।टेक।।
नहिं अचाह नहिं चाहना, चरनन लौ लीना रे ।।”
गुरु नानक साहब के वचन में आया है-
“ भगता की चाल निराली ।
चाल निराली भगताह केरी, विखम मारगि चलणा ।।
लबु लोभु अहंकारु तजि त्रिसना, बहुतु नाहीं बोलणा ।।”
बहुत बोलता कौन है? अरे, घड़ा तबतक भक्-भक् बोलता है, जबतक भरता नहीं है। जब घड़ा भर जाता है, तब वह चुप हो जाता है। इसी तरह जबतक कोई ज्ञान में पूर्ण नहीं हुआ है, तबतक वह बक-बक करता है। जब ज्ञान में पूर्ण हो जाता है, तब चुप हो जाता है। परम पूज्य गुरुदेव के वचन में हम पाते हैं-
“ मेँहीँ मेँहीँ भेद यह, सन्तमता कर गाइ ।
सबको दिया सुनाय कर, अब तू रहे चुपाइ ।।”
‘चुप’ यानी ‘निशब्दं परमं पदम्’ हो जाता है। जिन्होंने साधना की, उनकी यह बात है। साधना की अनुभूति है, पढ़ी-सुनी बात नहीं। सूक्ष्म ध्यान-सूक्ष्ममार्ग के संदर्भ में गुरु नानक साहब की वाणी में हम कह सकेंगे-
‘खंनिअहु तीखी बालहु नीकी एतु मारगि जाणा ।’
इसी विषय में यमराज ने नचिकेता से कहा था, जो कठोपनिषद् में लिखा है-
“ उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत ।
क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति ।।”
अरे अविद्याग्रस्त लोगो ! उठो, (अज्ञान-निद्रा से) जागो और श्रेष्ठ पुरुषों के समीप जाकर ज्ञान प्राप्त करो। जिस प्रकार क्षुरे की धार तीक्ष्ण और दुस्तर होती है, तत्त्वज्ञानी लोग उस मार्ग को वैसा ही दुर्गम बतलाते हैं। कोई कहता है-ईश्वर के पास जाने के अनेक रास्ते हैं। जैसे भागलपुर एक स्थान पर है। चारो तरफ से वहाँ तक पहुँचने के रास्ते हैं; लेकिन परमात्मा उस तरह नहीं हैं। परमात्मा किस तरह हैं? संतों ने कहा-वह तुम्हारे अंदर भी है और बाहर भी है। कहाँ से आओ और कहाँ जाओ? कहाँ वह नहीं है! वह सर्वत्र है। कोई भी दिशा ऐसी नहीं है, जहाँ वह नहीं है। लेकिन हमारे लिए संत कबीर साहब वाली उक्ति चरितार्थ होती है।
“ पानी बीच मीन प्यासी,
मोहि सुनि-सुनि आवत हाँसी ।”
जिस तरह मछली के चारो ओर पानी-ही -पानी है, उसी तरह हमारे चारो ओर भगवान-ही- भगवान है, परमात्मा-ही-परमात्मा है। समस्या यह है मछली के चारो ओर पानी रहने पर भी वह जबतक उलटती नहीं, पानी नहीं पी सकती। उसी भाँति जीव जबतक अंतर्मुखी नहीं हो जाता, पीव को नहीं पा सकता। इसलिए बहिर्मुख से अंतर्मुख होने का यत्न संतों से जानिये। अवश्य ही भागलपुर स्टेशन तक पहुँचने के लिए सब दिशाओं से विविध सवारियों से जा सकते हैं। चाहे बैलगाड़ी से जाइये, चाहे रिक्शे से जाइये, चाहे टमटम से जाइये, किसी भी सवारी से जाइये। लेकिन वहाँ पर जो आपको तिनसुकिया मेल गाड़ी मिलेगी, वह सीधे आपको दिल्ली पहुँचा देगी। उसी तरह आज्ञाचक्र तक पहुँचने के लिए आप शिव की उपासना कीजिए, शक्ति की उपासना कीजिए, गणेश की उपासना कीजिए, गुरु की उपासना कीजिए। जिस किसी इष्ट की भी उपासना कीजिए, इन उपासनाओं के माध्यम से आप वहाँ पर जाएँगे, जहाँ आपको योग्यता मिलेगी दृष्टियोग के द्वारा आज्ञाचक्र में प्रवेश करने की। आज्ञाचक्र से जो रास्ता मिलेगा, उस रास्ते से आप सीधे प्रभु के पास चले जाइएगा। अरे! शेरशाह जब बादशाह बना तो उसने कलकत्ता से लेकर दिल्ली तक जी0टी0 रोड बना दी। तो दिल्ली के बादशाह ने यहाँ से वहाँ तक ग्रैंडट्रंक रोड बना दी और जो दिल-दिल में बसनेवाले संपूर्ण संसार के बादशाह हैं, उन्होंने भक्तों को अपने पास आने के लिए क्या कोई रास्ता नहीं बनाया? अवश्य बनाया। उनके पास जाने के लिए भी सड़क बनी हुई है। दुनिया की सड़क तो टूट-फूटकर जहाँ-तहाँ खतम भी हो जाती है; लेकिन वह सड़क तो जबसे बनी है, तबसे है ही और जबतक सृष्टि रहेगी, तबतक रहेगी। वह सड़क सबके अंदर-अंदर है। संत कबीर साहब ने कहा है-
“ तेरो को है रोकनहार, मगन से आव चली ।।टेक।।
पाँच पचीस करे बस अपने, करि गुरु ज्ञान छड़ी ।
अगल बगल के मारि उड़ाये, सनमुख डगर धरी ।।”
वास्तव में आज्ञाचक्र से परम प्रभु परमात्मा के पाने का पथ आरंभ है। कोई भगवती की उपासना करते हैं, तो कोई देवी की। कोई राम की, तो कोई कृष्ण आदि की। इस प्रकार अनेक इष्ट-उपासी होने के कारण लोग ईश्वर पाने के बहुत रास्ते कहते हैं। लेकिन ये बहुत-से रास्ते नहीं हैं, बल्कि रास्ते को पकड़ने के साधन हैं।
पहले सामान्य जोड़, घटाव, गुणा, भाग सीखो, फिर मिश्र जोड़, घटाव, गुणा, भाग सीखो। फिर भिन्न का जोड़, घटाव, गुणा, भाग सीखो, फिर दशमलव का जोड़, घटाव, गुणा, भाग सीखो और तब अलजबरा सीखो। अगर जीवन भर सामान्य जोड़, घटाव, गुणा, भाग सीखते रहोगे, तो फिर अलजेबरा कब सीखोगे, कॉलेज कब जाओगे, फिर आगे का नॉलेज कब होगा? इसीलिए संतों ने पहले स्थूल भक्ति बतायी है। जैसे वर्णमाला के विद्यार्थी को चित्र के द्वारा अक्षर का ज्ञान कराया जाता है-‘अ’ से अनार, वैसे ही अध्यात्म-ज्ञान के लिए आरंभ में स्थूल नामरूप का अवलंब दिया जाता है। पश्चात् उस अक्षर का ज्ञान कराया जाता है, जिसके लिए शास्त्र में कहा गया है-‘न क्षरति इति अक्षरः।’ संत राधास्वामी साहब ने कहा है-
“ मोटे बन्धन जक्त के, गुरु भक्ति से काट ।
झीने बन्धन चित्त के, कटें नाम परताप ।।
मोटे जब लग जायँ नहिं, झीने कैसे जायँ ।
ताते सबको चाहिये, नित गुरु भक्ती कमायँ ।।”
और-
“ सुरत शब्द एक अंग कर, देखो विमल बहार ।
मध्य सुखमना तिल बसे, तिल में ज्योति अपार ।।”
इस तिल को पकड़ो। जो कोई ज्योतिर्मय उस तिल को पकड़ता है, वह उस बिल में प्रवेश कर जाता है, जिस होकर चलते-चलते एक दिन परम प्रभु से मिल जाता है। उस छेद को जानो। उस छेद के भेद को संत सद्गुरु से जानो। संत कबीर साहब ने कहा है-
“ गुरुदेव के भेद को जीव जानै नहीं ,
जीव तो आपनी बुद्धि ठानै ।
गुरुदेव तो जीव को काढ़ि भव सिन्धु तें ,
फेरि लै सुक्ख के सिन्धु आनै ।।
बंद कर दृष्टि को फेरि अन्दर करै ,
घट का पाट गुरुदेव खोलै ।
कहै कबीर तू देख संसार में ,
गुरुदेव समान कोइ नाहिं तोलै ।।”
ऐसे संत सद्गुरु की शरण में जाओ, जो तुमको इसका भेद बतलावे। उस भेद को जो कोई पा लेता है, वह अंधकार को छेद देता है।
इसके देखने के लिए तीन दृष्टियाँ बतायी गयी हैं-अमादृष्टि, प्रतिपदा दृष्टि और पूर्णिमा दृष्टि। पूर्णिमा दृष्टि और प्रतिपदा दृष्टि में आँखों में कष्ट होता है। लेकिन अभ्यास करते-करते लोग अभ्यस्त हो जाते हैं, तो सरल हो जाता है। सबसे सुगम, सरल और आपदाहीन है अमादृष्टि। भगवान बुद्ध की ध्यानकालिक मूर्ति को आप देखेंगे, तो पायेंगे कि वे आँखें बंद करके ध्यान करते हैं। यह अमादृष्टि है। शिवजी के ध्यानावस्थित चित्र को आप देखेंगे, तो उनकी आधी आँखें खुली पाएँगे। यह प्रतिपदा दृष्टि है। इसको शांभवी मुद्रा कहते हैं। विष्णु भगवान तो निर्निमेष हैं। उनकी पूरी आँखें खुली होती है। इसलिए पूरी आँखें खोलकर ध्यान करने को वैष्णवी मुद्रा कहते हैं। पूरी आँखें खोलकर या आधी आँखें खोलकर साधना करने से मस्तिष्क पर और आँखों पर भी अधिक बल पड़ता है। आँखें बंद करके तो हम सोते ही हैं। इसमें कोई बल नहीं पड़ता। व्यासदेवजी की मूर्ति को देखिये, आँखें बंद करके वे ध्यान करते हैं। शमीक मुनि का चित्र देखिये, जिनके गले में राजा परीक्षित ने मरा हुआ साँप डाला था, वे भी आँखें बंद करके ध्यान करते थे। आँखें बंद करके ध्यान करने में एक लाभ यह भी होता है कि आँखें खोलकर ध्यान करने से जो दृश्य हमारे सामने आते हैं, उनका नया संस्कार जो हमारे ऊपर पड़ता है, आँख बंद करके ध्यान करने पर नया संस्कार नहीं पड़ता। इसलिए आँखें बंद करके ध्यान करने की प्रक्रिया ही अधिक स्वाभाविक और समीचीन जान पड़ती है। यही हमलोगों को बतलायी भी गयी है। आँखें बंद करके पहले मानस जप कीजिए, पश्चात् मानस ध्यान कीजिए। तत्पश्चात् दृष्टि साधन कीजिए। यदि संत सद्गुरु का आदेश प्राप्त हो, तो तदुपरान्त नादानुसंधान कीजिए। संत कबीर साहब के वचन में है-
“ बंद कर दृष्टि को फेरि अंदर करै,
घट का पाट गुरुदेव खोलै ।”
हमारा काम आँखें बंद करके चित्तवृत्ति का निरोध करना और अपने को लक्ष्य पर ठहराना है। घट का पाट खोलना गुरुदेव का काम है। जैसे सात्विक भोजन करना यह हमारा काम है; लेकिन मल-मूत्र आदि गंदगियों के निकालने का काम हमारा नहीं, किसी और का है। उसी तरह सद्गुणों को धारण करना हमारा काम है और हमारे दुर्गुणों को दूर करने का काम हमारे संत-सद्गुरु का है। वास्तविक बात तो यह है कि यदि हम अपने को सद्गुणों से भरते जाएँगे, तो दुर्गुण रहेंगे कहाँ? अतएव अपने को सद्गुणों से भरते चलिए, दुर्गुण निकलते जाएँगे।
हाँ, तो मैं दृष्टियोग के संबंध में कह रहा था। दृष्टियोग की क्रिया में पूर्णता प्राप्त कर लेने पर नादानुसंधान की क्रिया की जाती है। जबतक दृष्टि- साधन की क्रिया पूर्ण नहीं हो, तो नादानुसंधान की क्रिया में सफलता मिलनी कठिन होती है।
यह प्रवचन प्रातःकालीन सत्संग के अवसर पर दिनांक-12-3-1989 ई0, स्थान: मिर्जापुर, जिला- भागलपुर में हुआ था। (शान्ति-सन्देश, मई 1889)
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आप जब किसी अस्पताल में जाकर देखें कि वहाँ लोगों की भीड़ अधिक है, तो आप यह समझें कि उस क्षेत्र के लोगों के शारीरिक स्वास्थ्य का पतन हो चुका है। यदि आप कचहरी में लोगों की भीड़ देखें, तो आप यह समझें कि उस क्षेत्र के लोगों का नैतिक पतन हो चुका है। यदि आप सिनेमाघरों में लोगों की अधिक भीड़ देखें, तो आप यह समझें कि उस क्षेत्र के लोगों का चारित्रिक पतन हो चुका है। लेकिन सत्संग के नाम पर इस तरह की उमड़ती भीड़ आप देखें, तो यह समझें कि उस क्षेत्र के लोगों की आध्यात्मिक उन्नति हो रही है। तो मैं आपलोगों की आध्यात्मिक उन्नति देखकर बहुत प्रसन्न हुआ हूँ। और मैं आपलोगों को बहुत-बहुत धन्यवाद देता हूँ तथा परम प्रभु परमात्मा से आपलोगों की शुभ उन्नति के लिए प्रार्थना करता हूँ। (श्रोतागण की ओर से जय-जयकार का नारा)।
अभी आपलोग शाही स्वामीजी के प्रवचन सुन रहे थे। मैं समझता हूँ कि शाही स्वामीजी के शाही फरमान से आपलोगों की अरमान पूरी हो गयी होगी, फिर भी आपलोगों का ध्यान मेरी ओर है, इसलिए कुछ व्याख्यान देना या आख्यान सुनाना मैं आवश्यक नहीं समझता हूँ। अभी बहुत-सी कथाओं को सुनते-सुनते मेरे मन में भी कथा कहने की इच्छा जाग्रत हुई; लेकिन सोचा ऐसी कथा, जिससे भव-व्यथा दूर न हो, कहानी वृथा है। सोचा, कुछ इतिहास ही आपलोगों को सुनाऊँ; लेकिन वह इतिहास जिससे किसी का परिहास या उपहास हो, कहना भी उचित नहीं है। तो मैंने मन में निर्णय किया कि आपलोगों को मैं एक घटना ही सुनाऊँ; लेकिन वह घटना बिहार की राजधानी पटना की नहीं है। स्वदेश की नहीं, बात विदेश की है। और अर्वाचीन नहीं, प्राचीन है। लेकिन चीन की नहीं, जापान की है।
जापान में एक महात्मा अपने आसन पर आसीन थे। एकाएक उनके पास एक नवयुवक आता है, जिसके चेहरे पर जवानी का पानी चढ़ा हुआ था। वास्तव में चेहरा भी बहुत लासानी था। आसानी से वह साधु के पास पहुँच गया। जवान तो वह जरूर था; लेकिन उसकी जबान में लगाम नहीं था। हाँ, जिसको आजकल लोग ‘हीरो’ कहा करते हैं। ‘हीरो’ कहने का मतलब-जो अध्यात्म में बिल्कुल जीरो हो। बस, वैसा ही वह था। ऐसे लोग प्रणम्य जन को भी प्रणाम नहीं करते; क्योंकि प्रणाम करने में वे पाप समझते हैं, चाहे उनका बाप ही क्यों न हो! वह आते ही मूँछ पर हाथ देकर वह पूछ बैठा, ‘महात्मन्! स्वर्ग और नरक क्या है?’ महात्माजी ने उस नवयुवक को ऊपर-नीचे और नीचे-ऊपर तक देखकर पूछा, ‘पहले बताओ, तुम हो कौन?’ नवयुवक ने कहा, ‘मैं फौज का लेफ्रिटनेंट हूँ।’ महात्माजी ने पुनः उसे आपादमस्तक देखा और कहा, ‘तुम अपने को फौज का लेफ्रिटनेंट बतलाते हो; लेकिन मेरे विचार में तो लेफ्रिटनेंट के असिस्टेंट के सर्भेंट होने योग्य भी नहीं हो। फिर क्या था उस नवजवान की क्रोधाग्नि भड़क उठी और उसने म्यान से तलवार निकालकर महात्माजी के सर को धड़ से अलग कर धरा पर धर देना चाहा। लेकिन तलवार के वार को महात्माजी ने सँभाल कर कहा, ‘अच्छा! तेरे पास तलवार भी है। लेकिन तेरी तलवार तो एक तिनके को भी नहीं काट सकती, फिर मेरे तन की तो बात ही क्या है!’ जैसे आग में घी डाला जाए, उसी तरह महात्माजी का वचन उसकी क्रोधअग्नि में घी के रूप में पड़ गया। पुनः उस नवयुवक ने क्रोधित होकर दुबारा वार करना चाहा। महात्माजी ने पुनः उसकी तलवार को पकड़कर प्रेम से कहा, ‘वत्स! मैं तो तुम्हारे प्रश्नों का उत्तर दे रहा था। तुम देश के भावी युवक हो, तनिक-सी बात में तुनक जाना तुम्हारे लिए शोभनीय नहीं। तुमने मुझसे पूछा था-नरक और स्वर्ग क्या है? अभी तुम नरक के द्वार पर हो; क्योंकि जब जिसके हृदय से दया निकल जाती है, काम-क्रोधादिक किसी विकार का जब शिकार हो जाता है, दम्भ, दर्प, अभिमान, निष्ठुरता एवं अहंता से घिर जाता है, तब वह नरक के द्वार पर खड़ा होता है। गोस्वामीजी ने रामचरितमानस में लिखा है-‘काम क्रोध मद लोभ ये नाथ नरक के पंथ।’ तथा श्रीमद् भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण के ये वाक्य हैं-
“ त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः ।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत् त्रयं त्यजेत् ।।”
गीता, 16/21
पढ़ा-लिखा तो वह था ही, संत-वचन सुनते ही वह महात्माजी के श्रीचरणों में अपना सिर रख दिया और अपने अश्रुजल से उनके चरणों को धोने लगा। पहले हृदय में क्रोध की आग लगी थी न! अब वह पश्चाताप के कारण वाष्प, फिर जल बनकर महात्माजी के युगल चरण-कमल का प्रक्षालन करने लग गयी। महात्माजी ने उनकी विनयशीलता देखकर उसकी पीठ पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘वत्स! अब तुम स्वर्ग के द्वार पर हो। तुम्हारे हृदय की क्रूरता चली गयी, निष्ठुरता चली गयी, अहंता चली गयी। कर्तव्याकर्तव्य को, जो तुम भूल गये थे, समझने लगे। तुम्हारी तमोगुणी वृत्ति सतोगुणी वृत्ति में परिणत हो गयी। अब तुम स्वर्ग के द्वार पर हो। इस प्रकार नरक और स्वर्ग का ज्ञान महात्माजी ने उस युवक को दिया। यह बात तो विदेश की हुई। अब आप स्वदेश की बात सुनिये, गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज कहते हैं-
“ नरक स्वर्ग अपवर्ग निसेनी ।
ज्ञान विराग भगति सुख देनी ।।”
अर्थात् इस शरीर में स्वर्ग, नरक और मोक्ष में जाने की सीढ़ी लगी हुई है। मानव-शरीर ज्ञान, विराग और भक्ति-सुख देनेवाला है। तात्पर्य यह कि इसमें नरक जाने की निसेनी, स्वर्ग जाने की सीढ़ी और नजात में जाने का जीना लगा हुआ है। अब अपने लिए हम निर्णय करें कि जाना कहाँ है-नरक में, स्वर्ग में या मोक्ष में? जिस तरह ईंटों के भट्ठे से चाहे हम देव-मंदिर बना लें, अपने रहने का मकान बना लें अथवा शौचालय बना लें, उसी तरह यह शरीर हमलोगों को मिला हुआ है। जिस तरफ हम जाना चाहें, जा सकते हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता में ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते’ कहकर कर्म करने की स्वतंत्रता दे दी है। मान लीजिए, एक पिस्तौल हमारे पास है। चाहे तो उस पिस्तौल से हम अपनी आत्म-रक्षा कर लें अथवा आत्म-हत्या कर लें। एक टॉर्च हमारे पास है। उस टॉर्च से रात में चाहे तो हम चोरी करने चले जाएँ, चाहे सत्संग करने के लिए चले जाएँ। कर्म करने में हम स्वतंत्र हैं; लेकिन फल लेने में स्वतंत्र नहीं हैं।
वास्तविक बात यह है कि जैसा हम कर्म करेंगे, वैसा ही फल हमको मिलेगा। जैसे जो बीज हम बोते हैं, तदनुकूल ही फल हमको मिलता है। जिस खेत में गेहूँ बोते हैं, उस खेत से गेहूँ काटते हैं। जिस खेत में चना बोते हैं, उस खेत से चना ही काटते हैं अथवा जहाँ हम आम का बिरवा लगाये हैं, उस पेड़ में आम के ही फल लगेंगे और उसी का उपभोग हम करेंगे। गोस्वामी जी का कथन है, ‘यह शरीर खेत है। मन, वचन और कर्म किसान हैं। पाप और पुण्य; ये दोनों बीज हैं। जो जैसा बोते हैं, वे वैसा काटते हैं यानी फल पाते हैं।
“ तुलसी यह तन खेत है, मन वच कर्म किसान ।
पाप पुण्य दुइ बीज है, बुवै सो लुनै निदान ।।”
जैसा हम कर्म करेंगे, वैसा फल हमको मिलेगा। हम कर्म करनेवाले हैं और फल देनेवाले प्रभु हैं। हम क्या चाहते हैं? नरक जाना चाहते हैं या स्वर्ग चाहते हैं-नहीं, नहीं। नरक जाना कोई नहीं चाहता; क्योंकि वह दुःखालय है। कुछ लोग कहते हैं-स्वर्ग जाना अच्छा है। लेकिन स्वर्ग के लिए संतों ने जैसा कहा है, सद्ग्रंथों में भी वैसा ही लिखा मिलता है-‘स्वर्गउ स्वल्प अन्त दुखदाई ।’ तथा-
“ नर तन दुर्लभ देव को, सब कोइ कहत पुकार ।।
सब कोइ कहत पुकार, देव देही नहिं पावै ।
ऐसे मूरख लोग, स्वर्ग की आस लगावै ।।
पुन्य छीन सोइ देव, स्वर्ग से नरक में आवै ।
भरमै चारिउ खानि, पुन्य कहि ताहि रिझावै ।।
तुलसी सत मत तत गहे, स्वर्ग पर करे खखार ।
नर तन दुर्लभ देव को, सब कोइ कहत पुकार ।।”
स्वर्ग में सुख थोड़े ही दिनों के लिए मिलता है। स्वर्ग में जाने पर भी वहाँ कोई पूर्ण सुखी नहीं होता। यहाँ की तरह इन्द्रियों का सुख ही वहाँ पर भी मिलता है। जिस तरह छोटे-बड़े का हिसाब यहाँ-इस संसार में है, स्वर्ग में भी छोटे-बड़े का हिसाब है। जिस तरह यहाँ पर एक-दूसरे की उन्नति को देखकर जलते हैं, उसी तरह वहाँ भी एक-दूसरे की उन्नति देखकर राग-द्वेष आदि में जलते हैं; क्योंकि सब कोई एक-से पुण्य करके नहीं जाते। जो जिस तरह के न्यूनाधिक पुण्य करके जाते हैं, उनके लिए वैसा ही निम्न और उच्च स्थान वहाँ मिलता है। इसलिए अपने से दूसरे को विशेष देखकर वहाँ भी क्लेश होता रहता है। दूसरी बात यह है कि जो कोई स्वर्ग जाते हैं, उनके गले में एक माला पहनाई जाती है। जितने दिनों तक उनको वहाँ पर रहना है, उतने फूलों की माला होती है। जैसे-जैसे रहने के दिन बीतते जाते हैं, वैसे-वैसे उस माला के फूल सूखते जाते हैं। वह फूल क्या सूखता है! चिन्ता के कारण उसका भीतर-हृदय सूखता जाता है। इतने दिन तो हमारे बीते। अब ये बीते। अब ये बीते। अब इतने दिन ही हमारे रहने के बाकी रहे। इसी की चिंता के अनल में वे दिन-रात जलते रहते हैं, दुःखी होते रहते हैं। इसीलिए संतों ने कहा, ‘यदि नरक को तुम लोहे की जंजीर समझते हो, तो स्वर्ग को सोने की जंजीर समझो, पर दोनों ही बंधन हैं। इसलिए इन दोनों से अपने को ऊपर उठाओ अर्थात् अपने को नजात यानी मोक्ष में ले जाओ। संतों ने मोक्ष का रास्ता बताया है। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने कहा है-
“ संत पंथ अपवर्ग कर, कामी भव कर पंथ ।
कहहिं संत कवि कोविद, श्रुति पुरान सद्ग्रंथ ।।”
यह मोक्ष कहाँ, कैसे और कब मिलता है, इनकी अभिव्यंजना संतों ने विविध भाँति से की है। संत पलटू साहब के उद्गार सुनिये-
“ मुक्ति मुक्ति सब खोजत है,
मुक्ति कहो कहँ पाइये जी ।
मुक्ति को हाथ औ पाँव नहीं,
किस भाँति सेति दिखलाइये जी ।।
ज्ञान ध्यान की बात बूझिये,
या मन को खूब समझाइये जी ।
पलटू मुए पर किन्ह देखा,
जीवत ही मुक्त हो जाइये जी ।।”
शिवगीता में लिखा है-
“ मोक्षस्य न हि वासोऽस्ति न ग्रामन्तरेव वा ।
अज्ञान हृदयग्रन्थिनाशो मोक्ष इति स्मृतः ।।”
अर्थात् मोक्ष कोई ऐसी वस्तु नहीं कि जो किसी एक स्थान में रखी हो अथवा यह भी नहीं कि उसको प्राप्ति के लिए किसी दूसरे गाँव या प्रदेश को जाना पड़े। वास्तव में हृदय की अज्ञान ग्रंथि के नाश हो जाने को मोक्ष कहते हैं।
अब हम अपने परम पूज्य गुरुदेव की भाषा में कहना चाहेंगे कि इस संदर्भ में उनकी कैसी राय है- “ शुद्ध आत्मा का स्वरूप अनन्त है । अनन्त के बाहर कुछ अवकाश हो, सम्भव नहीं है; अतएव उसका कहीं से आना और कहीं जाना, माना नहीं जा सकता है। चेतन-मण्डल सान्त है, उसके बाहर अवकाश है; इसलिए उसके धार-रूप का होना और उस धार में आने-जाने का गुण होना निश्चित है । अनन्त के अंश पर के प्रकृति के आवरणों का मिट जाना, उस अंश-रूप का मोक्ष कहलाता है। स्थूल शरीर जड़ात्मक प्रकृति से बना एक आवरण है । इसमें चेतन-धार के रहने तक यह स्थित रहता है, नहीं तो मिट जाता है। इस नमूने से यह निश्चित है कि जड़ात्मक प्रकृति के अन्य तीनों आवरण भी मिट जाएँगे, यदि उन तीनों में चेतन-धार वा सुरत न रहे। अन्तर में नादानुसंधान से सुरत जड़ात्मक सब आवरणों से पार हो जाएगी, उनमें नहीं रहेगी और अंत में स्वयं भी आदिनाद के आकर्षण से आकर्षित हो, अपने केन्द्र में केन्द्रित होकर उसमें विलीन हो जाएगी। इस तरह सब आवरणों का मिटाना होगा। उस चेतन-धार के कारण एक पिंड बनने योग्य प्रकृति के जितने अंश की स्थिति (कैवल्य, महाकारण, कारण, सूक्ष्म और स्थूल रूपों में) सम्भव है, वह मिट जाएगी और उसके मिटने से शुद्धात्मा का जो अंश आवरणहीन हो जायगा, वह मुक्त हुआ कहा जायगा ।” गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने कहा-
“ जिमि थल बिनु जल रहि न सकाई ।
कोटि भाँति कोउ करै उपाई ।।
तथा मोक्ष सुख सुनु खगराई ।
रहि न सकइ हरि भगति बिहाई ।।”
(रामचरितमानस)
जिस तरह थल को छोड़कर जल अलग नहीं रह सकता, उसी तरह से भक्ति को छोड़कर मुक्ति अलग नहीं रहती। इसलिए यदि हम मुक्ति चाहते हैं, तो हमें चाहिए कि भक्ति की सही युक्ति जानकर आज से ही मनोयोगपूर्वक साधना का आरंभ कर दें।
यह प्रवचन अपराह्णकालीन सत्संग के अवसर पर दिनांक-12-3-1989 ई0, स्थान: मिर्जापुर, जिला- भागलपुर में हुआ था। (शान्ति-सन्देश, जून 1889)
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ईश्वर अद्भुत है। उनकी सृष्टि भी अद्भुत है। उनकी सृष्टि में जिस ओर दृष्टि कीजिए, उनकी अनन्तता की ही परिपुष्टि मालूम होगी। छोटी-से-छोटी चीज अथवा बड़ी-से-बड़ी चीज लीजिए, उसके अंदर प्रभु की महानता भरी हुई होती है। आवश्यकता है उस महान् प्रभु को देखने के लिए उस दृष्टि को हम अपना सकें। प्रभु रचना में यह मानव-शरीर सर्वोत्कृष्ट है।
एक सज्जन आयेंगे, वे आपकी हस्तरेखा को देखकर उस आधार पर आपकी भाग्यरेखा के संदर्भ में बतलायेंगे। एक ज्योतिषी जी आपकी जन्म-टिप्पणी को देखकर उस आधार पर आपके लिए कुछ भविष्यवाणी कह देंगे। एक वैद्य आयेंगे, वे वैद्यक दृष्टि से आपको देखेंगे और वे कुछ उसी तरह की बात बतला देंगे। डॉ0 साहब आयेंगे, तो अपनी दृष्टि से देखेंगे, फिर वे भी कुछ बतला देंगे। ये सारी-की सारी बाह्य दृष्टियाँ हैं। संतों ने इस शरीर को आंतरिक दृष्टि से देखा और देखकर कहा-
कबीर काया समुँद है, अंत न पावै कोय ।
मिरतक होय के जो रहै, माणिक लावै सोय ।।
संत कबीर साहब ने इस शरीर को समुद्र बतलाया और कहा कि इस शरीर के अंदर जो मरजीवा होकर रहेगा, वह माणिक यानी मालिक (परब्रह्म-परमात्मा) को पावेगा। पुनः उन्होंने कहा-
बूँद समानी समुँद में, यह जानै सब कोय ।
समुँद समाना बूँद में, बूझै बिरला कोय ।।
समुद्र में बूँद गिर गयी, उसमें समा गयी, यह बात सब कोई जानते हैं; लेकिन बूँद में समुद्र समाया हुआ है, यह बिरले जन ही जानते हैं।
एक वृक्ष है, उसमें फल लदे हुए हैं। वृक्ष में फल लदे हुए हैं, इसको हम देखते हैं; लेकिन उस वृक्ष का जो बीज है, उस बीज में समूचा वृक्ष समाया हुआ है, उसको तत्त्ववेत्ता के अतिरिक्त अन्य कोई नहीं देखता।
मान लीजिए, हमारे सामने आम का एक बहुत विशाल वृक्ष है। उस विशाल वृक्ष को हम देखते हैं; लेकिन उस वृक्ष का आरंभ गुठली में है, उसको कोई नहीं देखते हैं। इसी भाँति इस संसार में हमारा यह शरीर है, यह हम देखते हैं; लेकिन इस शरीर में समस्त संसार समाया हआ है, यह नहीं देख पाते। इसी विषय को गुरु नानकदेवजी ने इस तरह कहा है-
सागर महि बूँद, बूँद महि सागरु,
कवणु बुझै विधि जाणै ।
उतभुज चलत चापि करि चीणै,
आपे ततु पिछाणै ।।
ऐसा गिआन बिचारै कोई,
तिसते मुकति परमगति होई ।।
सागर में बूँद और बूँद में सागर है अर्थात् ब्रह्मांड में पिंड और पिंड में ब्रह्मांड है, इसको कौन समझता है? जबतक कोई इस आंतरिक साधना विधि को जानता नहीं, देखने और सुनने की विधि को जानकर अभ्यास करता नहीं है, तबतक तत्त्वतः जानता नहीं है। जानता वही है, जो साधना की सही विधि जानकर अभ्यास करते-करते सफलता प्राप्त करता है। जैसे एक पैथोलॉजिस्ट (Pathologist) डॉक्टर हमारे शरीर से रक्त लेते हैं। वे एक शीशे के छोटे-से टुकड़े पर उसको रख लेते हैं। हमारी नजर में मात्र रक्त है; लेकिन वे डॉक्टर साहब जब यंत्र लगाकर देखते हैं, तो कहते हैं कि रक्त में अमुक रोग का कीड़ा है। हम सामान्य जन तो रक्त की एक बूँद देखते हैं; लेकिन डॉक्टर साहब रक्त में रोग के कीटाणुओं को देखते हैं, क्यों? इसलिए कि हम रक्त देखने की सही विधि नहीं जानते हैं और वे देखने की विधि जानते हैं। उसी तरह सारा संसार इस शरीर में है, इसको हम नहीं जानते हैं; क्योंकि हम देखने की विधि नहीं जानते हैं। संतों ने अंतस्साधना करके दिव्यदृष्टि और आत्मदृष्टि प्राप्त कर अपनी अनुभूति की बात कही है।
सबकी दृष्टि पड़ै अविनासी, बिरले संत पिछानै ।
कहै कबीर यह भरम किवाड़ी, जो खोलै सो जानै ।।
वस्तुतः हम देखकर भी नहीं देख पाते। मान लीजिए, रूस की भाषा हम नहीं जानते हैं और उस भाषा की किताब हमारे सामने रखी हुई है। उसके पन्ने उलटाकर देख लेने पर भी उसमें क्या लिखा हुआ है, हम पढ़ सकते हैं? कदापि नहीं, क्यों? इसलिए कि यह दृष्टि हमको प्राप्त नहीं है। हमारी दृष्टि में अक्षर तो है, लेकिन क्या है? नहीं जानते हैं। उसी तरह ईश्वर सर्वत्र हैं। हममें भी हैं; किन्तु हम देख नहीं पाते। जो सर्वव्यापक और सर्वव्यापकता के भी परे हैं, वे कहाँ नहीं है? क्या वे हमारी दृष्टि में नहीं हैं? वे हमारी दृष्टि में भी हैं; लेकिन हम पहचान नहीं रहे हैं। यह शरीर क्या है? अथाह समुद्र है।
यह शरीर सागर अवगाहा।
यहि कर नहिं कोइ पावत थाहा ।।
अन्तर उलटि निरेखै जोई।
आवागमन मिटावै सोई ।।
जबतक हम बहिर्मुख रहेंगे, तबतक पता नहीं चलेगा। जब हम अंतर्मुख होंगे, तभी पता चलेगा। इस छोटे-से शरीर में प्रभु ने गुप्त रूप से क्या-क्या वस्तु रखी है। गुरु नानक देव ने कहा है-
इस काइया अन्दरि बसतु असंखा।
सतगुरु खोजि मिलै ता वेखा ।।
असंख्य वस्तुएँ इसमें भरी पड़ी हैं, लेकिन जिनको सच्चे गुरु मिलते हैं, उनसे सद्युक्ति मिलती है। सदाचार का पालन करते हुए संत-साधना करते हैं, तो वे उसको जानते हैं। पाँच तत्त्वों-क्षिति, जल, पावक, गगन, समीर तथा तीनों गुण-सत्, रज, तम से निर्मित यह शरीर है। इस शरीर के अंदर पाँच कर्मेन्द्रियाँ-हाथ, पैर, मुख, गुदा, उपस्थ; पाँच ज्ञाने- न्द्रियाँ-नेत्र, कर्ण, नासिका, जिभ्या, त्वचा-ये दस इन्द्रियाँ बाहर की हैं और भीतर की चार इन्द्रियाँ- मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार; ये कुल चौदह इन्द्रियाँ हैं। मन चौदहों इन्द्रियों के द्वारा हम जग-व्यवहार करते हैं। एक-एक इन्द्रिय के एक-एक देवता नियुक्त हैं। यथा-
मन के देव चन्द्र बुद्धि ब्रह्मा, वासुदेव चित्त केरे ।
अहंकार शिव दिशा करन के, नयन भानु सिर हेरे ।।
रसना वरुण त्वचा के मारुत, नासा अश्विनी जानो ।
सुख के अग्नि इन्द्र हाथन के, देव गुदा यम मानो ।।
लिंग के देव प्रजापति सिरजत, चरणन विष्णु विराजै ।
चौदह देव वसत यहि तन संग, नित निर्भय ह्वै गाजै ।।
ये इन्द्रिय-सुर हमें बहिर्मुख करते हैं-विषय-मुख करते रहते हैं; क्योंकि इनको आत्मज्ञान सुहाता नहीं है। देवताओं के चरित्र का चित्रण किया है गो0 तुलसीदासजी महाराज ने रामचरितमानस में-
इन्द्रिय सुरन्ह न ज्ञान सुहाई।
विषय भोग पर प्रीति सदाई।।
इन्द्रिय द्वार झरोखा नाना।
तहँ-तहँ सुर बैठे करि थाना।।
आवत देखहिं विषय बयारी।
ते हठि देहि कपाट उघारी।।
जब सो प्रभंजन उर गृह जाई।
तबहिं दीप विज्ञान बुझाई।।
ये इन्द्रियों के जो देव हैं, ये क्या करते हैं? जब विषय-बयार आती है, तो ये बंद पट को खोल- उघार देते हैं। विषय-रूप हवा भीतर प्रवेश कर ज्ञानी की बुद्धि को भी विकल कर देती है। परिणामस्वरूप वह काम-कांचन के फेर में पड़ जाता है। गोस्वामी जी लिखते हैं-
सोउ मुनि ज्ञान-निधान, मृगनयनी विधुमुख निरखि ।
बिबस होइ हरि जान, नारि विष्णु माया प्रगट ।।
वे ज्ञान के भंडार मुनि (वाचक ज्ञानी) भी मृगनयनी (युवती स्त्री) के चन्द्रमुख को देखकर विवश (उसके अधीन) हो जाते हैं। कागभुशुण्डिजी जो कहते हैं-हे गरुड़जी! साक्षात् भगवान विष्णु की माया ही स्त्री रूप से प्रकट है।
श्रीरामकृष्ण परमहंसजी महाराज ने कहा है-जैसे गिद्ध और चील आकाश की बहुत ऊँचाई पर उड़ते हैं; लेकिन उनकी नजर नीचे पृथ्वी पर पड़ी लाशों पर मँड़राती है, उसी प्रकार वाचक ज्ञानी बातें तो बहुत लंबी-चौड़ी करते हैं; किन्तु उनका मन काम और कांचन पर घूमता रहता है। जबतक कोई अंतः साधना द्वारा मन पर काबू नहीं पा लेता है, तबतक वह मदमस्त गजराज की भाँति विषय-वाटिका में विचरण करता रहता है। बाहर की दसो इन्द्रियाँ मन के द्वारा संचालित होती हैं। प्रभु ने एक-एक इन्द्रिय को एक-एक काम सौंपा है। साथ ही पाँचो कर्मेन्द्रियों का विलक्षण संबंध बाँधा है। यथा-
“ मुख ते श्रवण कहत एक सुनई।
त्वचा पाणि स्पर्शइ गुनई।।
रसन उपस्थ भोग दोउ चाहै।
गुदा नासिका नेह निवाहै।।
नयन चरण ते प्रीति रहावै।
नैन फँसे पद ले पहुँचावै।।”
मुख कर्मेन्द्रिय है और कान ज्ञानेन्द्रिय है। मुँह का कान से संबंध है। हम कान से जो सुनते हैं, मुँह से वही बोलते हैं। जैसे जो बच्चा कान से A B C D… सुनता है, तो वह मुँह से A B C D… बोलता है। कान से जो बच्चा अलिफ वे पे ते... सुनता है, तो मुख से वही बोलता है-अलिफ वे पे ते...। जो बच्चा कान से क ख ग घ सुनता है, तो मुँह से क ख ग घ....का उच्चारण करता है। जो कान नहीं सुनता है, वह मुँह से नहीं बोलता है। वह प्रायः देखने में भी आता है कि जो बहरा होता है, वह गूँगा भी होता है।
जो शब्द हमारा कर्णप्रिय होगा, वही हमारा वाक्प्रिय भी। कान से सुनने में जो शब्द हमको अच्छा लगता है, मुँह से बोलने में भी हमको वही अच्छा लगता है। कैसे? उत्तर में निवेदन है कि अगर हमारे कान को भगवद्भजन, कीर्तन, भगवत्-यश, संतवचन आदि सुनने में अच्छा लगता है, तो हमारे मुँह से भी भगवत्-भजन-कीर्तन, भगवत्-यश, संत-वचन ही निकलेंगे।
अगर हमारा कान सिनेमा का गाना पसंद करता है, तो हमारा मुँह सिनेमा का गाना गावे, स्वाभाविक है। जिसका कान सिनेमा का गाना पसंद नहीं करता, उनके मुँह से आप कभी भी सिनेमा का गाना नहीं सुनेंगे। ठीक इसी प्रकार जिसका कान भगवत्-भजन सुनना नहीं चाहता, उसके मुँह से कभी भगवत्-भजन नहीं निकल सकता। इसीलिए कहा-
‘मुख ते श्रवण कहत एक सुनई।’
अगर हम अपने कान को वश में कर सकते हैं, तो हम अपने मुख को वश में कर सकते हैं। यानी जिनका कान पर अधिकार है, उसका मुँह पर अधि- कार होना अस्वाभाविक नहीं।
‘त्वचा पाणि स्पर्शइ गुनई।’
त्वचा कहते हैं चमड़े को, यह ज्ञानेन्द्रिय है और हाथ है कर्मेन्द्रिय। इन दोनों का परस्पर संबंध है। त्वचा को जितना कठोर वा मुलायम पसंद होगा, हाथ को वैसा ही स्वीकार होगा। त्वचा जितना शीत वा गर्म सह सकती है, हाथ को वह सहज ही बर्दाश्त होगा।
‘रसन उपस्थ भोग दोउ चाहै।’
रसन कहते हैं-जिभ्या को और उपस्थ कहते हैं लिंगेन्द्रिय को। जिभ्या ज्ञानेन्द्रिय है और लिंग कर्मेन्द्रिय है। इन दोनों का संबंध है। एक संत ने कहा है-
जिभ्या इन्द्री एके नाल। जो रोके सो बाचै काल।।
जिसकी जिभ्या अपने अधिकार में नहीं है, वह अपनी लिंग इन्द्रिय पर कभी अधिकार नहीं पा सकता है। महात्मा गाँधी ने लिखा है-
पशु चारागाह से भरपेट भोजन करके घर लौटना जानता है, लेकिन मनुष्य अपने पेट का अंदाजा नहीं जानता। यही कारण है कि मनुष्य जननेन्द्रिय से पशु जननेन्द्रिय अधिक संयमित होती है। पशु-जननेन्द्रिय के लिए समय निश्चित है; लेकिन मनुष्य के लिए कोई समय निश्चित नहीं है। किसी भी जानवर का हरी-हरी घास चरते-चरते जब पेट भर जाता है, तो वह खेत में बैठकर जुगाली करने लगता है। लेकिन मनुष्य में यह संयम नहीं है।
‘गुदा नासिका नेह निभाहै।’
गुदा कर्मेन्द्रिय है और नासिका ज्ञानेन्द्रिय है। जो प्राणवायु को काबू में कर सकते हैं, वे अपान वायु को भी काबू में कर सकते हैं। जिनकी प्राणवायु काबू में नहीं है, वे अपनी अपानवायु को काबू में नहीं कर सकते। तात्पर्य यह कि जिनका प्राण पर अधिकार है, उन्हीं का अपान पर अधिकार हो सकता है। एक इन्द्रिय गंध त्यागनेवाली है और दूसरी इन्द्रिय है गंध ग्रहण करनेवाली।
नैन चरण ते प्रीति रहावै।
नैन फँसे पद ले पहुँचावै।।
आँख ज्ञानेन्द्रिय है और पैर कर्मेन्द्रिय। जिस रूप में आँख फँस जाएगी, पैर वहाँ पहुँच जाएगा। जैसे हमलोग बाजार घूमने के लिए जाते हैं। वहाँ चौराहे पर देखते हैं कि सिनेमा का बहुत बढ़िया चित्र लगा हुआ है। जिस चित्र को बढ़िया कहकर नेत्र पसंद कर लिया, उसको देखने के लिए पैर सिनेमा-हॉल में अवश्य पहुँचाएगा। जिसको उस चौराहे का चित्र पसंद नहीं होगा, वह सिनेमा हॉल में क्यों जाएगा? इसलिए कहा-‘नैन फँसे पद ले पहुँचावै।’
प्रभु ने एक-एक इन्द्रिय को एक-एक काम सौंप दिया है। एक इन्द्रिय दूसरी इन्द्रिय का काम नहीं कर सकती। जैसे आँख का काम रूप देखने का है, वह रूप देखेगी; लेकिन सुनेगी नहीं, रसास्वादन करेगी नहीं, गंध ग्रहण करेगी नहीं, स्पर्श करेगी नहीं। नासिका का काम गंध ग्रहण करने का है, वह मात्र गंध ग्रहण करेगी, न देखेगी, न सुनेगी, न रसास्वादन करेगी और न स्पर्श करेगी। जिभ्या का काम स्वाद का ज्ञान करने का है। वह रसास्वादन करेगी, न देखेगी, न सुनेगी, न गंध ग्रहण करेगी और न स्पर्श ही करेगी। इसी प्रकार त्वचा है। इससे हम स्पर्श का ज्ञान करेंगे; लेकिन यह देखेगी नहीं, सुनेगी नहीं, रसास्वादन करेगी नहीं और न गंध ही ग्रहण करेगी।
बाहर की जो पाँच कर्मेन्द्रियाँ हैं, इनके भी अपने-अपने भिन्न-भिन्न कार्य हैं। जैसे हाथ से ग्रहण करना, पैर से चलना, मुँह से भोजन करना उपस्थ से लघुशंका करना और गुदा से मल-विसर्जन करना। उसी तरह भीतर की चार इन्द्रियाँ हैं। मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार। मन का काम है-संकल्प-विकल्प करना। बुद्धि का काम है विचार करना। अमुक काम को करना है या नहीं, इसका निर्णय देना। बुद्धि में भी अगर तामसी वृत्ति रही, तो वह अनाप-शनाप विचार देगी। रजोवृत्ति चंचलता पैदा करेगी। सात्त्विकी वृत्ति रहने पर वह उत्तम विचार देगी। चित्त का काम है स्पंदित करना और अहंकार का काम है ‘मैंपन’ का बोध दिलाना। इस भाँति प्रभु ने इन चौदहों इन्द्रियों को चौदह कार्यों के हेतु नियुक्त किये हैं अर्थात् एक-एक इन्द्रिय का एक-एक काम है। लेकिन ये चौदहो इन्द्रियाँ किनकी हैं? हमारी हैं। और हम किनके हैं? प्रभु के। तो हमारे लिए भी तो कुछ काम होना चाहिए या नहीं? हमारे लिए क्या काम है? इस जीव के लिए प्रभु ने कौन-सा काम सौंपा है? इस जीव का काम है, उस पीव से मिलना। संत कबीर साहब की वाणी है-
‘जाके संग बीछुड़ा, ताही के संग लाग।’
परम प्रभु से मिलन, आत्मज्ञान, आत्मसुख वा आत्म-साक्षात्कार कैसे होता है? बहुत पढ़-लिख लेने से, बहुत-से शास्त्रें के अध्ययन-मनन से, बहुत लंबा- चौड़ा व्याख्यान देने से अथवा बहुत बड़ा मेधावी बनने से? नहीं! कठोपनिषद् के प्रथम अध्याय में लिखा है, यम ने नचिकेता से कहा था-
नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन ।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनू ँ ् स्वाम् ।।
अर्थात् यह आत्मा वेदाध्ययन-द्वारा प्राप्त होने योग्य नहीं है और न धारणा-शक्ति अथवा अधिक श्रवण से ही प्राप्त हो सकता है। यह (साधक) जिस (आत्मा) का वरण करता है, उस (आत्मा) से ही यह प्राप्त किया जा सकता है। उसके प्रति यह आत्मा अपने स्वरूप को अभिव्यक्त कर देता है।
इसी प्रकार छान्दोग्योपनिषद् के सप्तम अध्याय में एक कथा आयी है कि नारद ऋषि सनत्कुमार अर्थात् स्कन्द के यहाँ जाकर कहने लगे, ‘मुझे आत्मज्ञान बतलाओ।’ तब सनत्कुमार बोले, ‘पहले बतलाओ, तुमने क्या सीखा है है, फिर मैं बतलाऊँगा।’ इस प्रकार नारद ने कहा-‘मैंने इतिहास, पुराणरूपी पाँचवें वेद- सहित ऋग्वेद प्रभृति समग्र वेद, व्याकरण, गणित, तर्कशास्त्र, कालशास्त्र, नीतिशास्त्र, सभी वेदांग, धर्म शास्त्र, भूतविद्या, नक्षत्रविद्या, क्षत्रविद्या आदि सर्पदेवजन विद्या प्रभृति सब कुछ पढ़ा है; परन्तु जब इससे आत्मज्ञान नहीं हुआ, तब अब आपके यहाँ आया हूँ।’ इसको सुनकर सनत्कुमार ने यह उत्तर दिया-‘तूने जो कुछ सीखा है, वह तो सारा नाम-रूपात्मक है। सच्चा ब्रह्म इस नाम-ब्रह्म से बहुत आगे है।’ और फिर नारद को क्रमशः इस प्रकार पहचान करा दी कि इस नामरूप से अर्थात् सांख्यों की अव्यक्त प्रकृति से अथवा वाणी, आशा, संकल्प मन-बुद्धि और प्राण से भी परे एवं इनसे बढ़-चढ़कर जो है, वही परमात्मरूपी अमृत तत्त्व है। गुरु भक्तिन सहजोबाई ने कहा है-
ना सुख विद्या के पढ़े, ना सुख वाद विवाद ।
साध सुखी सहजो कहै, लागै सुन्न समाध ।।
और किसी सुभाषितकार की सुभाषित वाणी है-
पढ़े छहो शास्त्र वो अठारहो पुराण पढ़े ।
वेद उपवेद आदि अन्त कोई छाना है ।।
गीता रामायण और श्रुति स्मृति पढ़े ।
सांख्ययोग न्याय आदि दर्शन भी जाना है ।।
जाना है बनाना छन्द सोरठा चौपाई को ।
जाना है ध्रुपद राग भैरवी का गाना है ।।
इतना जो जाना सब खाक धूर छाना है ।
जाना है वही जो स्वरूप पहिचाना है ।।
यह प्रवचन साप्ताहिक सत्संग के अवसर पर दिनांक-1-9-1991 ई0, स्थान: महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट, भागलपुर में हुआ था।
(शान्ति-संदेश, अक्टूबर 1991 ई0)
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हाथरस में एक परम विरक्त संत हो गए हैं, जिनका नाम था तुलसी साहब। उनका इस अवनितल पर आविर्भूत होना कब और कहाँ हुआ, अज्ञात है; किन्तु सर्वसाधारण को इतना ज्ञात अवश्य है कि वे हाथरस के किले की खाई में रहा करते थे और स्थानीय शहर से मधुकरी वृत्ति करके अपना काल- क्षेपण किया करते थे। उनकी मधुकरी वृत्ति भी विचित्र थी। सप्ताह में छह दिन तो वे रोटी के लिए भिक्षाटन करते और सातवें दिन मट्ठे के लिए। ऐसा वे इसलिए करते कि छह दिनों की बची-खुची रोटियों के टुकड़े जो भोजनोपरान्त बच जाते, उन्हें वे एकत्र करके रखते और सातवें दिन उन्हीं में मट्ठा मिलाकर भोजन कर लिया करते और निश्चिन्त होकर दिन-रात परमात्म-चिन्तन में लीन रहा करते। संत कबीर ने बड़े मजे में कहा है-
पाँचो कुतिया राम की, करत भजन में भंग ।
इनको टुकड़ा डारि के, भजन करो निःशंक ।।
चाह गई चिन्ता मिटी, मनुआँ बेपरवाह ।
जाको कछू न चाहिये, सोई शाहंशाह ।।
‘न ऊधो का लेना, न माधो को देना’ की भाँति उनको किन्हीं से कुछ लेना-देना नहीं था। एतदर्थ उनको अन्य किसी से विशेष सम्पर्क नहीं था। संयोगवश एक दिन एक धर्मनिष्ठ मुंशीजी को उनके दर्शन हुए। वर्षा के कारण जब खंदक में पानी हो गया, तो उक्त मुंशीजी ने बहुत अनुनय-विनय करके उनको अपने घर ले जाकर यथायोग्य उनकी सेवा की। वर्षावास के पश्चात् वे पुनः स्वस्थान को लौट आए।
मुंशीजी के सुपुत्र का नाम था-मुंशी महेश्वरी लालजी। उन्हें कोई सन्तान न थी। सन्तप्रवर तुलसी साहबजी महाराज के आशीर्वाद से उनको एक पुत्ररत्न प्राप्त हुआ, जिनका नाम देवी प्रसाद पड़ा। जब इनकी अवस्था चार वर्ष की हुई, तब संत तुलसी साहब ने इनके मस्तक पर अपना वरद हस्त रखकर शुभाशिष दिया। फलस्वरूप, आगे चलकर ये ही बाबा देवी साहब के नाम से एक प्रसिद्ध महात्मा हुए। आपके सिद्धांत का सार था-मानवमात्र परमात्म-भजन करें, सदाचारी बनें तथा स्वावलम्बी जीवन-यापन करें अर्थात् स्वोपार्जन से जीवन व्यतीत करें। आपका कहना था कि जो बिना परिश्रम किए दूसरे के पसीने की कमाई खाता है, वह दूसरे का खून खाता है; वह वैष्णव नहीं है। आप स्वावलम्बी बनने पर बहुत जोर दिया करते थे और घूम-घूमकर लोगों में सद्ज्ञान की शिक्षा-दीक्षा का प्रचार किया करते थे।
1909 ई0 में आपके एक प्रमुख शिष्य महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज हुए, जो आज पूर्ण शरदिन्दु के सदृश अपने ज्ञानालोक से भारत ही नहीं, अपितु अखिल विश्व को आलोकित कर रहे हैं। आपने साम्प्रदायिक मत-मतांतर के झगड़ों को मिटाया और बताया कि विभिन्न मत, पंथ, धर्म, सम्प्रदाय और मजहब आदि कहकर जो अपने को भिन्न-भिन्न घोषित करते हैं, यथार्थ में वे सभी अभिन्न-एक हैं। जैसे भिन्न-भिन्न देशों में भिन्न-भिन्न रंगों एवं विभिन्न आकारों की गायें होती हैं, किन्तु सभी गायों के दूध का रंग अभिन्न-उज्ज्वल होता है, उसी तरह भिन्न-भिन्न देशों एवं भिन्न-भिन्न जातियों में संतों के अवतीर्ण होने पर भी सबका ईश्वर-ज्ञान एक है। सबका ईश्वर एक है, चाहे उसे गॉड (God )ए अल्लाह वा ब्रह्म जो कहो, भिन्नता केवल बाह्य प्रदर्शन में है। ‘भिन्न-भिन्न काल तथा देशों में संतों के प्रकट होने के कारण तथा इनके भिन्न-भिन्न नामों पर इनके अनुयायियों द्वारा संतमत के भिन्न-भिन्न नामकरण होने के कारण संतों के मत में पृथक्त्व ज्ञात होता है; परन्तु यदि मोटी एवं बाहरी बातों को तथा पंथाई भावों को हटाकर विचारा जाए और संतों के मूल एवं सार विचारों को ग्रहण किया जाए, तो यही सिद्ध होगा कि सब संतों का एक ही मत है।’
आपने संतों की एक स्तुति बनाई-‘सब संतन्ह की बड़ि बलिहारी।’ इस संपूर्ण स्तुति के द्वारा सभी मतों के साधु-संतों के पंथाई एवं साम्प्रदायिक पारस्परिक वैमनस्य भाव मिटाकर सामंजस्य की प्रस्थापना होती है।
आप भगवान बुद्ध की नाईं मनुष्य मात्र को पंचशील-पालन अर्थात् झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार से विरत रहने की सीख देकर परमात्म-भक्ति की ओर उन्मुख करते रहे। साथ ही, स्वयं स्वावलम्बी जीवन-यापन करते हुए अन्यों को स्वावलम्बी बनाने की अविराम प्रेरणा करते रहे। आपके गृहस्थ और विरक्त दोनों प्रकार के शिष्य हैं, जो अपनी-अपनी योग्यता के अनुसार जीविका करके जीवन-यापन करते हैं। आपकी सर्वसाधारण जन के लिए यही शिक्षा है कि सदाचार-समन्वित हो परमात्म-भक्ति करो, परभाग्योपजीवी मत बनो, स्वयं श्रम करके जो उपार्जन कर सको, उससे अपना एवं अपने परिवार का पालन-पोषण करो और अपनी शक्ति के अनुसार तन, मन और धन से दूसरों की सहायता करो। तुम सिंह की तरह पुरुषार्थ करके स्वावलम्बी जीवन बिताओ, लँगड़ी लोमड़ी की तरह प्रमादी और परमुखापेक्षी मत बनो।
साधा सिंह का एक मत, जीवत ही को खाय ।
भावहीन मृतक दशा, ताके निकट न जाय ।।
एक लघु कथा है-एक सेठ ने अपने वयस्क पुत्र को प्रमादी देखकर उसे वाणिज्य-व्यापार के लिए थोड़ी पूँजी दी। सेठ-पुत्र ने अल्प दिन में विशेष धनवान होने की आकांक्षा से नेपाल राज्य की यात्र की। मार्ग में अनेक जंगलों, गिरियों एवं सरिताओं को पार करते हुए वह एक घनघोर कानन में जा पहुँचा, जहाँ मानव के श्वास मात्र की भी गति नहीं थी। वह दुस्साहस करके आगे बढ़ ही रहा था कि बड़ी तीव्रता से दहाड़ते हुए एक सिंह को कानन-कुंज के एक भाग से दूसरे भाग में प्रविष्ट होते देखा। देखते ही उसका दिमाग शून्य हो गया। वदन पसीने-पसीने हो गया और डर से थर-थर काँपने लगा; फिर भी अपने प्राण-रक्षार्थ येन-केन प्रकारेण वह एक पेड़ पर जा चढ़ा। इतने में वह मृगेन्द्र एक मृग का मृगया करके उसे घसीटता हुआ एक माँद के समीप लाया और इच्छापूर्वक भोजन करके उसने अपना रास्ता लिया। पश्चात् वहीं से एक लँगड़ी लोमड़ी निकली और केहरी के उच्छिष्ट को खाकर वहीं एक झाड़ी में छिपकर बैठ गई।
सेठ-पुत्र यह सारा तमाशा देख रहा था। उसने सोचा, जब परमात्मा एक लँगड़ी लोमड़ी पर्यन्त को भरपेट भोजन देता है, तो क्या वह मुझे नहीं देगा, जो मैं अपना घर-वार छोड़कर अपनी जान हथेली में ले जंगल-पहाड़ की खाक छानने चला! ऐसा विचारकर उसने निज घर की राह ली और घर पहुँच अपने पूज्य पिता के श्रीचरणों का अभिवादन करके मार्ग की घटना कह सुनाई। पिता ने कहा-‘प्रिय वत्स! तुम परमपिता परमात्मा के निर्देशन को यथार्थतः हृदयंगम न कर सका, तुमने अर्थ को अनर्थ समझ लिया। बेटा! परमात्मा ने तुम्हें लँगड़ी लोमड़ी बनने की नहीं, वरन् केहरिवत् कर्मठ कर्मयोगी बनने की सीख दी। स्वयं कमाओ, खाओ और बचे हुए को लँगड़े-लूलों के लिए छोड़ दो।’
संतमत की भी यही शिक्षा है। हमें इस बात की अभिज्ञता होनी चाहिए कि संत कबीर साहब ने कभी भिक्षावृत्ति नहीं अपनाई और न गुरु नानक साहब ने ही। संत कबीर साहब स्वयं ताना-बाना करते और उससे जो कुछ भी उन्हें मिल जाता, उसी में वे संतुष्ट हो प्रसन्नतापूर्वक रहते। उन्होंने अपने लिए जो दृढ़ सिद्धांत रखा था कि ‘मर जाऊँ माँगूँ नहीं, अपने तन के काज’ इसका अक्षरशः पालन किया तथा अन्यों के लिए उनकी सलाह थी-
माँगन मरन समान है, मत कोइ माँगो भीख ।
माँगन ते मरना भला, यह सत्गुरु की सीख ।।
संत कबीर साहब बहुत संतोषी थे अथवा ऐसा भी कह सकते हैं कि वे संतोष के स्वरूप ही थे। अपनी सच्ची कमाई से उन्हें जो कुछ मिल जाता, उसी में जीवन-निर्वाह कर लिया करते थे। वे कहते-
खुश खाना है खीचड़ी, माँहिं पड़ा टुक लोन ।
मांस पराया खाय कर, गला कटावे कौन ।।
रूखा सूखा खाय कर, ठंढा पानी पीव ।
देख बिरानी चूपड़ी, मत ललचावे जीव ।।
कबीर साईं मुज्झ को, रूखी रोटी देय ।
चुपड़ी माँगत मैं डरूँ, (कहुँ) रूखी छीनि न लेय ।।
महान संत दादू दयालजी महाराज स्वयं जंगल जाकर लकड़ी चुन लाते थे और ‘कर गुजरान गरीबी में, मन लागो यार राम फकीरी में’ को चरितार्थ करते थे। ऐसी ही गाथा हम संत रविदास, संत सजनदास आदि महात्माओं की पाते हैं कि उनलोगों ने भी स्वोपार्जन करके ही ‘रूखा फीका गम का टुकड़ा, बासी और अलोना क्या रे’ की कुछ भी चिन्ता न करके प्रसन्नतापूर्वक जीवन-यापन किया। अवश्य ही भगवान बुद्ध और भगवान शंकर ने भिक्षाटन करके उदर-भर अन्न और तन-भर वस्त्र लिया, किन्तु यह कोई असंगत बात नहीं। संत कबीर साहब कहते हैं-
उदर समाता अन्न ले, तनहिं समाता चीर ।
अधिका संग्रह ना करे, ताका नाम फ़कीर ।।
उस स्वल्प परिमाण की वस्तु को लेकर उसके बदले में उन महान अवतार ने संसार के हित-हेतु जिस सत्य ज्ञान की अमूल्य निधि प्रदान की, उसका मूल्यांकन कौन कर सकता है? भगवान बुद्ध ने स्पष्ट शब्दों में कहा-
न तेन भिक्खु (सो) होति यावता भिक्खते परे ।
विस्सं धम्मं समादाय भिक्खु होति न तावता ।।
(धम्मपद, धम्मट्ठवग्गो)
अर्थात् दूसरों के पास जाकर भिक्षा माँगने मात्र से भिक्षु नहीं होता। जो सारे (बुरे) धर्मों (कर्मों) को ग्रहण करता है, (वह) भिक्षु नहीं होता। और भी देखिए-
सेय्यो अयोगुलो भुत्तो तत्तो अिर्ग्नसिखूपमो ।
यञ्चे भुञ्जेय्य दुस्सीलो रट्ठपिण्डं असञ्ञतो ।।3।।
(धम्मपद, निरयवग्गो)
अर्थात् असंयमी दुराचारी हो राष्ट्र का पिण्ड (देश का अन्न) खाने की अपेक्षा अग्निशिखा के समान तप्त लोहे का गोला खाना उत्तम है। साथ ही, उन्होंने यह भी बतलाया कि भिक्षु किसे कहते हैं-
सब्बसो नामरूपस्मिं यस्म नत्थि ममायितं ।
असता च न सोचति स वे भिक्खूति वुच्चति।।8।।
(धम्मपद, भिक्खुवग्गो)
अर्थात् जिसकी नामरूप (जगत) में बिल्कुल ही ममता नहीं और नहीं होने पर जो शोक नहीं करता है, वही भिक्षु कहा जाता है।
साथ ही, भिक्षुओं के कर्त्तव्य निश्चित करके उसपर चलने की सतत प्रेरणा भगवान बुद्ध देते रहते। उन्होंने कहा-
तत्रयमादि भवति इधा पञ्ञस्स भिक्खुनो ।
इन्द्रियगुत्ति सन्तुट्ठी पातिमोक्खे च संवरो ।
मित्ते भजस्सु कल्याणे सुद्धाजीवे अतन्दिते ।।
(धम्मपद, गाथा 375)
अर्थात् इस धर्म में ज्ञानी भिक्षु का इसी से प्रारम्भ होता है-इन्द्रिय-संयम, संतोष और प्रतिमोक्ष नियमों का पालन। शुद्ध जीविकावाले, निरालस तथा सच्चे मित्रें का संग करे।
अप्पलाभोपि चे भिक्खू सलाभं नातिमञ्ञ्ोति ।
तं वे देवा पसंसन्ति सुद्धाजीविं अतन्दितं ।।
(धम्मपद, गाथा 366)
अर्थात् चाहे अल्प ही हो, भिक्षु अपने लाभ की अवहेलना न करे। उसकी देवता प्रशंसा करते हैं, जो शुद्ध जीविकावाला और आलस्य-रहित है।
इस संबंध में महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज का कथन है-‘साधक को स्वावलम्बी होना चाहिए। अपने पसीने की कमाई से उसका अपना निर्वाह करना चाहिए। थोड़ी-सी वस्तुओं को पाकर ही अपने को संतुष्ट रखने की आदत लगानी उसके लिए परमोचित है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, चिढ़, द्वेष आदि मनोविकारों से खूब बचते रहना चाहिए और दया, शील, संतोष, क्षमा, नम्रता आदि मन के उत्तम और सात्त्विक गुणों को धारण करते रहना साधक के पक्ष में अत्यन्त हितकर है।’
अतएव दृढ़ता से जानना चाहिए कि संतमत लोगों को प्रमादी नहीं बनता, बल्कि कर्मठ कर्मयोगी बनने की अविराम प्रेरणा देता है और दुंदुभि-नादों से निनादित करता है-
जीवन बिताओ स्वावलम्बी, भरम भाँड़े फ़ोड़िकर ।
सन्तों की आज्ञा हैं ये ‘मेँहीँ’, माथ धार छल छोड़िकर ।।
(महर्षि मेँहीँ-पदावली)
(शान्ति-सन्देश, मार्च 1991 ई0)
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अखिल विश्व के समस्त देशों के समक्ष हमारा देश भारतवर्ष अति प्राचीन काल से अध्यात्मवाद के लिए प्रसिद्ध होता चला आ रहा है। जिस प्रकार जलाशय में काल पाकर विभिन्न प्रकार के पप्र उत्फुल्ल होकर अपने सौन्दर्य एवं सौरभ से उस सरोवर को शोभायमान एवं सुरभित करते हैं, उसी भाँति इस भारत-भूमि पर ऋषि, मुनि, योगी, ज्ञानी, भक्त, संतजन एवं अवतारी पुरुष अवतीर्ण होकर अपने पावन पादपप्रों से इसे पवित्र कर योग, ज्ञान, ध्यान, भक्ति, मुक्ति तथा सच्चरित्रता प्रभृति की सीख दे अमरत्व होने का संदेश देते रहे हैं। किन्तु इन साधु- संत की पहचान सर्वसाधारण के लिए अति दुर्विज्ञेय है; क्योंकि सभी संतों ने लौकिक दृष्टि से बाहर में अपने को एक ही ढंग में नहीं रखा। किसी ने अपने को साधारण सांसारिक जन की नाईं गृहस्थाश्रम को अपनाकर तथा उसी में अवस्थित होकर जीवन-यापन किया, तो किसी ने गृहस्थ जीवन से अपने को सुदूर रखकर। किसी ने अपने को साधु-संन्यासियों के वेश में रखा, तो किसी ने अपने को शुद्ध गृहस्थ का बाना पहनाकर।
जैसे भगवान बुद्ध, महायोगी गोरखनाथजी महाराज तथा श्रीमदाद्य शंकराचार्यजी महाराज आदि संतों ने अपने को संन्यासी के वेश में रखा, तो संत कबीर साहब, गुरु नानकदेवजी तथा संत तुकारामजी प्रभृति संतों ने गृहस्थाश्रमी वेश-भूषा में अपना जीवन बिताया। प्राचीन एवं प्रसिद्ध राजर्षि जनकजी गृहस्थाश्रम में स्वर्ग का निर्माण करते हुए विदेह कहलाए। बाबा गुरु नानकदेवजी ने राजसी ठाट में रहते गृहस्थ का जीवन-यापन करते हुए जीवन्मुक्ति की दशा प्राप्त की। इसीलिए तो आज भी ‘जनक विदेही नानका’ की गूँज घर-घर में व्यापक है। संत तुकारामजी महाराज साधारण गृहस्थ परिवार में रहकर परमपद के अधि- कारी हुए। संतों की ऐसी अनेक जीवनगाथाएँ हैं। एक दिन के सत्संग-प्रवचन में कहते हुए पूज्यपाद गुरुदेव (महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज) ने कहा-‘संतों में कितनों ने तो गृहस्थ जीवन के राजशाही वेश में रहकर परमात्मा को प्राप्त किया और कितने ऐसे भी हुए, जिन्होंने गृहस्थ-जीवन से दूर-संन्यासी वेश में रहकर उस पद को प्राप्त किया। संतों में से किसी ने भी किसी वेश विशेष की प्रधानता नहीं दी है, वहाँ तो दृढ़ ध्यानाभ्यास करने की ही प्रधानता दी गई है, जिसके माध्यम से सभी संतजन परमात्मा का अपरोक्ष ज्ञान प्राप्त करके मोक्ष-पदाधिकारी हुए।
यथार्थ बात तो यह है कि असंयमित मन के साथ गृहस्थ अथवा विरक्त किसी भी आश्रम वा किसी भी वेश में रहने से न तो परमात्म-भजन ठीक-ठीक होता है और न परमात्मा की प्राप्ति ही। किन्तु संयमित मन के साथ गृहस्थ अथवा विरक्त किसी आश्रम वा वेश में रहने से, परमात्म-भजन ठीक-ठीक होगा और परमात्मा की प्राप्ति भी होगी। इसलिए किसी वेश में रहो, किन्तु दृढ़ ध्यानाभ्यास करो-संतों का यही संदेश है।
संतों ने किसी खास वेश पर जोर नहीं दिया कि तुम अमुक वेश में ही रहो, बल्कि उन्होंने किसी वेश का पक्षपात करनेवाले-किसी एक वेश पर ही जोर देनेवालों की भर्त्सना की है। जैसे किसी सम्प्रदाय या मत वाले ने काषाय वस्त्र धारण करनेवालों को बढ़ाने पर जोर दिया, तो किसी ने काषाय वस्त्र पहन कर मुण्डित रहने पर और किसी ने श्वेताम्बर धारण कर जटा या बाल बढ़ाने पर जोर दिया, तो किसी ने दिगम्बर रहकर बाल मुँड़ाने पर। किसी ने लाल चन्दन पर जोर दिया, तो किसी ने श्वेत चन्दन पर और किसी ने भस्म लगाने पर जोर लगाया, तो किसी ने कण्ठी-माला पहनने और फेरने पर। संतों ने इन बखेड़ों को मिटाने के लिए कहा-
मन न रंगाये रंगाये जोगी कपड़ा ।
दढ़िया बढ़ाय जोगी होइ गेलै बकरा ।।
संत कबीर साहब ने मुण्डित रहने पर जोर देनेवालों के लिए कहा-
केसन कहा बिगाड़िया, जो मूंड़ो सौ बार ।
मन को क्यों नहिं मूड़िये, जामें विषय विकार ।।
मुड़ मुड़ाये हरि मिलै, तो सब कोइ लेय मुड़ाय ।
बार बार के मूड़ते, भेंड़ बैकुण्ठ न जाय ।।
तिलक तथा कण्ठी-माला पर जोर देनेवालों के लिए कहा-
‘कबीर माला मनहिं की, और संसारी भेख ।
माला फ़ेरे हरि मिलै, तो गले रहट के देख ।।
माला तो कर में फि़रै, जीभ फि़रै मुँह माहिँ ।
मनुवाँ तो दह दिशि फि़रै, यह तो सुमिरण नाहिं ।।’
‘काह भये नर जटा बढ़ाये, का गुदरी के सिये ।
का रे भये कंठी के बाँधो, काह तिलक के दिये ।।’
-संत कबीर साहब
गुरु नानकदेवजी ने कहा है, गुदड़ी पहनने से, दण्ड-कमण्डल रखने से, भस्म लगाने से, शिर मुँड़ा लेने से, व्याख्यान की झड़ी लगा देने से, श्मशान में रहने से, देश-देशान्तर में भ्रमण करने से और तीर्थ- स्थान करने से योग-साधन नहीं होता और न परमात्मा की पहचान ही होती है।
जोगु न खिंथा जोग न डंडै, जोगु न भसम चड़ाईअै ।
जोगु न मुंदी मूंड़ि मूंड़ाइअै, जोग न सिं´ी वाईअै ।।
अंजन माहि निरंजनि रहीअै, जोग जुगति इव पाईअै ।
गली जोगु न होई ।
एक द्रिसटि करि समसरि जाणै, जोगी कहीअै सोई ।।
जोग न बाहरि मड़ी मसाणी, जोग न ताड़ी लाईअै ।
जोगु न देसि दिसंतरि भविअै, जोग न तीरथि नाईअै ।।
-गुरु नानकदेव
भगवान बुद्ध ने कहा-
न नग्गचरिया न जटा न पंका नाना सका थण्डिल सायिका वा ।
रजोवजल्लं उक्कुटिकप्पधानं सोधोन्ति मच्चं अवितिण्ण कंखं ।।
-धम्मपद, गाथा 141
अर्थात् जिस पुरुष की आकांक्षाएँ समाप्त नहीं हो गई हैं, उस मनुष्य की शुद्धि न नंगे रहने से, न जटा से, न पंक (लपटने) से, न फाका (उपवास) करने से, न कड़ी भूमि पर सोने से, न धूल लपेटने से और न ऊकड़न्न् बैठने से होती है। बल्कि उन्होंने ही कहा-
अलंकतो चेपि समंचरेय्य संतो दन्तो नियतो ब्रह्मचारी।
सब्बेसु भूतेषु निधाय दण्डं सो ब्राह्मणो सो समणो स भिक्खू।।
-धम्मपद, गाथा 142
अर्थात् अलंकृत रहते भी यदि वह शान्त, दान्त, नियम-तत्पर, ब्रह्मचारी तथा सारे प्राणियों के प्रति दण्डत्यागी है तो वही ब्राह्मण है, वही श्रमण (संन्यासी), वही भिक्षु है।
संत दादू दयालजी के शिष्य श्रीरज्जबजी ने ब्रह्मचारी और वैरागी होते हुए दुल्हे के वेश में रहकर अपना जीवन-यापन किया और संयम एवं साधना के बल पर उस पद को प्राप्त किया, जिस पद के अधिकारी अन्य सभी संत हुए। इसलिए संतों ने किसी एक ही वेश पर विशेष जोर नहीं दिया। बल्कि किसी भी प्रकार का वेश धारण करने की उन्होंने स्वतन्त्रता दी और कहा कि तुम किसी वेश में (बाल बढ़ाकर या मुण्डित रहकर) रहो; किन्तु चाहिए-परमात्मा के प्रति प्रगाढ़ प्रेम।
प्रेम भाव एक चाहिये, भेष अनेक बनाय ।
भावै लम्बे केस रख, भावै घूंट मुड़ाय ।।
-संत कबीर साहब
संत-दरबार में कुवेश-सुवेश किसी से भी घृणा नहीं। बल्कि वहाँ तो-
किये कुबेष साधु सनमानू ।
जिमि जग जामबन्त हनुमानू ।।
और- लखि सुबेष जग बंचक जेऊ ।
वेष प्रताप पूजियत तेऊ ।।
उघरे अन्त न होहिं निबाहू ।
कालनेमि जिमि रावण राहू ।।
-गो0 तुलसीदासजी महाराज
ऐसी बात है। परम संत बाबा देवी साहब का वचन है-‘हिन्दू, मुसलमान, ईसाई कुछ भी बने रहो, परन्तु दुनिया में दुःख-सुख भोगते हुए अन्तर में बिना अभ्यास किए एक दिन भी मत रहो।’
आशय यह कि आप किसी भी धर्म के माननेवाले क्यों न हों, सच्चे सद्गुरु से परमात्म- भजन की सद्युक्ति जानकर नित्य नियमित रूप से अवश्य भजन कीजिए। आप हाफ पेंट, कोट-बूट-सूट, जाकिट पहने हों या लुंगी अथवा पाजामा पहने हों या धोती ही पहने हों; नियन्त्रित मन से परमात्म-भजन अवश्य कीजिए और जबतक लक्ष्य की प्राप्ति न हो, उद्योग में शिथिलता नहीं आने दीजिए। आप जिस अवस्था में हों, ऐश्वर्यवान बनकर अथवा धनहीन होकर परमात्मा की मौज में, उनकी कृपा में संतुष्ट रहिए और सदाचार- समन्वित होकर भजन कीजिए। गरीब, अमीर और गृहस्थ-विरक्त की कोई बात नहीं है; सभी परमात्म- भजन के समान अधिकारी हैं।
राज महि राजा योग महिं योगी ।
तप में तपीसुर गृहस्थ माहिं भोगी ।।
-गुरु नानकदेव
भगवत्-भजन में ऊँच-नीच जाति के अनुकूल अधिकार वा अनधिकार नहीं है। वहाँ तो-
जाति पाँति पूछे नहिँ कोई ।
हरि को भजै सो हरि का होई ।।
तथा- साहब के दरबार में केवल भक्ति पियार ।
केवल भक्ति प्यार गुरु भक्ति में राजी ।
तजा सकल पकवान खाये दासी सुत भाजी ।।
जप तप नेम आचार करे बहुतेरा कोई ।
खाये शबरी के बेर मुए सब ;षि मुनि रोई ।।
राजा युधिष्ठिर यज्ञ बटोरा जोड़ा सकल समाजा ।
मरदा सबका मान श्वपच बिन घण्ट न बाजा ।।
पलटू ऊँची जाति का मत कोउ कर हंकार ।
साहब के दरबार में केवल भक्ति िपयार ।।
और भी,
क्या द्विजाति क्या शुद्र ईश को वेश्या भी भज सकती है ।
भक्ति भाव में श्वपचों को भी शुचिता कब तज सकती है ।।
संतों का यही मत है। इसलिए धनी-निर्धन, सुजाति-कुजाति, गृहस्थ-विरक्त कोई भी हों और किसी भी वेश में हों, परमात्म-भजन कीजिए।
(शान्ति-सन्देश, अप्रैल 1991)
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आदरणीय सज्जनवृन्द तथा आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
आज गुरु-पूर्णिमा के अवसर पर गुरु-पूजा हेतु आपलोगों की आध्यात्मिक उन्नति जानकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हो रही है और इसके लिए आपलोगों को बहुत-बहुत धन्यवाद देता हूँ। इस चिलचिलाती धूप में ग्रीष्म-वर्षा की चिन्ता नहीं कर यत्र-तत्र से आपलोग यहाँ एकत्र हुए हैं, यह इस बात का द्योतक है कि आपलोगों को गुरुदेव के प्रति कितनी अधिक आस्था है। यहाँ आपलोगों के निवास, भोजन आदि किसी की भी समुचित व्यवस्था नहीं है, फिर भी आपलोग प्रसन्न मन से सत्संग में संलग्न हैं।
आज आषाढ़ पूर्णिमा है। आज की तिथि को ही पराशर मुनि के पुत्र व्यासदेवजी का जन्म हुआ था, इसलिए इसको व्यास-पूर्णिमा भी कहते हैं। वास्तव में इनका नाम कृष्णद्वैपायन था। ये कृष्ण वर्ण के थे और द्वीप में इनका अवतरण हुआ था। वेद को चार भागों में विभक्त करने के कारण इनकी संज्ञा ‘वेद व्यास’ पड़ी। ये बहुत बड़े विद्वान थे। इन्होंने अठारहो पुराणों की रचना की। शास्त्रर्थ के लिए बुलाने पर ये ईरान गये थे। वहाँ उनकी विजय हुई और जगत्-गुरु की उपाधि मिली। तबसे व्यास-पूजा को लोग गुरु-पूजा के नाम से अभिहित करने लगे। उस तिथि को गुरु- श्रद्धालु भक्तगण अपने-अपने गुरु की पूजा करते हैं।
अवश्य ही जो ‘गुरु’ हैं, उनकी पूजा होनी चाहिए। संत सद्गुरु की पूजा में सबकी पूजा हो जाती है। जैसे वृक्ष की जड़ में पानी डालने से संपूर्ण वृक्ष हरा-भरा रहता है, इसी प्रकार एक गुरु-पूजा से समस्त देवी-देव प्रसन्न हो जाते हैं। क्यों? इसलिए कि-
देवी देव समस्त पूरण ब्रह्म परम प्रभू ।
गुरु में करैं निवास कहत हैं संत सभू ।।
(महर्षि मेँहीँ-पदावली)
जैसे हाथी के पद-चिह्न में सभी प्राणियों के पद-चिह्न समा जाते हैं, वैसे ही गुरु-पूजा हो जाने पर और कोई पूजा बाकी नहीं रह जाती, सबकी हो जाती है। संत-सद्गुरु की महिमा अनन्त है। वे अपने शिष्य के अनन्त लोचन का उन्मेष कराकर अनन्तस्वरूपी सर्वेश्वर का साक्षात्कार करा अनन्त उपकार करते हैं। इसलिये तो संत कबीर साहब ने कहा था-
सतगुरु की महिमा अनन्त, अनन्त किया उपकार ।
लोचन अनन्त उघारिया, अनन्त दिखावनहार ।।
सच्छास्त्रें में गुरु की तुलना कहीं देव से, तो कहीं त्रिदेव से कही गयी है। कहीं ईश्वर से, तो कहीं ईश्वर से बढ़कर की गयी है। योगशिखोपनिषद् में कहा गया है, यथा-
‘यस्य देवे परा भत्तिफ़र्यथा देवे तथा गुरौ।’
अर्थात् जिसकी देव में अत्यन्त भक्ति है (उसकी गुरु में भी, वैसी ही होनी चाहिए), गुरु और देव समान हैं। इसी योगशिखोपनिषद् के पंचम अध्याय में त्रिदेव से तुलना करते हुए इस प्रकार कहा गया है-
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवः सदाशिवः ।
न गुरोरधिकः कश्चिन्त्रिषु लोकेषु विद्यते ।।
दिव्यज्ञानोपदेष्टारं देशिकं परमेश्वरम् ।
पूज्येत्परया भक्त्या तस्य ज्ञान फलं भवेत ।।
यथा गुरुस्तथैवेशो यथैवेस्तथा गुरुः ।
पूजनीयो महाभक्त्या न भेदो विद्यतेऽनयोः ।।
अर्थात् गुरुदेव ही ब्रह्मा, विष्णु और सदाशिव हैं। तीनों लोकों में गुरु से बढ़कर कोई नहीं है। दिव्य ज्ञान के उपदेश देनेवाले उपस्थित प्रत्यक्ष परमेश्वर की भक्ति के साथ उपासना करे, तब वह शिष्य ज्ञान का फल प्राप्त करेगा। जैसे गुरु हैं, वैसे ही ईश हैं; जैसे ईश हैं, वैसे ही गुरु हैं। इन दोनों में भेद नहीं है, इस भावना से पूजा करे। संत चरणदासजी महाराज कहते हैं-
“ गुरु ही शेष महेश, तोहि चेतन करैं ।
गुरु ब्रह्मा गुरु विष्णु होय खाली भरैं ।।”
गो0 तुलसीदासजी महाराज गुरु और हरि की समानता इस भाँति बतलाते हैं-
श्रीहरि गुरु पद कमल भजहिं, मन तजि अभिमान ।
जेहि सेवत पाइय हरि, सुख निधान भगवान ।।
संत कबीर साहब गुरु को परमात्म-रूप में देखते हैं। वे कहते हैं-
परमातम गुरु निकट विराजैं, जागु जागु मन मेरे।
हमलोग प्रतिदिन प्रातःकालीन गुरु-स्तुति में परम पुरुष से गुरु विशेष हैं, का पाठ करते हैं-
“ नमो नमो सतगुरु नमो, जा सम कोउ न आन ।
परम पुरुष हू तें अधिक, गावैं संत सुजान ।।”
संत चरणदासजी महाराज की शिष्या गुरु भक्तिन सहजोबाई ने हरि से गुरु की विशेषता के कारण का विश्लेषण बड़े ही मार्मिक ढंग से किया है-
“ राम तजूँ पै गुरु न विसारूँ ।
गुरु के सम हरि कूँ न निहारूँ ।।
हरि ने जन्म दियो जग माहीँ ।
गुरु ने आवागमन छुटाहीँ ।।
हरि ने पाँच चोर दिये साथा ।
गुरु ने लई छुटाय अनाथा ।।
हरि ने कुटुँब जाल में गेरी ।
गुरु ने काटी ममता बेरी ।।
हरि ने रोग भोग उरझायौ ।
गुरु जोगी कर सबै छुटायौ ।।
हरि ने कर्म भर्म भरमायौ ।
गुरु ने आतम रूप लखायौ ।।
हरि ने मो सूँ आप छिपायौ ।
गुरु दीपक दे ताहि दिखायौ ।।
फिर हरि बंधमुक्ति गति लाये ।
गुरु ने सबही भर्म मिटाये ।।
चरणदास पर तन मन वारूँ।
गुरु न तजूँ हरि कूँ तजि डारूँ ।।”
जबसे हम इस संसार में आये हैं-शरीर में आये हैं, हमारे प्रभु हरदम, हरपल हमारे साथ रहे हैं; किन्तु उन्होंने कभी भी मुझसे नहीं कहा कि मैं तुम्हारे साथ ही हूँ, दर्शन कर लो, कल्याण हो जाएगा; भव दुःख मिट जाएगा, आवागमन का चक्र छूट जाएगा। हमारे प्रभु सतत हमारे अंग-संग रहते हम दुःखी हैं। इसीलिए तो गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा था-
“ अस प्रभु हृदय अछत अविकारी ।
सकल जीव जग दीन दुखारी ।।”
अपने गुरुदेव की वाणी में भी हम पढ़ते हैं कि प्रभु से गुरु विशेष हैं; क्योंकि बिना गुरु के प्रभु नहीं मिलते, यद्यपि वे हमारे उरपुर में भरपूर हैं-
प्रभु हू से गुरु अधिक जगत विख्यात अहै ।
बिनु गुरु प्रभु नहिं मिलैं, यदपि घट माहिं रहै ।।
उर माँही प्रभु गुप्त अन्धेरा छाइ रहै ।
गुरु गुर करत प्रकाश प्रभु को प्रत्यक्ष लहै ।।
हरदम प्रभु रहें संग कबहुँ भव दुख न टरै ।
भव दुख गुरु दें टारि सकल जय जयति करैं ।।
इस संदर्भ में अब संत सुंदरदासजी सुंदर उक्ति उनकी ही सुंदर वाणी में सुनिये-
गोविन्द के किये जीव, जात है रसातल को ।
गुरु उपदेशै सो तो, छूटै यम फन्द तैं ।।
गोविन्द के किये जीव, वश परे कर्मन के ।
गुरु के निवारे सूँ, फिरत है स्वछंद तैं ।।
गोविन्द के किये जीव, डूबत भवसागर में ।
सुन्दर कहत गुरु, काढ़ै दुख द्वन्द्व तें ।।
औरहू कहाँ लौं कछु, मुख तें कहूँ बनाय ।
गुरु की तौ महिमा, अधिक है गोविन्द तें ।।
गुरु की जितनी महिमा गायी जाए, थोड़ी होगी। संत कबीर साहब कहते हैं-
गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूँ पाय ।
बलिहारी गुरु आपने, जिन गोविन्द दियो बताय ।।
सब धरती कागद करूँ, लेखनी सब बनराय ।
सात समुँद की मसि करूँ, गुरु गुण लिखा न जाय ।।
विद्या-वरदा वीणापाणि जैसी वक्ता और गणपति जैसे लेखनकर्ता द्वारा भी गुरु-गुण बखान कर उनकी महिमा का अवसान नहीं किया जा सकता। चतुर्मुख ब्रह्मा, पंचमुख शिव, षण्मुख कार्तिकेय और सहस्त्रमुख शेष भी जिनके यशगान कर निःशेष नहीं कर सकते, फिर मुझ जैसा गोबर गणेश कुछ विशेष कैसे कह सकता है? इसी हेतु हमारे गुरुदेव ने कहा था-
“ गुरुगुण अमित अमित को जाना ।
संक्षेपहिं सब करत बखाना ।।”
किसी ने कितना अच्छा कहा है-क्या, कल्पतरु को किसी अन्य पुष्प द्वारा सजाया जा सकता है? क्या चंदन पर कोई लेप लगाया जा सकता है? क्या आकाश को कोई उबटन लगा सकता है? अथवा उसको और अधिक ऊपर उठाया जा सकता है? क्या कर्पूर की सुगंधि को बढ़ाने के लिए उसमें कुछ मिश्रित करने की आवश्यकता है? यदि नहीं, तो इसी प्रकार संत सद्गुरु का गुण-गान कर उसका समापन नहीं किया जा सकता। जैसे सूर्य के प्रकाश से समस्त जगत् प्रकाशित होता है, फिर भी श्रद्धालु भक्त उनको प्रदीप दिखाते हैं। इसी भाँति संत सद्गुरु के ज्ञानालोक से विश्व आलोकित होता है, तथापि श्रद्धालु शिष्य अपने गुरु के प्रति अपनी श्रद्धा सुमन चढ़ाकर संतुष्ट होते हैं। सद्गुरु की महिमा का वर्णन करते हुए संत दादू दयालजी महाराज कहते हैं-
“ सतगुरु पशु मानस करैं, मानस थैं सिध सोय ।
दादू सिध थैं देवता, देव निरंजन होय ।।”
संत सद्गुरु क्या नहीं कर सकते। वे पतित को पावन करनेवाले और नीचे को ऊपर उठानेवाले हैं, वे शिष्यों की पाशविक वृत्ति को दूर करनेवाले होते हैं। दानवता को दूर कर मानवता प्रदान करते हैं। इतना ही नहीं, देवताओं का देवत्व और प्रभु का प्रभुत्व उनमें ला देते हैं। वे सर्वेश्वर दाता होते हैं। वे क्या नहीं दे सकते! क्या नहीं कर सकते! वे सर्वसमर्थ होते हैं। जो प्रभु नहीं दे सकते, वे गुरु दे सकते हैं-
गुरु देवैं तासौं अधिक, राम सकै नहिं देय ।
मूर्ख बिगाड़े आपने, गुरु तजि रामहिं सेय ।।
गुरु रुचि स्वीकृत राम को, जानहु बारंबार ।
जो गुरु रुचि देवन नहीं, कभी न दे करतार ।।
इसका अर्थ यह नहीं है कि जैसे-तैसे को गुरु धारण कर लिया जाए। इस संबंध में बहुत सोच-समझ की आवश्यकता है। हमारे यहाँ यह कहावत तो सुप्रसिद्ध है ही-
‘गुरु कीजिये जान, पानी पीजिये छान ।’
‘गुरु’ कहते किनको हैं? संत कबीर साहब कहते हैं-
गुरु नाम है ज्ञान का, शिष्य सीख ले सोय ।
ज्ञान मर्याद जाने बिना, गुरु अरु शिष्य न कोय ।।
इस विषय में शास्त्र की सम्मति इस प्रकार है-
गु शब्दस्तवन्धकारः स्याद् रु शब्दस्तन्निवारकः ।
अंधकार निरोधीत्वाद् गुरुरित्यभिधीयते ।।
इस प्रकार ‘गुरु’ शब्द का अर्थ अंधकार का निवारक होता है। तात्पर्य यह कि जो अज्ञानांधकार को दूरीभूत कर प्रकाशपुंज में प्रतिष्ठित करें, वे गुरु हैं। गो0 तुलसीदासजी के विचार में-‘जो अज्ञानपद से ऊपर उठकर ज्ञान का कथन करते हों, अंधकारहीन होकर प्रकाश का वर्णन करते हों और त्रयगुण से परे निर्गुण में प्रतिष्ठित होकर अगुण का गुणगान करते हों, वे गुरु हैं। संत पलटू साहब कहते हैं-
धुन आनै जो गगन की सो मेरा गुरुदेव ।।
सो मेरा गुरुदेव सेवा मैं करिहौं वाकी ।
शब्द में है गलतान अवस्था ऐसी जाकी ।।
निस दिन दसा अरूढ़ लगै ना भूख पियासा ।
ज्ञान भूमि के बीच चलत है उलटी स्वासा ।।
तुरिया सेति अतीत सोधि फिरि सहज समाधी ।
भजन तेल की धार साधना निर्मल साधी ।।
पलटू तन मन वारिये मिलै जो ऐसा कोउ ।
धुन आनै जो गगन की सो मेरा गुरुदेव ।।
एक धनी दूसरे धनी को अपना धन देकर धन- वान बना सकता है। एक विद्वान अपनी विद्या का दान देकर दूसरे को विद्वान बना सकता है, तब एक संत सद्गुरु अपने योगबल से शिष्य के योगबल को बढ़ावे, इसमें संशय कहाँ है? पारस पत्थर अपने स्पर्श से लोहे को सोना बना सकता है। चंदन वृक्ष अपनी सुगंध से अन्य वृक्षों को चंदन बना सकता है। तब यदि कोई योग्य गुरु अपने श्रद्धालु शिष्य में अपनी यौगिक शक्ति का संचार कर उसको योग्य बना दे, तो इसमें विस्मय की बात ही क्या है?
पूरे और सच्चे सद्गुरु को धारण करने का फल तो अपार है ही; परन्तु ऐसे गुरु का मिलना अति दुर्लभ है। उनकी पहचान भी आसान नहीं है। फिर भी जो ज्ञान-नेत्रधारी हैं, वे तो कुछ-कुछ जान भी सकते हैं; लेकिन अनजान के लिए तो कहना ही क्या? सूर्य को सब कोई देख सकते हैं; किन्तु उल्लू नहीं देख पाता।
फूटी आँख विवेक की, लखे न संत असंत ।
जाके संग दस बीस है, ताका नाम महंत ।।
महंत और महंत-संतान बनने से कल्याण नहीं होगा। उद्धार तो तभी होगा, जब हम संत वा संत-संतान बन सकेंगे। हमारे गुरुदेव का अनमोल वाक्य है-
संतमता बिनु गति नहीं, सुनो सकल दे कान ।
जौं चाहो उद्धार को, बनो संत संतान ।।
आज गुरु-पूजा का दिन है। पूजा किनकी हो? इसकी विशद व्याख्या संत पलटू साहब ने की है। उन्होंने कहा-‘बड़ा होय तेहि पूजिये, संतन किया विचार।’ बड़ा कौन? ताड़ वृक्ष बड़ा होता है; लेकिन उसकी पूजा कोई नहीं करता, करता है तुलसी बिरवा की, जिसकी ऊँचाई बहुत थोड़ी होती है। हिमालय पहाड़ बहुत बड़ा और उसकी ऊँचाई गगनचुम्बी है। लोग उसकी पूजा नहीं कर छोटे-से पत्थर शालिग्राम- शिवलिंग की पूजा करते हैं। वास्तविक बात तो यह है कि वेश-विशेष के कारण नहीं, बल्कि गुण-विशेष के कारण पूजा होती है। जो गुरु के गुण से गुणान्वित हों, उनकी पूजा अवश्य होनी चाहिए। अब पलटू साहब की पूरी वाणी सुनिये-
बड़ा होय तेहि पूजिये, संतन किया विचार ।।
संतन किया विचार, ज्ञान का दीपक लीन्हा ।
देवता तैंतिस कोटि, नजर में सबको चीन्हा ।।
सबका खंडन किया, खोजि के तीनि निकारा ।
तीनों में दुइ सही, मुक्ति का एकै द्वारा ।।
हरि को लिया निकारि, बहुरि तिन मंत्र विचारा ।
हरि हैं गुण के बीच, संत हैं गुण तें न्यारा ।।
पलटू प्रथमै संत जन, दूजे हैं करतार ।
बड़ा होय तेहि पूजिये, संतन किया विचार ।।
वैदिक संस्कृति में तैंतीस करोड़ देवी-देवता बताये गये हैं। कोई भी उपासक एक-एक करके इतने देवी-देवताओं की पूजा वा उपासना नहीं कर सकते। मान लिया-किसी ने किसी प्रकार से एक करोड़ की पूजा करके उनको प्रसन्न कर भी लिया, तो फिर भी बत्तीस करोड़ देवी-देवता तो उससे अप्रसन्न ही रहेंगे। ऐसी अवस्था में क्या उपाय है कि उन सबको प्रसन्न किया जाय? संत पलटू साहब ने उन तैंतीस करोड़ों का मनन-चिन्तन कर त्रिदेव का चयन किया। पुनः तीनों में उन्होंने हरि को चुनकर देखा, तो उनको त्रिगुण में अैर संत को निर्गुण के भी परे पाया।
सगुण की सेवा करो, निर्गुण का करु ज्ञान ।
निर्गुण सगुण के परे, तहाँ हमारा ध्यान ।।
(संत कबीर साहब)
“ निरगुन सरगुन त्रयगुण ते दूरि ।
रहा अलिप्त नानक भरपूरि ।।”
(गुरु नानकदेवजी)
हम अपने गुरुदेव के वचन में पाते हैं-
सब क्षेत्र क्षर अपरा परा पर औरु अक्षर पार में ।
निर्गुण सगुण के पार में सत असत हू के पार में ।।
गोस्वामी तुलसीदासजी भी इस विचार से सहमत हैं। संत कैसे होते हैं, इस विषय में वे अपना विचार व्यक्त करते हैं-
“ शांत निरपेच्छ निर्मम निरामय
अगुण शब्द ब्रह्मैक पर ब्रह्म ज्ञानी ।”
इन्हीं संतों में से कोई एक हमारे सद्गुरु होते हैं। संतों का ज्ञानोपदेश सामूहिक होता है; किन्तु वो हमारे गुरुदेव होते हैं, वे व्यक्तिगत रूप से हमें शिक्षा-दीक्षा देते हैं। सभी संतों का समान रूप से सम्मान हो, किन्हीं का भी अपमान नहीं हो। इसलिये “ सब सन्तह की बड़ि बलिहारी” कहकर उन सबकी हम स्तुति करते हैं। तथा-
एकहि साधे सब सधै, सब साधे सब जाय ।
जो गहि सेवै मूल को, फूले फलै अघाय ।।
जैसे तरुवर की जड़ में जल देने से सम्पूर्ण वृक्ष हरा-भरा होकर फल-फूल से भर जाता है, वैसे ही एक सन्त सद्गुरु के भजन-पूजन में सबके भजन-पूजन सम्पन्न हो जाते हैं। जैसे वेसन में नमक डाल देने से छोटी-बड़ी सभी प्रकार की पकौड़ियों में समान रूप से लवण हो जाता है। उसी तरह एक गुरुदेव की उपासना में छोटे-बड़े सभी देवियों और देवों की उपासना हो जाती है। स्वयं भगवान् श्रीराम संत-सद्गुरु का गुणगान करते हैं। श्री शबरीजी को नवधा भक्ति का उपदेश देते हुए कहते हैं-
‘प्रथम भगति सन्तन्ह कर संगा ।’
तथा- “ सातवँ सम मोहि मय जग देखा ।
मोतें अधिक संत करि लेखा ।।”
कहा है। तीसरी भक्ति में मान-रहित होकर “ गुरुपद पंकज सेवा” का आदेश दिया है। वनवास-काल में जब भगवान् श्रीराम वाल्मीकि मुनिजी के आश्रम में जाते हैं और उनसे अपने निवास के लिए स्थान पूछते हैं, वाल्मीकिजी क्या उत्तर देते हैं, रामचरितमानस में पढ़िये-
तुम्हतें अधिक गुरुहिं जिय जानी ।
सकल भाव सेवहिं सनमानी ।।
अर्थात् हे राम! जो कोई अपने मन में तुमसे बढ़कर अपने गुरु को जानता हो और सब तरह से सम्मान कर सेवा करता हो, उसके हृदय में निवास करो। जब सुरारि रावण पर असुरारि श्रीराम विजय प्राप्त कर अयोध्या आये, तो माता कौशल्याजी प्यार- पूर्वक पूछती हैं-बेटा! कहाँ तुम्हारा सुकोमल शरीर और कहाँ दुर्जय दानव रावण, जिसने देव, दानव, मानव, यक्ष, गन्धर्व, किन्नरादि सब पर आधिपत्य कर रखा था, उसको ससैन्य तुमने कैसे मारा? भगवान श्रीराम कहते हैं-माँ! “ गुरु वसिष्ठ कुल पूज्य हमारे । तिनकी कृपा दनुज रण मारे ।।”
अब तुलसीकृत हनुमान चालीसा की ओर आपका ध्यान आकर्षित करना चाहूँगा। यहाँ आप सर्वप्रथम गुरु का स्थान पायँगे, द्वितीय में श्रीराम का और तृतीय स्थान हनुमानजी का। यथा-
श्रीगुरु चरण सरोज रज, निज मन मुकुर सुधार ।
वरनौं रघुवर विमल यश, जो दायक फल चार ।।
बद्धिहीन तनु जानिकै, सुमिरौं पवन कुमार ।
बल बुधि विद्या देहु मोहि, हरहु कलेश विकार ।।
और तो और, आगे चलकर देखिये, वे और क्या कहते हैं-
“ जय जय जय हनुमान गोसाईं ।
कृपा करो गुरुदेव की नाईं ।।”
गुरुदेव की कृपा के आकांक्षी हैं। गोस्वामीजी, न कि श्रीरामजी वा हनुमानजी की। क्यों? इसलिये कि गुरुदेव की कृपा अन्यों की अपेक्षा अपना विशेष स्थान रखती है।
रामनाम कलि कामतरु, राम भगति सुरधेनु ।
सकल सुमंगल मूल जग, गुरु पद पंकज रेनु ।।
कहने का तात्पर्य यह कि कल्पवृक्ष और कामधेनु को पाकर आंशिक मंगल होगा, सकल सुमंगल नहीं। अतएव यदि हम सकल सुमंगल चाहते हैं-उभयलोक में कल्याण चाहते हैं, तो वह है-‘गुरु पद पंकज रेनु’ अर्थात् गुरु-पद पप्र-पराग में अविचल अनुराग। गुरु-पूजा का यही हेतु है। सूर्य दिन में, चन्द्र रात्रि में और दीपक भवन के भीतर उजाला करता है; किन्तु सन्त-सद्गुरु अपने ज्ञानालोक से शिष्य के अन्तर्जगत् को अहर्निश आलोकित करते रहते हैं।
पूरे गुरु की पूजा के लिए यह गुरु-पूर्णिमा पर्व मनाया जाता है। हमारे गुरुदेव पूर्ण थे, त्रिकालज्ञ थे। भूत, भविष्य, वर्त्तमान सबके वे ज्ञाता थे। इस सन्दर्भ में जितना सुनाया जाए, थोड़ा होगा। फिर भी, एक घटना सुना रहा हूँ-
परम पूज्य गुरुदेव के पार्थिव तन परित्याग के कुछ वर्ष पूर्व की बात है, वे कटिहार से कार-द्वारा पटना के लिये प्रस्थान किये थे। मेरे सहित तीन-चार सेवक और भी उसी गाड़ी में थे। गाड़ी कटिहार शहर से बाहर निकलने पर एक अपरिचित सज्जन की जीप भी उसी के पीछे-पीछे चली, जिस पर कई सज्जन बैठे थे। पुरैनियाँ पहुँचने पर गुरुदेव ने अपनी गाड़ी रुकवा दी। जीप आगे बढ़ गयी। गाड़ी रुकी रही। हमलोग अपनी अदूरदर्शिता के कारण समझ रहे थे कि यहाँ व्यर्थ समय बर्बाद हो रहा है। इतनी देर में गाड़ी कितनी अधिक दूर चली गयी होती। आत्मदृष्टि- प्राप्त हमारे गुरुदेव जानते थे, भविष्य में क्या होने वाला है।
लगभग आधे घण्टे के बाद गाड़ी चलाने का आदेश गुरुदेव देते हैं। गाड़ी चली। गेड़ाबाड़ी से आगे पहुँचने पर हमलोगों ने देखा, एक वृक्ष के गिर जाने के कारण वह जीप चूर-चूर हो गयी है और उसपर बैठे सज्जनों की लाशें सड़क पर बिछी हैं। ऐसे महिमा-मण्डित थे हमारे गुरुदेव। उन पहुँचे हुए सन्त-सद्गुरु की पूजा-हेतु ही हमलोग आज यहाँ समवेत हुए हैं। उन्होंने हमलोगों को ईश्वर-प्राप्ति का सरल और सीधा मार्ग बताया है, जिसपर चलने के अधिकारी सभी नर-नारियाँ हैं। उनका उद्घोष है-
जितने मनुष तन धारि हैं,
प्रभु-भत्तिफ़ कर सकते सभी ।
अन्तर व बाहर भत्तिफ़ कर,
घट-पट हटाना चाहिए ।।
आपके उपदेशों का सार है-एक ईश्वर पर अचल विश्वास, पूर्ण भरोसा तथा अपने अन्दर में उनकी प्राप्ति का दृढ़ निश्चय रखना, सत्संग करना, नित्य नियमित रूप से ध्यानाभ्यास करना और सद्गरु की निष्कपट सेवा करनी-इन पंच विधि कर्मों के परिपालन के साथ पंच निषिद्ध कर्मों के परित्याग का भी आपने प्रबल आदेश दिया है, वे हैं-झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार। उनके ही शब्दों में हम कह सकेंगे-
सत्संग नित अरु ध्यान नित, रहिये संलग्न हो ।
व्यभिचार चोरी नशा हिंसा, झूठ तजना चाहिये ।।
आपने साथ ही, जीवन-यापन के लिए पवित्र कमाई करने की शिक्षा दी। आपके आदेश और उपदेश के परिवेश में यदि हम अपने को रख सकेंगे, तो हमारा भव-क्लेश निःशेष होगा, यह सुनश्चित है। यह महर्षि मेँहीँ आश्रम पावन तपोभूमि है। परम पूज्य गुरुदेव ने यहाँ तपस्या की थी तथा साधना कर सिद्धि-लाभ किया था। इसको हम अपवित्र नहीं बनावें। प्रत्येक सत्संगी सज्जन का यह पुनीत कर्त्तव्य है कि वे इसकी मर्यादा की रक्षा कर पुण्य के भागी बनें।
इन्हीं कतिपय शब्दों के साथ सद्गुरु देव के पाद-पप्रों में अनन्त प्रणाम निवेदित करते हुए अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ और आपलोगों को अनेकानेक धन्यवाद देता हूँ! त
यह प्रवचन महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट, भागलपुर में दिनांक 26-7-1991 ई0 को साप्ताहिक सत्संग के सुअवसर पर हुआ था। (शां0सं0जुलाई 2015 ई0)
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प्रायः देखा जाता है कि श्री-विहीन जन का मन दीन, हीन और खिन्न बना रहता है। वही जब श्री-श्रित हो जाता है, तो ‘श्रीमत्’ कहलाता है और जब उसकी बुद्धि को ‘श्री’ मथ डालती है, तब वह ‘श्रीमथ’ हो जाता है। फिर ‘त’ वर्ग का तृतीय वर्ण ‘द’ आ धमकता है और वह श्रीमद-मत्त हो जाता है। ‘मद’ शब्द के अनेक अर्थों में ‘नशा’ भी एक अर्थ है। नशेबाज दूसरे की आवाज नहीं सुनता, वह अपने में ही मस्त रहता है। इसी प्रकार किसी विशिष्ट पद पर आसीन व्यक्ति प्रभुता पाकर अन्यों की ओर से उदासीन हो जाता है। वह किसी का सद्विचार सुनना नहीं चाहता। वह सद्धर्म की और से वधिर हो जाता है। ऐसे लोगों की गति-मति सन्मार्ग-विचलित हो ‘वक्र’ हो जाती है। ऐसे ही लोगों की ओर रविकुलकमलदिवाकर भगवन्त श्रीराम के अनन्य भक्त कविकुलकैरवसुधाकर संत तुलसीदासजी का संकेत है।
श्रीमद वक्र न कीन्ह केहि, प्रभुता बधिर न काहि ।
‘प’ और ‘म’ दोनों ही वर्ण ‘प’ वर्गीय हैं। दोनों की आकृतियाँ करीब-करीब मिलती-जुलती दीखती हैं। उभय वर्णों में मात्र इतना ही अन्तर है कि ‘प’ की अपेक्षा ‘म’ का नितम्ब-भाग कुछ मोटा होता है। यदि ‘प’ के पिछले निम्न भाग को थोड़ा मोटा कर दिया जाए, तो वह सरलतापूर्वक ‘म’ बन जाएगा। यद्यपि यह भाषा-विनोद है, तथापि प्रकृत सत्य भी इसके अन्दर निहित है। तात्पर्य यह कि ‘पद’ पाने में जितनी भी देर क्यों न लग जाए, किन्तु ‘मद’ आने में देर नहीं लगती। यही हेतु है कि सत्ता पाने के पश्चात् ही सत्ताधारी सुराप के समान व्यवहार करने लगता है। ऐसा लगता है, मानों सत्ता पाने का अर्थ सुरापान ही हो।
संतों की दृष्टि बड़ी पैनी होती है। संत कबीर ने ‘मद’ को विभिन्न रूपों में देखा है। उन अनेक में सके कुछेक की चर्चा उन्होंने इस प्रकार की है-
मद तो बहुतक भाँति का, ताहि न जानै कोय ।
तनमद मनमद जातिमद, मायामद सब लोय ।।
विद्यामद और गुनहु मद, राजमद्द उनमद्द ।
इतने मद को रद करै, तब पावै अनहद्द ।।
चूँकि शीर्षक की पंक्ति में कवि का संकेत ‘राजमद’ की ओर है, अतएव आइए, हम ‘राजमद’ पर ही थोड़ा विचार करें। कवि का कथन है कि ‘राजमद’ ने किसको कलंक नहीं दिया? अर्थात् राजपद पाकर मद में आकर सभी कलंकित हुए। इस विषय की पुष्टि के लिए उन्होंने श्रीलक्ष्मण जी की सूक्ति का आश्रय लेकर छः विशिष्ट व्यक्तियों का चरित्र-चित्रण किया है-
शशि गुरुतिगामी नहुष, चढ़ेउ भूमिसुर जान ।
लोक वेद ते विमुख भा, अधाम न बेन समान ।।
सहसबाहु सुरनाथ त्रिशंकू । केहि न राजमद दीन्ह कलंकू ।।
चन्द्रमा ने अपनी गुरुपत्नी के साथ गमन किया। नहुष ने राज्यमद में आकर ब्राह्मणों से पालकी उठवायी। वेण के समान कौन अधम है, जो लोक और वेद से विमुख हुआ? राजा वेण ने राजमद में मत्त होकर मुनियों एवं ब्राह्मणों को मूर्ख बताते हुए कहा-‘खेद है, तुमलोगों ने अधर्म में ही धर्म-बुद्धि कर रखी है। जो लोग मूर्खतावश राजा-रूपी परमेश्वर का अनादर करते हैं, उन्हें न तो लोक सुख मिलता है, न परलोक में ही।’ इस प्रकार वेण ने सारे देश को आदेश दिया कि उसे छोड़कर कोई अन्य ईश्वर की आराधना या उपासना नहीं करे। मुनियों और ब्राह्मणों ने उन्हें समझाने की बहुत चेष्टा की; किन्तु उन्होंने किन्हीं की बात न मानी। परिणाम यह हुआ कि मुनियों और ब्राह्मणों ने केवल हुँकार से ही उनका काम तमाम कर दिया।
सब देव, दनुज और मनुज पर विजयी दशभुज को पराजित कर सहस्त्रभुज का विजयोल्लास आकाश छूने चला था। अपने गर्व के सामने वह सबको खर्व समझता था। राजपद के नशे में चूर होकर एकबार वह महर्षि यमदग्नि के आश्रम गया। वहाँ उनकी कामधेनु को देखकर उसका मन लेने के लिए मचल उठा। राज्याभिमान में उसने महर्षि जी के मानापमान पर कुछ भी ध्यान नहीं दिया। बल्कि उनकी इच्छा के विरुद्ध उनकी गाय लेकर चलने लगा। श्री परशुराम जी से यह देखा नहीं गया। उन्होंने उस अहंकारी का अहंकार-सहित संहार कर डाला।
‘सत्ता’ स्वच्छन्दता और उच्छृंखलता का सृजन करती है। सत्ताधारी सुरराज ने त्वष्टा का वध करके ब्र्रह्महत्या का पातक सिर पर लिया। साथ ही उन्होंने ऐसे-ऐसे काज किए, जिस कारण समाज के मुँह दिखाना दूभर हो गया। फलतः सुर-सिरताज होते हुए भी लाज के मारे राज छोड़कर वर्षों छिपे रहे।
राजा त्रिशंकु निःशंक होकर सशरीर स्वर्ग जाना चाहता था। इसके लिए उसने महर्षि वशिष्ठ से प्रार्थना की। वशिष्ठ जी ने अपनी सहायता या सम्मति नहीं दी। फिर भी विश्वामित्र का सहयोग पाकर यद्यपि उसने कुछ अंश में सफलता पाई भी; किन्तु इन्द्र ने सुरपुर से उसको नीचे ढकेल दिया। वह पतित होकर पृथ्वी की ओर आ रहा था कि विश्वामित्र ने नीचे आने से उसको रोक दिया। इस प्रकार वह न ऊपर रहा, न नीचे ही; बीच में ही अर्र्द्धमुख लटका रह गया। इस प्रकार राजाओं के प्रति प्रिय अनुज श्रीलक्ष्मण जी के कहे गए सरोष वचन को श्रीभगवान निज कान से श्रवण करते रहे। मात्र श्रवण ही नहीं, बल्कि वचन-समर्थन में उन्होंने अपनी स्वीकृति की मुहर भी लगाई है।
कही तात तुम नीति सुहाई ।
सब तें कठिन राजमद भाई ।।
जो अँचवत मातहि नृप तेई ।
नाहिन साधु सभा जिन सेई ।।
हे तात! तुमने अच्छी नीति कही है। राजमद सबसे कठिन होता है। जो कोई राज्यरूपी मदिरा का पान करते हैं, वे सभी नृप मत्त हो जाते हैं, जिन्होंने साधु-सभा का सेवन नहीं किया है।
अब इस प्रसंग को यदि हम दूसरी दृष्टि से अवलोकन करना चाहें तो प्रतीत होगा कि कविकुलभूषण गोस्वामी जी ने ‘केहि न राजमद दीन्ह कलूंक’ कहकर प्रश्न चिह्न (?) लगा दिया है। तात्पर्य यह कि क्या ऐसे भी कोई हैं, जिनको ‘राजमद’ ने कलंकित नहीं किया, यदि वे हैं तो कौन?
इस सन्दर्भ में भी हम उन्हीं राघवेन्द्र के श्रीमुख से अपनी जिज्ञासा का समाधान कराना चाहेंगे। देखें, वे क्या कहना चाहते हैं? जिस प्रकार व्याकरण के सभी शब्द नियम से बँधे होते हैं, किन्तु यदा-कदा अपवादस्वरूप कुछ ऐसे भी शब्द सामने आ खड़े होते हैं, जिनको परे करना, बुद्धि से परे की बात हो जाती है। अन्ततः उसको स्वीकार करना ही पड़ता है। इसी प्रकार शेषावतार की शुरू से शेष तक की सारी बातों का समर्थन यद्यपि प्रभु रमेश ने किया, फिर भी महेश को साक्षी देकर प्रियानुज भरत को सामने रखा। श्रीभरतजी के पवित्र चरित्र की प्रशंसा भूत-भावन शंकर के शब्दों में सुनिए-
अवधाराज सुरराज सिहाई ।
दशरथ धन लखि धनद लजाई ।।
तेहि पुर बसत भरत बिनुरागा ।
चंचरीक जिमि चंपक बागा ।।
रमाविलास राम अनुरागी ।
तजत वमन इव जन बड़भागी ।।
(मानस, अयोध्याकाण्ड)
श्रीभरत जी की गुण-गथा गाते कवि अघाते नहीं। उनकी उक्ति कितनी युक्तियुक्त बैठती है! भक्त-हृदय को झकझोरे बिना छोड़ती नहीं।
भरत सरिस को राम-सनेही । जग जपु राम राम जपु जेही ।
श्रीभरत जी के समान श्रीरामचन्द्रजी का स्नेही अन्य कौन है? कि दुनिया तो राम को जपती है और राम ‘भरत’ जी को जपते हैं। इसीलिए तो उनके लिए यह वचन सार्थक है-
जौं न होत जग जन्म भरत को ।
सकल धर्म धुर धारणि धारत को ।।
यदि भरतजी का जन्म जगत में नहीं होता, तो सर्वधर्म की धुरी को पृथ्वी पर कौन धारण करता?
जिस अवध राज्य की सराहना इन्द्र करते हैं, जिस दशरथजी के धनैश्वर्य को देखकर धन के धनी कुबेर लज्जित होते हैं, उस पुर में भरतजी बिना राग-वैराग्ययुक्त हो बसते हैं, जैसे चम्पे के बाग में भौंरा राग-रहित बसता है। हे पार्वती! राम-अनुरागी जन बड़भागी होते हैं। वे (रमा-विलास) धनादिक ब्रह्माण्ड के ऐश्वर्य को वमन के समान त्याग देते हैं।
यदि शंका हो कि जिस राज्य को पाकर प्रायः सभी राजा पथभ्रष्ट हुए, उसी राज्य को पाकर श्रीभरत जी सर्वश्रेष्ठ कैसे बने रहे? उत्तर में निवेदन है कि काम, क्रोध, मद, लोभ आदि विकार मायामुखी मन में उद्भूत होते हैं, ब्रह्ममुखी वा ब्रह्मभूत जन में नहीं। जो प्रभु के अनन्य भक्त होते हैं तथा सतत साधु- संतों की सभा का सेवन करते रहते हैं, उन पर माया का प्रभाव नहीं पड़ता। उनको माया प्रभावित नहीं कर सकती। वे मायिक पदार्थों के आकर्षण में नहीं पड़ते। प्रभु की छत्रच्छाया में रहने के कारण माया उनसे डरती है। इसलिए उनपर अपनी कुछ प्रभुता कर नहीं सकती।
भगतिहिं सानुकूल रघुराया ।
ताते तेहि डरपति अति माया ।।
रामभगति निरुपम निरुपाधाी ।
बसइ जासु उर सदा अबाधाी ।।
तेहि विलोकि माया सकुचाई ।
करि न सकइ कछु निज प्रभुताई।।
श्रीभरतजी साधु-संत-सेवी थे। भगवान के अनन्य भक्त थे। भगवदनुरागी होने के कारण स्वभावतः वे विषय-विरागी थे। चक्रवर्ती राजा दशरथ के राज्य वैभव को पाकर भी वे जल-कमलवत् रहते थे। जैसे हाथ में तेल लगाकर कटहल काटनेवाले को उसका लस्सा नहीं लगता, उसी प्रकार भगवद्भक्ति से हृदय को तर करके सांसारिक कार्य करनेवाले को संसारा- सक्ति नहीं होती। वस्तुतः सभी सद्गुणों से सम्पन्न श्रीभरतजी थे। इसीलिए उनके संबंध में मर्यादापुरुषोत्तम भगवान श्रीराम स्पष्ट शब्दों में अत्यन्त दृढ़तापूर्वक चुनौती देते हुए कहते हैं-
सुनहु लखन भल भरत सरीसा ।
विधि प्रपंच महँ सुना न दीसा ।।
भरतहिं होय न राजमद, विधि हरिहर पद पाय ।
कबहुँ कि काँजी सीकरन्हि, क्षीरसिन्धु बिनसाय ।।
तरुण तिमिर तरणिहिं सकु गिलई ।
गगन मग न मकु मेघहिं मिलई ।।
गोपद जल बूड़हिं घट जोनी ।
सहज क्षमा मकु छोड़हिं छोनी ।।
मसक फ़ूँक बरु मेरु उड़ाई । होइ न नृपमद भरतहिं भाई ।।
अर्थात् भगवान श्रीराम कहते हैं-‘हे लक्ष्मण! सुनो, भरत-सरीखा उत्तम पुरुष ब्रह्मा की सृष्टि में नहीं सुना गया;़ न देखा ही गया है। ब्रह्मा, विष्णु और महादेव का पद पाकर भी भरत को राज्य का मद नहीं होने का। क्या काँजी की बूँदों से क्षीर समुद्र नष्ट हो सकता है? अन्धकार चाहे तरुण (मध्याह्न) के सूर्य को निगल जाए। आकाश चाहे बादलों में समाकर मिल जाए। गौं के खुर इतने जल में अगस्त्य जी डूब जाएँ और पृथ्वी चाहे अपनी स्वाभाविक क्षमा (सहनशीलता) को छोड़ दे। मच्छर की फूँक से चाहे पहाड़ उड़ जाए, परन्तु हे भाई! भरत को राजमद कभी नहीं हो सकता।
निष्कर्ष यह कि अध्यात्म-विहीन राजनीति अपवित्र होती है तथा अध्यात्म-संयुक्त राजनीति पवित्र होती है। अतएव अपने जीवन को पावन बनाने के लिए हम अध्यात्म अपनावें।
(शान्ति-संदेश, जुलाई 1991)
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अभी आपलोग भगवान् श्रीराम का राज्या- भिषेक, उनका जंगल जाना, सीता-हरण, लक्ष्मणजी का मूर्च्छित होना आदि के संबंध में कथा सुन रहे थे। कथित प्रसंग बतलाता है कि वास्तव में यह संसार दुःखालय है।
दुःख + आलय = दुःखालय अर्थात् दुःख का घर। सबसे भारी दुःख का कारण तो हमलोगों का शरीर है। जो कोई शरीर में आते हैं, तो वे संसार में आते हैं। शरीर में रहने के कारण ही दैहिक, दैविक, भौतिक-इन त्रितापों से संतप्त होते रहते हैं। संतों ने कहा है कि ऐसा उपाय करो, जिससे शरीर में आना न हो। जब शरीर में हम आयेंगे ही नहीं, तो फिर दुःख पायेगा कौन? जिससे शरीर में हम नहीं आवें, इसका यत्न यह है कि ईश्वर की भक्ति करें। संसार में जो कोई आयेंगे, चाहे वे बहुत बड़े पद पर हों धनवान हों, बलवान हों, विद्वान हों, गुणवान आदि कोई हों, दुःख निश्चित रूप से होगा ही। जैसे न सदा दिन रहता है और न सदा रात रहती है। दिन के बाद रात और रात के बाद दिन होता रहता है। उसी तरह दुःख के बाद सुख और सुख के बाद दुःख चक्के की तरह घूमता रहता है। न सदा पूर्णमासी रहती है, न सदा अमावस्या ही। अमावस्या भी होती है और पूर्णमासी भी। उसी तरह जीवन में दुःख भी देखने में आते हैं और सुख भी। आज से कुछ महीने पूर्व जिस नदी में बालू उड़ रहा था, उसमें आज पानी उमड़ रहा है। इस तरह चलते-चलते यह बाढ़ भी समाप्त हो जायगी, फिर धूल उड़ने लग जायगी। समस्त जीवन में इसी तरह उलट-फेर का चक्र चलता रहता है। संतों ने इससे बचने का उपाय बतलाया है-ईश्वर का भजन करो। भक्तप्रवर संत सूरदासजी महाराज ने उपर्युक्त विषय की सम्पुष्टि में कहा-
“ ताते सेइये यदुराई ।
सम्पति विपति विपति सौं सम्पति, देह धरे को यहै सुभाई ।।
तरुवर फूलै फलै परिहरै, अपने कालहिं पाई ।
सरवर नीर भरै पुनि उमडै़, सूखे खेह उड़ाई ।।
द्वितीय चन्द्र बाढ़त ही बाढ़े, घटत घटत घटि जाई ।
सूरदास सम्पदा आपदा, जिनि कोऊ पतिआई ।।”
वनवास-काल में रात्रि के समय भगवान श्रीराम भगवती सीताजी के साथ जब पत्ते की शय्या पर विश्राम कर रहे थे, थोड़ी दूर पर लक्ष्मण जगकर पहरा दे रहे थे। उनके निकट गुह-निषाद आते हैं और भगवान् श्रीराम और भगवती सीताजी को इस विषम परिस्थिति में देखकर बड़े दुःखी होते हैं। निषाद के मन में विषाद होता है और वे लक्ष्मणजी से कहने लग जाते हैं कि कैकेयी ने यह अच्छा नहीं किया। राजराजेश्वर श्रीराम और राजरानी सीता को वनवास दे दिया। लक्ष्मणजी ने कहा-
“ काहु न कोउ सुख दुख कर दाता ।
निज कृत कर्म भोग सुनु भ्राता ।।”
हे भाई! आप कैकेयी को व्यर्थ क्यों दोष देते हैं? कोई किसी को सुख या दुःख देनेवाला नहीं है। सब कोई अपने-अपने किये हुए कर्मों का फल भोगते हैं। जैसे मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम अपने कर्म का फल जंगल में भोग रहे हैं।
इसी प्रकार सीताजी भी अपने कर्म का फल भोग रही हैं। कथा है कि सीताजी ने एक सुग्गी पाल रखी थी। राजपुत्री होने के नाते सुग्गी को सोने के पिंजरे में रखती थीं और उसको दूध-भात खिलाती थीं। सुग्गी ने शाप दे दिया सीताजी को-‘सीते! तुमने मुझे पति से वियोग करवाया है। तुमको भी पति-वियोग होगा। पति के वियोग में पत्नी की क्या हालत होती है, उसका अनुभव तुमको नहीं है, वह हो जायगा। इसी कारण रावण ने सीता का हरण किया और सोने की लंका में जाकर रखा। सीताजी सुग्गी को दूध-भात खिलाती थी। सीता जी के भोजन के लिए इन्द्र ने खीर की व्यवस्था कर दी थी। वास्तव में कर्म का फल अमिट होता है। जैसे जिस खेत में हम जो बीज बोते हैं, समय पूरा होने पर उस खेत से हम वही फसल काटकर घर लाते हैं। जिस खेत में हम गेहूँ बोते हैं, उस खेत से हम चना नहीं ला सकते, गेहूँ ही काटकर लाते हैं। जिस खेत में हम कटहल के पेड़ लगाते हैं, उस पेड़ में आम खोजेंगे, तो नहीं मिलेगा। जिस खेत में आम का पेड़ लगाते हैं, उसमें कटहल खोजें, तो वह भी नहीं मिलेगा। गो0 तुलसीदासजी कहते हैं-
“ तुलसी यह तन खेत है, मन वच कर्म किसान ।
पाप पुण्य दुइ बीज है, बुवै सो लुणै निदान ।।”
हमलोगों का यह शरीर खेत-जैसा है। इसमें मन, वचन और कर्म किसान हैं। जैसे किसान खेत में बीज बोते हैं, वैसे ही कुछ कर्म हम मन से, कुछ कर्म वचन से और कुछ कर्म तन से करते हैं। इस तनरूपी खेत में हम पाप-पुण्य के बीज डालते हैं। पाप के बीज का फल होता है-दुःख और पुण्य के बीज का फल होता है-सुख। किसी ने कितना अच्छा कहा है-
“ कर भला होवै भला करके भलाई देख ले ।
कर बुरा होवै बुरा करके बुराई देख ले ।।”
विचारणीय विषय है कि जिस खेत में जितना हम बीज बोते हैं, काटने के समय उतना ही नहीं काटते हैं। एक मन बीज के बदले कई मन अनाज हमें मिलता है। एक आम की गुठली हम लगाते हैं। जब उस आम की गुठली लगाई जाती है, तो उससे अंकुर निकलता है, वही पेड़ हो जाता है। लगाया तो एक ही आम; लेकिन प्रतिवर्ष कितने आम मिलते हैं? उसी तरह हम कर्म थोड़ा ही क्यों न करें; लेकिन कर्म का फल बहुत बनकर आता है। चाहे बुरा कर्म हो या अच्छा-दोनों के फल अलग-अलग होंगे। खेत में जो अनाज बोते हैं, उसमें तो कभी-कभी ऐसा भी होता है कि बाढ़ आयी, तो फसल खतम। लेकिन कर्म-बीज ऐसा होता है कि उसका नाश नहीं होता है। सामान्य जन की तो बात क्या, पुराण यह प्रमाणित करता है कि त्रेतायुग के किये कर्मों का फल भगवान् श्रीराम ने द्वापर युग के श्री कृष्ण-शरीर में भोगा है। कथा-प्रसंग इस प्रकार है-
भगवान् श्रीराम की मैत्री जब सुग्रीव से हुई तो उन्होंने सुग्रीव से पूछा-कहो मित्र! तुमको क्या कष्ट है? मेरे मित्र होने के नाते तुम्हारा सुख-दुःख मेरा सुख-दुःख है अर्थात् तुम्हारे सुख से सुखी और तुम्हारे दुःख से दुःखी होना मेरा धर्म है; क्योंकि-
“ जे न मित्र दुख होहिं दुखारी ।
तिन्हहि विलोकत पातक भारी ।।”
सुग्रीव ने उत्तर दिया-दूसरे से मुझे कोई कष्ट नहीं, अपने ही भाई से मुझे कष्ट है। उस भाई ने हमारा धन-दौलत, राज-पाट तो लिया ही, हमारे पत्नी को भी ले लिया है। यह सुनकर भगवान राम ने कहा-मित्र! अब वह तुम्हारा दुश्मन भाई मेरा दुश्मन हुआ।’ अतएव सुनो-
“ सुनु सुग्रीव मैं मारिहौं, बालिहिं एकहिं बाण ।
ब्रह्म रुद्र शरणागतहूँ, गये न उबरहिं प्राण ।।”
बालि को वरदान था कि जो कोई उसके सामने आकर युद्ध करेगा, उसका आधा बल इसमें आ जायगा। अगर भगवान् श्रीराम भी उसके सम्मुख युद्ध करने के लिये आते, तो उनका आधा बल इसमें आ जाता। इसलिए युद्ध-हेतु भगवान् श्रीराम बालि के सामने नहीं जाकर वृक्ष की आड़ लेकर उसको बाण मारते हैं, जिस तरह कोई व्याधा कोई आड़ लेकर शिकार खेलता है। भगवान् श्रीराम के बाण से जब बालि गिर जाता है, तब वे उसके पास जाते हैं, जिस तरह कोई व्याधा शिकार पर बाण मारता है और वह गिर जाता है, तो उसको उठाने के लिये उसके निकट जाता है। बालि बड़ा बलशाली और निर्भीक था। बालि कहता है- “ भगवान! आपका अवतार धर्म-रक्षा और धर्म के प्रचार-प्रसार हेतु हुआ है; किन्तु मेरे साथ जो व्यवहार किया, वह साधु का नहीं, व्याधा का है। अर्थात् जैसे व्याधा छिपकर मारता है, आपने भी मुझे छिपकर मारा है।
अब देखिये, अन्तिम परिणाम क्या होता है? त्रेतायुग के भगवान् श्रीराम द्वापर में श्री कृष्ण होते हैं। वही बालि व्याधा होता है। भगवान श्रीकृष्ण के जीवन-काल में ही सम्पूर्ण यदुवंशियों का नाश हो जाता है। वे उदास हो जंगल की एक झाड़ी में पैर फैलाकर बैठ जाते हैं। उसी जंगल में वह व्याधा आता है शिकार खेलने के लिए। भगवान का सम्पूर्ण शरीर तो झाड़ी की ओट में छिपा था; किन्तु उनके कमल-से कोमल चरण का तलवा लाल-लाल झलक रहा था। व्याध ने सोचा-हिरण दौड़कर कहीं से आया है और श्रान्त-क्लान्त हो अपनी जीभ निकाल रहा है। अब क्या था, वह वहाँ से ही तीर मारता है। वह तीर भगवान के पाद-पप्र को चीरकर बाहर निकल आता है। दौड़ता है वह व्याधा हिरण जानकर उठाने के लिये। किन्तु वहाँ तो साक्षात् भगवान् हैं, देखकर वह अवाक् रह गया। दुःख-सन्ताप एवं पश्चात्ताप के अनल में वह जलने लगा। भगवान् ने उसको सान्त्वना दी।
यहाँ विचारणीय विषय यह है कि जिस भगवान के शरीर में महाभारत के युद्धकाल में अनगिनत तीर लगे; लेकिन वे सारे तीर उनके शरीर में वैसे ही विलीन होते गये, जैसे समुद्र में गिरकर बिजली। किन्तु अफसोस! आज का एक तीर उनके शरीर त्यागने का कारण बन जाता है। क्यों? इसलिए कि भगवान ने अपने पूर्वजन्म में छिपकर बालि का वध किया था। यद्यपि भगवान सुख-दुःख, हानि-लाभ सबसे परे हैं, फिर भी वे नर-लीला करके दिखलाते हैं कि हम भगवान होकर भी अपने कर्म के फल को भोगते हैं, तो तुम किस खेत के मूली हो! तुमको भी अपने शुभाशुभ कर्मों का फल सुख-दुःख भोगना ही पड़ेगा। निष्कर्ष यह कि जो कुछ हम सुख या दुःख पाते हैं, सब अपने किये हुए कर्मों का फल है। कुछ लोग ऐसा भी कहते हैं कि एक जमाना था, जब यह बात लागू होती थी; लेकिन अबके जमाने में यह बात नहीं है। आजकल तो यही देखा जाता है कि जो बुरे कर्म करते हैं, वे अच्छी-से-अच्छी तरह रहते हैं; खाते-पीते हैं, ऐश-मौज करते हैं और जो अच्छे-अच्छे कर्मों को करते हैं, वे दुःखी देखे जाते हैं। हमारे पड़ोसी प्रान्त- बंगाल में भी कुछ लोग ऐसा ही कहा करते हैं-
“ जे करे पाप, सेई सात छेलेर बाप ।
जे करे पुन्न, ताँर काये लागे घुन ।।”
लेकिन यह बात सही नहीं है। यह केवल कहावत है। संतों और सद्ग्रंथों ने कर्मफल को अमिट बताया है। इस संदर्भ में अपने गुरुदेव के मुख से कथित एक घटना मैंने सुनी थी, जो आज भी स्मृति पटल पर अटल है। बात नयी नहीं, वर्षों की पुरानी है, जो कि गंगा उत्तर पार एक परिवार की कहानी है। उस समय भारत स्वतंत्र नहीं था, अंग्रेजों के अधीन था। पुरैनियाँ जिले में एक अच्छे सुसम्पन्न सज्जन थे। जमीन जायदाद अच्छी थी। गाँव के लोगों में उनकी प्रतिष्ठा थी। आज्ञाकारी गुणवान पुत्र, लक्ष्मी रूपा सुशीला पुत्र-वधू, तीन-चार पौत्र-पौत्रियाँ; इस प्रकार सुखी, सुन्दर और सराहनीय घर था।
लगभग साठ वर्ष की उम्र में गृहपति की पत्नी परलोग सिधार गयी। ये बेचारे अति विकल हो उठे। पत्नी के अभाव में स्वभाव चिड़चिड़ा हो गया। भरा-पूरा गृह श्माशान-सा लगने लगा। हरा-भरा उद्यान वीरान प्रतीत होने लगा। मन की शांति भंग हो गयी। दुनियावी हरियाली के लिए मित्रें के बीच अपने पुनर्विवाह का मन्तव्य प्रकट किया। किसी मित्र ने मजाक किया, किसी ने समझाने की चेष्टा की, किसी ने अपनी राय दी-‘साठ वर्ष की उम्र हो जाने के कारण तुम्हारी बुद्धि सठिया गयी, शादी हरगिज न करना। अब शादी क्या होगी, बरबादी होगी।’ लेकिन उनके मन ने नहीं माना, पुनर्विवाह कर लिया। परिणामस्वरूप इष्ट-मित्र, कुटुम्ब, गाँव-घर आदि के समस्त लोगों की दृष्टि से वे नीचे गिर गये। पिता-पुत्र में भी वैमनस्य हो गया। उनकी दृष्टि में उनके नये साले साहब हितचिंतक होने के कारण सलाहकार बने। फलतः अपने वाग्जाल में फँसाकर उन (जीजा जी) की सारी जमीन अपने नाम लिखवा ली। अभी रजिष्ट्री नहीं हुई थी। लड़के को अपने मामा का षड्यंत्र मालूम हुआ। उसने रजिष्ट्रार साहब से मिलकर सारी बातें सही-सही बता दीं और जमीन रजिष्ट्री नहीं करने के लिए निवेदन किया। रजिष्ट्रार साहब ने उसकी परिस्थिति को अच्छी तरह समझा और सोचकर कहा-‘देखिये, मेरे सामने कागज आएगा, तो उसको मैं अस्वीकार कैसे कर सकता हूँ? फिर भी, मैं आपको एक सप्ताह का समय देता हूँ। यदि आप अपने पिताजी को राजी कर सकें, आपकी बात मान जाएँ, तो रजिष्ट्री नहीं होगी।’ लड़के ने अपने पिताजी और मामाजी के पास जाकर बहुत प्रकार से अनुनय- विनय की; किन्तु सब व्यर्थ। लड़के ने पुनः अपने मामाजी के पैर पकड़ लिए और फूट-फूटकर रोते हुए कहा-‘मामाजी! मेरे ऊपर मेहर कीजिए। जरा मेरे भविष्य के ऊपर नजर कीजिए।’ उसके मामाजी ने उसकी एक न सुनी, बल्कि झटका देकर उसको दूर हटा दिया और कड़कती आवाज में बोले-‘रजिष्ट्री होगी, रजिष्ट्री होगी, इसको कोई शक्ति नहीं टाल सकती।’ दुःख से आकुल और अधीर हो आह भरता हुआ उस लड़के ने कहा-‘मामाजी! आपने मुझे अपनी पैतृक संपत्ति से वंचित कर मेरी भविष्य आशावेलि पर तुषारापात किया है। अगर भगवान सत्य और मेरा हक सत्य है, तो आपके ऊपर वज्रपात होगा।
रोता हुआ लड़का अपने में कमरे में चला गया और उसका मामाजी पाट (जूट) तैयारी करवाने के लिए खेत पर गये। मजदूर पानी में बैठकर पाट तैयार कर रहा था। थोड़ी दूर पर किनारे में बैठकर निगरानी कर रहे थे।
प्रभु की लीला अद्भुत है। उनके विधान में व्यवधान कौन डाल सकता है? अनंतस्वरूपी सर्वेश्वर की अनंत शक्ति का सामान्यजन को क्या पता, वह तो थोड़े ही धनैश्वर्य को पाकर छोटी नदी की तरह अपने को बहुत बड़ा समझकर इठलाता फिरता है। पता नहीं, कहाँ से बादल उमड़-घुमड़कर आये, बिजली चमकी और हृदय विदीर्ण करनेवाली कड़ाके की आवाज के साथ उनके शरीर पर वज्रपात हुआ, वे वहाँ ही धराशायी हो गये। लौटकर घर नहीं आ सके। खेत पर ही उनका रामनाम सत्य हो गया। जमीन ज्यों-की-त्यों पड़ी रह गयी, रजिष्ट्री नहीं हो सकी।
यह घटना अन्यान्य शिक्षाओं के साथ यह बतलाती है कि दुर्बल को सताओ नहीं, दूसरे का हक अपनाओ नहीं, अन्यथा परिणाम भयंकर होगा। संत कबीर साहब ने कहा है-
“ दुर्बल को न सताइये, जाकी मोटी हाय ।
मुए खाल की साँस से, लोह भसम हो जाय ।।”
किसी शायर ने कितना अच्छा कहा है-
“ गरीब को मत सताओ, वह रो देगा ।
कहीं उसका मालिक सुन लेगा,
तो जड़ मूल से तुमको खो देगा ।।”
संतों ने कहा, बुरे कर्म का फल दुःख तो भोगना चाहता है नहीं, इसलिए बुरे कर्म करो ही नहीं और अच्छे कर्म का फल यद्यपि सुख होता है, तथापि वह सुख भी सदा रहता नहीं है। पुण्यकर्म के कारण स्वर्ग भले ही चले जाएँ; लेकिन वहाँ भी सबको समान रूप से सुख उपलब्ध नहीं होता। सब दिन स्वर्ग में रह भी नहीं सकते; क्योंकि कोई कम पुण्य करके और कोई अधिक पुण्य करके वहाँ जाते हैं। जो कम पुण्य किये हैं, उनके लिए कम व्यवस्था है और जो अधिक पुण्य किये हैं, उनके लिए अधिक व्यवस्था है। उससे भी जो अधिक पुण्य किये हैं, उनके लिए और भी अधिक व्यवस्था है। इसलिए एक दूसरे के सुख को देखकर दुःखी होते रहते हैं। वहाँ भी राग-रोष और ईर्ष्या-द्वेष आदि दुर्गुण सताते रहते हैं। दूसरे की उन्नति देखकर जैसे यहाँ जलते हैं, वैसे वहाँ भी जलते हैं। संतों ने कहा है कि स्वर्ग और नरक के परे चले जाओ। नरक-स्वर्ग के झमेले से परे जो है, वही मोक्ष है।
“ भक्ति निसेनी मुक्ति की, संत चढ़े सब धाय ।
जिन जिन मन आलस किया, जनम जनम पछताय ।।”
भक्ति से मुक्ति होती है-
“ जिमि थल बिनु जल रहि न सकाई ।
कोटि भाँति कोउ करै उपाई ।।
तथा मोक्ष सुख सुनु खगराई ।
रहि न सकइ हरि भक्ति बिहाई ।।”
जिस तरह थल के बिना जल नहीं रह सकता, उसी तरह भक्ति को छोड़कर मुक्ति अलग नहीं रह सकती। इसीलिए भक्ति करो, सारे क्लेशों से छूट जाओगे। दैहिक, दैविक, भौतिक-इन त्रय तापों से जो संतप्त हो रहे हो, इनसे सदा के लिए मुक्त हो जाओगे। इसका यत्न संत सद्गुरु से सीखो। भगवान श्रीराम ने अपनी प्रजा से कहा था-
“ सरल सुखद मारग यह भाई ।
भगति मोरि पुरान श्रुति गाई ।।”
यह भक्ति का मार्ग कठिन नहीं है, सरल है और सुखद है। सब कोई कर सकते हैं-क्या ब्राह्मण, क्या क्षत्रिय, क्या शूद्र, क्या धनी, क्या निर्धन, क्या विद्वान, क्या अविद्वान, क्या वैदिक, क्या अवैदिक, क्या नर-नारी। गुरु नानकदेव ने कहा-
“ चहुँ वरणा को दे उपदेश।
ता पंडित को सदा अदेश ।।”
और हमारे गुरुदेव का उद्घोष है-
“ जितने मनुष तन धारि हैं, प्रभु-भत्तिफ़ कर सकते सभी ।
अन्तर व बाहर भत्तिफ़ कर, घट-पट हटाना चाहिए ।।”
मनुष्य का शरीर होना चाहिए। सदाचार का पालन होना चाहिए; सद्युक्ति मिलनी चाहिए, सत् साधना करनी चाहिए।
“ सत्संग नित अरु ध्यान नित, रहिये करत संलग्न हो ।
व्यभिचार चोरी नशा हिंसा, झूठ तजना चाहिए ।।”
पंच पापों से वर्जित रहेंगे, ध्यान-सत्संग हम नित्य करते रहेंगे, तो भगवान श्रीकृष्ण का आश्वासन है-
“ नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते ।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रयते महतो भयात् ।।”
-गीता अ0 2/40
अर्थात् इस योग के आरंभ का नाश नहीं होता, उलटा परिणाम नहीं होता। इसका थोड़ा-सा अभ्यास भी महाभय से बचाता है और गीता के छठे अध्याय में है-‘जो सदा अभ्यास करता है, उस अभ्यास के बल से शरीर छूटने पर उसको विशाल स्वर्ग-सुख की प्राप्ति होती है। स्वर्ग-सुख भोग करने के बाद संसार में फिर आता है। उसका जन्म किसी श्रीमान् के घर में अथवा योगी-कुल में होता है। पुनः पूर्वजन्म के संस्कार से प्रेरित होकर वह योगाभ्यास करने लग जाता है, करते-करते कई जन्मों में नित्य विराजनेवाली शांति को वह प्राप्त कर लेता है। आवागमन के चक्र से छूट जाता है। सदा के लिए मुक्त हो जाता है। संतों के आदेश और उपदेश के परिवेश में जो कोई अपने को रखेंगे, उनका भव-क्लेश अवश्य निशेष होगा।
“ भक्ति बीज बिनसै नहीं, जौं जुग जाय अनन्त ।
ऊँच नीच घर जनम लै, तऊ सन्त को सन्त ।।
भक्ति बीज पलटै नहिं, आय परे जो चोल ।
कंचन जौं विष्ठा पड़ै, घटै न ताको मोल ।।”
-संत कबीर साहब
यह प्रवचन महावीर मंडल के निवास-स्थान पर आयोजित सत्संग के अवसर पर दिनांक-12-8-1991, स्थान: तिलकामाँझी, भागलपुर में हुआ था। (शान्ति-संदेश, सितम्बर 1991)
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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ तथा भक्तिमती बहनो!
एक लड़की का विवाह हुआ। वह ससुराल गई। अड़ोस-पड़ोस के लोग उसको देखने आये। क्रम-क्रम से लोग देखकर लौटते थे। थोड़ी दूर पर एक बूढ़े बाबा बैठे थे। नववधू को देखकर जो लौटते, बूढ़े बाबा उनसे पूछते-‘कहो, कैसी वधू आयी है; देखने में कैसी है?’ छोटी बच्ची देखकर लौटती, वह कहती कि मेरी ही जैसी है। किशोरी देखकर लौटती, तो उससे पूछने पर वह कहती-मेरी ही जैसी है। युवती देखकर लौटती, तो वह कहती- मेरी जैसी है। कोई बूढ़ी देखकर लौटती, तो उससे पूछने पर वह कहती कि मुझको न देखा, उसको देखा। सबकी बातों को सुनकर बूढ़े बाबा हैरान हो गये। वे सोचने लगे-नववधू आयी है। वह बच्ची होगी, युवती होगी वा बूढ़ी होगी; लेकिन बात क्या है कि जिससे पूछता हूँ, वह अपनी जैसी बताती है। बूढ़े बाबा स्वयं देखने गये। उन्होंने देखा-वास्तव में वह नववधू अतीव सुन्दरी है, उसके चेहरे से आईने सदृश चमक निकलती थी, तो जो कोई देखने जाते थे, वे उस आईने में अपना ही रूप देखते थे। इसलिए बच्ची कहती-मेरी जैसी, किशोरी कहती-मेरी जैसी और बूढ़ी कहती-मुझको न देखा, उसको देखा। उसी तरह आपलोगों ने जो मेरा अभिनन्दन किया, उसमें जितने सद्गुणों के वर्णन आये, वे सभी सद्गुण आपलोगों के हैं। आपलोगों ने अपने-अपने ही सद्गुणों को देखा है मुझमें। वे सद्गुण मुझमें कहाँ?
स्वामी विवेकानन्दजी महाराज विश्व-धर्म सम्मेलन में गये हुए थे अमेरिका के शिकागो शहर में। विभिन्न देशों के धर्मप्रेमी वहाँ आये हुए थे। सभी धर्मों की पुस्तकें वहाँ सजायी गयी थीं-ऊपर-नीचे क्रम से। पाश्चात्य देशों के लोग यह समझते थे कि भारत अध्यात्म-ज्ञान से हीन है। भारतवासियों को वे लोग हेय दृष्टि से देखते थे। इसलिए उन्होंने जो पुस्तकें सजायी थीं, उसमें वेद को सबसे नीचे रखा था ऊपर में अन्य धर्मग्रंथों को। सबसे ऊपर में उन्होंने बाइबिल को रखा था। स्वामी विवेकानन्दजी महाराज जब उस मंच पर पहुँचे और उन्होंने पुस्तक की सजावट देखी, तो बात उनकी समझ में आ गयी कि किस दृष्टि से धर्मग्रंथों को इस तरह रखा गया है। चूँकि ये लोग वेद को हेय दृष्टि से देख रहे हैं, इसीलिए इसको सबसे नीचे रखा है।
उनलोगों की भावना इनकी परख में आ गयी; लेकिन उन्होंने कहा-धर्मग्रंथों की सजावट देखकर मुझे प्रसन्नता हो रही है। जिस तरह सजावट होनी चाहिए, उसी तरह से सजायी गयी है। ग्रंथों की सजावट यह बतलाती है कि सभी धर्मग्रंथों का मूल वेद है; क्योंकि वेद पर ही ये सारे धर्मग्रंथ टिके हुए हैं। अगर वेद को नीचे से खिसका लें, तो जितने धर्म ग्रंथ हैं, सभी ढनमनाकर नीचे गिर जायेंगे।
उसी तरह आपलोग तो नीचे बैठे हैं और मुझे ऊपर बिठाया है, आपलोगों के आधार पर मैं बैठा हूँ। अगर आपलोग हाथ हटा लेंगे, तो मैं ढनमनाकर नीचे गिर जाऊँगा। ऊपर बैठने से कोई बड़ा नहीं हो जाता। बड़े तो आपलोग हैं, जो मुझे आश्रय दिये हुए हैं बैठने के लिए।
यह संतमत का सत्संग है। इस संतमत के द्वारा ईश्वर की भक्ति का प्रचार होता है। वह ईश्वर है क्या? इन्द्रियातीत। संतमत बतलाता है कि बिना उस ईश्वर का भजन किये जीवों का कल्याण नहीं है। प्राणियों का कल्याण ईश्वर-भजन में है। ईश्वर की प्राप्ति अपने अन्दर होगी। जैसे आईने के माध्यम से हम अपने चेहरे को देखते हैं, उसी प्रकार अन्तर्ज्योति का सहारा लेकर परमात्मा को देखा जाता है। इसलिए संतमत की ईश्वर-भक्ति में दिव्य ज्योति और दिव्य नाद को प्राप्त करने का आग्रह है, जिनके माध्यम से परम प्रभु की प्राप्ति होती है। मतलब यह कि परमात्मा का अस्तित्व है। वे परम प्रभु परमात्मा थे और रहेंगे। वे होते नहीं हैं, रहते ही हैं। जो होता है, वह बिगड़ता है; लेकिन परम प्रभु परमात्मा सतत रहते ही हैं। उनका साक्षात्कार अपने अन्दर में होगा। इसके लिए अन्तः साधना की आवश्यकता है। वह अन्तस्साधना मानस-जप है, मानस-ध्यान है, दृष्टि-साधन है और नादानुसंधान है। इन चार साधनाओं के द्वारा हम प्रभु परमात्मा को प्राप्त कर सकते हैं; किन्तु इसके बतलानेवाले सुयोग्य गुरु की आवश्यकता है, जो क्रियावान एवं शुद्धाचरणी हों। बिना क्रियावान एवं शुद्धाचरणी गुरु के उस प्रभु को हम नहीं प्राप्त कर सकते हैं। संतमत में गुरु का सर्वोपरि स्थान है। हम सद्ग्रंथों का अध्ययन-मनन एवं अवलोकन करते हैं, तो इसी निष्कर्ष पर पहुँचते हैं।
खास देवघर में देवघर जिला संतमत-सत्संग का वार्षिक अधिवेशन था। पटना के एक अच्छे विद्वान आये हुए थे उसका उद्घाटन करने के लिए। उनको हनुमानजी में बड़ी आस्था थी। अपने उद्घाटन- भाषण में उन्होंने हनुमानजी की बड़ी महिमा गायी और कहा कि हम नित्यप्रति हनुमान चालीसा पढ़ते हैं। आपलोग भी जो पढ़ना चाहें, वे हाथ उठायें। मैं हनुमान चालीसा की एक-एक प्रति दूँगा। कुछ प्रतियाँ वे अपने साथ वहाँ लेकर आये थे। कुछ लोगों ने हाथ उठाया और उन्होंने उनलोगों को एक-एक प्रति हनुमान चालीसा दी।
उनका प्रवचन समाप्त हुआ, फिर हमारे साथी लोगों का प्रवचन हुआ। अंत में मेरी बारी आयी, तो मैंने कहा-लोग इस बात को अच्छी तरह जानते हैं कि गोस्वामी तुलसीदासजी भगवान श्रीराम के अनन्य भक्त थे। उन्होंने हनुमानजी के अतिरिक्त अन्य देवों की भी स्तुतियाँ की हैं। जिस तरह एक साध्वी महिला जिस परिवार में रहती है, उसके सभी सदस्यों का यथोचित आदर-सत्कार, सेवा-सम्मान आदि वह करती है; किन्तु उसका एकनिष्ठ सूत्र अपने पति से लगा रहता है। उसी तरह गोस्वामीजी मर्यादा सबको देते हैं; लेकिन अपना एक इष्ट बनाये रहते हैं। चूँकि वे पढ़े-लिखे विद्वान थे, इसलिए उनके कहने की जो कला है, वह अद्भुत है। वे हनुमान चालीसा का आरम्भ कहाँ से करते हैं?
श्रीगुरु चरण सरोज रज, निज मन मुकुर सुधार ।
बरनौं रघुबर विमल जस, जो दायक फ़ल चार ।।
दूसरी पंक्ति में लिखते हैं-
बरनौं रघुबर विमल जस, जो दायक फ़ल चार ।
और तीसरी पंक्ति में लिखते हैं-
बुद्धि हीन तनु जानि के, सुमिरौं पवन कुमार ।
अब समझिए, प्रथम स्थान किनका है, दूसरे में कौन हैं और तीसरे में कौन हैं? गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज के लिए कहा जाता है कि वे राम के भक्त थे; लेकिन वैचारिक दृष्टि से एकनिष्ठ भक्त वे गुरु के थे। इसमें संदेह नहीं कि उन्होंने मर्यादा दी है सबको। श्रीरामचरितमानस के आरम्भ में है-
बन्दौं गुरु पद कंज, कृपा सिन्धु नर रूप हरि ।
महामोह तम पुंज, जासु वचन रविकर निकर ।।
हनुमान चालीसा में ही देखिये-
जय जय जय हनुमान गोसाईं।
कृपा करो गुरुदेव की नाईं।।
अगर उनके इष्ट राम होते, तो वे कहे होते-
जय जय जय हनुमान गोसाईं।
कृपा करो रघुवर की नाईं।।
किन्तु ऐसा वे नहीं कहते हैं। वे हनुमानजी की स्तुति करते हैं और यह कहते हैं-
बुद्धि हीन तनु जानि के सुमिरौं पवन कुमार।
मैं बुद्धिहीन हूँ, आपका स्मरण करता हूँ। बल दीजिए, बुद्धि दीजिए, विवेक दीजिए। विचारणीय विषय है कि जब हमको बल, बुद्धि, विवेक कुछ नहीं है, तो हमारा कल्याण किसमें है, तो यह भी हम नहीं जानते हैं। ऐसी परिस्थिति में तो ऐसा कहना चाहिए था-
जय जय जय हनुमान गोसाईं।
कृपा करो जो तुम्हहि सोहाई।।
न तो यह भगवान राम की दुहाई देते हैं और न हनुमानजी की, बल्कि वे कहते हैं-‘कृपा करो गुरुदेव की नाईं।’
गुरुदेव की कृपा कैसी होती है? गोस्वामीजी की दृष्टि किस ओर है, सो देखिए। इन बातों को सुनने के पश्चात् उस विद्वान सज्जन ने कहा-‘हनुमान चालीसा तो मैं रोज पढ़ता हूँ, मुझे हनुमान चालीसा कंठस्थ भी है; लेकिन इस पंक्ति पर तो मेरा ध्यान ही नहीं गया था।’ गोस्वामी तुलसीदासजी स्वयं दोहावली में लिखते हैं-
राम नाम कलि काम तरु, राम भगति सुर धोनु ।
सकल सुमंगल मूल जग, गुरु पद पंकज रेनु ।।
कलिकाल में रामनाम कल्पवृक्ष के समान है और राम की जो भक्ति है, वह कामधेनु के समान। लोग समझते हैं, कल्पवृक्ष मिल गया, कामधेनु मिल गयी, अब क्या चाहिए! लेकिन गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज कहते हैं- कल्पवृक्ष और कामधेनु को पाकर आंशिक मंगल होगा; लेकिन सकल सुमंगल नहीं होगा। अगर सकल सुमंगल चाहते हो, तो-‘गुरु पद पंकज रेनु।’ देखिए, गोस्वामी तुलसीदासजी की दृष्टि किधर है। भगवान राम जब लंका पर विजय प्राप्त कर रावण-कुम्भकर्ण को मारकर विभीषण को लंका का राज्य देकर और सीताजी का उद्धार करके अयोध्या लौटे, तो कौशल्या माताजी भगवान राम को अपनी गोद में बैठाकर प्यार से पूछती हैं-‘बेटा! तुम्हारा शरीर तो कमल से भी अधिक सुकोमल है, रावण- कुम्भकर्ण आदि दुर्दान्त राक्षसों का वध तुमने कैसे किया?’ इसके उत्तर में भगवान श्रीराम कहते हैं-
गुरु बसिष्ठ कुलपूज्य हमारे।
इन्ह की कृपा दनुज रन मारे।।
माँ! मेरा कोई पराक्रम नहीं है। मैंने अपने बल से रावण आदि का वध नहीं किया है। गुरु की कृपा से ऐसा हुआ है। गुरु की कृपा कैसी होती है? संत कबीर साहब कहते हैं-
गुरुदेव के भेद को जीव जानै नहीं,
जीव तो आपनी बुद्धि ठानै।
गुरुदेव तो जीव को काढ़ि भव सिन्धु तें,
फ़ेरि लै सुक्ख के सिन्धु आनै।।
बंद कर दृष्टि को फ़ेरि अन्दर करै,
घट का पाट गुरुदेव खोलै।
कहै कबीर तू देख संसार में,
गुरुदेव समान कोइ नाहिं तोलै।।
गुरु का स्थान कितना ऊँचा मानते हैं और कितना आदर देते हैं! गुरु नानकदेवजी महाराज कहते हैं-
गुरु की मूरति मन महि धिआनु ।
गुर के शबदि मंत्र मनु मानु ।।
गुरु के चरण रिदै लै धारउ ।
गुरु पारब्रह्म सदा नमसकारउ ।।
अज्ञ जीव जानता नहीं है कि गुरुदेव की कृपा कब और कैसे-किस प्रकार होती है!
एक कामिल फकीर थे। उनका एक शिष्य नवाब थे, जो दूर शहर में रहते थे। फकीर ने अपने निकटवर्ती शिष्य को एक अनार देकर कहा कि जाकर यह अनार नवाब को देना और कहना कि इस अनार को वह खायगा। शिष्य अनार लेकर पहुँचता है उस नवाब के पास। नवाब के साथ बहुत लोग बैठे हुए थे। उक्त शिष्य ने नवाब को अनार देते हुए कहा कि तुम्हारे मुर्शिद ने यह संदेश भेजा है तुम्हारे खाने के लिए। लो, खाओ। नवाब सोचते हैं कि गुरु महाराज का भेजा हुआ प्रसाद-अनार है। उसको तुरत तोड़कर उसके पाँच दाने उन्होंने अपने मुँह में डाले, तो अनार इतना खट्टा था कि नवाब साहब को न तो थूकते बनता था और न निगलते ही। अगर थूकते हैं, तो गुरु की प्रतिष्ठा में हीनता होती है। गुरु-प्रसाद की मर्यादा रखने के लिए किसी तरह निगल गये। जो शिष्य अनार लेकर गया था, उसने कहा-‘और खाओ।’ पाँच दाने खाने में ही तो बेचारे का दम घुटने लगा था, यह कहता है-‘और खाओ।’ नवाब सोचते हैं कि ये गुरु महाराज के प्रधान शिष्य हैं। इनकी बात कैसे नहीं मानी जाय! तो पाँच दाने और मुँह में डालकर निगल गये और कहा-‘अच्छा, पीछे खा लूँगा।’ इसपर उसने कहा-बस! अरे, और खाओ। उतने लोग बैठे थे। अब कैसे कहे कि नहीं खाऊँगा। उनकी प्रतिष्ठा की हीनता होती, तो जबरदस्ती चार दाने और निगल गये और कहा-अच्छा, पीछे खा लूँगा।
वह शिष्य लौटकर चला आया गुरु महाराज के पास। गुरु महाराज ने पूछा-अनार नवाब को दिया? शिष्य ने उत्तर दिया-जी हाँ! मुर्शिद ने पूछा-समूचा अनार खाया? शिष्य ने उत्तर दिया-‘समूचा तो नहीं; किन्तु पाँच-पाँच और चार कुल चौदह दाने खाये।’ फकीर ने कहा-‘मैं क्या करूँ! मैंने तो समूचा अनार भेजा था। अगर उसने समूचा अनार खाया होता, तो जिन्दगी भर उसकी नवाबी रहती, अब मात्र चौदह वर्ष उसकी नवाबी रहेगी। संत सद्गुरु तो चाहते हैं कि जीव को सुखसिन्धु में ले जाने के लिए; लेकिन शिष्य ही अपनी अल्पबुद्धि को विशेष मानकर चूक कर बैठता है। कबीर साहब ने कहा है-
गुरु बेचारा क्या करे, जो शिष्य माहीं चूक ।
भावे जो परबोधिए, बाँस बजाई फ़ूँक ।।
संतमत में गुरु का स्थान सर्वोपरि है। हमारे गुरुदेव जो थे, वे बड़े ऊँचे और महान् संत थे। उन्होंने जिस ज्ञान का प्रचार किया, उन्होंने जो शिक्षा-दीक्षा दी, वह बहुत ऊँची थी। उनको आत्मदृष्टि प्राप्त थी। आत्मदृष्टि से देखकर ही उन्होंने भजन-भेद बताने की आज्ञा कुछ सज्जनों को दी। उनके पास मीटर था, जिस मीटर से जाँचकर उन्होंने दीक्षा देने का आदेश दिया और आज वही संतमत है कि कितने तो अपने मन से दीक्षा देने लग गये हैं। कितने को किन्हीं से अधिकार मिला है दीक्षा देने का; लेकिन यह तरीका गलत है। गुरु महाराज ने जिन लोगों को आदेश दिया था दीक्षा देने का, वे ही सब ठीक हैं। इनके बाद जो कोई दीक्षा देते हैं या देने का आदेश देते हैं, बिल्कुल गलत है। (श्रोताओं की ओर से ‘गुरु महाराज की जय’ की ध्वनि।)
कटिहार कॉलेज के एक प्रोफेसर महेश्वर बाबू हैं। उन्होंने जिज्ञासा की गुरु महाराज से कि हुजूर! जितने व्यक्तियों को आपने भजन-भेद देने का आदेश दिया है, क्या वे सभी भजन-भेद देने के योग्य हैं? गुरु महाराज बोले-‘मैंने जिन लोगों को भजन-भेद देने का आदेश दिया है, लोग उनसे भजन-भेद लेंगे। देखिये, जैसे पढ़ाई शुरू होती है, लोअर प्राइमरी से लेकर मैट्रिक, प्ण्।ण्ए ठण्।ण्ए डण्।ण् तक की पढ़ाई होती है। प्राइमरी से लेकर डण्।ण् तक जितने शिक्षक होते हैं, सब-के-सब शिक्षक ही होते हैं; लेकिन क्या सबकी योग्यता एक-सी होती है? जिस योग्यता के जो होंगे, वे उस गुरु के पास जाएँगे।’
जो कोई सज्जन अन्य दूसरे सत्संगी से भजन-भेद देने का मौखिक या लिखित आदेश देते हैं, वे अनुचित करते हैं और इस आधार पर जो दूसरे को भजन-भेद देते हैं, वे भी अनुचित करते हैं; क्योंकि यह अधिकार सिर्फ उन्हीं को होगा, जो परम पूज्य गुरुदेव के उत्तराधिकारी होंगे।
परम पूज्य गुरु महाराज का आदेश जिनको है, केवल वे भजन-भेद दें। अगर गुरु महाराज का आदेश नहीं है, तब यदि वे भजन-भेद देते हैं, तो गलती करते हैं। जिन सज्जनों को गुरु महाराज ने अन्यों को भजन-भेद देने की आज्ञा दी थी, तो भजन-भेद बताने का आदेश देने के साथ ही गुरु महाराजजी ने यह कहने की कृपा की थी-मैं सभी जगह नहीं जा सकता हूँ। मेरा शरीर कमजोर हो गया है। इसलिए मैं भजन-भेद देने का आदेश देता हूँ कि ये लोग भजन-भेद देंगे। भजन-भेद देने का आदेश है। अगर भजन-भेद देने को कोई व्यापार या रोजगार बना लेंगे, तो सीधे नरक में जायेंगे। जिनको गुरु महाराज ने आदेश दिया है, उनके लिए तो यह बात है और जिन्होंने अपने मन से व्यापार करना प्रारम्भ कर दिया है, उनकी क्या हालत होगी? उनको तो खुद समझना चाहिए कि यदि हम गुरु महाराज के आदेश का पालन करते हैं, तो हम गुरुमुख हैं। अगर गुरु महाराज की अवहेलना करते हैं, तो गुरुमुख नहीं, मनमुख हैं।
संतमत पवित्र मत है, शुद्धमत है। अगर हम शुद्ध आचरण से रहेंगे, सदाचार का हम पालन करते रहेंगे, तो हमारा कल्याण होगा। अगर हम गुरु के आदेश का पालन नहीं करते हैं, मनमाना करते हैं, तो हमारा अकल्याण होगा। अवश्य ही संसार में हम कुछ पैसे कमा लेंगे। हमारी कुछ प्रतिष्ठा हो जाएगी। यह बात दूसरी है; लेकिन परलोक में उनके लिए कोई स्थान नहीं है। हम सभी सत्संगियों को समझ-बूझकर इसपर चलना चाहिए। समय अधिक हो गया है।
स्वामी श्रीरामानन्दजी ने यह सत्संग-मंदिर बनवाया है, बहुत अच्छा काम किया है इन्होंने। लोगों को इससे लाभ मिलेगा।
सत्संग का आयोजन जिन महानुभावों ने किया है, उन सबों को मेरा शुभाशीर्वाद है। गुरु महाराज से उनलोगों के लिए शुभ उन्नतियाँ चाहता हूँ। त
यह प्रवचन सहरसा जिले में महर्षि मेँहीँ योगाश्रम, सहरसा में दिनांक 22-03-1993 ई0 को प्रातःकालीन सत्संग के सुअवसर पर हुआ था।
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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ तथा भक्तिमती बहनो!
अभी आपलोग पूर्व वक्ता से सुन रहे थे-
कमठ दृष्टि जो लावई सो धयानी परमान।
संतमत जग में जीने की कला बतलाता है। एक गृहस्थ ने एक साधु बाबा के पास जाकर कहा कि हमलोग ध्यान करते हैं, तो ध्यान में मन नहीं लगता है और आप भी तो ध्यान करते हैं। ध्यान करते-करते इतने महान कैसे हो गये? साधु बाबा ने कहा-कल सबेरे आना, तब मैं तुमको बतला दूँगा। दूसरे दिन ठीक आठ बजे गृहस्थ बाबा की कुटिया में पहुँचा, तो देखा कि साधु बाबा नहीं हैं। किसी ने पूछा कि साधु बाबा कहाँ गये, तो उत्तर मिला कि वे बाड़ी में हैं। गृहस्थ बाड़ी में उनके पास जाकर बोला-बाबा! आपने आज आठ बजे का समय मुझे दिया था, इसलिए मैं आया हूँ। उपदेश दिया जाय कि कैसे भजन में मन लगेगा। उस समय वे साधु बाबा बाड़ी में धान के पौधों को उखाड़-उखाड़कर एक खेत से दूसरे खेत में लगा रहे थे। स्वावलम्बी जीवन था उनका। वे भिक्षावृत्ति से जीवन-यापन नहीं करते थे। गृहस्थ ने पुनः प्रार्थना की-बाबा! उपदेश दीजिए। साधु बाबा ने कहा-उपदेश तो तुमको दे ही रहा हूँ जी। गृहस्थ ने कहा-बाबा! मैं तो देख रहा हूँ कि आप इधर से पौधे उखाड़कर उधर रोप रहे हैं। इसमें उपदेश क्या हुआ? साधु बाबा ने कहा-अरे भाई! तुम समझ नहीं रहे हो। यही तो उपदेश है कि जिस दुनियादारी में तुम्हारा मन गड़ा हुआ है, वहाँ से उखाड़ो और परमात्मा में लगाओ। तुम्हारा मन संसार में गड़ा हुआ है। संसार से मन को उखाड़ो और परमार्थ- चिन्तन में रोपो। कमठ-दृष्टि अर्थात् कछुवी की दृष्टि कैसी होती है, तो संत पलटू दासजी कहते हैं-
आप रहे जल माहिं, सूखे में अंडा देवै।
कछुवी अंडा देती है सूखी जमीन में; लेकिन स्वयं पानी में रहती है। चिड़िया भी अंडा देती है। उसको वह उसपर बैठकर सेती है; लेकिन कछुवी अंडे पर बैठकर सेती नहीं है। वह जल में रहती है और अपनी सुरत से अंडों को वह सेती है। उसी में वह अंडा बढ़ता जाता है, पुष्ट होता है और फूटता है। फिर बच्चा बनकर निकल आता है। कहते हैं-जो कछुवी अंडा देती है, उस कछुवी को यदि कोई मार दे, तो वह अंडा बढ़ता नहीं, सड़ जाता है। अब समझिए। कछुवी कहाँ और अंडा कहाँ। वह जल में आहार करती है, विहार करती है, सब व्यवहार करती है; लेकिन उसकी सुरत उन अंडों पर लगी रहती है। उसी की उपमा देकर संत पलटू साहब कहते हैं-हमलोग संसार में रहें और सभी कार्य-कलापों को करते हुए अपना ख्याल अपने इष्ट पर लगाए रखें।
जो गुरु बसै बनारसी, शिष्य समुन्दर तीर।
एक पलक बिसरे नहीं, जो गुण होय शरीर।।
कछुवी का दृष्टान्त हम अपने गुरु महाराज के भी वचन में पाते हैं-
गुरु हरि चरण में प्रीति हो, युग काल क्या करे।
कछुवी की दृष्टि दृष्टि हो, जंजाल क्या करें।।
अगर हमारी कछुवी-सी दृष्टि हो जाय, प्रभु पर ख्याल लगा हुआ रहे, तो फिर जग-जंजाल कुछ नहीं कर सकता है। हम कामों को करते रहें-तन काम में; परन्तु मन राम में रहे।
कर ते कर्म करो विधि नाना।
सुरत राख जहाँ कृपा निधाना।।
लौकिक और पारलौकिक दोनों जगत् में जीने की यह कला संतमत बतलाता है। भगवान कृष्ण कहते हैं-तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युधय च।
मेरा स्मरण भी करो और युद्ध भी करो। वह युद्ध का मैदान कैसा था? आजकल का युद्ध का मैदान नहीं था। उस समय का युद्ध था-उधर से तीर आ रहा है। उस तीर से अपनी रक्षा करना और अपने तीर से उसके शरीर को बेधकर उसका नाश करना। जरा-सी भी चूक न होने पाये। उस विषम समय में भी भगवान कह रहे हैं-मेरा स्मरण करो और युद्ध भी करो। कोई कहे कि इस तरह क्या हो सकता है? उत्तर में निवेदन है-हो सकता है। किस तरह? जब कोई विशेष कार्य-भार हमारे ऊपर आ जाता है, उस समय किसी भी कार्य को करते हुए सतत वह कार्य हमारे दिमाग में घूमता रहता है। खा रहे हैं, पी रहे हैं, वह बात मस्तिष्क में घूमती रहती है।
हमारे सामने चार तरह के कार्य आते हैं-एक अत्यावश्यक, दूसरा आवश्यक, तीसरा साधारण और चौथा गौण। अत्यावश्यक कार्य को हम प्राथमिकता देते हैं, आवश्यक को दूसरा स्थान देते हैं, साधारण को तीसरा स्थान और गौण को चौथा स्थान देते हैं। जिस दिन भगवद्भजन को प्राथमिकता दे देंगे, अत्यावश्यक को संज्ञा देंगे, उस दिन भूलेंगे नहीं। अभी हमलोग भगवद्भजन को गौण बनाये हुए हैं। इसलिए मौन बैठे हुए हैं। ऐसा अभ्यास हो कि कार्यरत रहते हुए मन से मंत्रवृत्ति होती रहे। अभी हम बैठते हैं, मंत्र-जाप करने के लिए; लेकिन जप करने की जगह गप करने लग जाते हैं। क्यों? ऐसा होता क्यों है? इसलिए कि जिस समय हम कार्यों को करते हैं, उस समय उन कार्यों में ही संलग्न हो जाते हैं। यदि उन कार्यों के साथ हमारा जप चलता रहे, तब यदि हम केवल जप के लिए बैठेंगे, तो वह कार्य याद नहीं आएगा; लेकिन कार्य के समय हम कार्यरत हो जाते हैं और जप-ध्यान करने के लिए बैठते हैं, तो वह कार्य दिमाग में चक्कर काटने लगता है। यदि हमारा मन कार्य करते हुए उस प्रभु की ओर लगा रहे, जप में लगा रहे, तो केवल जप-ध्यान करने के लिए बैठेंगे, तो वह कार्य याद नहीं आएगा। हम भजन को प्राथमिकता नहीं देते हैं। यही संत पलटू साहब कहते हैं-
कमठ दृष्टि जो लावई सो धयानी परमान।।
सो धयानी परमान सुरत से अंडा सेवै।
आप रहै जल माहिं सूखे में अंडा देवै।।
जस पनिहारी कलस भरे मारग में आवै।
कर छोड़े मुख वचन चित कलसा में लावै।।
फ़नि मनि धरै उतारि आपु चरने को जावै।
वह गाफि़ल ना पड़ै सुरति मनि माहि रहावै।।
पलटू सब कारज करै, सुरति रहै अलगान।
कमठ दृष्टि जो लावई, सो धयानी परमान।।
एक उपमा तो ये कछुवी की देते हैं। दूसरी उपमा देते हैं-पनिहारिन की।
जस पनिहारी कलस भरे मारग में आवै।
कर छोड़े मुख वचन चित्त कलसा में लावै।।
अर्थात् जैसे पनिहारिन पानी भरने के लिए जाती है। आजकल की पनिहारिन नहीं कि नल दबाया, घड़ा भरा और चल दिये। उस जमाने की पनिहारिन की बात है-स्त्रियाँ कुएँ पर जाती थीं पानी भरने के लिए। एक हाथ में रस्सी-बाल्टी रहती थी, जिससे कुएँ से पानी निकालती थी। पानी से घड़ों के भर जाने पर एक घड़ा उसके सिर पर रहता था, दूसरा घड़ा उसकी काँख में। काँख के घड़े को तो वह बायें हाथ से पकड़े रहती और जिस बाल्टी से पानी निकालती है, वह बाल्टी-रस्सी दायें हाथ में है।
विचारणीय विषय है कि सिर पर जो घड़ा है, उसको किससे-कैसे पकड़ा है? साथ ही फिर सखी-सहेली से बातचीत भी करती जाती है। सिर पर का घड़ा हाथ से पकड़ा हुआ नहीं है, सुरत की पकड़ में है। और बातचीत करती हुई चली जा रही है। तीसरी उपमा देते हैं-
फ़नि मणि धारै उतारि, आपु चरने को जावै।
वह गाफि़ल ना पड़ै, सुरति मनि माहिं रहावै।।
जिस सर्प में मणि होती है, वह घनघोर जंगल में रहता है। जब बहुत रात बीत जाती है, तब वह अपने बिल से निकलता है। मणि को मुँह से उगल देता है। उस मणि से जो प्रकाश निःसृत होता है, उसमें कीड़े-मकोड़े आते हैं उस प्रकाश को देखकर। उन कीड़े-मकोड़े को वह खा लेता है। पेट उसका भर जाता है, फिर उस मणि को मुँह में लेकर बिल में प्रवेश कर जाता है। ये तीन तरह की उपमाएँ दी गयी हैं। ये तीनों उपमाएँ क्या बतलाती हैं?
पहली उपमा बतलाती है कि मानस जप करो। दूसरी उपमा बतलाती है कि मानस ध्यान करो। तीसरी उपमा बतलाती है कि दृष्टियोग करो। मतलब कछुवी कहीं है, अंडा कहीं है। उसी तरह जिस इष्ट का हम मंत्र-जप करते हैं, वे इष्ट तो कहीं हैं और हम कहीं हैं। दोनों में दूरी है। जैसे कछुवी का ख्याल सतत अंडे पर रहता है, वैसे हम जप निरंतर करते रहें।
यह पहली उपमा मानस जप के लिए है। दूसरी उपमा है मानस ध्यान के लिए। मानस ध्यान क्या है? मानस ध्यान जब हम करते हैं, तो रूप को हम सामने लाते हैं। वह कहीं दूर नहीं है। जिस तरह पनिहारिन के सिर पर ही घड़ा है, उसके अंग-संग ही है। उसी तरह मानस-ध्यान अंग-संग होता है। जिस इष्ट का हम ध्यान करते हैं, उसी की मानस मूर्ति के ऊपर हमारी वृत्ति रहनी चाहिए। लक्ष्य हमारा उसी पर रहना चाहिए। मनोभावना हमारी उच्च कोटि की होनी चाहिए। तीसरी उपमा है मणिवाले साँप कीं मतलब यह कि जिस तरह प्रकाश में साँप विचरण करता है, उसी तरह साधक जब दृष्टि-साधन की क्रिया करता है, तब वह अपने को प्रकाश में पाता है। उस प्रकाश में ही वह विचरण करता है। प्रकाशीय वृत्ति उसमें रहती है और तदनुकूल जग-व्यवहार करता है, आचरण करता है। यह दृष्टि-साधन की क्रिया है। तो ये तीनों क्रियाएँ-मानस जप, मानस ध्यान और दृष्टि-साधन की क्रिया संत पलटू साहबजी एक साथ बतला देते हैं, यह एक साथ करो। जब इन क्रियाओं में कुशल हो जाआगे, तब वह चौथी क्रिया आएगी-‘धुन आनै जो गगन की सो मेरा गुरुदेव’ तो वह धुन की बात तो पीछे की है।
धुन की बात तो तब है, जब सुरत शून्य में चली जाती है। जबतक सुरत शून्य में नहीं जाएगी, तबतक क्या सुनेंगे! इन क्रियाओं को करते हुए संसार में रहो। श्रीरामकृष्ण परमहंसदेवजी कहते हैं-संसार में तुम रहो, तो किस तरह रहो? कटहल काटने की उपमा देते हुए वे कहते हैं-देखो, कटहल काटते हो सब्जी-तरकारी बनाने के लिए। तो कटहल काटने के पहले हाथ में तेल लगा लेते हो। अगर हाथ में तेल नहीं लगाआगे, तो हाथ में लस्सा लग जाएगा। उसी तरह अपने हृदय को भगवद्भक्ति से तर कर लो-भींगा लो। फिर संसार का काम करो, सांसारिकता नहीं आएगी। उन्होंने दूसरी उपमा दी, कहा-पानी में नाव रहे, कोई हानि की बात नहीं है; लेकिन नाव में पानी नहीं आना चाहिए, नहीं तो वह नाव को डुबो देगा। उसी तरह भक्त संसार में रहे, कोई हर्ज की बात नहीं; लेकिन भक्त में सांसारिकता नहीं आनी चाहिए, नहीं तो उसको डुबा देगी।
तीसरी उपमा उन्होंने दी है-कोई गाय का रखवाला है, गौ की सेवा करता है। नौकर है। वह ठीक समय पर गाय को खिलाता है, पानी पिलाता है। जाड़े में समय में धूप में रखता है। गोबर फेंकता है। गोंत फेंकता है। सारी सेवा-शुश्रूषा वह करता है; लेकिन अगर कोई गाय बियाती है, तो वह गोपालक क्या कहता है-मालिक की गाय बियायी है। वह यह नहीं समझ रहा है कि हमारी गाय है। वह समझ रहा है कि मालिक की गाय है। उसी तरह तुम परिवार में रहो, सारी सेवाएँ करो; लेकिन मन से जान रखो कि यह तुम्हारा नहीं, तुम्हारे मालिक का है। आमदनी है तो मालिक की और खर्च है तो मालिक का। यह भावना रखो। सहजोबाई कहती हैं-
सहजो जग में यों रहो, ज्यों जिभ्या मुँह मांहि।
घीउ घना भोजन करै, तौ भी चिकनी नाहिं।।
घी लगा दीजिए देह पर, चिकनी हो जाएगी। जिभ्या रहती है मुँह में, जिभ्या पर घृत लगाने से चिकनापन नहीं आता। उसी तरह संसार में रहो; लेकिन संसार का चिकनापन नहीं आना चाहिए, लेप नहीं लगना चाहिए। यह संतमत बतलाता है।
चीन में एक महात्मा हुए। उन्होंने देखा कि अब मेरा अंतिम समय है, तो उन्होंने अपने शिष्यों से कहा- “ देखो, कल जैसे सूर्योदय होगा, तो मेरे जीवन का अस्त होगा। तुमलोग सूर्योदय से पहले आकर भेंट कर लेना। एक उपदेश दूँगा तुमलोगों को।” बहुत बूढ़े हो गये थे। शिष्य सब नियत समय पर पहुँच गये। महात्माजी बोले- “ अंतिम समय में उपदेश देता हूँ।-यह कहकर उन्होंने अपना मुँह खोलकर दिखला दिया और पूछा- “ देखा?” शिष्यों ने कहा- “ जी हाँ, देखा।” साधु बाबा ने पूछा- “ क्या समझा?” शिष्यों ने कहा- “ नहीं समझा।” साधु बाबा ने पूछा- “ मेरे मुँह में दाँत है?” शिष्यों ने कहा- “ जी नहीं।” आपके मुँह में एक भी दाँत नहीं है। साधु बाबा ने कहा- “ यही उपदेश दिया, समझा?” शिष्यों ने कहा- “ नहीं समझा।” साधु बाबा ने कहा- “ अरे, दाँत नहीं है मेरे मुँह में, जिभ्या तो है?” शिष्यों ने कहा- “ जी हाँ।” साधु बाबा ने कहा- “ यही तुमलोगों को उपदेश दिया, समझा?” शिष्यों ने कहा- “ जी नहीं समझा।”
साधु बाबा ने पूछा- “ पहले जिभ्या आयी थी या पहले दाँत आया था।” शिष्यों ने कहा- “ जिभ्या तो जन्म से ही साथ रहती है और दाँत तो बीच में आया और बीच में ही चला गया।” साधु बाबा ने कहा- “ यही उपदेश दिया, समझा?” शिष्यों ने कहा- “ हमलोग नहीं समझे।” साधु बाबा ने कहा- “ अरे! देखो, दाँत होता है कड़ा और जिभ्या होती है मुलायम। जो कड़ा, सो झड़ा और जो मुलायम रहती है, उसी की स्थिति रहती है। इसलिए दुनिया में जीना चाहो, तो मुलायम बनकर रहो।” बोलिए श्रीसद्गुरु महाराज की जय! स
यह प्रवचन महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट, भागलपुर में दिनांक 02-05-1993 ई0 को साप्ताहिक-सत्संग के सुअवसर पर हुआ था।
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विद्वज्जन का कथन है कि बिना कारण के कोई कार्य नहीं होता। आवश्यकता आविष्कार की जननी कहलाती है। आज हमलोग इस समय यहाँ यत्र-तत्र से जो एकत्र हुए हैं, इसका भी कोई कारण होगा। अकारण ही हमलोग यहाँ समवेत नहीं हुए हैं। इसका कारण है-हमलोग गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज की जयन्ती मनाने के लिये यहाँ उपस्थित हुए हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज सन्त थे, कवि थे। गोस्वामीजी महाराज के ही शब्दों में हम कह सकते हैं-
“ सन्त उदय सन्तत सुखकारी ।
बिस्व सुखद जिमि इन्दु तमारी ।।”
जिस तरह चन्द्र और सूर्य का उदय जगन्मंगल के लिये हुआ करता है, उसी तरह सन्तों का अवतरण विश्व-कल्याण के लिये हुआ करता है। गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज ने ‘विनय-पत्रिका में लिखा है-
“ विस्व उपकार हित व्यग्र चित सर्वदा,
त्यक्त मद मन्यु कृत पुण्य रासी ।
जत्र तिष्ठन्ति तत्रैव अज सर्व हरि,
सहित गच्छन्ति छीराब्धि वासी ।।”
विश्व-कल्याण के लिए जिनका अवतरण होता है, विश्व-कल्याण के लिए जो व्यग्र रहते हैं, जो मद-मन्यु का परित्याग किये हुए होते हैं, ब्रह्म में जिनकी वृत्ति प्रतिष्ठित रहती है, ऐसे सन्तजन जहाँ रहते हैं, वहाँ ब्रह्मा, विष्णु और महेश के सहित सभी देवता उपस्थित रहते हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज सन्त तो थे ही, बहुत बड़े विद्वान् भी थे। उन्होंने बहुत-सी पुस्तकों की रचना की। उन रचनाओं में रामचरितमानस का स्थान सर्वश्रेष्ठ है। यह उत्तम ग्रन्थ मात्र स्वदेश में ही नहीं, विदेश में भी प्रवेश कर चुका है। यह ग्रन्थ इतना लोकप्रिय हुआ है कि ऐसा कौन भारतवासी होगा, जिसको रामचरितमानस की एक भी चौपाई या दोहा याद नहीं हो। कितने जन तो सम्पूर्ण रामचरितमानस को कण्ठस्थ कर लिये हैं।
रामचरितमानस इसकी संज्ञा इसलिये पड़ी कि भगवान शंकर ने भगवान श्रीराम के चरित्र की रचना करके अपने मानस पटल पर अटल करके रखा था। समय पाकर उन्होंने शिवा से कहा-
“ रचि महेस निज मानस राखा ।
पाइ सुसमय सिवा सन भाखा ।।”
रामचरितमानस एक अद्भुत ग्रन्थ है। इसमें सभी प्रकार के ज्ञानों का समावेश है। गो0 तुलसीदासजी महाराज रामचरितमानस के सन्दर्भ में लिखते हैं-
“ रामचरित मानस यहि नामा ।
सुनत स्त्रवन पाइय विश्रामा ।।
यहि मानस मानस चक्षु चाही ।
भइ कवि बुद्धि विमल अवगाही ।।”
इस रामचरितमानस को हम सामान्य दृष्टि से नहीं देख सकते। “ यही मानस मानस चक्षु चाही।” मानस चक्षु अर्थात् सूक्ष्म दृष्टि चाहिये। लगे हाथ किसी ने गोस्वामीजी से जिज्ञासा की कि यह मानस चक्षु वा दिव्य दृष्टि कैसे मिलती है, जिसके बिना हम रामचरितमानस का अवलोकन सही रूप से नहीं कर सकते? गोस्वामीजी इस जिज्ञासा का समाधान इस भाँति करते हैं-
“ श्री गुर पद नख मनि गन जोती ।
सुमिरत दिब्य दृष्टि हियँ होती ।।
दलन मोह तम सो सुप्रकासू ।
बड़े भाग उर आवइ जासू ।।
उघरहिं बिमल बिलोचन ही के ।
मिटहिं दोष दुख भव रजनी के ।।
सूझहिं रामचरित मनि मानिक ।
गुपुत प्रगट जहँ जो जेहि खानिक ।।”
“ जथा सु अंजन आंजि दृग, साधक सिद्ध सुजान ।
कौतुक देखत सैल बन, भूतल भूरि निधान ।।”
आज हमलोग गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज की जयन्ती मनाने के लिये उपस्थित हुए हैं, बड़ी प्रसन्नता की बात है; किन्तु जयन्ती सही रूप में हम तभी मना सकते हैं, जब हम गोस्वामीजी के कथन के अनुकूल अपना आचरण बना सकेंगे। गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज के विचार में ईश्वर-भक्ति में जीव का कल्याण है। इसलिए वे नवधा भक्ति का वर्णन करते हैं। उसका प्रसंग इस प्रकार है-मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् श्रीराम जब शबरीजी के आश्रम में पधारते हैं, तो वे उनसे नौ प्रकार की भक्तियाँ बतलाते हैं। उन नवो प्रकार की भक्तियों में पहली भक्ति उन्होंने सन्तों की संगति बतलायी-‘प्रथम भगति सन्तन्ह कर संगा ।’ नवधा भक्ति का क्रम-क्रम से वर्णन करते हुए सातवीं भक्ति में भगवान कहते हैं-
“ सातवँ सम मोहि मय जग देखा ।
मोतें अधिक सन्त करि लेखा ।।”
भगवन्त ने सन्त की मर्यादा अपने से अधिक दी; अपने से विशेष सन्त को बतलाया। सन्तों में ऐसी कौन-सी विशेषता होती है। आइये, इसपर विचार करें। भगवन्त के अवतरण से साधु-सन्तों का संरक्षण और दुष्टों का संहार नहीं होता; अपितु वे दुष्टों को सत्संग का आधार देकर उनका सुधार करते हैं और अन्तस्साधना के द्वारा उनका उद्धार करते हैं।
सन्तों की संगति मात्र गोस्वामीजी ने ही बतलायी है, ऐसी बात नहीं है; अन्य संतों की वाणी में भी हम सन्त-संग-सत्संग का बहुत ऊँचा स्थान पाते हैं। संत कबीर साहब कहते हैं-
“ कबीर संगति साध की, ज्यों गंधी का बास ।
जो कुछ गंधी दे नहीं, तौभी बास सुवास ।।”
हम गन्धी की दुकान पर जायँ, वहाँ हम इत्र मोल नहीं लें, मात्र खड़े रहें। इत्र बेचनेवाला भी हमको इत्र नहीं दे, फिर भी स्वाभाविक ही उसकी दुकान से सुगन्धि आती है। वह सुगन्धि हमें लगती है। उसी तरह से संतों के सन्निकट जाकर हम बैठें, संत कुछ नहीं भी बोलें, बिल्कुल मौन ही क्यों न रहें, फिर भी उनकी जो नैसर्गिक आभा है, वह हममें प्रवेश करेगी और हममें परिवर्त्तन लायेगी।
पाश्चात्य देश की कथा है कि एक बहुत बड़े विद्वान थे, जिनका नाम था-अरस्तू। उन्हीं के समय में एक महात्मा हुए थे, जिनका नाम था-सुकरात । अरस्तू के मन में बहुत सारी जिज्ञासाएँ थीं। वे सुकरात के पास जाकर अपनी जिज्ञासा का समधान कराना चाहते थे। किन्तु मानवों में कुछ मानसिक कमजोरियाँ भी हुआ करती हैं। आजकल-आजकल कहकर वे सोच रहे थे-जायँगे-जायँगे। बहुत दिन बीत गये। जा नहीं पाये। कुछ संयोग ऐसा हुआ कि सुकरात पर मिथ्या दोषारोपण करके उनको कारागार में बन्द कर दिया गया। उनको अवधि दी गयी कि अगर चालीस दिनों के अन्दर आप अपने विचार में परिवर्त्तन ला सकें, तो आप कारागार से मुक्त हो सकते हैं, अन्यथा आपको प्राणदण्ड दिया जायेगा। सुकरात-जैसे महात्मा अपने विचार में परिवर्तन क्योंकर लाते। यह बात अरस्तू को ज्ञात हुई। अरस्तू ने सोचा, महात्मा सुकरात- जैसे महान व्यक्ति अपने विचार में परिवर्त्तन नहीं ला सकते। वे अपने विचार में दृढ़ रहेंगे। भले ही प्राणदण्ड स्वीकार कर लें। यही अवसर है कि हम अपनी जिज्ञासाओं का समाधान उनसे करावें। अरस्तू चलते हैं सुकरात से मिलने के लिए, जहाँ वे कारागार में बन्द थे। जैसे-जैसे वे सुकरात की ओर आगे बढ़ते हैं और जाते-जाते उनकी समीपता प्राप्त करते हैं, तो उनकी सारी जिज्ञासाओं का समाधान हो जाता है। सुकरात से उनकी भेंट होती है। सुकरात पूछते हैं- “ कहिये, आपके आने का क्या कारण है?” अरस्तू कहते हैं- “ मेरे मन में बहुत सारी जिज्ञासाएँ थीं। उन्हीं जिज्ञासाओं के समाधानार्थ आज मैं आपके पास आया था; किन्तु जैसे-जैसे मैं आपके पास आता गया, हमारी जिज्ञासाओं का समाधान होता गया। अब मात्र एक जिज्ञासा बच गयी है और वह यह कि ऐसा हुआ तो कैसे? सुकरात ने उत्तर दिया- “ प्रत्येक व्यक्ति के शरीर से नैसर्गिक आभा निःसृत होती रहती है। उस आभा का एक क्षेत्र होता है। उस क्षेत्र से जब आप बाहर थे, तो आपके अन्दर बहुत सारी जिज्ञासाएँ थीं और जैसे-जैसे आप उस आभा में प्रवेश करते गये, आपकी जिज्ञासा का समाधान होता गया और यहाँ आते-आते सारी जिज्ञासाओं का समाधान हो गया।”
हमारे गुरुदेव थे। उनकी भी तपस्या बहुत ऊँची थी। साधना के शिखर तक पहुँचकर उन्होंने सत्य का साक्षात्कार किया था। एक बार का प्रसंग है-मुंगेर कॉलेज में एक प्रोफेसर थे। अब तो वे रिटायर्ड (अवकाश-प्राप्त) हो चुके होंगे। उनका नाम है शिवचन्द्र बाबू। ये अपने कॉलेज के कार्य-विशेष से भागलपुर यूनिवर्सिटी (विश्वविद्यालय) आये हुए थे। जिस कार्य के लिए आये हुए थे, वह पूरा हो गया, तो उनकी इच्छा हुई कि नजदीक में ही महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज विराजते हैं। क्यों न वहाँ जाकर उनके दर्शन किये जायँ। उन्होंने अपनी जेब में हाथ डालकर देखा, तो उतने पैसे उनके पास नहीं थे, जिससे कुप्पाघाट जाकर पुनः मुंगेर लौट सकें। उनके मन में हुआ कि इच्छा थी महर्षिजी के दर्शन करने की, किन्तु लाचारी है। देखिये, होता क्या है? उस समय यहाँ भागलपुर यूनिवर्सिटी में भी0सी0 (उपकुलपति) थे-राष्ट्र कवि श्री दिनकरजी। दिनकर जी के मन में प्रेरणा होती है। दिनकरजी कहते हैं- “ शिवचन्द्र बाबू! सुनने में आया है कि कुप्पाघाट में एक महात्माजी रहते हैं, उनके दर्शन के लिये चला जाय।” इनके मन में तो प्रबल इच्छा थी ही। कहते हैं- “ हाँ-हाँ, चला जाय, बहुत अच्छे संत हैं। श्रीदिनकर जी श्रीशिवचन्द्र बाबू से पूछते हैं- “ अच्छा एक बात बतलाइये कि हमलोग वहाँ जायेंगे, उनसे मैं कुछ पूछना चाहूँगा, तो उसका वे उत्तर देंगे न?” शिवचन्द्र बाबू बोले- “ हाँ, क्यों नहीं, वे बहुत बड़े पहुँचे हुए महात्मा हैं, अवश्य उत्तर देंगे।” श्री दिनकरजी ने कागज पर क्रम से सात प्रश्न लिखे। सातो प्रश्नों को लिखकर उन्होंने अपनी जेब में उस कागज के टुकड़े को रख लिया। श्री दिनकरजी और शिवचन्द्र बाबू दोनों ही गाड़ी पर बैठकर कुप्पाघाट पहुँचे। गुरु महाराज बैठे हुए थे। दोनों ने उनके श्रीचरणों में प्रणाम निवेदन करते हुए एक-दूसरे का परिचय दिया। गुरुदेव का संकेत पाकर दोनों सज्जन बैठ गये। कुशल-समाचार के क्रम में ही दिनकरजी के प्रश्नों के उत्तर क्रमानुसार गुरुदेव देने लग गये। जैसे ही पहले प्रश्न का उत्तर गुरुदेव देते हैं, वैसे ही दिनकरजी शिवचन्द्र बाबू की जाँघ को थपथपाते हुए संकेत करते हैं। प्रश्न तो जेब में है और महर्षिजी के मुखारविन्द से उत्तर मिल रहा है। क्रम-क्रम से सातो प्रश्नों के उत्तर गुरुदेव ने दिये। िदनकरजी आश्चर्य-चकित हो अवाक् हो गये। सन्तों की अन्तर्यामिता के सम्बन्ध में श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव जी महाराज ने कहा है- सर्वसाधारण का हृदय सन्तों की दृष्टि में काँच की आलमारी की तरह होता है। काँच की आलमारी में आप कुछ भी रखिये, वह बाहर से दीखती है। उसी तरह सन्तों की दृष्टि इतनी पैनी होती है कि भीतर का भेदन कर आन्तरिक रहस्यों को जान लेती है। सन्तों के शरीर की आभा सतत निःसृत होती रहती है। संतों का संग करनेवाले में वह नैसर्गिक आभा प्रवेश कर उसको पवित्र करती है। इसलिये शबरी को उपदेश देते हुए भगवान् श्रीराम ने “ प्रथम भगति सन्तन्ह कर संगा।” कहा।
हमारी जो तामसी वृत्ति है, सन्तों की संगति करते-करते वह तामसी वृत्ति राजसी और राजसी से सात्त्विकी वृत्ति में परिवर्तित हो जाती है। सन्त कबीर साहब कहते हैं-
“ कबीर संगति साध की, ज्यों गंधी का बास ।
जो कुछ गन्धी दे नहीं, तौ भी बास सुबास ।।”
इंग्लैण्ड के रहनेवाले एक विद्वान् सज्जन, जिनका नाम पाल ब्रण्टन था, भारत में संतों की खोज करने के लिए आये हुए थे। बहुत घूमने-फिरने के बाद जब उनको संत-दर्शन नहीं हुए, तो वे यह सोचकर कि भारत-देश संत से विहीन है, शून्य है, निराश होकर स्वदेश लौट रहे थे। जहाज में वे बैठ भी चुके थे। एकाएक उनको अन्तःप्रेरणा मिलती है और वे जहाज से उतरकर महर्षि रमण के आश्रम में जाते हैं और उनके दर्शन करते हैं। महर्षि रमण भी अद्भुत संत थे। उन्होंने उनकी ओर देखा भी नहीं, वे आँखें बन्द करके बैठे हुए थे। पाल ब्रण्टन कई दिनों तक उनके निकट रहे; लेकिन कुछ प्रश्नोत्तर नहीं हुआ। लगातार कई महीने तक उनके आश्रम में निवास करके महर्षिजी से जो वे प्रभावित और लाभान्वित हुए, उनकी चर्चा उन्होंने ‘गुप्त भारत की खोज’ नाम की पुस्तक में की। इस प्रकार हम देखते हैं कि संत कबीर साहब की यह वाणी- “ जो कुछ गन्धी दे नहीं, तौभी बास सुबास” अक्षरशः सत्य है। इस विषय की एक घटना मुझे स्मरण हो आयी।
एक सन्त चरणदासजी महाराज थे। उनकी शिष्या थीं सहजोबाई। बड़े ऊँचे दर्जे की साधिका थीं। बड़ी गुरु-भक्तिन थीं। साधना में भी अच्छी ऊँची गति थी। मीराबाई का नाम आपलोगों ने सुना होगा। उन्हीं की तरह की वे भी थीं। एक बार का प्रसंग है-सहजोबाई अपने गुरु के निकट गयीं और उनके श्रीचरणों में प्रणाम निवेदित करके बैठ गयीं। सहजोबाई को देखते ही एकाएक संत चरणदासजी महाराज अपनी आँखें बन्द कर लेते हैं। हमलोग अगर अपने गुरु महाराज के पास जायँ, उनको प्रणाम करके बैठें और वे आँखें बन्द कर लें, तो हमलोग यही समझेंगे कि हमारे गुरुदेव हमसे रुष्ट हैं, हमारी और देखना तक नहीं चाहते। बोलना तो दूर रहा, कुछ कहने की बात तो और दूर रही। लेकिन सहजोबाई क्या समझती है, अपनी भावना व्यक्त करती है-
“ सहजो गुरु परसन्न ह्वै, मूँद लियो दोउ नैन ।
फिर मोसूँ ऐसो कही, समझि लेहु यह सैन ।।”
आँखें बन्द करने का अर्थ बहिर्मुख से अन्तर्मुख होने का संकेत है। इसीलिये कहा- “ समझि लेहु यह सैन।” हाँ, तो मैं सन्तों की संगति के विषय में कह रहा था। सन्तों की संगति की विशेषता के सम्बन्ध में सन्त सुन्दरदासजी महाराज की वाणी में सुनिये-
“ तात मिलै पुनि मात मिलै,
सुत भ्रात मिलै युवती सुखदाई ।।
राज मिलै गज बाज मिलै,
सब साज मिलै मन वांछित पाई ।।
लोक मिलै सुर लोक मिलै,
विधि लोक मिलै बैकुंठ ही जाई ।।
‘सुन्दर’ और मिलै सब ही सुख,
संत समागम दुर्लभ भाई ।।”
सुन्दरदासजी महाराज के संबंध की एक अत्यन्त रुचिकर-मनोहर कथा है। ये अपने पूर्वजन्म में भी संत दादू दयालजी महाराज के शिष्य थे। संत दादू दयालजी महाराज बड़े उच्चकोटि के फकीर थे। उनके शिष्य थे जग्गाजी, गुरु के अनन्य भक्त। मधुकरी वृत्ति से गुरु-शिष्य जीवन-यापन करते थे। उन दिनों घर-घर चरखा चलता था, सूत माँगकर बुनकर को देते थे। वह बुनकर कपड़ा बनाकर देता था। इसी क्रम में एक दिन जग्गा जी चले सूत माँगने के लिए। वे घर-घर घूमते हुए कहते, ‘दे माई सूत, दे माई सूत।’ थोड़ा-थोड़ा सूत माताएँ देती जातीं और ये झोले में रखते जाते। एक माई ने कुछ अधिक सूत देकर कहा, ‘लो बाबा सूत।’ इनके मुँह से निकल गया, ‘लो माई पूत।’ एक संत के मुँह से ‘लो माई पूत’ सुनकर उसका हृदय गद्गद हो गया, उसने और अधिक सूत लाकर झोले में डाल दिया। जग्गाजी सूत लेकर पहुँचे दादू दयालजी महाराज के पास। संत दादू दयालजी महाराज अंतर्यामी और दूरदर्शी थे। संतों की दृष्टि बड़ी पैनी होती है। योगशिखोपनिषद् में लिखा है-
‘विन्दौ मनोलयं कृत्वा दूरदर्शनमाप्नुयात् ।’
जो साधना-द्वारा विन्दु को प्राप्त कर लेते हैं, उसमें प्रतिष्ठित हो जाते हैं, वे जहाँ कहीं भी देखना चाहें, एक स्थान पर बैठकर देख सकते हैं। उनकी दृष्टि दूरबीन का काम करती है। हमारे परम पूज्य गुरुदेव के वचन में भी आया है-
“ एकविन्दुता दूर्बीन हो, दुर्बीन क्या करे ।
पिण्ड में ब्रह्माण्ड दरस हो, बाहर में क्या फिरे ।।”
संत दादू दयालजी महाराज जहाँ बैठे थे, वहीं से सब कुछ देख रहे थे। उनकी दृष्टि से कुछ भी ओझल नहीं था। फिर भी लोक-व्यवहार-निर्वहण हेतु उन्होंने पूछा, ‘इतनी थोड़ी ही देर में इतने अधिक सूत तुम कहाँ से ले आये?’ जग्गा जी ने उत्तर में निवेदित किया, “ गुरुदेव! सूत माँगने के लिए मैं कई घरों में गया। उन स्थानों से थोड़ा-थोड़ा सूत मिला। इसी क्रम में जब मैं एक अन्य गृह में गया, तो उस गृह से एक कन्या मेरे सामने आयी। मैंने कहा, ‘दो माई सूत।’ उसने कुछ अधिक सूत मेरे झोले में डालकर कहा, ‘लो बाबा सूत।’ एकाएक मेरे मुँह से निकल गया, ‘लो माई पूत।’ तो उसने और अधिक सूत लाकर मुझे दे दिया।” संत दादू दयालजी महाराज ने कहा, “ अरे! वह तो बन्ध्या है। उसको तुमने कैसे कह दिया, ‘लो माई पुत!” जग्गाजी बोले, ‘गुरुदेव! मुझसे भूल हो गयी। क्षमा करें।’ संत दादू दयालजी ने कहा, ‘वत्स! साधु का वचन मिथ्या नहीं होता। तुमको ही उसके गर्भ में जाना होगा।’ जग्गाजी ने प्रार्थना की, ‘गुरुदेव! इस जीवन की भाँति अगले जन्म में भी आप ही मेरे गुरुदेव हों, ऐसा आशीर्वचन देने का अनुग्रह करें।’ दादूदयालजी महाराज ने कहा, ‘एवमस्तु! (ऐसा ही होगा)। मैं तेरा गुरु होऊँगा। अच्छा, तुम एक काम करो। उस लड़की के माता-पिता से कह दो कि उसका जहाँ विवाह हो, उनके पति से कह दें कि जो पुत्र होगा, ग्यारह वर्ष की अवस्था में वैराग्य धारण कर लेगा।’ जग्गाजी ने आदेश का पालन किया।
कुछ दिनों के बाद उस कन्या का विवाह होता है। वह ससुराल जाती है। समय पाकर जग्गाजी का शरीर छूटता है और वह माई गर्भवती होती है। उसके गर्भ से बालक का जन्म होता है। वह देखने में बड़ा सुन्दर था। जब उसकी उम्र छह वर्ष की हुई, संत दादूदयालजी महाराज घूमते-घूमते वहाँ गये, जहाँ कन्या का विवाह हुआ था। उस कन्या के पति ने उस बालक को उनके श्रीचरणों में समर्पित कर दिया। दादू दयालजी उस बालक के सिर पर हाथ रखते हुए बोले, ‘यह बालक बड़ा सुन्दर है।’ कहते हैं कि तबसे उनका नाम ‘सुन्दरदास’ पड़ गया। वे बढ़े और पढ़-लिखकर बहुत बड़े विद्वान संत हुए। उनकी बहुत अच्छी-अच्छी रचनाएँ हैं। उन्हीं सुंदरदासजी महाराज की वाणी आपलोगों ने सुनी। संसार में सब कुछ मिल जाय, सुलभ है; लेकिन संतों का संग बड़ा दुर्लभ है-‘संत समागम दुर्लभ भाई।’ भगवान शंकर पार्वतीजी से कहते हैं-
“ गिरिजा संत समागम, सम न लाभ कछु आन ।
बिनु हरि कृपा न होइ सो, गावहिं वेद पुरान ।।”
‘हे पार्वती! संतों के समागम के समान दूसरा कोई लाभ नहीं है।’ यह लाभ कैसे मिलता है? तो कहते हैं, ‘बिनु हरि कृपा न होइ सो।’ जबतक प्रभु की कृपा नहीं होती, संतों का समागम नहीं होता। गो0 तुलसीदासजी महाराज का वचन है-
“ जब द्रवहिं दीनदयाल राघव, साधु संगति पाइये ।
जेहि दरस परस समागमादिक, पाप रासि नसाइये ।।”
(विनय-पत्रिका)
गोस्वामीजी महाराज रामचरितमानस में लिखते हैं-
“ सरदातप निसि ससि अपहरई ।
सन्त दरस जिमि पातक टरई ।।”
आश्विन और कार्तिक महीनों को शरद् ऋतु कहते हैं। शरद् ऋतु में दिन के समय गर्मी पड़ती है और रात में ठंढ हो जाती है। गोस्वामीजी महाराज कहते हैं कि शरद् काल में दिन की गर्मी को रात में चन्द्रमा अपनी शीतलता प्रदान कर दूर कर देता है। उसी तरह संतों के दर्शन से पातक टल जाते हैं। गोस्वामीजी के कहने की कला कितनी अच्छी है! दिन की गर्मी रात में नहीं रहती, लेकिन दिन होने पर तो फिर गर्मी आयेगी ही। इसी प्रकार संतों के दर्शन से पातक टल जाते हैं। सड़ जाते हैं, गल जाते हैं, समाप्त हो जाते हैं, ऐसा वे नहीं कहते। उनका कथन है, ‘संत दरस जिमि पातक टरई।’ अर्थात् पातक टल गया, समाप्त नहीं हुआ। जैसे मान लीजिए, एक सरोवर है। उसमें जल लबालब भरा हुआ है। उस जल के ऊपर सेंवार छायी है। जब हमें जल की आवश्यकता पड़ती है, तो हम सेंवार को हाथ से हटा देते हैं, जल ले लेते हैं। लेकिन कुछ क्षण के बाद फिर वह सेंवार उसी स्थान पर आ जाती है। इस भाँति संतों के दर्शन से पातक तो टल जाता है; किन्तु संत-दर्शन से जब हम दूर हो जायेंगे, तो पातक फिर आ जाएगा। वह पातक पुनः नहीं आए, इसके लिए क्या उपाय है? उसी का यत्न गोस्वामी जी बतलाते हैं-
“ जब द्रवहिं दीनदयाल राघव, साधु संगति पाइये ।
जेहि दरस परस समागमादिक, पाप रासि नसाइये ।।”
अर्थात् जब परम प्रभु की अनुकम्पा होती है, तब साधु-संतों की संगति मिलती है। जिनके दर्शन, स्पर्शन और समागम आदि से पाप-राशि नष्ट होती है। गोस्वामी जी ने ‘समागम’ शब्द के आगे ‘आदिक’ शब्द जोड़कर एक मार्मिक दिशा की ओर इंगित किया है। वह क्या है, इसको भी समझ लेना आवश्यक है। उनके कहने का तात्पर्य यह है कि संतों के दर्शन, स्पर्शन, समागम मात्र से समस्त पापों का विनाश नहीं होता। समस्त पापों को विनष्ट करने के लिए वे कुछ साधना-जप-ध्यानादि करने के लिए बतलायेंगे। वह करना होगा। सामवेद में लिखा है-
“ यदि शैलसमं पापं विस्तीर्णं बहुयोजनम् ।
भिद्यते ध्यानयोगेन नान्यो भेदः कदाचन ।।”
अर्थ-यदि पहाड़ के समान कई योजन तक फैला हुआ पाप हो, तो वह ध्यानयोग से नष्ट हो जाता है; इसके समान पापों का नष्ट करनेवाला कभी कुछ नहीं हुआ है। वेद कहता है, ‘न अन्यो भेदः।’ और कोई दूसरा उपाय नहीं है, यही एक उपाय है।
दिनांक-14-8-1994, स्थान: रामजानकी मंदिर, भागलपुर (शान्ति-सन्देश, नवम्बर, 1994)
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“ सन्त पंथ अपवर्ग कर, कामी भव कर पंथ ।
कहहिं संत कवि कोविद, स्त्रुति पुरान सद्ग्रन्थ ।।”
सन्तों का जो रास्ता है, वह अपवर्ग का है अर्थात् अपवर्ग पर परमपद का है। अन्धकार, प्रकाश और शब्द के परे का है; अर्थ, धर्म, काम-इन तीनों के परे मोक्ष धर्म का है। उस धर्म पर चलने के लिये रास्ता बाहर संसार में नहीं है। वह रास्ता अपने अन्दर है। एक फकीर ने बड़ा ही अच्छा कहा है-
“ बेहोशिये इन्सान से यह ख्याल जुदा है ।
जाहिर में है मुहम्मद, वातिन में खुदा है ।।”
अगर खुदा को हासिल करना चाहते हो, परमात्मा को पाना चाहते हो, तो वातिन में खुदा है यानी अन्दर में परम प्रभु है। अन्दर में उसकी प्राप्ति होगी। इसलिये-
“ अद्भुत अन्तर की डगरिया, जा पर चलकर प्रभु मिलते ।।
दाता सतगुरु धन्य धन्य जो, राह लखा देते ।
चलत पंथ सुख होत महा है, जहाँ अझर झरते ।।
अमृत ध्वनि की नौबत झहरत, बड़भागी सुनते ।
सुनत लखत सुख लहत अद्भुती,‘मेँहीँ’ प्रभु मिलते ।।”
(महर्षि मेँहीँ-पदावली)
वह अंदर का डगर है। बाहर की डगरिया नहीं है, बाहर का रास्ता नहीं है। आंतरिक रास्ता है। अंतर-अंतर चलना है। जिज्ञासा होती है-अंतर-अंतर कैसे चलें? इसका भेद कौन बतावेगा? तो उत्तर मिलता है-‘दाता सतगुरु धन्य धन्य जो, राह लखा देते ।’ संत सद्गुरु के बिना और कोई इसको बता नहीं सकता। किताब पढ़-पढ़कर, थककर मर जायेंगे; लेकिन वह राह नहीं मिलेगी। स्वामी विवेकानंदजी ने कहा-‘हम बहुत अध्ययन करते हैं। बहुत अध्ययन करने से हमारा बौद्धिक विकास होता है; लेकिन आत्म-विकास नहीं होता। एक पाण्डित्य का घमण्ड हमारे दिमाग में आ जाता है कि हमने इतना अध्ययन किया है, हम बहुत जानते हैं।’ संतों का मार्ग आंतरिक मार्ग-सूक्ष्म मार्ग है, जागतिक स्थूल मार्ग नहीं है।
‘चलत पंथ सुख होत महा है, जहाँ अझर झरते ।’
उस रास्ते से चलने में कठिनाई नहीं, बल्कि सुख मिलता है। आप विचार की दृष्टि से देखिये। जब आप जाग्रत अवस्था में बहिर्मुख होते हैं और जब आप स्वप्नावस्था में अंतर्मुख होते हैं, दोनों की तुलना करके देखिये। जिस समय आप जगे हुए होते हैं, आपके मस्तिष्क में विभिन्न प्रकार की चिन्ताएँ रहती हैं। उस दिन एक सज्जन कह रहे थे कि ऐसा कोई घर नहीं, जिस घर में कोई चिन्ता नहीं। मैंने उनसे कहा-ऐसा कोई सर नहीं, जिस सर में कोई चिन्ता नहीं। वस्तुतः किसी न-किसी प्रकार की चिन्ता हर सर में है। एक ही चिंता नहीं, अनेक चिन्ताएँ हैं। लोग दुःखी हैं, पीड़ित हैं, आकुल हैं, व्याकुल हैं, छटपटा रहे हैं, चिंता के कारण नींद नहीं आ रही है, लड़की की शादी करनी है, लड़के को पढ़ाना है, व्यापार में घाटा है, अपने रुग्न हैं, पत्नी अनुकूल नहीं है, किसी को लड़का नहीं है, उसकी चिंता है। किसी को कई लड़के हैं, वे आपस में लड़ते-झगड़ते हैं। किसी को अमुक के साथ मुकदमा लगा हुआ है, किसी को नौकरी नहीं मिल रही है, तो किसी की नौकरी छूट गयी है आदि। कितनी बातें दिमाग में है, जिसका ठिकाना नहीं। इन सब चिंताओं से हम तबतक ग्रसित रहते हैं, जबतक हम जगे हुए होते हैं। जैसे ही हम धीरे-धीरे जाग्रत से स्वप्न की ओर जाते हैं, उस समय क्या होता है? जाग्रत-स्वप्न के बीच में एक अवस्था होती है, जिसको तन्द्रा कहते हैं। उस तन्द्रा अवस्था में यह मालूम पड़ता है कि हमारी शक्तियाँ भीतर की ओर खिंच रही हैं। बाहर की चीजों को हम भूल रहे हैं। हमारी शक्तियाँ सिमट रही हैं। बल्कि हम अखबार लेकर पढ़ते रहते हैं, किताब लेकर पढ़ते रहते हैं, तो हाथ से अखबार छूट जाता है, किताब नीचे गिर जाती है। हम कहाँ चले गये, पता नहीं। हाथ में किताब थी, कैसे गिर गयी। हाथ तो है, अंगुलियाँ तो हैं ही, उनमें जो शक्ति थी, वह सिमटी है। बाहर से भीतर की ओर हो गयी। इसलिए हाथ कमजोर पड़ गया। बेचारी आँखें कुछ देख नहीं पातीं। स्वप्नावस्था में आँखें तो बंद रहती हैं; लेकिन दोनों कानें खुली ही रहती हैं। फिर भी कान कुछ काम करते नहीं हैं। हमारे नजदीक में ही बैठकर कोई हमारी या किसी को निन्दा अथवा प्रशंसा करते हैं, तो न तो हम निन्दा सुन सकते हैं और न प्रशंसा ही। हमारे निकट में ही कोई इत्र बेचनेवाला आ जाय या हमारा नन्हा-मुन्ना बच्चा पाखाना कर दे, उस समय हमको न तो दुर्गंधि लगती है और न सुगंधि ही। नासिका भी तो खुली ही रहती है, क्या हो गया? बहिर्मुख से अन्तर्मुख हो रहे हैं। देहाती भाषा में तन्द्रा को अधनिनियाँ कहते हैं। उस समय अगर कोई जगा देता है, तो बहुत दुःख होता है। हम सो रहे थे, नींद की ओर हम जा रहे थे, हमको जगा दिया, क्यों जगा दिया? आप भीतर की ओर जा रहे थे। दुःखों को भूलते जा रहे थे। आपके ऊपर दुःख का पहाड़ पड़ा हुआ हो; लेकिन जब आप नींद की ओर जा रहे होते हैं, तो वह पहाड़ हट जाता है। आप तन्द्रा से चले गये सुषुप्ति में यानी गहरी नींद में। वहाँ कोई दुःख नहीं। आपके शरीर में पीड़ा है, कष्ट है, रोग नहीं, पीड़ा नहीं, छटपटाहट नहीं, किसी प्रकार की कोई चिन्ता नहीं। परमात्मा की ओर से यह प्रतिदिन की प्राकृतिक देन है। इस नमूने से जाना जाता है कि जो कोई भीतर की ओर जाते हैं यानी अन्तर्मुख होते हैं, वे दुःखों से छूटते हैं। लेकिन यह तो थोड़ी देर के लिए, मात्र कुछ घंटों के लिए होता है, जितनी देर हम गहरी नींद में रहते हैं। उसमें भी कुछ घंटे भी सभी लोगों को गहरी नींद नहीं आती है। बहुत कम समय लोग गहरी नींद में रह पाते हैं। नहीं तो स्वप्न में ही घूमते-घूमते सवेरा हो जाता है। अगर गहरी नींद में अधिक देर तक रहा जाय, तो बहुत प्रकार के रोगों का निवारण हो सकता है। कहने का तात्पर्य यह है कि अन्तर्मुख जाने से सुख की ओर जाते हैं। लेकिन यह एक साधारण-सा नमूना है। जब हम स्वप्नावस्था में जाते हैं, तो आँख में नीचे की ओर उतरते हैं। लेकिन जो साधक हैं, साधना करते हैं, तो साधना में जो एकाग्रता होती है, उस एकाग्रता के कारण जो पूर्ण सिमटाव होता है, उस पूर्ण सिमटाव में ऊर्ध्वगति होती है। ऊर्ध्वगति में आवरण-भेदन होता है और वह अन्धकार से प्रकाश में चला जाता है। उसके सुख और आनन्द का क्या कहना! वहाँ उसको दिव्यानन्द की अनुभूति होती है। कल्पना कीजिये, रात का समय है। आप अँधेरे कमरे में बैठे हुए हैं, उस समय आप कैसा दुःख का अनुभव करते हैं! एकाएक बिजली आ गयी, तब आप कितना सुख का अनुभव करने लग जाते हैं। उसी तरह हम जन्म-जन्मान्तर से अँधेरी कोठरी में बैठे हुए दुःखों का अनुभव कर रहे हैं। साधना के द्वारा जब अन्तःप्रकाश मिलता है, तो अलौकिक आनन्द की प्राप्ति होती है। वह प्रकाश अद्भुत है, आनन्द अद्भुत है; क्योंकि वह आन्तरिक डगर भी तो अद्भुत ही है। वहाँ उसको अद्भुत दृश्यों के दर्शन होते हैं। सतत आनन्द-ही-आनन्द है। क्षण-प्रतिक्षण आनन्द की वृद्धि होती रहती है। एक बंगाली महात्मा योगी श्री पंचानन भट्टाचार्य ने कितना ही अच्छा कहा है-
“ आनन्दे आनन्द बाढ़े प्रति क्षण ।
दशेन्द्रिय थाके शून्य ते बन्धन ।।
रिपुचय पराजय सकलि आनन्दमय ।
अनुभव मात्र रय आर सब पाय लय ।।
जे मन जीवने जीवन थाके ना ।।”
सन्त कबीर साहब ने कहा है-
“ भजन में होत आनन्द आनन्द ।
बरसत विसद अमी के बादर, भींजत है कोइ सन्त ।”
महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज की वाणी में ही पाते हैं-
‘चलत पंथ सुख होत महा है, जहाँ अझर झरते ।’
वहाँ ज्योति झरती है। जहाँ महर्षि मेँहीँ जी की वाणी में हम ‘अझर’ शब्द का प्रयोग पाते हैं, वहाँ गुरु नानकदेवजी महाराज ‘नीझर’ शब्द का व्यवहार करते हैं-
“ निझरु झरै सहज धुनि लागै, घर ही परचा पाईअै ।
अंजन माहिं निरंजनि रहीअै, जोग जुगति इव पाईअै ।।”
नीझर = निर्झर = झरना। झरना झर रहा है, विविध प्रकार के प्रकाश हो रहे हैं अपने अन्दर में विविध प्रकार के शब्द अपने अन्दर हो रहे हैं। जो उस ज्योति में स्नान करते हैं, डुबकी लगाते हैं, उसको अपने अन्दर का शब्द मिलता है। ‘सहज धुनि लागै।’ सहज ध्वनि यानी स्वाभाविक ध्वनि मिलती है। स्वाभाविक ध्वनि आदिनाद है। जिसको आदिनाद मिलता है, सारशब्द मिलता है, उसको प्रभु की पहचान हो जाती है। गुरु नानकदेवजी महाराज कहते हैं-‘घर ही परचा पाईअै’ अर्थात् अपने घर में परम प्रभु का परिचय मिल जाता है। इसी से मिलती-जुलती बात सन्त कबीर साहब कहते हैं। उनका कहना है कि अनहद शब्द की झनकार होती है और अझर झरता है, तब ब्रह्मज्ञान होता है। ध्यान की अवस्था में सर्वव्यापी परमात्मा की प्रत्यक्षता भी अपने अन्दर होती है, कहीं बाहर ढूँढ़ने की आवश्यकता नहीं।
“ अनहद बाजै नीझर झरै, उपजै ब्रह्म गियान ।
आवगति अन्तरि प्रगटै, लागै प्रेम धियान ।।”
गुरु नानकदेव जी महाराज कहते हैं-‘अंजन माहिं निरंजनि रहीअै।’ अंजन = माया। निरंजन = निर्माया। मायिक संसार में रहिये; लेकिन निर्मायिक होकर रहिये।
“ अनासक्त जग में रहो भाई ।
दमन करो इन्द्रिन दुखदाई ।।”
(महर्षि मेँहीँ-पदावली)
संसार में अनासक्त होकर रहो, यह संसार में रहने की कला है। श्रीरामकृष्ण परमहंसजी महाराज ने कहा- “ पानी में नाव रहे, कोई हानि नहीं; लेकिन नाव में पानी नहीं आना चाहिये। नहीं तो उसको वह डुबा देगा। उसी तरह भक्त संसार में रहे, कोई हानि की बात नहीं है; किन्तु भक्त में सांसारिकता नहीं आनी चाहिये, नहीं तो उसको वह डुबा देगी।” हमारे गुरुदेवजी कहते हैं-अपने अन्दर चलो। “ अमृत ध्वनि की नौबत झहरत, बड़ भागी सुनते।” अपने अन्दर स्थूल-सूक्ष्मादि भेद से पाँच नौबत हैं। पाँचों के पाँच केन्द्र हैं, जहाँ से ध्वनि होती है। जो भाग्यवान है, उसी को वह ध्वनि मिलती है-
“ भाग्यहीन को ना मिले, भली वस्तु का भोग ।
दाख पके मुख काग को, होत पाक को रोग ।।”
जो भाग्यहीन है, उसको भली चीज का भोग नहीं मिलता है। हमारे गुरु महाराज कहा करते थे- “ लोग दुःख को तो सह लेते हैं; परन्तु सुख बर्दाश्त नहीं कर सकते।” ऐंठ जाते हैं, उसमें अकड़ आ जाती है। उसके भाग्य में भली वस्तु का भोग लिखा ही नहीं है, भोगेगा क्या? जिस समय अंगूर फलता है और वह पकने लग जाता है, उस समय कौए के मुँह में घाव हो जाता है। पका अंगूर वह खा नहीं सकता। गोस्वामी तुलसीदासजी ने लिखा है कि भगवान् श्रीराम ने कहा था- “ बड़े भाग मानुष तनु पावा।” वह बड़भागी है, जिसको मनुष्य-शरीर मिला है और भी विशेष बड़भागी हम तब होते हैं, जब हमको सत्संग मिल जाता है। “ बड़े भाग पाइये सत्संगा।” उससे भी अधिक बड़भागी हम तब हो जाते हैं, जब हमको सच्चे गुरु के दर्शन हो जाते हैं। उनसे सद् शिक्षा-दीक्षा मिल जाती है और जब अन्तस्साधना करके परम प्रभु परमात्मा का अनुभव कर सन्त बन जाते हैं, तब तो भाग्य के लिये कहना ही क्या!
संत पलटूदासजी महाराज ने कहा है-ऐसे महान पुरुष की जन्मदात्री माताजी भी धन्य हो जाती हैं-
‘धनि जननी जिन जाया है, सुत सन्त सखी री ।’
वह कुल धन्य हो जाता है, जिस कुल में सन्त का अवतार होता है। गोस्वामीजी कहते हैं-भगवान् शंकर ने पार्वतीजी से कहा था-
‘सो कुल धन्य उमा सुनु, जगत पूज्य सुपुनीत ।’
(रामचरितमानस)
‘अमृत ध्वनि की नौबत झहरत, बड़भागी सुनते ।’
अमृत-जिसको प्राप्त करके अमरता मिलती है। वह क्या है? वह दो रूपों में है-(1) ज्योति-रूप में और (2) शब्दरूप में। जबतक हमारे शरीर में ज्योति और शब्द है, तबतक यह शरीर अमर है। इस शरीर से ज्योति और शब्द दोनों निकल जायँ, तो यह शरीर मर जाएगा। जबतक शरीर में गर्मी है, तबतक यह शरीर जीवित है। जबतक हृदय में गति है, नाड़ी में गति है, तबतक यह जीवित है। किसी शरीर से जब गर्मी निकलती है, तो शरीर ठंडा पड़ने लग जाता है और नाड़ी की गति धीमी पड़ने लग जाती है। धीरे- धीरे श्वास की गति बन्द हो जाती है, तब क्या कहते हैं? मर गया, रामनाम सत्त हो गया। हमलोगों के शरीर में ज्योति और शब्द है। आन्तरिक ज्योति और आन्तरिक शब्द की साधना द्वारा ही परम प्रभु परमात्मा से मिला जाता है। ज्योति रूप-ब्रह्माण्ड तक रहती है। उसके आगे शब्द की गति होती है, जो अरूप-ब्रह्माण्ड कहलाता है; वहाँ केवल नाद-ही-नाद है, उस नाद के सहारे चलते हैं। जैसे नदी का जल समुद्र में जाकर मिल जाता है, वैसे ही नाद से नादों में चलते हुए अन्त में प्रणव ध्वनि मिलती है। प्रणव ध्वनि को ही ओऽम्, स्फोट, उद्गीथ आदि शब्दों से अभिहित करते हैं। उस शब्द-धार को पकड़कर सर्वाधार तक पहुँचा जाता है। प्रातःस्मरणीय परम पूज्य अनन्त श्रीविभूषित महर्षि मे ँहीँ परमहंसजी महाराज की वाणी में हम पाते हैं-
नाद सों नादों में चलि धरु, प्रणव सतध्वनि सार रे ।
एक ओऽम् सतनाम ध्वनि धरि,‘मेँहीँ हो भव पार रे ।।
इस तरह जो अन्तस्साधना करते हैं, अपने अन्तर चलते हैं। अन्धकार से प्रकाश में, प्रकाश से शब्द में और शब्द से निशब्द परमं पदम्’ में पहुँचकर प्रभु से मिल एक हो जाते हैं। जीवात्मा और परमात्मा दोनों मिलकर एक हो जाते हैं। जैसे नदी का जल समुद्र में मिल जाने पर उसकी संज्ञा समुद्र की हो जाती है, उसी तरह जो जीव जाकर परम प्रभु परमात्मा से मिल जाता है, उसकी संज्ञा भी परमात्मा हो जाती है, जीव की संज्ञा मिट जाती है। तब ‘वह तुम्हीं तुम वही ‘मेँहीँ’, प्रश्न पुनि रहते नहीं’ चरितार्थ हो जाता है। फिर वहाँ द्वैत भाव नहीं रहता है। जीव-पीव मिलकर एक हो जाते हैं। आवागमन का चक्र छूट जाता है। अंधकार से प्रकाश में, प्रकाश से शब्द में और शब्द से निःशब्द में। परम प्रभु परमात्मा के पास जाने का यही श्रेष्ठ रास्ता है और दूसरा, तीसरा, चौथा, अन्य कोई रास्ता नहीं है। यही अन्तर का रास्ता है। सरल रास्ता है, सहज रास्ता है, सुगम रास्ता है। जो कोई चलते हैं, प्रभु की ओर से उनको मदद भी मिलती है प्रभु-कृपा मिलती है। प्रभु की कृपा के सहारे प्रभु से मिलकर एकमेक हो जाते हैं। यह सहज साधना, सरल साधना सबको जानकर करना चाहिये और अपने मानव-जीवन को कल्याण बनाना चाहिये। (शान्ति-सन्देश, अक्टूबर 1994 ई0)
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अभी आपलोगों ने दो मिनट का प्रवचन सुना। ये प्रवचनकर्ता हैं-अमेरिका के रहनेवाले मिस्टर डॉन होवार्ड। ये अंग्रेजी भाषा के अच्छे विद्वान हैं। इनका जीवन बड़ा पवित्र है। यों तो अमेरिका बड़ा धनी देश है; आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न देश है; भोग-विलासों से भरा देश है; लेकिन आध्यात्मिकता का वहाँ अभाव है। ये अपने देश अमेरिका से यहाँ (भारत) उसी अध्यात्म-ज्ञान की खोज में आये थे। जिज्ञासोपरान्त इन्होंने मुझसे दीक्षा ली है। ये साधना भी करते हैं। इनकी बड़ी निष्ठा है साधना में। इनका जीवन इतना पवित्र है कि अमेरिका के रहनेवाले होते हुए भी बाहर बाजार की बनायी हुई चीज नहीं खाते। होटलों में जो शाकाहारी भोजन बनता है, वे भी ये नहीं खाते। मैं जब दिल्ली जाता हूँ और ये मुझसे भेंट करने के लिए आते हैं, तो हमलोग जो भात-रोटी खाते हैं, इनको खिला देते हैं। ये प्रेम से खा लते हैं। दिल्ली के एक होटल में मात्र पाँच-सात घंटे रात में ठहरने एवं सोने के लिए जाते हैं। उसका शुल्क प्रति रात्रि पाँच हजार रुपये ये देते हैं। फल वगैरह बाजार में ले लेते हैं, सो खाते हैं। ये स्वयं कभी-कभी कहा करते हैं-‘मेरा शरीर तो अमेरिका है; लेकिन मेरी आत्मा भारत की है।’ (श्रोताओं की ओर से श्रीसद्गुरु महाराज की जय का नारा) इनकी जो धर्मपत्नी है, उनका नाम है-वीणा। ये मुरादाबाद के बाबू श्रीलेखराज गगनेजा की सुपुत्री है। मेरे पास ये बचपन से आती है। मैं इनको बेटी के समान प्यार करता हूँ। ये भी बड़ी धर्म- शीला हैं और इनका भी जीवन इतना पवित्र है कि ये भी बाहर की बनी बनायी चीज नहीं खातीं। कुछ वर्ष पूर्व जापान में कोई सम्मेलन था, जिसमें इनकी बुलाहट हुई थी। उसमें ये गयी थीं। वहाँ सब अतिथियों के लिए सामिष भोजन बना था यानी मांस, मछली आदि की व्यवस्था की गयी थी। इन्होंने अपने को शाकाहारी बताया। इनके लिए थाली में सेब लाया गया; लेकिन सेब के ऊपर कुछ अंडे रखे हुए थे। वहाँ के लोग अंडे को शाकाहारी की श्रेणी में लेते हैं। इनके सामने जैसे ही वह थाली आयी, इन्होंने कहा, ‘मैं नहीं खाऊँगी। अंडा इसके ऊपर है।’ वहाँ के लोगों ने कहा, ‘अंडा हटा देते हैं, खाओ।’ इन्होंने कहा, ‘अंडा इसपर रखा गया है, इसलिए नहीं खाऊँगी।’ बेचारी दिनभर भूखी रहीं। ये मेरी बेटी की तरह हैं न! इसलिए मुझसे मन की बातें बतलाती हैं। जब समूचा दिन बीत गया, सन्ध्या हुई और रात होने चली, तो भूख से इनका भीतर व्याकुल होने लगा। अपनी मनःपीड़ा बेचारी कहे तो किससे? अब गुरु महाराज की देखिये क्या दया होती है! कोई साधु आते हैं और वे इनको दो सेब देते हैं खाने के लिए। (श्रोताओं की ओर से श्रीसद्गुरु महाराज की जय का नारा)
ये उन दोनों सेबों को खाकर समय बिताती हैं। सम्मेलन-समापन के पश्चात् ये जापान से अमेरिका गयीं। अमेरिका में इनके भाई और उनके परिवार हैं। वे वहीं पर बस गये हैं। वीणाजी ने वहाँ से ही पीएच0डी0 की उपाधि प्राप्त की है। मि0 डॉन और वीणा दोनों का दाम्पत्य जीवन बड़ा पवित्र है। अमेरिका में रहते हुए भी वीणाजी अपनी भारतीय संस्कृति भूली नहीं है। इनको अब एक पुत्री हुई है। उस पुत्री का नाम इन्होंने रखा है-मीरा। रहती हैं अमेरिका में; लेकिन पुत्री का अमेरिकन नाम नहीं रखकर, भारतीय नाम रखे हुई है-मीरा। हमलोगों के यहाँ भारत में आज अपने बच्चों को माता-पिता की जगह मम्मी और पापा सिखाकर अभिभावक लोग गौरव का अनुभव करते हैं। लेकिन वीणाजी सिखाती हैं अपनी बच्ची को मम्मी और पापा की जगह माताजी और पिताजी। वीणाजी विदुषी हैं। एम0ए0 द्वय हैं। पीएच0डी0 किये हुई हैं। मिस्टर डॉन होवार्ड और वीणाजी; दोनों का बहुत अच्छा संयोग है। दोनों प्रेम से रहते हैं और अपने-अपने दैनन्दिन कार्यों की सँभाल के साथ-साथ सत्संग-ध्यान भी किया करते हैं। मैंने तो वीणाजी को आदेश भी दे दिया है कि ये अमेरिका में संतमत का प्रचार करें। ये जाती हैं सभाओं में और प्रवचन करती हैं। इनके प्रवचन से लोग बड़े प्रभावित होते हैं। कितने लोग इनके पास आते हैं समझने के लिए, बूझने के लिए कि संतमत क्या है? ध्यान क्या है? वहाँ के लोगों को इसका पता नहीं है। साधारणतः लोग आध्यात्मिक पिपासा लेकर उन बाबाजी लोगों के पास जाते हैं, जो इधर से वहाँ जाते हैं। कहावत है कि जहाँ पर कोई घना वृक्ष नहीं है, वहाँ अरण्ड का पेड़ ही बहुत मूल्यवान समझा जाता है। उसी तरह इधर- उधर से जो कोई साधु वहाँ जाते हैं, उधर के लोग तो भूखे होते हैं अध्यात्म-ज्ञान के; जो कुछ बता देते हैं, वे करने लग जाते हैं। लेकिन जब वीणाजी का प्रवचन होता है और लोग सुनते हैं, तो बड़े प्रभावित होते हैं। इनसे दीक्षा की याचना करते हैं। कितने ही दिनों तक तो इन्होंने मात्र शिक्षा दी। अब मेरी आज्ञा से कुछ लोगों को इन्होंने दीक्षा भी दी है। हजारों मील की दूरी तय करके ये दोनों (मिस्टर होवार्ड और वीणाजी) मेरे पास आये हुए हैं। दोनों में आध्यात्मिक की अच्छी अभिरुचि है। दोनों में संतमत और गुरुदेव के प्रति भी अच्छी श्रद्धा-भक्ति है। मैं इन दोनों को बहुत-बहुत आशीर्वाद देता हूँ, प्यार करता हूँ और धन्यवाद भी देता हूँ।
दोनों का हृदय का बड़ा विशाल है, उदार है, खुला हुआ है। मैंने कहा है कि ‘काम तो कम कीजिए और ध्यान बेशी कीजिए।’ इन्होंने कहा, ‘कोशिश करूँगा।’ इनको किसी तरह की कमी नहीं है। अपना हवाई जहाज इनको है। बड़े ही सरल स्वभाव के हैं। ऐश्वर्यवान होते हुए भी इनमें तनिक भी अभिमान नहीं है। ध्यान के संस्कार अपने-अपने जन्मों के होते हैं। उस संस्कार से भी ये संस्कृत हैं। कितने जन्मों के संस्कार इनमें आये हुए हैं, जिससे इस ओर इतनी उन्मुखता है। दोनों ही नित्य नियमित रूप से ध्यानाभ्यास किया करते हैं। वास्तव में कोई कितना ही जागतिक वैभव प्राप्त कर ले, उससे संतुष्टि नहीं होती; शांति नहीं मिलती; कल्याण नहीं होता और न परम सुख की प्राप्ति होती है। किसी सुभाषितकार ने बड़ा ही अच्छा कहा है-
“ असन के लिए नाना प्रकार के अन्न, फल, मेवा, मिष्टान्न, दुग्ध-घृत आदि से भरा भंडार हो; वसन के लिए जाड़ा, गर्मी, वर्षा आदि ऋतुओं के अनुकूल ऊनी, सूती, रेशमी, मलमल, मखमल सभी आदि सभी प्रकार के कपड़ों का आगार हो, शयन के लिए गगनचुम्बी अट्टालिका खिड़कीदार और हवादार हो; मन वहार के लिए वातानुकूलित अत्या- धुनिक कार हो; परिसर के प्रांगण में खिले-अधखिले रंग-बिरंगे खिले-अधखिले फूलों की कतारें हजारों-हजार हों; परिवार में परस्पर दम्पति का प्यार हो; कामिनी के कंचन किंकिणी, नुपूर एवं पायल की झनकार हो, प्रांगण में नन्हें-मुन्ने की किलकार हो; सोने, चाँदी, हीरा, मोती, जवाहिरात आदि की टंकार हो, पद-प्रतिष्ठा और पैसे के कारण संसार में जय-जयकार हो; लेकिन यदि पालन सदाचार न हो तो सारा जीवन हाहाकार हो।”
हम अंधकार से प्रकाश में कैसे जाएँ, ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ कैसे हो, हम दुःख से निकलकर सुख में कैसे जाएँ; आदि का ज्ञान संतमत देता है। अभी आपलोगों ने जो रामचरितमानस का पाठ सुना है, उसमें क्या सुना? कागभुशुण्डिजी गरुड़जी से कहते हैं-
“ निज अनुभव अब कहउँ खगेसा ।
बिनु हरि भजन न जाहिं कलेसा ।।”
जागतिक ऐश्वर्य चाहे कितना भी क्यों न हो, लेकिन जबतक ईश्वर का भजन नहीं करेंगे, तबतक दुःख दूर नहीं होगा। जैसे जबतक सूर्य का उदय नहीं होता, रात का अंत नहीं होता। सूर्य उदय हुआ कि रात का अंत हुआ। उसी तरह ईश्वर की भक्ति करके जो कोई ईश्वर को प्राप्त कर लेते हैं, तो उनके सारे दुःख दूर हो जाते हैं। इसलिए संतमत बतलाता है कि ईश्वर का भजन करो।
कागभुशुण्डिजी निज अनुभव की बात कहते हैं। ‘अनुभव’ किसको कहते हैं? ‘अनु’ शब्द का अर्थ ‘पीछे’ और ‘भव’ शब्द का अर्थ ‘उत्पन्न’ होता है। जो ज्ञान सबसे पीछे उत्पन्न हो, उसको अनुभव ज्ञान कहते हैं। अनुभव ज्ञान के बाद और कोई ज्ञान नहीं होता। पहले होता है श्रवण ज्ञान, उसके बाद होता है मनन ज्ञान, तत्पश्चात् होता है निदिध्यासन ज्ञान और अंत में होता है अनुभव ज्ञान। श्रवण ज्ञान के लिए बतलाया गया है कि वह साधारण अग्नि के समान है, जो साधारण जल से बुझ जाती है। हमलोगों का जो अध्ययन वा श्रवण ज्ञान है, वह सामान्य अग्नि के समान है, उसके बुझने में देर नहीं, मिटने में देर नहीं मान लीजिए रामायण की कोई एक चौपाई है। हम जो उसका अर्थ समझ रहे हैं, उसी को यदि कोई दूसरी तरह से हमको समझा देता है, तो हम समझ जाते हैं कि यही ठीक कह रहा है। श्रवण ज्ञान यहीं पर समाप्त हो जाता है। मनन ज्ञान वह है कि जैसा हम सुनते हैं, उसपर विचार करते हैं, सोचते हैं, कुछ गहराई में पैठने की चेष्टा करते हैं। यह मनन ज्ञान बिजली के समान है। यानी आकाश में बिजली चमकती है, साधारण जल से उसे बुझा नहीं सकता। लेकिन वह अधिक टिकाऊ नहीं होती, स्थिर नहीं रहती। चमकी और चली गयी। उसी तरह मनन ज्ञान है; विचार में तो आया है; लेकिन यदि हमसे कहीं कोई अधिक विचारवान है, तो उनके विचार से प्रभावित होकर हम अपने विचार को बदल सकते हैं।
एक बहुत-बड़ी सभा लगी थी, जिसमें अद्वैतवाद, द्वैतवाद, विशिष्टाद्वैत, शुद्धाद्वैत, द्वैताद्वैती, त्रैत आदि कई ‘वाद’ के विद्वान एकत्रित थे। सबने अपने-अपने प्रवचन किये। उन प्रवचनों में दो विद्वानों-एक अद्वैतवादी और दूसरे द्वैतवादी के प्रवचन बड़े प्रभावशाली हुए। अद्वैतवादी के प्रवचन को सुनकर द्वैतवादी के मन में ऐसा प्रभाव पड़ा कि उसने समझा- वास्तव में अद्वैतवाद ही ठीक है। मेरा द्वैतवाद ठीक नहीं हैं तो जो द्वैतवादी थे, उन्होंने अद्वैतवाद को स्वीकार कर लिया। और द्वैतवादी ने जो अपना तर्क अद्वैतवाद के खंडन में दिया था, इससे प्रभावित होकर अद्वैतवादी ने समझ लिया कि द्वैतवाद ही सही है, हमारा अद्वैतवाद गलत है। फलतः जो अद्वैतवादी थे, वे द्वैतवादी बन गये। तो श्रवण और मनन ज्ञान की मर्यादा इतनी ही है, बुझ जाने में देर नहीं है। श्रवण अथवा अध्ययन किये हुए पर मनन करने के पश्चात् उसकी प्राप्ति के लिए जब हम साधनाभ्यास करते हैं, उससे निदिध्यासन ज्ञान होता है। श्रवण से और मनन से साधन-अभ्यास का ज्ञान विशेष होता है, जैसे समुद्र में बड़वानल होता है। बड़वानल समुद्र के जल को मर्यादित रखता है; लेकिन समस्त जल का शोषण नहीं कर सकता। उसी तरह साधक जबतक निदिध्यासन ज्ञान में रहता है, तो वह संसार में मर्यादित ढंग से रहता है; लेकिन उसकी संपूर्ण माया नष्ट हो गयी हो, सारी माया समाप्त हो गयी हो, ऐसा नहीं होता; क्योंकि सारी माया को नष्ट करने के लिए निदिध्यासन ज्ञान पर्याप्त नहीं है। निदिध्यासन करते-करते जब अनुभव ज्ञान होता है, जब साधक प्रभु का साक्षात्कार कर लेता है, तब समस्त माया समाप्त हो जाता है। अर्थात् ईश्वर के संबंध में जैसा हमने सुना, उसपर विचार किया, तदनुसार ईश्वर को प्राप्त करने की साधना की और साधना करते-करते परिपूर्णता आ गयी, ईश्वर का साक्षात्कार हो गया; यह अनुभव ज्ञान कहलाता है। यह अनुभव ज्ञान महाप्रलय की अग्नि के समान है, जो द्वैत-प्रपंच को जलाकर भस्मीभूत कर देता है।
कागभुशुण्डिजी ने श्रवण, मनन और निदि- ध्यासन करके अनुभवज्ञान प्राप्त कर लिया था। उसी अनुभव ज्ञान के आधार पर वे कहते हैं, ‘बिना हरि- भजन के दुःख का नाश नहीं होगा, क्लेश निःशेष नहीं होगा। इसलिए भगवद्भजन करो। जिज्ञासा होती है-स्वयं कागभुशुण्डिजी ने कौन-सा भजन किया था, जिससे उनको अनुभव ज्ञान प्राप्त हुआ था। इसका समाधान भगवान शंकर इस भाँति करते हैं-
“ पीपर तरु तर ध्यान सो धरई ।
जाप यज्ञ पाकरि तर करई ।।
आम छाँह कर मानस पूजा ।
तजि हरि भजन काज नहिं दूजा ।।
बट तर कह हरि कथा प्रसंगा ।
आवहिं सुनहिं अनेक बिहंगा ।।”
अर्थात् वे जप करते थे यानी मानस पूजा करते थे। ‘आम छाँह कर मानस पूजा।’ वे मानस ध्यान भी करते थे। ‘पीपर तरु तर ध्यान सो धरई’। और ध्यान भी करते थे। वह कौन-सा ध्यान? वह दृष्टियोग की क्रिया करते थे और नादानुसंधान भी करते थे। ‘विन्दु-ध्यान-विधि नाद-ध्यान विधि सरल-सरल जग में परचारी।’ इस प्रकार यह सिद्ध हो जाता है कि कागभुशुण्डिजी आंतरिक और बाह्य दोनों प्रकार के सत्संग करते थे। कहने का तात्पर्य यह कि काग भुशुण्डिजी मानस जप, मानस ध्यान, दृष्टि साधन और नादानुसंधान; ये चारो क्रियाएँ करते थे। इन चारो क्रियाओं को करके उन्होंने अनुभव ज्ञान प्राप्त किया था, परमात्मा का प्रत्यक्षीकरण किया था।
हमलोगों के भी गुरुदेवजी महाराज ने हमलोगों को मानस जप, मानस ध्यान, दृष्टिसाधन और नादा- नुसंधान की क्रिया बतलाने की कृपा की है। हमलोगों को निष्ठापूर्वक यह अंतस्साधना करनी चाहिए और बाहर में सत्संग भी करना चाहिए। इन दोनों का एक- दूसरे के साथ संबंध जुड़ा रहेगा, तो साधना में प्रगति होगी, आत्मोन्नति होगी। यत्र-तत्र से आकर आपलोगों ने घर-बार, कारबार, रोजगार सब छोड़कर यहाँ एक महीने तक रहकर साधना की। कितने साधक मेरे पास गये और उन्होंने अपनी साधनानुभूति की बातें कहीं। सुनकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई। इतने दिनों तक साधना करके उसमें जिन्होंने जहाँ तक सफलता प्राप्त की, उनकी उतनी दूर की राह तय हो गयी। और भी जो बाकी है, मनोयोगपूर्वक साधना करेंगे, तो आगे बढ़ जायेंगे। यहाँ साधना करने की आदत डाली गयी है। यह आदत एक महीने तक की रही। इस आदत को छोड़ें नहीं, लगाये रहें। अपने घर में जाकर करते रहें। मानलिया कि गृह-कार्य-सँभाल के कारण वहाँ पाँच समय नहीं कर सकेंगे, तो जितना ही बन सके, जो समय मिले, उस समय के अनुकूल कम-से-कम त्रिकाल संध्या निश्चित रूप से करें, साथ ही सत्संग भी करें। परम पूज्य गुरुदेवजी महाराज के आदेश को हम भूलें नहीं, सतत याद रखें-
“ सत्संग नित अरु ध्यान नित, रहिये करत संलग्न हो ।
व्यभिचार चोरी नशा हिंसा, झूठ तजना चाहिए ।।”
इन बातों के अतिरिक्त हमलोगों को संसार में जीवन-यापन के लिए कुछ-न-कुछ पवित्र कमाई अवश्य करनी चाहिए। आपलोगों को मैं बहुत-बहुत धन्यवाद देता हूँ! इस तरह के कठोर जाड़े में आप यहाँ रहे, जबकि यहाँ आपलोगों के रहने की सुव्यवस्था नहीं, सोने की समुचित व्यवस्था नहीं, खाने-पीने के लिए भी जैसा-तैसा, रूखा-फीका। आपलोग अपने-अपने घर में मनोऽनुकूल भोजन करते और आराम से रहते होंगे; किन्तु यहाँ आकर आपलोगों ने तपस्या की है। तपस्या का बीज आपलोगों के भीतर पड़ गया है। समय पाकर वह बीज अंकुरित होगा, पल्लवित होगा, पुष्पित होगा और एक दिन इसके बाद फल लगेगा। (श्रोताओं की ओर से बोलिये ‘श्रीसद्गुरु महाराज की जय’ का नारा।)
आपलोगों के लिए मेरी शुभकामना है। जो मुझसे अधिक बूढ़े-बुजूर्ग लोग हैं, मेरे प्रणम्य हैं, उनको मैं प्रणाम करता हूँ। जो मुझसे आशीर्वाद के योग्य हैं, उनको आशीर्वाद करता हूँ और बाकी लोगों को मैं धन्यवाद-ज्ञापन करता हूँ।
यह प्रवचन मास-ध्यान-साधना के अवसर पर दिनांक-नवम्बर 1194 स्थान: महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट, भागलपुर में हुआ था। (शान्ति-संदेश, नवम्बर 1995)
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संत जन ध्यान करने के लिए बतलाते हैं, वह ध्यान करो। ध्यान में भी सगुण और निर्गुण का भेद है। योगतत्त्वोपनिषद् में आया है-
“ सगुण ध्यानमेततस्याादणिमादि गुणप्रदम् ।
निर्गुणध्यानयुक्तस्य समाधिश्च ततो भवेत् ।।”
सगुण ध्यान में भी स्थूल-सूक्ष्मादिक भेद है। सगुण ध्यान से अणिमा आदि सिद्धियों की प्राप्ति होती है और निर्गुण ध्यान से युक्त को समाधि मिलती है। ज्ञातव्य है कि समाधि योग का आठवाँ अंग है; यथा-यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। रामचरितमानस में आया है-
“ तब सिब सहज स्वरूप सँभारा ।
लागि समाधि अखण्ड अपारा ।।”
जो समाधि को प्राप्त करते हैं, वे कर्ममंडल को पार कर जाते हैं। कर्ममंडल को पार कर जाने के कारण वे पाप-पुण्य-दोनों से ऊपर उठ जाते हैं। फिर उनको पाप का फल नहीं लगता और न पुण्य का ही फल लगता है। पाप से नरक होता है और पुण्य से स्वर्ग होता है। समाधि-प्राप्त जन नरक-स्वर्ग-दोनों से परे मोक्षदशा को प्राप्त कर लेते हैं। यही रास्ता संत जन बतलाते हैं। गोस्वामीजी ने रामचरितमानस में लिखा है-
“ सन्त पंथ अपवर्ग कर, कामी भव कर पंथ ।
कहहिं सन्त कवि कोविद, स्त्रुति पुरान सद्ग्रंथ ।।”
सन्त का जो रास्ता होता है, वह अपवर्ग का होता है अर्थात् त्रयवर्ग पर का होता है यानी अन्धकार, प्रकाश और शब्द-इन तीनों के परे है-निःशब्द। यह सन्तों का परम ध्येय है-‘निःशब्दं परमं पदम्।’ ध्यानविन्दूपनिषद् में लिखा है-
“ बीजाक्षरं परं विन्दु नादं तस्योपरि स्थितम् ।
सशब्दं चाक्षरे झीणे निःशब्दं परमं पदम् ।।”
त्रयवर्ग के परे चौथा पद मोक्ष कहलाता है। अर्थ धर्म, काम; इन तीनों के परे मोक्ष है। जिसको मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है, वह आवागमन के चक्र से छूट जाता है। दैहिक, दैविक और भौतिक-इन त्रय तापों से मानव-सन्तप्त होते रहता है, उससे वह सदा के लिए मुक्त हो जाता है। सन्तों का रास्ता मोक्ष का है। सभी सन्तों ने यही राह बतलायी है। ‘जैसा संग वैसा रंग’ यह कहावत अक्षरशः सत्य है। सन्त वचन है-
“ कदली सीप भुजंग मुख, स्वाति एक गुण तीन ।
जैसी संगति बैठिये, तैसोई फल दीन्ह ।।”
स्वाति की बूँद होती है। वह स्वाति-बूँद जब केले के वृक्ष पर पड़ती है, तो कपूर में परिणत हो जाती है। बाँस पर गिरती है, तो वंशलोचन कहलाती है। सीपी में गिरने से उसका रूप मोती का हो जाता है। हाथी पर गिरने से गजमुक्ता हो जाती है। साँप के मुँह में गिरने से वह मणि हो जाती है। स्वाति-बूँद एक है; लेकिन स्थान-भेद से रूप और गुण में भेद हो जाता है। मकरध्वज एक दवाई होता है। तुलसी के रस में लेने से जो गुण होता है। शहद के साथ लेने से वह गुण नहीं, उसका दूसरा गुण हो जाता है। मिसरी के साथ लेने से तीसरा गुण और घृत के साथ लेने से चौथा गुण होता है। दवाई मकरध्वज एक ही है; लेकिन अनुपान-भेद से गुण-भेद हो जाता है। उसी तरह हमलोगों का मन एक है। जैसा संग करते हैं, वैसा रंग चढ़ जाता है। इसीलिए परम भक्तिन मीराबाई ने कहा था-
“ मनुवाँ रामनाम रस पीजै ।
तजि कुसंग सत्संग बैठ नित, हरि चरचा सुनि लीजै ।।”
सन्तों का संग करेंगे, तो क्या होगा? हरि-चर्चा सुनने को मिलेगी। कुसंग करेंगे, तो वहाँ कुचर्चा होगी और मन पर कुरंग चढ़ेगा। सत्संग करेंगे, तो मन पर सत्संग का सुरंग चढ़ेगा, जिससे प्रभु के पास जाने की सुरंग मिलेगी। इसीलिए ‘तजि कुसंग सत्संग बैठ नित’-परम भक्तिन मीराबाई ने कहा। हमलोगों का मन जल के समान तरल है। इसको नीचे ढरक जाने में देर नहीं लगती। समुद्र से वाष्प उठता है, पहाड़ की चोटी पर जाकर बरस जाता है; लेकिन वह जल वहाँ टिकता नहीं, नीचे की ओर आता है; पहाड़ से नीचे गिर जाता है। वह पानी नाले का संग करके छोटी नदी में चला जाता है। उसके संग से वह बड़ी नदी गंगाजी का संग करता है। गंगा भी उसको समुद्र से जाकर मिला देती है। वर्षा तो हुई पहाड़ की चोटी पर; लेकिन वह पानी वहाँ टिकता नहीं, बहुत जल्दी नीचे भाग आता है। अब जो पानी नीचे पाताल में है, उसको अगर पहाड़ पर चढ़ाना चाहें, तब बिजली चाहिये, नल चाहिये। बिना नल और बिजली के हम उस पानी को पहाड़ पर चढ़ा नहीं सकते। पहाड़ पर से पानी गिरने में कोई देर नहीं लगती; लेकिन पहाड़ पर पानी चढ़ाने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। उसी तरह मन को नीचे गिर जाने में देर नहीं लगती; लेकिन उसको ऊँचे चढ़ाने में कठिनाई होती है। चाहिये इंजीनियर, नल और विद्युत शक्ति; तभी ऊपर चढ़ेगा। इसी तरह पतित मन के ऊर्ध्वगमन-हेतु चाहिये सत्संग, सन्त सद्गुरु का संग और उनकी सद्युक्ति। सन्त जन ही पतित को पावन करनेवाले हैं। इसीलिए सन्त तुलसी साहब ने कहा-
“ सन्त शरण जो पड़ा, ताहि का लगा ठिकाना ।
और कहीं नहिं कुशल, सकल वैराट चबाना ।।”
इसीलिये सन्तों का संग सबसे पहली भक्ति भगवान श्रीराम ने बताया-‘प्रथम भगति सन्तन्ह कर संगा। रामचरितमानस का एक प्रसंग सुनाऊँ। सीताजी का हरण हो चुका था। पता चला कि लंका की अशोक वाटिका में सीताजी हैं। हनुमानजी के आग्रह करने पर भी रावण ने सीता को वापस नहीं किया। संग्राम होना अवश्यम्भावी हो गया था। लंका में रावण से युद्ध करने के लिए सेना उस पार कैसे जायेगी? इसलिए पुल बन रहा था। बन्दर, भालू सब बड़े-बड़े पहाड़, वृक्ष आदि ला-लाकर देते थे। नल-नील मुख्य कारीगर थे। वे रखते जाते थे पानी पर। वे पहाड़ वृक्ष आदि सभी जैसे-के-तैसे पानी पर स्थिर रह जाते थे, डूबते नहीं थे। यह दृश्य देखकर बन्दर, भालुओं के मन में बड़ा कौतूहल हुआ। वे दौड़े चले गये भगवान श्रीराम के पास और उनसे कहा- “ भगवन्! बड़ा आश्चर्य है। हमलोग बड़े-बड़े पहाड़ों और वृक्षों को नल-नील के हाथों में ला-लाकर देते हैं। ये दोनों उन वृक्षों और पहाड़ों को जैसे ही पानी पर रखते हैं, वे सभी वैसी ही टिके रह जाते हैं, पानी में डूबते नहीं।” भगवान तो नर-शरीर में लीला करने के लिए आये ही थे। उन्होंने अपनी लीला और बढ़ा दी। पूछा- “ क्या यह बात सत्य है?” बन्दरों और भालुओं ने कहा- “ भगवन्! हमने अपनी आँखों देखी बात कही है। आप भी चलकर देखिये।” भगवान राम वहाँ से चलकर समुद्र तट पर आते हैं। देखते हैं-ठीक ही नल-नील के द्वारा जो पहाड़-वृक्षादि जैसे रखे जाते हैं, वैसे-के-वैसे वे पानी पर स्थिर रहते जाते हैं। भगवान श्रीराम ने नल-नील से पूछा- “ क्या बात है कि इतने बड़े-बड़े पहाड़ और वृक्षादि को तुम पानी पर रखते हो और वे सब-के-सब पानी के ऊपर ही रह जाते हैं। एक भी डूबता नहीं।” नल-नील ने हाथ जोड़कर कहा, ‘भगवान यह सब आपकी महिमा है।’ भगवान श्रीराम ने कहा, ‘यह हमारी महिमा है?’ नल-नील ने उत्तर दिया- “ भगवन्! हाथ कंगन को आरसी क्या? एक पत्थर पानी पर रखा जाय।” एक बन्दर ने पत्थर का एक छोटा-सा टुकड़ा भगवान के हाथ में दिया। भगवान उस पत्थर को लेकर जैसे ही पानी पर रखते हैं, वह गड़ागड़ाकर नीचे चला गया। भगवान श्रीराम कहते हैं- “ नल-नील! तुमलोग कहते थे कि मेरी महिमा से ये सभी पत्थर-वृक्षादि पानी पर तैर रहे हैं, तो मेरे हाथ का रखा हुआ छोटा-सा पत्थर का टुकड़ा पाताल कैसे चला गया?” श्लेष भाषा में नल-नील ने उत्तर दिया- “ भगवन्! यह तो जड़ पत्थर है। आपके हाथ से चेतन ब्रह्मा भी छूट जाय, तो न मालूम किस पाताल में चला जाय!” गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज कहते हैं-
“ देहि सत्संग निज अंग श्रीरंग ।
भव भंग कारण शरण शोकहारी ।।”
हे श्रीरंग! यह जो आपका निज अंग है सत्संग, जो इसकी शरण में आता है, उसका भव-भंग हो जाता है। यह सत्संग भगवान का निज अंग है। जो सत्संग को छोड़ दे, वह किस रसातल को जायेगा, कोई ठिकाना नहीं! इसलिये सभी सन्तों और भगवन्तों ने सत्संग करने की आज्ञा दी। भगवान बुद्ध ने कहा-
“ अभिवादनसीलिस्स निच्चं बद्धापचायिनो ।
चत्तारो धम्मा बड्ढन्ति आयु वण्णो सुखं बलम् ।।”
अर्थात् जो बड़े को नमस्कार करते हैं, प्रणाम करते हैं, उनकी चार चीजें बढ़ती हैं-आयु, वर्ण, सुख और बल। अब प्रश्न होता है कि बड़े कौन? हमारे गुरुदेव कहा करते थे कि वृद्ध चार तरह के होते हैं। एक होते हैं-वयोवृद्ध, दूसरे होते हैं-सम्बन्ध वृद्ध। सम्बन्ध में हमारे चाचा लगते हैं; लेकिन उम्र में हमसे वे छोटे हैं। उम्र में छोटे होने पर भी सम्बन्ध में बड़े हैं, इसलिए हम उनको प्रणाम करेंगे। तीसरे होते हैं-पदवृद्ध। हमारी उम्र पचास साल की है, हमारे हाकिम बाबू की उम्र तीस साल की है, फिर भी वे हमको प्रणाम नहीं करेंगे, हम उनको प्रणाम करेंगे। चौथे होते हैं ज्ञानवृद्ध। ज्ञान में वे विशेष होते हैं, चाहे उम्र में वे कम ही हैं। संत ज्ञानेश्वर की उम्र चौदह साल की थी। उन्हीं के समय में एक बहुत बड़े हठयोगी थे। उनका नाम था चाँगदेव जी। उनकी उम्र थी चौदह सौ साल की। वे यात्र करते थे, तो उनकी सवारी होती थी सिंह की। सिंह की सवारी पर जिस रास्ते से वे चलते थे, झुण्ड-के-झुण्ड लोग देखने के लिए आ जाते थे। चाँगदेव जी को मालूम हुआ कि सन्त ज्ञानेश्वर नाम के एक बहुत बड़े पहुँचे हुए महात्मा हैं। उनसे भेंट करने की इच्छा हुई। इन्होंने एक पत्र लिखा संत ज्ञानेश्वरजी को। पत्र-लिखने का ढंग उनका निराला था। हमलोग अपने से बड़े को प्रणाम लिखते हैं और छोटे रहते हैं, तो आशीर्वाद लिखते हैं। लेकिन उन्होंने जो पत्र लिखा, उसमें उन्होंने न तो प्रणाम लिखा और न आशीर्वाद ही। केवल कार्यक्रम लिखा कि हम फलॉने समय आपसे भेंट करने के लिए आ रहे हैं। यह इसलिए कि उनके मन में हुआ कि हम तो चौदह सौ साल के हैं और वे चौदह साल के हैं, तो हम प्रणाम कैसे लिखें और फिर यह भी उन्होंने सुन रखा था कि वे बहुत बड़े ज्ञानी हैं, आशीर्वाद भी कैसे लिखें। एक सज्जन पत्र लेकर आये और सन्त श्री ज्ञानेश्वरजी को दिया। एक मकान बन रहा था, जिसकी दीवाल अभी थोड़ी-सी ऊपर उठी थी। उसी पर सन्त ज्ञानेश्वरजी बैठे हुए थे। उनकी बहन मुक्ताबाई भी बगल में बैठी हुई थी। पत्र-वाहक द्वारा पत्र पाकर संत ज्ञानेश्वरजी महाराज ने स्वयं पढ़ा और उस पत्र को उन्होंने बढ़ा दिया मुक्ताबाई की तरफ। पत्र पढ़कर मुक्ताबाई कहती है- “ भैया! जिस तरह का पत्र आया है, इसका उत्तर भी उसी तरह का होना चाहिये।” सन्त ज्ञानेश्वरजी ने कहा- “ ठीक है।” जिस दीवाल पर ये बैठे हुए थे, उस दीवाल से कहा-‘चलो, महात्मा चाँगदेव जी से मिलने के लिए।” दीवाल चल पड़ी। इधर से दीवाल की सवारी पर ये जा हैं, उधर से वे सिंह पर आ रहे हैं। सन्त ज्ञानेश्वरजी बेजान दीवाल पर सवार थे और महात्मा चाँगदेव जानदार सिंह पर। एक तरफ से दीवाल जा रही है, दूसरी तरफ से सिंह-सवारी आ रही है। रास्ते में एक-दूसरे से भेंट हुई। सन्त ज्ञानेश्वरजी को दीवाल की सवारी पर देखकर महात्मा चाँगदेव अपनी सिंह की सवारी से नीचे उत्तर गये और उनके श्रीचरणों में प्रणाम निवेदित कर उनको गुरु धारण करते हैं। चौदह वर्ष की उम्रवाले को गुरु धारण करते हैं, चौदह सौ वर्ष की उम्रवाले। (श्रोताओं की ओर से ‘सद्गुरु महाराज की जय, का नारा) ये ज्ञानवृद्ध होते हैं। ज्ञानवृद्ध सबसे विशेष होते हैं।
महर्षि व्यासपुत्र श्री शुकदेवजी कम उम्र के थे, लेकिन जिस सभा में वे जाते थे, उस सभा के लोग उनके स्वागत में खड़े हो जाते थे। सन्त की महिमा गाते हुए सन्त पलटूदासजी ने लिखा-
“ सबसे बड़े हैं संत दूसरा नाम है ।
तीजै दस अवतार तिन्हें परनाम है ।।
ब्रह्मा विष्णु महेश सकल अवतार हैं ।
अरे हाँ रे पलटू सबके ऊपर
संत मुकुट सरदार हैं ।।”
और भी स्पष्ट करते हुए पुनः उन्होंने कहा-
“ बड़ा होय तेहि पूजिये, संतन किया बिचार ।।
संतन किया बिचार, ज्ञान का दीपक लीन्हा ।
देवता तेंतीस कोट, नजर में सबको चीन्हा ।।
सबका खंडन किया, खोजि के तीनि निकारा ।
तीनों में दुइ सही, मुत्तिफ़ का एकै द्वारा ।।
हरि को लिया निकारि, बहुरि तिन मंत्र बिचारा ।
हरि हैं गुण के बीच, संत हैं गुण से न्यारा ।।
पलटू प्रथमै संत जन, दूजे हैं करतार ।
बड़ा होय तेहि पूजिये, संतन किया बिचार ।।”
इसीलिए भी शबरी जी को नवधा भक्ति का उपदेश करते हुए भगवान श्रीराम ने कहा था-
“ सातवँ सम मोहिमय जग देखा ।
मोते संत अधिक करि लेखा ।।”
गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज उसी तरह उच्च कोटि के पहुँचे हुए सन्त थे। उनकी जयन्ती मनाने के लिये हमलोग यहाँ एकत्र हुए हैं। उनका जो ज्ञान है, उनके महान ज्ञान को हम धारण करें, जिससे जीवन कल्याणमय होगा। उन्होंने अमुक जगह जन्म लिया, अमुक उनके पिता थे, अमुक उनकी माता थी। लालन-पालन इस तरह हुआ। यह तो एक साधारण जीवनी है। असली जीवनी तो उनकी यह है कि उन्होंने क्या किया?
जिस समय यह देश परतंत्रता की बेड़ी में बेतरह जकड़ा था और आपस में फुट के कारण विदेशी यहाँ के धन-जनादि को लूट रहे थे। यहाँ तक कि सही धार्मिक भावना भी लुप्तप्राय होती जा रही थी। आत्मज्ञान छोड़कर लोग बहुदेव-उपासना में लगे थे। शैव, शाक्त, वैष्णव, सौर, गाणपत्य आदि-ये सब अपने-अपने इष्ट को बड़ा और दूसरे के इष्ट को छोटा बताकर आपस में लड़-झगड़ रहे थे, उसी समय समन्वयवादी संत गोस्वामी तुलसीदासजी का अवतरण इस अवनितल पर हुआ था। उन्होंने रामचरितमानस में कथानक के माध्यम से सिद्ध करके दिखलाया कि जो गाणपत्य श्रीगणेशजी को बड़ा बताकर अन्यों को छोटा बताते हैं, उनको जानना चाहिए कि गणेशजी से बड़े शिवजी हैं; क्योंकि शिवजी गणेश के पिता हैं। जो शैव शिवजी को बड़ा बताकर गणेशजी को छोटा बताते थे, उनके लिए उन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि शिवजी के विवाह के पूर्व से ही गणेशजी की पूजा चली आ रही है। भवानी और शंकर दोनों ने उनकी पूजा की है; यथा-
“ मुनि अनुसासन गनपतिहि, पूजे सम्भु भवानी ।
सुनि आचरज करहि जनि, सुर अनादि जिय जानि ।।”
जो वैष्णव विष्णु को बड़ा मानकर शिवजी को घृणा की दृष्टि से देखते थे, उनके लिए उन्होंने बताया कि देखो, भगवान श्रीराम विष्णु के अवतार थे। लंका पर चढ़ाई करने के लिए समुद्र पर जो सेतु निर्मित हुआ था, वहाँ श्रीशंकरजी की आराधना-पूजा करने के पश्चात् ही श्रीराम ने लंका पर चढ़ाई करके लंकापति रावण पर विजय प्राप्त की थी। जो कोई शैव शिवजी को बड़ा मानकर भगवान विष्णु का तिरस्कार करते थे, उनके लिए उन्होंने बताया-देखो, श्री शिवजी श्रीराम को अपना इष्ट मानते थे और श्री सीताजी को मातृवत्। यही हेतु है कि जब सती ने श्रीसीताजी का रूप धारण कर श्रीराम की परीक्षा ली थी कि सही में ये भगवान हैं या नहीं और जब शिवजी ध्यानस्थ होकर सतीजी के इस कार्य-कलाप से अभिज्ञ हुए, तो उन्होंने सती-जैसी पत्नी का भी परित्याग कर दिया।
इसी प्रकार इष्टों में किसी को छोटा और किसी को बड़ा बताने के भेद-भाव को मिटाकर गोस्वामीजी ने सामंजस्य स्थापित किया। साथ ही उन्होंने यह भी बताया कि जाति विशेष होने से ही कोई विशेष नहीं होता, जिसमें भगवद्भक्ति विराजती है, वह विशेष होता है। जाति-पाँति, धन-बल, जन-बल, ऐश्वर्यादि को निस्सार बताते हुए उन्होंने ईश्वर-भक्ति को सार बताया; यथा-
“ जाति पाँति कुल धर्म बड़ाई ।
धन बल परिजन गुन चतुराई ।।
भक्ति हीन नर सोहइ कैसा ।
बिनु जल वारिद देखिय जैसा ।।”
परमात्म-भक्ति को सर्वोपरि बताकर गोस्वामीजी ने भीलनी शबरी को उस सर्वोच्च पद पर आसीन किया, जो राजा दशरथजी के लिए भी अलभ्य रहा। कलियुग के वेशधारी बनावटी साधु, जिसको जगत् से विराग नहीं, प्रभु-पद में अनुराग नहीं, की भर्त्सना करते हुए गोस्वामीजी ने कहा-
“ बहु दाम सँवारहिं धाम जती ।
विषया हरि लीन्ह न रहि विरती ।।”
मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीरामजी को भगवान का अवतार बताकर गोस्वामीजी ने लोक-व्यवहार में उन्हें एक आदर्श पुरुष के रूप में रखा। पिता के साथ पुत्र का संबंध कैसा होना चाहिए? जैसे राजा दशरथ जी के साथ श्रीराम का। भाई-भाई का संबंध कैसा होना चाहिए? जैसे भरत और श्रीराम का। पति-पत्नी का संबंध कैसा होना चाहिए? जैसे श्रीसीताजी के साथ श्रीराम का। प्रजा के साथ राजा का संबंध कैसा होना चाहिए? जैसे श्रीराम का। प्रजा की सारी लौकिक सुख-सुविधाओं के साथ पारलौकिक कल्याण की शिक्षा-दीक्षा भगवान श्रीराम ने उनको दी, आदि।
हमलोगों को भी उसी तरह ईश्वर की भक्ति करनी चाहिए, जिस तरह भक्ति गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने की। भगवान श्रीराम के वे अनन्य भक्त थे। भगवान श्रीराम की भक्ति करके उन्होंने मुक्ति पायी। उसी तरह हमलोगों को भी चाहिए कि ईश्वर की भक्ति करके इस मानव-जीवन को कल्याणमय बनावें। गोस्वामीजी संत कवि थे। उन्होंने जागतिक जन को लौकिक और पारलौकिक-उभय प्रकार की शिक्षा दी।
मैं आपलोगों की श्रद्धा-भक्ति की प्रशंसा करता हूँ और आपलोगों की शुभ उन्नति के लिए शुभकामना करता हूँ। इस जयन्ती के माध्यम से आपलोगों के दर्शन से मुझे प्रसन्नता होती है। आप सभी को बहुत-बहुत धन्यवाद देता हूँ!
(शान्ति-सन्देश, दिसम्बर 1994)
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अपने शरीर के अंदर पाँच केन्द्र हैं। पाँचो केन्द्रों के शब्द ही पाँच नौबत कहलाते हैं। प्रथम केन्द्र के शब्द के सहारे अर्थात् उसके आकर्षण से आकर्षित होकर सुरत द्वितीय केन्द्र में पहुँचेगी; क्योंकि ऊपर के केन्द्र का शब्द नीचे के केन्द्र पर आता है। इस प्रकार नादानुसंधान की साधना से क्रमशः सुरत पाँचवें केन्द्र पर पहुँचती है। जहाँ जड़ के सारे आवरण झड़ जाते हैं। जहाँ जड़विहीन चेतनावस्था में परमात्मा की प्राप्ति होती है; किन्तु वहाँ द्वैत भाव रहता है। वहाँ सारशब्द को ग्रहण कर सुरत परम प्रभु परमात्मा से जा-मिलकर एक हो जाती है; आवागमन का चक्र छूट जाता है। इस अवस्था की प्राप्ति के लिए गुरु-कृपा अत्यंत अपेक्षित है-
“ निज तन में खोज सज्जन, बाहर न खोजना ।
अपने ही घट में हरि हैं, अपने में खोजना ।।
दोउ नैन नजर जोड़ि के, एक नोक बना के ।
अन्तर में देख सुन-सुन, अन्तर में खोजना ।।
तिल द्वार तक के सीधे, सुरत को खैंच ला ।
अनहद धुनों को सुन-सुन, चढ़-चढ़ के खोजना ।।
बजती हैं पाँच नौबतें, सुनि एक-एक को ।
प्रति एक पै चढ़ि जाय के, निज नाह खोजना ।।
पंचम बजै धुर घर से, जहाँ आप विराजैं ।
गुरु की कृपा से ‘मेँहीँ’, तहँ पहुँचि खोजना ।।”
जिन्होंने प्रभु की खोज की, उनको वे कहाँ मिले? संत प्रवर सूरदासजी महाराज कहते हैं-
‘अपुनपो आपुन ही में पायो।’
कैसे-
‘शब्दहिं शब्द भयो उजियारो, सतगुरु भेद बतायो।’
इसका भेद सद्गुरु ने बतलाया। अपने अंदर प्रकाश हुआ। प्रकाश में शब्द मिला। शब्द के सहारे ‘निःशब्दं परमं पदम्’ में परमात्मा के दर्शन हुए, मिलन हुआ। तो यह निश्चित हो गया कि परमात्मा हमारे अंदर हैं। उनको खोजनेवाला जीवात्मा है। यह चेतन आत्मा ही परमात्मा को प्राप्त करने में सक्षम है। परमात्मा तो हमारे अंदर हैं और जीवात्मा कहाँ है? क्या कोई कह सकते हैं कि यह शरीर में नहीं है, शरीर के बाहर है? सब कोई कहते हैं कि हम अपने अंदर में हैं। आप कहाँ पर हैं? आँख में हैं, नाक में हैं, कान में हैं, मुँह में हैं, हाथ में हैं, पैर में हैं, पेट में हैं, पीठ में हैं, सिर में हैं, कहाँ हैं? कहते हैं, अपने अंदर में हैं; लेकिन कहाँ हैं? इसका ही पता नहीं है। हैं लेकिन अंदर में ही। संत कबीर साहब ने प्रश्न किया था-
“ इस तन में मन कहाँ बसै, निकसि जाय केहि ठौर ।
गुरु गम है तो परखि ले, नातर कर गुरु और ।।”
अगर तुमको यह पता है कि इस शरीर अंदर मन कहाँ है, तब तो ठीक है। अगर तुमको इसका पता नहीं है, तो वैसा गुरु करो, जो तुमको बतला दे। उत्तर में संत कबीर साहब ने बतलाया-
“ नैनों माहिं मन बसै, निकसि जाय नौ ठौर ।
गुरु गम भेद बताइया, सब सन्तन सिरमौर ।।
जाग्रत्स्वप्ने तथा जीवो गच्छत्यागच्छते पुनः ।
नेत्रस्थं जागरितं विद्यात्कण्ठे स्वप्नं समाविशेत् ।
सुषुप्तं हृदयस्थं तु तुरीयं मूर्ध्निं संस्थितम् ।।”
जीव का वासा जाग्रत् अवस्था जीव आँख में, स्वप्न अवस्था कण्ठ में, सुषुप्ति अवस्था हृदय में चला आता है। जब साधना करके तुरीय अवस्था को प्राप्त करते हैं, उस समय मूर्द्धा में बासा होता है।
ऐसा लगता है, जैसे इसी का भाषानुवाद संत चरणदासजी महाराज ने किया हो। वे कहते हैं-
“ जाग्रत वासा नैन में, स्वप्न कण्ठ स्थान ।
जान सुषुप्ति हृदय में, नाभि तुरीय मन तान ।।”
संत दरिया साहब बिहारी ने लिखा है-
“ जानि ले जानि ले सत्त पहिचानि ले,
सुरति साँची बसै दीद दाना ।
खोलो कपाट यह बाट सहजै मिलै,
पलक परवीन दिव दृष्टि ताना ।।
ऐन के भवन में बैन बोला करै,
चैन चंगा हुआ जीति दाना ।
मनी माथे बरै छत्र फीरा करै,
जागता जिन्द है देखु ध्याना ।।”
वह जागता जिन्द तुम्हारे अंदर है, ध्यान करके देखो। जो कभी मरता नहीं, सदा जीवित रहता है, इसलिए उसका नाम है जीव। हाथरस निवासी संत तुलसी साहब ने कहा है-
‘सत सुरति सिहार साधौ, निरखि नित नैनन रहो।’
इन्होंने भी बतलाया है कि जीव आँख में रहता है। इस भाँति संतों की वाणियों से तथा अन्य सद्ग्रंथों के अध्ययन से इस बात का पता चलता है कि जीव का वासा जाग्रत काल में आँख में होता है।
यद्यपि परमात्मा सर्वत्र हैं; लेकिन सर्वत्र हम उनके दर्शन नहीं कर सकते। जिस तरह आँख पर पट्टी बँधी रहने के कारण निकट की चीज को भी हम नहीं देख सकते अथवा हमारी आँख पर रंगीन चश्मा लगा हो, तो नजदीक की चीज को देखते हुए भी उसका सही रूप मालूम नहीं पड़ता। उदाहरणार्थ अगर चश्मे में हरा शीशा लगा हुआ है, तो जिस चीज को देखेंगे, वह हरी मालूम पड़ेगी। लाल शीशा लगा हुआ है, तो वह चीज लाल मालूम पड़ेगी। पीला शीशा लगा हुआ है, तो चीज पीली मालूम पड़ेगी-सही मालूम नहीं पड़ेगी। उसी तरह से जीवात्मा के ऊपर शरीररूपी पट्टी और इन्द्रियरूपी चश्मा लगा हुआ है। इसलिए शरीर-रूपी पट्टी के कारण कुछ सूझता नहीं है और इन्द्रियरूपी चश्मे से अगर कुछ सूझता भी है, तो वह सही नहीं सूझता। इसलिए शरीर-रूपी पट्टी और इन्द्रियरूपी चश्मे को हम अपने ऊपर से उतारें। जब ये दोनों हट जायेंगे, जहाँ पर हट जाएँगे, वहीं पर परमात्मा का साक्षात्कार हो जाएगा।
अतएव हम वहाँ चलें, जहाँ जाने पर शरीर और इन्द्रिय से छूटना हो। जिज्ञासा होती है-हम चलें तो कहाँ से, कैसे चलें? उत्तर में निवेदन है-चलता कोई कहाँ से है? जो जहाँ से बैठा रहता है, चलता वहीं से है। हमलोग दूर-दूर से आकर इस हॉल में बैठे हुए हैं। अपने घर से आकर इस हॉल में बैठ गये हैं। अब अगर हम इस हॉल से अपना घर जाना चाहेंगे, तो कहाँ से चलेंगे? जो जहाँ बैठे हुए हैं, वहीं से चलेंगे। एक की जगह से दूसरे कोई नहीं चल सकते। जो जहाँ बैठे हैं, वहीं से चलेंगे। उसी तरह शरीर में हम जहाँ बैठे हुए हैं अर्थात् आँख में बैठे हुए हैं, तो यहीं से यानी आँख से चलेंगे क्योंकि जो कुछ काम करना होगा, जाग्रत अवस्था से ही हम शुरू कर सकते हैं, स्वप्न में तो कुछ कर ही नहीं सकते, सुषुप्ति में तो और कहाँ से क्या कुछ कर सकते हैं। जाग्रत से ही हमारा कार्य आरंभ होगा। साधना का आरंभ जाग्रत से ही होगा और जाग्रत अवस्था में हम आँख में हैं। इसलिए आँख से चलें। चलें कैसे? इसकी युक्ति संत सद्गुरु से जान लें।
किसी चीज का जब सिमटाव होता है, तो उसकी ऊर्ध्वगति होती है। जो जितना सूक्ष्म होता है, उसका उतना ही अधिक सिमटाव होता है और उसकी ऊर्ध्वगति भी उतनी ही अधिक होती है। जैसे एक किलो बर्फ लीजिए। एक किलो बर्फ की ऊँचाई उस ढेले की ऊँचाई के बराबर होगी; लेकिन एक किलो अगर आप पानी लीजिए और उसको पतले नल में प्रवेश कराइये, तो जितनी दूर तक वह बर्फ गयी थी, उससे बहुत अधिक दूर तक वह पानी चला जाएगा; क्योंकि बर्फ से पानी तरल है, सूक्ष्म है। उसी एक किलो पानी को आप उबालकर वाष्प बना दीजिए, तो जल से महीन होने के कारण उसका सिमटाव जल से अधिक हो जाएगा और जल की अपेक्षा वाष्प की अधिक ऊर्ध्वगति हो जाएगी। उस वाष्प को यदि हम विद्युत में परिवर्तित कर दें, तो वाष्प से विद्युत सूक्ष्म होने के कारण उसी ऊर्ध्वगति और अधिक हो जाएगी। विद्युत-गति के लिए आज के वैज्ञानिकों ने बताया है कि एक लाख छियासी हजार सात सौ सड़सठ मील एक सेकेण्ड में होती है। विचारणीय विषय है कि बिजली की गति एक सेकेण्ड में इतनी होती है, तो बिजली का तो स्पर्श हमारे शरीर में होता है। लेकिन हमारा मन कितना सूक्ष्म है, जिसका स्पर्श नहीं होता है। उस मन का अगर सिमटाव करेंगे, तो उसकी गति एक सेकेण्ड में कितनी होगी? इस मन का सिमटाव करो। मन का सिमटाव कैसे करें? मन हमारा कहाँ फँसा हुआ है? इस जगत् में। इस जगत् को नाम-रूपात्मक कहते हैं और वह परमात्मा-नाम-रूपविहीन है। तजोविन्दूपनिषद् में लिखा है-
“ नामरूपविहीनात्मा परसंवित्सुखात्मकः ।
तुरीयातीतरूपात्मा शुभाशुभविवर्जितः ।।”
नाम और रूप में हमारा मन फैला हुआ है, तो नाम और रूप के द्वारा ही हम अपने मन को समेटें। इसके लिए हम कोई एक नाम लें, जो ईश्वरवाचक हो और जिसमें हमारी श्रद्धा हो। संतों के यहाँ संकीर्णता नहीं है। जिसमें आपकी श्रद्धा है, जिसमें आपकी रुचि है, उस नाम को लीजिए। ईश्वर-वाचक किसी नाम में कोई फर्क नहीं पड़ता। संत दादू दयालजी महाराज ने कहा है-
“ दादू सिरजनहार के, केते नाँव अनन्त ।
चित आवै सो लीजिए, यौं साधू सुमिरै संत ।।”
जिस इष्ट का नाम हम लें, उनके रूप का हम ध्यान भी करें; क्योंकि हम जो नाम रूप लेते हैं, तदनुरूप रूप हमारे सामने आता है। नाम कहते हैं शब्द को। शब्द से हम पुकारते हैं। जिनको हम पुकारते हैं, उनका रूप हमारे सामने आवे, यह कोई अस्वाभाविक बात नहीं। जैसे हमारे चार लड़के हैं। उन चारो लड़कों में जिस लड़के का नाम लेकर पुकारेंगे, उस लड़के का रूप हमारे सामने आएगा, अन्य तीन लड़कों के नहीं। हमारी दो लड़कियाँ हैं। उन दो लड़कियों में जिस लड़की का नाम लेकर हम पुकारेंगे, उस लड़की का रूप हमारे ख्याल में आएगा। आम का नाम लेंगे, तो आम का रूप हमारे सामने आएगा। केले का नाम लेंगे, तो केले का रूप हमारे सामने आएगा। निष्कर्ष यह निकला कि जिस शब्द का हम उच्चारण करेंगे, उससे संबंधित रूप हमारे सामने आएगा। उसी तरह जिस इष्ट का नाम लेकर हम जप करेंगे, उस इष्ट का रूप भी हमारे सामने आना चाहिए। फिर उसका हम ध्यान करें। जब हम संतवाणी का अध्ययन करते हैं, तो संतवाणी में पाते हैं कि गुरु का स्थान सर्वोपरि है। गुरु से बढ़कर अन्य किसी का स्थान नहीं है। जैसा कि संत कबीर साहब, गुरु नानकदेवजी और अन्य संत कहते हैं-गुरु नाम के जप से और गुरु-रूप के ध्यान से उपासना का आरंभ करो।
संत कबीर साहब के वचन में आया है-
“ मूल ध्यान गुरु रूप है, मूल पूजा गुरु पाँव ।
मूल नाम गुरु वचन है, मूल सत्य सतभाव ।।”
गुरु नानकदेवजी महाराज क्या कहते हैं-
“ अन्तरि गुरु आराधणा जिहवा जपि गुर नाउ ।
नेत्री सतिगुरु पेखणा स्त्रवणी सुनणा गुर नाउ ।।”
गुरु की मूरति मन महिँ धिआनु ।
गुरु के शबदि मंत्र मनु मानु ।।
गुरु के चरण रिदै लै धारउ ।
गुरु पारब्रह्म सदा नमसकारऊ ।।
वेद में हम पाते हैं-
‘गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुर्गुरुर्देवः महेश्वरः।’
स्थूल नाम के जप और स्थूल रूप के ध्यान से इस स्थूल नाम-रूपात्मक जगत में हमारा कुछ सिमटाव होता है। पूर्ण सिमटाव के लिए गुरु नानकदेवजी महाराज कहते हैं-
“ भगता की चाल निराली ।
चाल निराली भगताह केरी, विखम मारगि चलणा ।।
लबु लोभु अहंकारु तजि त्रिसना, बहुतु नाहीं बोलणा ।।
खंनिअहु तीखी बालहु नीकी, एतु मारगि जाणा ।।”
इस सूक्ष्म रास्ते पर चलना है। मानस जप और मानस ध्यान; यह स्थूल सगुण साकार उपासना है। इसके पश्चात् सूक्ष्म सगुण साकार उपासना का आरंभ होता है।
‘खंनिअहु तीखी बालहु नीकी, एतु मारगि जाणा ।’
इस रास्ते से चलना है। इसी विषय को संत कबीर साहब ने इस भाँति कहा-
‘भक्ति का मारग झीना रे।’
भक्ति का रास्ता महीन है। इसी को बाइबिल में लिखा है, ‘सकेत फाटक से प्रवेश करो; क्योंकि चौड़ा है वह मार्ग, जो मृत्यु को पहुँचाता है और संकीर्ण है वह मार्ग, जो जीवन को पहुँचाता है।’ इस संदर्भ में एक शायर ने कहा है-
“ जिगर वो हुस्न एक सूई का मंजर याद है अबतक ।
निगाहों का सिमटना वो हूजू में नूर हो जाना ।।”
निगाहों का सिमटना कैसे होगा, उसकी कला जानिये। इसी कला को भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के छठे अध्याय में बतलाया है-
“ समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः ।
सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन् ।।”
अर्थात् शरीर, गर्दन और मस्तक को सीधा करके बैठो। इससे मेरुदण्ड सीधा रहेगा। मेरुदंड सीधा रहने से श्वास-प्रश्वास की गति धीमी पड़ेगी। श्वास-प्रश्वास की गति धीमी पड़ने से मन की चंचलता दूर होती है। जब मन की चंचलता दूर होती है, तो भगवद्भजन में मन लगता है। इसलिए भगवान श्रीकृष्ण के निर्देशानुकूल बैठने की आदत डालो। शरीर को अचल ओर स्थिर करके बैठने के बाद क्या करो? ‘सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं’ अर्थात् नासिका अग्र में देखो। साथ ही शर्त है ‘दिशश्चानवलोकयन्’ यानी किसी दिशा को नहीं देखते हुए देखो। जिस समय हमारी आँखें खुली होती हैं, हम दसो दिशाओं को देखते हैं; लेकिन जिस समय आँखें बंद करते हैं, तो उत्तर, दक्षिण, पूरब, पश्चिम और चारो कोणों का ज्ञान तो नहीं रहता; किन्तु ऊपर और नीचे का ज्ञान तो रहता ही है। कितने लोग नासिकाग्र का अर्थ बतलाते हैं-नाक की नोक का निचला भाग; कोई कहते हैं ‘भ्रुवोर्मध्य’ यानी ऊपर का भाग। इस प्रकार हम नीचे का भाग करें, चाहे ऊपर भाग का, तो दस दिशाओं में से एक दिशा हो ही जाएगी। भगवान कहते हैं, किसी दिशा को नहीं देखते हुए नासिकाग्र में देखो। तब क्या करना होगा? इसी का यत्न संत सद्गुरु से सीखना पड़ता है। एक लघु कथा है-
एक बूढ़े सेठजी थे। उन्होंने अपने पुत्र से कहा, ‘बेटा! घर में निठल्ले बैठकर क्या करोगे, जाओ कुछ काम-धंधा करो। कुछ पैसे कमाओ।’ सेठपुत्र चला गया विदेश कमाने के लिए। बूढ़े बीमार हुए। खबर दी कि मेरा अंतिम समय है, आकर भेंट करो। दूर होने के कारण आने में देर हो गयी। सेठजी का शरीर छूट गया। घर आने पर उसने तिजौरी में पूर्व संचित सम्पत्ति की खोज की। वहाँ धन नहीं था। उसको चिंता हुई। किसी से पूछने पर भी पता नहीं चला। उसके मन में आया कि अगर पिताजी किसी को दिये होंगे, तो रोकड़-बही में जमा-खर्च होता ही होगा, उसमें वह लड़का रोकड़ खाते के पन्ने उलटाने लगा, उसमें उसने लिखा पाया-आज अमुक महीना, तिथि अमुक, बारह बजे दिन में मैंने अपनी सारी सम्पत्ति दरवाजे पर स्थित शिवालय के त्रिशूल पर रख दी है। वह जाता है बाहर दरवाजे पर; देखता है, शिवालय है, त्रिशूल भी है; लेकिन इतनी सम्पत्ति त्रिशूल पर रहे तो कैसे? त्रिशूल पर तो कुछ नहीं है। तो क्या हमारे पिताजी झूठी बात लिखकर चले गये? नहीं। इसमें कोई राज है, जो हम नहीं समझ रहे हैं। वे चले गये मुनीमजी के यहाँ। वहाँ उनसे पूछा, ‘आपको पता होगा, पिताजी ने सम्पत्ति क्या की?’ मुनीमजी ने उत्तर दिया, ‘हाँ, मुझे मालूम है। लेकिन वह महीना आने दो, वह तिथि आने दो, मुझे खबर करना। मैं जाऊँगा और बारह बजे दिन जैसे होगा, वैसे मैं तुमको पता बतला दूँगा।’ वह महीना आया, वह तिथि आयी, सेठपुत्र गया मुनीमजी के यहाँ। मुनीमजी को बुलाकर लाया और कहा, अब बतलाइये। मुनीमजी ने कहा, ‘बैठो।’ जब बारह बजने में एक-दो मिनट की देर रही, तो मुनीमजी ने कहा, ‘चलो, अब बतलाता हूँ।’ गये; ठीक बारह बजे दिन में शिवालय के त्रिशूल की छाया जहाँ पर पड़ती थी, मुनीमजी ने कहा, ‘खोदो यहाँ पर।’ जमीन खोदी गयी, सारी सम्पत्ति मिल गयी। यह एक रहस्य की बात है। इसी तरह शास्त्रें में नासाग्र, नासिकाग्र, भ्रुवोर्मध्य आदि बातें लिखी हुई हैं; लेकिन जबतक संत सद्गुरु रूप मुनीम से भेंट नहीं होगी, राज नहीं खुलेगा। खोजते रह जाइये त्रिशूल पर, कभी सम्पत्ति नहीं मिलेगी। वह त्रिशूल है क्या, वह शिवालय है क्या? योग- शिखोपनिषद् में आया है-
“ विन्दुनाद महालिंगं शिवशक्तिनिकेतनम् ।
देहं शिवालयं प्रोक्तं सिद्धिदं सर्वदेहिनाम् ।।”
हमलोगों का जो यह शरीर है, यह शिवालय है। शिवालय के ऊपर त्रिशूल क्या है? आप देखे होंगे, कितने लोग तिलक लगाते हैं-तीन धारियाँ लगाते हैं। दोनों बगलवाले तिलक उजले होते हैं और बीचवाला लाल होता है। ये अगल-बगलवाले क्या हैं। इड़ा-पिंगला हैं और बीचवाला जो है गोदुम आकार का, वह सुषुम्ना है। यही त्रिशूल है। यह एक संकेत है। सुषुम्ना में जाकर खोजो, मिलेगा। सुषुम्ना में कैसे जाओ, इसका यत्न गुरु से जानो। योगिवर पंचानन भट्टाचार्यजी ने लिखा है-
“ बामे इड़ा नाड़ी दक्षिणे पिंगला रजस् तमोगुणे करिते छे खेला ।
मध्ये सत्वगुणे सुषुम्ना विमला धरऽ धरऽ ताँरे सादरे ।।
आर केन मन भ्रमिछ बाहिरे, चलन आपन अन्तरे ।
बाहिरे जार तत्व कर अविरत सेत आज्ञाचक्रे बिहरे ।।”
मीराबाई के लिए लोग कहते है-वह तो मात्र गिरिधर गोपाल को जानती थी और कुछ नहीं जानती थी। लेकिन परम भक्तिन मीराबाई क्या कहती है-
‘सेज सुखमना मीरा सोवे, शुभ है आज घड़ी ।’
सुषुम्ना की शय्या पर सोती थी मीराबाई। संत कबीर साहब कहते हैं-
“ गागर ऊपर गागरी, चोले ऊपर द्वार ।
सूली ऊपर साँथरा, जहाँ बुलावे यार ।।”
और मीराबाई कहती है-
“ सूली ऊपर सेज पिया की,
किस विधि मिलना होय ।”
वह शूली क्या है? वह शूली है चेतनधार। जिसको शूली की सजा होती थी, छेद देती थी शूली उसके शरीर को नीचे से ऊपर तक-गुदा मार्ग से मस्तक तक। उसी तरह एक सार धार चेतन-धार है, जो समूचे शरीर को बेधे हुए है अर्थात् ब्रह्मांड-पर से पिण्ड पर्यन्त परिव्याप्त है। उस सारशब्द को जो कोई पार करते हैं, उनको ‘सूली ऊपर सेज पिया की’ मिल जाती है; पिया से मिलन हो जाता है; परमात्मा से भेंट हो जाती है-साक्षात्कार हो जाता है। कहने का तात्पर्य यह कि दृष्टि-साधन की क्रिया करने से पूर्ण सिमटाव होता है। पूर्ण सिमटाव में ऊर्ध्वगति होती है, आवरण भेदन होता है, फलतः सुरत अंधकार से प्रकाश में चली जाती है। वहाँ उसको शब्द की अनुभूति होती है। उस शब्द को पकड़कर वह आगे बढ़ती है। वहाँ पहले अनेक शब्द मिलते हैं। अनेक शब्द होने के कारण उनकी संज्ञा हो गयी अनहद शब्द की। संत चरणदासजी महाराज ने कहा है-
“ अनहद शब्द अपार दूर सूँ दूर है । चेतन निर्मल शुद्ध देह भरपूर है ।।”
और,
“ रिमझिमि बरसै अंम्रित धारा ।
मनु पीवै सुनि शबदु विचारा ।।
अनद विनोद करै दिन राती ।
सदा सदा हरि केला जीउ ।।”
गुरु नानकदेवजी महाराज ने कहा-जीव और पीव के मिलन में वहाँ सतत ही आनंद होता रहता है। कबीर साहब ने भी कहा है-
“ भजन में होत आनंद आनंद ।
बरसत विशद अमी के बादर, भींजत है कोइ संत ।।”
योगिवर पंचानन भट्टाचार्य जी अपनी अनुभूति की बातें कितने स्पष्ट शब्दों में कहते हैं-
“ आनन्दे आनन्द बाड़े प्रतिक्षण ।
दशेन्द्रिय थाके शून्य ते बन्धन ।।
रिपुचय पराजय सकलि आनन्दमय ।
अनुभव मात्र रय आर सब पाय लय ।।
जेमन जीवने जीवन थाके ना ।।”
इस तरह जो कोई आंतरिक साधना में अग्रसर होते हैं, तो क्रमशः अंधकार से प्रकाश में चले जाते हैं, वहाँ उनको शब्द की अनुभूति होती है। उस शब्द को पकड़कर वे आगे की ओर बढ़ते हैं यानी स्थूल के केन्द्र से सूक्ष्म के केन्द्र पर, सूक्ष्म के केन्द्र से कारण के केन्द्र पर, कारण के केन्द्र से महाकारण के केन्द्र पर और महाकारण के केन्द्र से भी आगे बढ़कर कैवल्य के केन्द्र पर पहुँच जाते हैं। वहाँ उनकेा परमात्म-दर्शन होते हैं। उससे भी आगे जाकर परम प्रभु परमात्मा से मिलकर एकमेक हो जाते हैं और उसमें विराजनेवाली शांति को वे प्राप्त करते हैं।
यह संतों का ज्ञान है। यह संतमत की ज्ञान है। इसके लिए आवश्यकता है पंच पापों-झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार से बचने की। अगर इन पंच पापों से हम बचते हैं, तो एक नये समाज का निर्माण हो जाएगा।, जहाँ कहीं राग नहीं, द्वेष नहीं, कलह और क्लेश नहीं, जहाँ आपस में प्रेमपूरित सद्भावना से रहेंगे, वहाँ लड़ाई-झगड़े नहीं होंगे, शांति से रहेंगे। तो हम पंच पापों से बचें। नित्य सत्संग करें, अंतर-साधना करें और अपने जीवन-यापन के लिए कुछ-न-कुछ पवित्र कमाई अवश्य करें। इस तरह हमारा मानव-जीवन सफल होगा, सार्थक होगा।
(शान्ति-संदेश, जुलाई 1995 ई0)
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आदरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीय माताओ तथा बहनो!
यह स्थान हमारे गुरुदेव के भी गुरुदेव का स्थान है। यहाँ तो मैं सीखने के लिए आता हूँ। जहाँ से सम्पूर्ण भारत में ही नहीं, विदेश में भी संतमत का प्रचार-प्रसार हुआ है, वहाँ के लोगों को मैं क्या उपदेश-वाक्य कहूँ? जिस वृक्ष के मूल में जल सींचा जाता है, समय पाकर वह फल-फूलों से भर देता है। मैं उसी मूल की पूजा के लिए यहाँ आता हूँ। ऐसा भी होता है कि विद्यार्थी पढ़ता कहीं है और परीक्षा देने के लिए जाता कहीं दूसरी जगह है। यहाँ से मुझे भी पत्र जाता है, तो मैं समय-समय पर परीक्षा देने के लिए आ जाता हूँ। श्रीचुन्नालाल साहब तो यहाँ के बहुत पुराने सत्संगी हैं, बाबा देवी साहब के आपको दर्शन प्राप्त हुए हैं। बाबा देवी साहब का वरदहस्त जिनके ऊपर पड़ा हो, उनको किस बात की कमी? उनको ज्ञान कौन सिखावेगा? उनसे तो ज्ञान सीखना चाहिए।
आपलोग सत्संग करने के लिए यत्र-तत्र से यहाँ एकत्र हुए हैं। सत्संग क्या है? सत्संग एक तीर्थ है। तीर्थ ही नहीं, बल्कि महान् तीर्थ है। तीर्थ कहते हैं-पवित्र जल को। हमलोग प्रयाग, हरिद्वार, काशी आदि तीर्थों में जाते हैं। वहाँ स्नान करते हैं, वहाँ के पवित्र जल में। इलाहाबाद के प्रयागराज में त्रिवेणी-संगम है। इस त्रिवेणी-संगम में स्नान करने से तन शुद्ध होता है। सत्संग-रूपी त्रिवेणी में स्नान करने से मन शुद्ध होता है और अपने अन्दर चेतन-धार में स्नान करने से आत्मा पवित्र होती है।
बहुत वर्ष पहले मैं इलाहाबाद त्रिवेणी-संगम पर गया था। मैंने वहाँ पण्डाजी से पूछा- “ यहाँ तो द्विवेणी-संगम है, त्रिवेणी तो नहीं है। एक तो गंगाजी की धारा देखते हैं और दूसरी यमुना जी की धारा देखते हैं, तीसरी धारा तो दीखती नहीं।” पण्डाजी ने उत्तर दिया- “ तीसरी धारा सरस्वतीजी की है, वह अन्तःसलिला है; भीतर-ही-भीतर बहती है।”
सज्जनो! जिनके पास पैसे हैं, स्वास्थ्य उत्तम है और समय है, वे इलाहाबाद जाकर प्रयागराज की त्रिवेणी में स्नान करके अपने तन को पवित्र कर सकते हैं; लेकिन जिनके पास पैसे, स्वास्थ्य और समय का अभाव हो, वे क्या करें? गोस्वामी श्री तुलसीदासजी ने विचारा कि कोई ऐसा भी त्रिवेणी-संगम हो, जहाँ बिना विशेष खर्च किए भी डुबकी लगायी जा सके, तो उन्होंने बताया कि वह सत्संग-रूपी त्रिवेणी है। जैसे प्रयागराज में तीन वेणियाँ हैं, वैसे ही सत्संग में भी तीन वेणियाँ होती हैं। किसी ने लगे हाथ पूछ लिया-महाराज! हम तो सत्संग में एक धार भी बहती नहीं देखते हैं; फिर आप त्रिवेणी कैसे कहते हैं? गोस्वामी श्री तुलसीदासजी उत्तर देते हैं-
राम भगति जहँ सुरसरि धारा ।
सरसइ ब्रह्म विचार प्रचारा ।।
विधि निषेधमय कलिमल हरनी ।
करमकथा रविनन्दिनि बरनी ।।
सत्संग में तीन धाराएँ होती हैं। स्थूल सगुण साकार भगवान् की चर्चा होती है। चाहे राम कहिये, कृष्ण कहिये, देवी कहिये अथवा कोई भी देव वा देवी कहिये, कुछ फर्क नहीं पढ़ता। यह गंगा की धारा है। दूसरी यमुना चाहिये, वह क्या है? विधि और निषेध यानी कर्त्तव्य और अकर्त्तव्य कर्म क्या है, इसकी सत्संग में चर्चा होती है। कर्त्तव्य और अकर्त्तव्य के निर्णय के बिना अकर्त्तव्य कर्म भी हमसे होंगे और उसका परिणाम उत्तम नहीं होगा। इसलिए सत्संग में दोनों प्रकार की बातें बताई जाती हैं-क्या विधि कर्म है और क्या निषेध कर्म है।
एक ईश्वर में विश्वास करना, ईश्वर की प्राप्ति अपने अन्दर होगी-इसका दृढ़ निश्चय करना (रखना), सत्संग करना, ध्यान करना और गुरु की सेवा करनी-ये पाँच विधिकर्म हैं, कर्त्तव्य कर्म हैं। झूठ नहीं बोलना, चोरी नहीं करनी, किसी प्रकार का नशा सेवन नहीं करना, हिंसा नहीं करनी यानी जीवों को दुःख नहीं देना; मांस, मछली, अंडे आदि का सेवन नहीं करना और व्यभिचार नहीं करना अर्थात् परस्त्री और परपुरुष-गमन नहीं करना ये-पाँच निषेधकर्म हैं, अकर्त्तव्य कर्म हैं। यही विधि-निषेध यमुना की धारा है।
सरस्वती की धारा के सम्बन्ध में बताया गया- वह ब्रह्मज्ञान है। आत्मा क्या है? परमात्मा क्या है? परमात्मा की प्राप्ति कैसे होगी? इसके लिए साधन क्या है? इसके लिए संयम क्या है? ब्रह्म क्या है? जीव क्या है? बन्ध क्या है? मोक्ष क्या है? इन सब बातों को जो समझाया जाता है, यह सरस्वती की धारा है। जिस तरह बाहर संसार में सरस्वती की धारा अन्तः सलिला है, उसी तरह यह ब्रह्मज्ञान भी अन्तःसलिला है। बाहर में यह ज्ञान नहीं मिलता। इसका ज्ञान, इसका साक्षात्कार साधना करनेवाले को अपने अन्दर में होता है। ब्रह्मज्ञान की अनुभूति साधक को अपने भीतर होती है, यह अनुभवगम्य है।
इस तरह इस सत्संगरूपी त्रिवेणी में भी गंगा, यमुना और सरस्वती की तीनों धाराएँ हैं। हमारे सन्तों ने, ऋषियों ने और मुनियों ने देखा कि तन की पवित्रता तो प्रयागराज की त्रिवेणी में हो जाती है, मन की पवित्रता इस सत्संगरूपी त्रिवेणी में हो जाती है; लेकिन एक ऐसी भी त्रिवेणी होनी चाहिये, जिसमें चेतन आत्मा पवित्र हो। चेतन आत्मा की पवित्रता कैसे होगी? तो कहा-
इडा भगवती गंगा पिंगला यमुना नदी।
इडा पिंगलयोर्मध्ये सुषुम्ना च सरस्वती।।11।।
त्रिवेणीसंगमो यत्र तीर्थराजः स उच्यते।
तत्र स्नानं प्रकुर्वीत सर्वपापैः प्रमुच्यते।।12।।
-ज्ञानसंकलिनी तंत्र
हमारे शरीर में 72 करोड़ नाड़ियाँ हैं। इनमें 101 नाड़ियाँ मुख्य हैं। इन 101 में 9 (नौ) नाड़ियाँ मुख्य हैं तथा इन नौ में तीन नाड़ियाँ मुख्य हैं और इन तीनों में भी एक नाड़ी मुख्य है और वह सुषुम्ना नाड़ी है। तीन नाड़ियाँ क्रमशः इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना हैं।
इडा तिष्ठति वामेन पिंगला दक्षिणेन तु ।
तयोर्मध्ये परं स्थानं यस्तद्वेद स वेदवित् ।।
(योगशिखोपनिषद्, अ0 6)
यही परम स्थान सुषुम्ना है। इसी को सरस्वती भी कहते हैं। एक बंगाली महात्मा कहते हैं-
बामे इड़ा नाड़ी दक्षिणे पिंगला ,
रजस्तमो गुणे करिते छे खेला ।
मध्ये सत्वगुणे सुषुम्ना विमला ,
धरऽ धरऽ ताँरे सादरे ।।
(योगी पंचानन भट्टाचार्य)
दृष्टि की जो दो धारें हैं, इनमें बायीं को इड़ा कहते हैं, जो तमोगुणी है। दायीं धार को पिंगला कहते हैं, जो रजोगुणी है और मध्य में सुषुम्ना है, जो सतोगुणी है। ध्यानाभ्यास करने के लिए जब हम बैठते हैं और जप, ध्यान-पूजा आदि करने लगते हैं, उस समय आलस्य आने लगता है और हम सो जाते हैं; यह तमोगुण की प्रधानता के कारण होता है। आलस्य, निद्रा, जँभाई आदि तमोगुण के लक्षण हैं।
बैठते हैं हम जप करने के लिए और करने लग जाते हैं गप्प। बैठते हैं हम जाप करने के लिए और करने लग जाते हैं पाप। उस समय न जानें हम क्या-क्या बातें सोचने लग जाते हैं, जिनका ठिकाना नहीं। थोड़ी देर के बाद जब होश होता है, तब सोचते हैं, यह क्या हुआ? हम क्या करने बैठे थे, क्या करने लग गए। जिससे कभी सम्बन्ध नहीं, उससे भी सम्बन्ध जोड़ने लग जाते हैं। जिससे कभी कोई बात नहीं, उससे भी बात करने लग जाते हैं। इसी तरह समय बीतता चला जाता है और हम समझ भी नहीं पाते हैं। यह रजोगुण की प्रधानता के कारण होता है। जब रजोगुण की धार में हमारी वृत्ति रहती है, तब चंचलता रहती है। तमोगुण की धारा में मूढ़ता उत्पन्न होती है। जब मध्यधारा-सुषुम्ना में हमारी वृत्ति रहेगी, तब हमारा मन सतोगुणी और शान्त रहेगा। उस समय ध्यान-भजन ठीक से होगा। इसीलिए तो सन्त दादूदयालजी महाराज ने कहा था-
सुरति सदा स्यावित रहै, तिनके मोटे भाग ।
दादू पीवै रामरस, रहै निरंजन लाग ।।
जिनकी सुरत सम्मुख होकर रहती है यानी सुषुम्ना में रहती है, उनका अहोभाग्य है। वह रामरस पीता है; ब्रह्म-पीयूष पान करता है तथा निरंजन= निः+अंजन अर्थात् अंजन-रहित, माया-रहित ब्रह्म का साक्षात्कार करता है। मेरे कहने का तात्पर्य-तीन तरह की त्रिवेणियाँ हैं। एक प्रयागराज की त्रिवेणी, दूसरी सत्संगरूपी त्रिवेणी और तीसरी अपने अन्दर की त्रिवेणी। इस तीसरी प्रकार की त्रिवेणी-अपने अन्दर की त्रिवेणी के लिए कहीं जाने की जरूरत नहीं है।
संत राधास्वामी साहब ने कहा है-
बैठे ने रास्ता काटा ।
चलते ने बाट न पाई ।।
है कुछ रहनि गहनि की बाता ।
बैठा रहै चला पुनि जाता ।।
कहे को तात्पर्य है ऐसा ।
जस पंथी बोहित चढ़ि बैसा ।।
जिसकी वृत्ति सुषुम्ना में स्थिर हो जायेगी, उसका रास्ता कट जायेगा; वृत्ति आगे बढ़ जायेगी, अंधकार से प्रकाश में चली जायगी और जबतक हमारी वृत्ति बहिर्मुखी रहती है, गुरु नानक साहब ने कहा-
नउ दरि ठाके धावतु रहाए।
दसवै निज धरि वासा पाए।
उथै अनहद सबद बजहि दिन राती,
गुरमति सबदु सुणावणिआ।।
दसवें द्वार यानी सुषुम्ना में जो कोई अपने को प्रतिष्ठित कर पाता है, उसका रास्ता कटता है। जबतक नव द्वारों में ठहरे हुए रहते हैं, विषयों में दौड़ते रहते हैं। इसीलिए कहा-‘चलते ने बाट न पाई।’ यदि हम अपने घर जाना चाहते हैं, प्रभु को पाना चाहते हैं, तो अपने को दसवें द्वार में ठहराना होगा। इसलिए कहा-
बैठे ने रास्ता काटा।
चलते ने बाट न पाई ।।
है कछु रहनि गहनि की बाता।
बैठा रहै चला पुनि जाता ।।
यदि जिज्ञासा हो कि बैठे रहनेवाले का रास्ता कैसे तय हो सकता है, तो उत्तर में निवेदन है-
आप नाव पर बैठ जाइये। अब आपको चलना नहीं है, चलेगी नाव। इसी तरह साधक अपने अन्दर की नाव पर बैठ जायगा, तो फिर उसको चलना नहीं पड़ेगा और अपने गन्तव्य स्थान पर पहुँच भी जायेगा। अपने अन्दर की वह कौन-सी नाव है? इसका उत्तर हमारे गुरुदेव के वचन में आया है-विन्दु और नाद।
बिन्दु नाद अगुआइ, तुमहिं ले जायेंगे ।
अरे हाँ रे ‘मेँहीँ’ ज्योति मण्डल सह नाद ,
की सैर दिखायेंगे ।।
ज्योति मण्डल की सैर, झकाझक झाँकिये ।
तिल ढिग जुगनू जोति, टकाटक ताकिये ।।
होत बिज्जु उजियार, नजर थिर ना रहै ।
अरे हाँ रे ‘मेँहीँ’ सुरत काँपती रहै ,
ज्योति दृढ़ क्यों गहै ।।
दृष्टियोग अभ्यास अतिहि, करतहि करत ।
कँपनी सहजहि छुटै, प्रौढ़ होवै सुरत ।।
तिल दरवाजा टुटै, नजर के जोर से ।
अरे हाँ रे ‘मेँहीँ’ लगे टकटकी खूब ,
जोर बरजोर से ।।
इस यात्र में सत् की ओर जाना होता है। सत् क्या है? सत् तो वही एक अचल, अलख पुरुष परमपिता परमात्मा है और उसका अभिन्न अंश जीवात्मा भी सत् है। इस जीवात्मा-रूपी सत् को उस परमात्मा- रूपी सत् से मिला देना असली सत्संग है। पहले हम बाहरी सत्संग करें। जबतक बाहर का सत्संग नहीं करेंगे, तबतक अन्दर प्रविष्ट होने का ज्ञान अथवा मार्ग हमें नहीं मिल पाएगा। इसीलिए कहा गया है-
नित सतसंगति करो बनाई ।
अन्तर बाहर द्वै विधि भाई ।।
धर्म कथा बाहर सत्संगा ।
अन्तर सत्संग ध्यान अभँगा ।।
इतने अधिक लोग एकत्र होकर जो सत्संग अभी हमलोग कर रहे हैं, यह बाहर का सत्संग है। हाथरस-निवासी संत तुलसी साहब ने कहा है-
सत्संग करना मन तोड़ शरण संतन की ।
अन्दर अभिलाषा लगी रहै चरनन की ।।
‘मन तोड़’ कहने का मतलब-संसार की तरफ से मन को तोड़ लो और सत्संग में जोड़ दो। संसार की तरफ से तोड़ेंगे नहीं, तो सत्संग में जोड़ कैसे पायेंगे? नहीं जोड़ पायेंगे। गोस्वामी श्रीतुलसीदासजी महाराज कहते हैं-
भवसागर कहँ नाव शुद्ध संतन्ह के चरन ।
तुलसीदास प्रयास बिनु मिलहिं राम दुख हरन ।।
संतों की चरण-शरण से भव-दुःख-हरण होता है। उससे जन्म-मरण छूटता है। इसलिए साधु संग-सत्संग करना अत्यन्त आवश्यक है। भगवान् शंकर ने पार्वतीजी को सत्संग की महत्ता बताते हुए कहा था-
गिरिजा संत समागम, सम न लाभ कछु आन ।
बिनु हरि कृपा न होइ सो, गावहिं वेद पुरान ।।
अर्थात् हे पार्वती! संतों के समागम के समान अन्य कोई दूसरा लाभ नहीं है; लेकिन जबतक प्रभु की कृपा नहीं होगी, तबतक संतों का समागम नहीं मिलेगा। एक बंगाली महात्मा कहते हैं-
करऽ साधू समागम, पवित्र हइबे मन ।
घुचिबे मोह अन्धकार रे ।।
संतों का समागम करो, मन पवित्र होगा।
भगवान् श्रीराम कहते हैं-
निर्मल मन जन सो मोहि भावा ।
मोहि कपट छल छिद्र न भावा ।।
(तुलसीकृत रामायण) तात्पर्य यह कि भगवान् कहते हैं-जिसका मन पवित्र होगा, वही प्रभु को पा सकता है। पवित्र मन, शुद्ध मन, साफ मन होने से ही प्रभु के दर्शन संभव हैं। इसको समझने के लिए इस तरह से भी हम समझ सकते हैं। अभी वर्षा का समय है। गंगाजी का जल गँदला है। गंगाजल को देखेंगे, तो उसमें स्नान करने में हिचकिचाहट होगी, उसका पान करना तो दूर की बात है। थोड़े दिनों के बाद कार्त्तिक-अगहन महीने में जल साफ हो जाएगा। मिट्टी नीचे बैठ जाएगी, तब गंगाजी के जल में हम अपनी परछाईं देख सकते हैं। इसी तरह जब हमारा मन गँदला रहेगा, तो प्रभु की परिछाहीं हम नहीं देख सकेंगे। मन शुद्ध होगा, साफ होगा, निर्मल होगा, तभी हम प्रभु के दर्शन कर सकेंगे। संत कबीर साहब ने भी कहा है-
जब दरसन देखा चाहिये, तो दर्पन माँजत रहिये ।
जब दर्पन लागी काई, तो दरस कहाँ ते पाई ।।
अतः प्रभु-दर्शन के लिए मन को साफ, शुद्ध, निर्मल करना होगा और यह मन पवित्र होगा निरन्तर सत्संग करते रहने से, संतों का संग करने से, साधु- संग करने से। सत्संग करने से मन पवित्र होगा, शुद्ध होगा, साफ होगा। तब क्या होगा? मोह-अंधकार का विनाश होगा अर्थात् अविद्या-रूपी रात्रि, अज्ञानरूपी अन्धकार का नाश हो जाएगा। संतों का समागम कितना उत्कृष्ट होता है, इस सन्दर्भ में संत सुन्दरदासजी महाराज ने इस भाँति कहा है-
तात मिलै पुनि मात मिलै ,
सुत भ्रात मिलै युवती सुखदाई ।
राज मिलै गज बाजि मिलै ,
साज मिलै मन बांछित पाई ।।
लोक मिलै सुरलोक मिलै ,
विधि लोक मिलै बैकुंठहु जाई ।
सुन्दर और मिलै सबही सुख ,
संत का समागम दुर्लभ भाई ।।
संतों का समागम, संतों का दर्शन बड़ा दुर्लभ है। पहले बाहरी सत्संग करें। बाहरी सत्संग करते-करते आन्तरिक सत्संग करने की प्रेरणा मिलेगी। बाहरी सत्संग नहीं करेंगे, तो आन्तरिक सत्संग की प्रेरणा कैसे मिलेगी, कहाँ से मिलेगी अर्थात् नहीं मिलेगी। जब प्रेरणा ही नहीं मिलेगी, तो उस ओर हम चल भी कैसे सकेंगे!
हमारे यहाँ भागलपुर, कुप्पाघाट आश्रम में गुरुदेव के दर्शनार्थ एक वाइस-प्रिन्सिपल साहब आया करते थे। अब तो वे रिटायर्ड हो गये हैं। उनके इष्ट-मित्र उनसे कहा करते थे-आप बार-बार कुप्पाघाट क्यों जाया करते हैं? महर्षिजी ने आपको जो क्रिया बता दी है, अपने घर में बैठकर किया करें। यह क्या बार-बार कुप्पाघाट जाते रहते हैं! प्रिंसिपल साहब ने कहा- “ आपलोग समझते नहीं हैं। महर्षिजी हैं पावर हाउस। वहाँ जाकर हम अपनी बैटरी चार्ज कराकर आते हैं। आपलोगों के बीच रहते-रहते जब वह डिस्चार्ज हो जाती है, तो पुनः हम वहाँ जाते हैं और चार्ज कराकर आपलोगों के बीच में आ जाते हैं।” फुलवाड़ी में जाने पर फूलों से सुगन्ध माँगने की आवश्यकता नहीं पड़ती, स्वतः सुगन्ध मिलती है। इसी प्रकार सन्तों के पास जाने पर उनसे कुछ माँगने की आवश्यकता नहीं। हमारी आवश्यकता की वस्तु वे स्वयं देते हैं। इसलिए नित्य नियमित रूप से सत्संग करना अति आवश्यक है। ,(शांति-सन्देश, सितम्बर 2012)
पूज्यपाद महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन प्रातःस्मरणीय परमपूज्य सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज के पवित्र गुरुद्वारा कानून गोय अताई मुहल्ला-मुरादाबाद (यू0पी0) में दिनांक 16-09-1995 ई0 को प्रातःकालीन सत्संग के सुअवसर पर हुआ था।
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आदरणीय साधकवृन्द, समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ तथा भक्तिमती बहनो!
संतमत की सर्वश्रेष्ठ साधना नादानुसंधान है। नादानुसंधान के पूर्व एकविन्दुता प्राप्त करने के लिए दृष्टियोग या दृष्टिसाधन की क्रिया की जाती है। दृष्टिसाधन की क्रिया सूक्ष्म है। जबतक कोई मोटे-मोटे अक्षरों को नहीं लिख लेता, महीन अक्षर लिखने की योग्यता नहीं होती। इसलिए सूक्ष्म उपासना, सूक्ष्मतर उपासना अथवा सूक्ष्मतम उपासना करने के लिए पहले स्थूल उपासना करने की आवश्यकता होती है। इसीलिए मानस जप और मानस ध्यान-ये दोनों क्रियाएँ आरम्भ में होती हैं। मानस जप के द्वारा मन का कुछ अंश में सिमटाव होता है और मानस ध्यान के द्वारा उससे कुछ अधिक सिमटाव होता है; किन्तु पूर्ण सिमटाव नहीं होता। पूर्ण सिमटाव के लिए विन्दु-ध्यान है। विन्दु-ध्यान में पूर्ण सिमटाव होता है। उसमें ऊर्ध्वगति होती है; आवरण-भेदन होता है; सुरत अंधकार से प्रकाश में प्रवेश कर जाती है और वहाँ अनहद नाद को ग्रहण कर आगे बढ़कर वह अनाहत शब्द को ग्रहण करती है। वही शब्द परम प्रभु परमात्मा से जा मिलाता है। वास्तव में विन्दु-ध्यान और नाद-ध्यान का सरल-सरल प्रचार सभी संतों ने किया है।
विन्दु-ध्यान से क्या होता है और नाद-ध्यान से क्या होता है? इस विषय का स्पष्टीकरण कर देना आवश्यक समझता हूँ। किसी भी रूप का निर्माण तबतक नहीं हो सकता, जबतक विन्दु न हो। विन्दु से ही रेखा बनती है और वह रेखा सरल और वक्र होती है। उसी सरल और वक्र रेखा से रूप बनता है। रूप-जगत् का आरम्भ विन्दु से होता है और उस मण्डल का अन्त भी विन्दु पर ही होता है। किसी भी चित्र को बनाने के लिए जैसे ही हम कलम रखते हैं, कलम की नोक जहाँ पड़ती है, उस छोटे-से-छोटा चिह्न को हम विन्दु कहते हैं; किन्तु वास्तव में वह यथार्थ विन्दु नहीं है, कल्पित विन्दु है। विशुद्ध विन्दु बाह्य संसार में हम देख नहीं सकते। उसको कोई बना नहीं सकता। वह तो दृष्टि की युगल धाराओं के मिलने से अपने अन्तर में उत्पन्न होता है। जैसे बाह्य जगत् में दो रेखाओं का मिलन एक विन्दु पर होता है, वैसे ही अपने अन्दर में दृष्टि की दोनों धाराएँ जहाँ मिलती हैं, वहाँ एक विन्दु उत्पन्न होता है। हमारी लेखनी में जैसी स्याही होती है, तदनुरूप ही विन्दु उत्पन्न होता है। अगर लेखनी में काली स्याही है, तो काला विन्दु उत्पन्न होता है। जिस किसी भी रंग की स्याही रहती है लेखनी में, वैसे ही रंग का छोटे-से-छोटा चिह्न उत्पन्न होता है। हमारी दृष्टि की लेखनी में कौन-सी स्याही है? हमारी दृष्टि प्रकाशमयी है। इसलिए दृष्टि की दोनों धाराएँ जहाँ जाकर मिलती हैं, वहाँ जो विन्दु उत्पन्न होता है, वह प्रकाशमय विन्दु होता है। साथ ही,
विन्दु में तहँ नाद बोले, रैन दिवस सुहावनं।
(संत पलटू साहब)
गगनद्वार दीसै एक तारा।
अनहद नाद सुनै झनकारा।।
(संत तुलसी साहब)
विन्दुपीठं विनिर्भिद्य नादलिंगमुपस्थितम्।
(योगशिखोपनिषद्)
जो अपने को विन्दु पर प्रतिष्ठित करता है, उसको नाद की अनुभूति स्वतः होने लगती है। जबतक कोई अपने को विन्दु पर स्थिर नहीं कर पाता है, तबतक जो नाद-साधना करते हैं, वे कानों को बन्द करके सुनते हैं। जिनकी दृष्टि-साधन की क्रिया परिपक्व हो जाती है, उनको कान बंद करने की आवश्यकता नहीं पड़ती है। वह तो-
मीठी मुरली सुनै सुरत के कान से।
अरे हाँ रे ‘मेँहीँ’ बड़ा कौतुहल होइ,
धवनिन के धयान से।।
जबतक एकविन्दुता की प्राप्ति नहीं होती है, जबतक स्थूल से सूक्ष्म जगत् में प्रवेश नहीं होता है, तबतक उसको आँख, कान और मुँह-ये तीनों बन्द करने पड़ते हैं। गुरु नानकदेवजी महाराज के वचन में है-
तीनों बन्द लगाय कर, सुन अनहद टंकोर ।
नानक सुन्न समाधि में, नहीं साँझ नहिं भोर ।।
संत कबीर साहब भी यही बात कहते हैं-
आँख कान मुख बन्द कराओ।
अनहद झींगा शब्द सुनाओ।।
दोनों तिल एक तार मिलाओ।
तब देखो गुलजारा है।।
अपने गुरुदेव की वाणी में हम पाते हैं-
तीनों बन्द लगाइ, देखि सुनि धारि धवनि धारा ।
चलिय शब्द में खिंचत, बजत जो विविधा प्रकारा ।।
अन्तःप्रकाश मिलने पर जिस अन्तर्नाद की अनुभूति होती है, वह केन्द्रीय शब्द होता है और वह सीधा शब्द, सरल शब्द, डाइरेक्ट (क्पतमबज) शब्द है। जब केन्द्र में सुरत पहुँचती है, तब वहाँ केन्द्रीय शब्द मिलता है। जबतक केन्द्र में हमारी सुरत नहीं पहुँचती है, तबतक कान बन्द करके जो शब्द सुनते हैं, वह इनडाइरेक्ट (Indirect) शब्द है। सारशब्द वही है; लेकिन इनडाइरेक्ट (Indirect) और डाइरेक्ट (Direct)) का भेद है। स्थूल के केन्द्र पर जब वृत्ति पहुँचती है, दृष्टि टिकती है, तब वहाँ जो शब्द मिलता है, वह स्वतः खींचकर सूक्ष्म के केन्द्र पर ले जाता है। इसलिए गुरु महाराज के वचन में आया है कि नादानुसंधान करने के लिए कम-से-कम एकविन्दुता की प्राप्ति अवश्य होनी चाहिए। जो कोई एकविन्दुता प्राप्त किए बिना ही नादानुसंधान करते हैं, वह ऐसा है, जैसे एक वृक्ष में फल लगा हुआ है। एक नेत्रधारी उस फल को तोड़ना चाहता है और दूसरा एक नेत्रहीन है, वह भी उस फल को तोड़ना चाहता है। दोनों ही ढेले फेंक रहे हैं। उस फल को कौन तोड़ेगा? जो नेत्रधारी है, वह देखता है कि अमुक स्थान पर फल लगा हुआ है। निशाना करता है, ढेला मारता है, फल तोड़ लेता है। जो नेत्रहीन है, वह बेचारा उस फल को तो देखता ही है। अन्दाज से वह ढेला फेंकता है। उसका ढेला कभी पेड़ में लगेगा, कभी टहनी में लगेगा, कभी पत्ते में लगेगा। अगर वह निरन्तर ढेला फेंकता ही रह जाय, तो सम्भव है, कभी उस फल में भी लग जाय; लेकिन उसके लिए कोई गारण्टी नहीं दी जा सकती कि वह फल तोड़ ही लेगा; लेकिन जो नेत्रधारी है, वह तो फल तोड़ ही लेगा, इसमें तो संदेह का, संशय का कोई स्थान ही नहीं है। इसी प्रकार जो कोई दृष्टि-साधन की क्रिया करते हैं, उनकी दिव्य दृष्टि खुल जाती है। दिव्य नेत्र खुल जाने के कारण वह दिव्य नाद को सरलतापूर्वक पकड़ लेता है। इसलिए अभी आपलोगों ने जो संत कबीर साहब की वाणी सुनी, उसमें यही बात आयी-
जो कोइ निरगुन दरसन पावै।।
प्रथमे सुरति जमावै तिल पर, मूल मंत्र गहि लावै।
गगन गराजै दामिनि दमकै, अनहद नाद बजावै।।
अगर उस निर्गुण ब्रह्म का दर्शन करना चाहते हैं, तो पहले जो ब्रह्म का सूक्ष्म रूप यानी विन्दु है, उसकी हम आराधना करें। अपनी दृष्टि को उसपर जमावें। संत राधास्वामी साहब भी कहते हैं-
सुरत शब्द एक अंग कर, देखो विमल बहार।
मधय सुखमना तिल बसे, तिल में जोति अकार।।
सुषुम्ना में अपनी वृत्ति को ले जाओ। वहाँ उस केन्द्रीय शब्द को पकड़ो।
बायें इड़ा नाड़ी दक्खिने पिंगला,
रजस्तमोगुणे करिते छे खेला।
मधय सत्त्व गुणे सुषुम्ना विमला,
धारऽ धारऽ ताँरे सादरे।।
गुरु नानकदेवजी महाराज कहते हैं-
सुखमन कै घरि राग सुन, सुन मण्डल लिव लाइ।
अकथ कथा बीचारअै, मनसा मनहि समाइ।।
अगर राग सुनना चाहते हो, ब्रह्मनाद सुनना चाहते हो, तो ‘सुखमन कै घर राग सुन’-अपने को सुषुम्ना में ले जाओ। इसी सुषुम्ना की साधना मीराबाई भी करती थीं, वे कहती हैं-‘सेज सुखमना मीरा सोवै, शुभ है आज घड़ी।’
जो सुखमना की शय्या पर सोता है, उसका अहोभाग्य है। आवश्यकता है सच्चे सद्गुरु की शरण को ग्रहण कर सदाचार-समन्वित हो तन्मयतापूर्वक साधना करने की। संत तुलसी साहब कहते हैं-
मुर्शिदे कामिल से मिल, सिद्क और सबूरी से तकी।
जो तुझे देगा फ़हम, शहरग के पाने के लिए।।
जो पहुँचे हुए गुरु हैं, उनके पास जाओ। सच्चाई से जाओ। कच्चा हृदय लेकर नहीं जाओ। सच्चा हृदय लेकर जाओ, संतोष धारण करके जाओ; वे तुम्हें मार्ग-दर्शन देंगे कि किस तरह सुषुम्ना-मार्ग उन्मुक्त होता है।
क्यों भटकता फि़र रहा, तू ऐ तलाशे यार में।
रास्ता शहरग में है, दिलवर पै जाने के लिए।।
उस प्रभु के पास जाने का रास्ता सुखमना में है। वहाँ से चलना है। वहीं से रास्ते का आरम्भ होता है। इसीलिए दृढ़तापूर्वक दृष्टियोग की क्रिया करनी चाहिए। दृष्टियोग की क्रिया से दिव्य दृष्टि खुलेगी, दिव्य नेत्र मिलेगा और दिव्य शब्द की अनुभूति होगी। वह शब्द एक ही तरह का नहीं है, अनेक तरह के शब्द हैं। इसलिए उसकी संज्ञा अनहद की दी गई है। जब कोई दृष्टियोग की क्रिया करते हैं; दृष्टियोग की क्रिया से जब वे प्रकाश-मण्डल में पहुँचते हैं, तो प्रकाश भी एक ही तरह का नहीं है। प्रकाश भी विभिन्न तरह के हैं। हमारे गुरुदेव के वचन में आया है-
छट-छट छट-छट बिजली छटकै,
भोर का तार दिखाता है।
चन्दा उगत उदय हो रविहू,
धूर शब्द मिल जाता है।।
कभी बिजली की चमक है, कभी चन्द्र का प्रकाश है, तो कहीं सूर्य का प्रकाश है।
पीली नीली लाल सफ़ेदी स्याही सन्मुख आता है।
ये सब भिन्न-भिन्न प्रकार के रंग अपने अन्दर में दीखते हैं; लेकिन इन सब रंगों को तबतक हम देखते रहते हैं, जबतक हमारा मन शब्द में नहीं लग जाता है। जैसे कोई मण्डप सुन्दर ढंग से सजा हुआ हो, विविध रंगों के प्रकाश से वह मण्डप सजा हुआ हो, बहुत चीजें बहुत तरह से सजायी गई हों, तो दर्शक जब वहाँ जाते हैं, तो वे उस मण्डप की सजावट को देखते हैं। उन्हीं विविध रूपों को देखने में उनका मन लगता है; लेकिन जब उसी मण्डप पर शब्द-गायन होने लग जाता है, तो लोगों का मन उस शब्द-गायन में फँस जाता है। वहाँ का जो दृश्य पहले दीखता था, वह गौण पड़ जाता है, शब्द की प्रधानता हो जाती है। उसी तरह जो कोई अन्तस्साधना करते हैं, यद्यपि आश्चर्यजनक प्रकाश मिलता है, जिस प्रकाश से जीवन में कभी भेंट नहीं हुई थी, उस तरह के प्रकाश की अनुभूति होती है। मन उसमें लग जाता है, गड़ जाता है, आकर्षित हो जाता है; लेकिन जब अन्तर्नाद की अनुभूति होने लगती है, तब वे विविध प्रकाश गौण पड़ जाते हैं। जब आकर्षण दूसरी ओर हो जाता है, तब पहला आकर्षण शिथिल पड़ जाता है। अपने अन्दर के प्रकाश में देखते-देखते उस ओर से हमारे मन में शिथिलता आती है और अन्तर्नाद की प्रबलता हो जाती है। पहले मोटे-मोटे शब्दों को सुनते हैं, फिर उससे महीन शब्दों को सुनते हैं, फिर उससे भी महीन शब्दों को सुनते हैं। इस तरह क्रम-क्रम से आगे बढ़ते जाते हैं।
मुरली बीन शंख शहनाई, बंकनाल की बाट।
संत तुलसी साहब ने लिखा है। संत कबीर साहब कहते हैं-
विमल विमल अनहद धुनि बाजै,
सुनत बने जाको धयान लगे।
जिस तरह के शब्द हम सुनते हैं, हमारे मन पर उसी तरह की छाप पड़ती है। जैसे कोई दुःखी होकर रो रहा होता है, तो उस व्यक्ति की दुःखदायिनी ध्वनि को सुनकर हृदय में दुःख हो जाता है। कोई हमको कटु वचन कहता है या गाली देता है, तो उस कटु वचन को सुनकर हमारे मन में दुःख होता है। कोई प्रसन्नता से आकर हमसे मिलता है अथवा हँसते हुए हमसे बोलता है, तो उसकी प्रसन्नता- भरी वाणी से हमको भी प्रसन्नता हो जाती है। जिस तरह के शब्द हम सुनते हैं, हमारा मन उस तरह का हो जाता है, तो जो शब्द परम प्रभु परमात्मा की ओर से आया हुआ है, उस शब्द को यदि हम सुनेंगे, तो हमारा मन कैसा होगा? बाहर के जो बाजे-गाजे होते हैं, उन बाजे-गाजों को सुनकर, सुरीले स्वर को सुनकर भी हमारा आकर्षण उस ओर हो जाता है। जो हमारे हाथ का बनाया हुआ बाजा है, जो हमारे गले का गाया हुआ गाना है, उस बाजे और गाने को सुनकर तो हम उस ओर आकर्षित हो जाते हैं; लेकिन जो बाजा परम प्रभु परमात्मा का ही बनाया हुआ है और परम प्रभु परमात्मा की आवाज है, उसको यदि हम सुनेंगे, तो हमारा मन कैसा होगा? इसलिए हम उस ध्वनि को सुनें। वह ध्वनि सतत हो रही है।
है आ रही धुर से सदा, तेरे बुलाने के लिए।
संत तुलसी साहब ने कहा है-उस प्रभु का शब्द हमको बुलाने के लिए आ रहा है; लेकिन हम उस शब्द को नहीं सुन रहे हैं। जैसे कोई बच्चा बच्चों के साथ खेल रहा हो और उसके विद्यालय जाने का समय हो गया हो, उसकी माँ पुकार रही हो कि तुम्हारे विद्यालय जाने का समय हो गया है, जाओ; लेकिन खेलने की धुन में मस्त होने के कारण वह बच्चा उस आवाज को नहीं सुन रहा हो। कोई दूसरा सुनता है, वह उस बच्चे से कहता है कि तुम्हारी माँ तुमको पुकार रही है। तुम्हारे स्कूल जाने का समय हो गया है, तो वह उस तरफ से हटता है; माँ की आवाज सुनकर वह माँ के पास जाता है। पश्चात् पढ़ने के लिए विद्यालय जाता है, पढ़ता है और वह विद्वान होता है। उसी तरह हम रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द-इन पंच विषयों में खेल रहे हैं। उन्हीं की धुन में हम लगे हुए हैं। इसलिए हमारे अन्दर जो आवाज हो रही है प्रभु की ओर से हमको बुलाने की, उसको हम नहीं सुन रहे हैं। जो संत सद्गुरु होते हैं, वे कहते हैं कि अरे! किधर तुम भटक रहे हो? प्रभु तुमको पुकार रहे हैं। अभी से नहीं, सदा से पुकार रहे हैं-
है आ रही सदा से सदा यार देखना।
सुनोगे कैसे?
गोश बातिन हो कुशादा, जो करै कुछ दिन अमल।
ला-इला अल्लाह हो अकबर पै जाने के लिए।।
जब तुम दृष्टियोग की क्रिया करोगे, दिव्य दृष्टि खुलेगी, तब उस दिव्य नाद को तुम सुनोगे और वह नाद ले जाएगा तुम्हें वहाँ, जहाँ से वह आता है; क्योंकि प्रत्येक नाद में अपनी ओर आकर्षण करने का गुण होता है। बाहर का जो नाद है, वह बाहर की ओर खींचता है। जो भीतर का नाद है, वह भीतर की ओर खींचता है। जो परम प्रभु परमात्मा की ओर से आया हुआ नाद है, वह परमात्मा की ओर खींचता है। मान लीजिए, अँधेरी रात हो, हाथ को हाथ नहीं सूझता हो और तू-तू करके हम कुत्ते को पुकारते हैं, तो कुत्ता हमारे पास आ जाता है। लाउडस्पीकर यहाँ लगा हुआ है। यहाँ से आवाज जहाँ तक जाती है, अँधेरी रात क्यों न हो, उस आवाज को सुनते-सुनते लोग यहाँ आ जायेंगे। जिस आवाज को जो सुनता है, सुननेवाला उस आवाज को सुनते-सुनते वहाँ तक पहुँचता है, तो जो आवाज परम प्रभु परमात्मा की ओर से आती है, उस आवाज को यदि हम सुनेंगे, तो कहाँ जाएँगे? उस परम प्रभु परमात्मा तक पहुँच जायेंगे। इसीलिए संतमत की साधना में ज्योति और नाद की मुख्यता है। रूप ब्रह्माण्ड को हम दृष्टियोग की क्रिया से पार करेंगे और वहाँ जो शब्द मिलेगा, उस शब्द को पकड़कर हम आगे अरूप ब्रह्माण्ड में जायेंगे, जहाँ पर-
आगे शून्य समाधि, नाद ही नाद की।
लहै संत का दास, जाहि सुधि आद की।।
आगे चलकर ज्योति छूट जाती है। शब्द रह जाता है। उसी शब्द के सहारे साधक आगे बढ़ते हैं। एक-एक केन्द्र को क्रम-क्रम से पार करते हुए सभी केन्द्रों को पार कर जाते हैं।
बजती हैं पाँच नौबतें, सुनि एक-एक को।
प्रति एक पै चढ़ि जाय के, निज नाह खोजना।।
साधक प्रथम स्थूल मण्डल के केन्द्रीय शब्द को ग्रहण करता है, उसके सहारे वह सूक्ष्म के केन्द्र पर पहुँच जाता है। सूक्ष्म के केन्द्र पर के शब्द को जो सुनते हैं, वह शब्द खींचकर उसको कारण के केन्द्र पर ले जाता है। कारण के केन्द्रीय शब्द को पकड़कर वह महाकारण के केन्द्र पर पहुँचता है और महाकारण के केन्द्रीय शब्द को पकड़कर कैवल्य के केन्द्र पर वह पहुँच जाता है। इस तरह जड़-कैवल्य के सारे आवरण झड़ जाते हैं। चेतन अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है। उसी स्थिति में परम प्रभु परमात्मा के दर्शन होते हैं। दर्शन तो होते हैं; लेकिन स्पर्शन नहीं होता। वह कैवल्य का पर्दा जब चेतन पर से हट जाता है, तब जीव और पीव मिलकर एक हो जाता है। संतमत की साधना शृंखलाबद्ध है, क्रमबद्ध है। पहले स्थूल सगुण साकार की उपासना, फिर सूक्ष्म सगुण साकार की उपासना, पश्चात् सूक्ष्मतर सगुण निराकार की उपासना और अंत में सूक्ष्मतम निर्गुण निराकार की उपासना है। यहाँ उपासना की इति हो जाती है। प्रभु मिल गए, काम समाप्त हुआ।
अंत में हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि पहले मानस जप और मानस ध्यान-इन दो क्रियाओं को करना चाहिए। इन दो क्रियाओं को करने से योग्यता आती है दृष्टियोग करने की। दृष्टियोग में एक विन्दु का अवलम्ब रहता है। उस विन्दु-ध्यान को करके फिर नाद-ध्यान की क्रिया होती है। परम पूज्य गुरुदेव की वाणी में हम कह सकेंगे-
नाद से नादों में चलि धारु, प्रणव सत् धवनि सार रे।
एक ओऽम् सत्नाम धवनि धारि, ‘मेँहीँ’ हो भव पार रे।।
इस तरह सारशब्द को पकड़कर उस सार- धार का आधार लेकर सर्वाधार को पाकर भव-पार हो जायेंगे, आवागमन का चक्र छूट जाएगा, फिर कभी भी दुःख का मुख नहीं देखना पड़ेगा। यही संतमत की साधना का सार थोड़े-से शब्दों में कहा।
यह प्रवचन पक्ष-ध्यान-साधना के शुभ अवसर पर महर्षि मेँहीँ ध्यान- योग-आश्रम, डेहरी-ऑन-सोन में दिनांक 05-12-1995 ई0 को प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था। (शांति-संदेश, नवबर, 2011)
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आपलोगों को ज्ञात कराया गया है कि यहाँ संतमत का सत्संग होगा। संतमत कोई नया मत, नया धर्म, नया मजहब, नया सम्प्रदाय नया रिलिजन नहीं है। यह परम पुरातन सनातन वैदिक मत है। वैदिक मत होते हुए भी यह किसी अवैदिक मत से राग-रोष, घृणा-द्वेष आदि नहीं करता। यह सर्वधर्मसमन्वय मत है। सन्तमत अर्थात् संतों का मत।
शान्ति स्थिरता वा निश्चलता को कहते हैं। शान्ति को जो कोई प्राप्त कर लेते हैं, वे सन्त कहलाते हैं। चाहे वे किसी भी देश के, किसी भी वेश के, किसी भी जाति-पाँति के, किसी भी धर्म मजहब, सम्प्रदाय, रिलिजन आदि के क्यों न हों; सभी सन्त समान हैं। संतमत-सत्संग में सभी सन्तों की समान रूप से मान्यता है। कोई छोटे और कोई बड़े नहीं। इसलिए सन्तमत को समुद्रमत कहते हैं। जिस तरह समुद्र में विभिन्न नदियाँ आकर मिलती हैं, उसी तरह सन्तमत-सत्संग में विभिन्न संतों की वाणियाँ आपलोगों को सुनने को मिलेंगी। जहाँ आप वेद और पुराण की बात सुनेंगे, वहाँ आप बाइबिल और कुरान की बात सुन पायेंगे। बौद्ध, जैन, सिक्ख, ईसाई, इस्लाम- सभी धर्म इसमें समाहित हैं। अभी आपलोगों ने रामचरितमानस का पाठ सुना।
भगवान् श्रीराम जब विजय प्राप्त कर, सीताजी का उद्धार कर अयोध्या पधारे, तो उन्होंने अपने राज्य का निरीक्षण किया। उन्होंने देखा कि भरतजी ने राज-काज अच्छी तरह सँभाला है। प्रजा सब प्रकार से सुखी है; किसी प्रकार किसी को कष्ट नहीं है। मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् श्रीराम यह विचार कर कि हमारी प्रजा इस संसार में सुखी है; किन्तु सदा यह यहाँ नहीं रहेगी। एक-न-एक दिन सबका शरीर छूटेगा, तो शरीर छूटने के बाद यह जहाँ जायगी, वहाँ भी यह सुख से रहे, इसलिए उन्होंने एक बहुत बड़ी सभा की। उसमें गुरुजन, पुरजन, सज्जन-सब-के-सब एकत्र हुए। बहुत-से ऋषि-मुनि उपस्थित थे। मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम के पूज्य गुरुदेव श्रीवशिष्ठजी भी समुपस्थित थे। भगवान श्रीराम कहते हैं-
“ सुनहु सकल पुरजन मम वानी ।
कहउँ न कछु ममता उर आनी ।।
नहिं अनीति नहिं कछु प्रभुताई ।
सुनहु करहु जो तुम्हहि सोहाई ।।”
(रामचरितामानस)
भगवान् श्रीराम प्रजा से कहते हैं कि हे प्रजागण! सुनो! मैं कुछ ममता-ग्रस्त होकर नहीं कह रहा हूँ। मैं आपलोगों से जो कुछ कहता हूँ, आपलोग ध्यान देकर सुनें। मेरी बात आपलोगों को उचित लगे, तो ग्रहण करें; उचित नहीं लगे, तो आप मुझे कह दीजिये कि आपने जो बात कही, वह सही नहीं है। भय की कोई बात नहीं है।
“ जौ अनीति कछु भाषौं भाई।
तौ मोहि बरजहु भय बिसराई ।।”
यों तो मैं जो कुछ कहना चाहूँगा, बिल्कुल नीति की बात, न्यायसंगत बात कहूँगा। अगर कहीं मेरे मुँह से अनीति की बात निकल गई, तो आप निर्भय होकर वर्जन कर दीजियेगा। कह दीजियेगा कि यह बात जो आप कर रहे हैं, अनीति है, नीतिपूर्ण नहीं है, न्यायसंगत नहीं है। विचारणीय विषय है कि भगवान् श्रीराम राजाधिराज है, फिर भी वे अपनी प्रजा को बोलने की छूट दे रहे हैं, स्वतंत्रता दे रहे हैं। कह रहे हैं कि अन्याय के विपक्ष में आप निर्भय होकर बोल सकते हैं।
सज्जनो! एक-न-एक दिन सबका शरीर छूटेगा। जन्म लेने का अर्थ ही मृत्यु होता है। जो जन्म लेंगे, वे मरेंगे, सुनिश्चित है। भले ही जितने मरेंगे, सब-के-सब जन्म ले लें, यह बात नहीं है; लेकिन जितने-के-जितने जन्म लेंगे, उतने-के-उतने मरेंगे, यह बात निश्चित है। अन्य किसी बात में सन्देह हो सकता है; जैसे हम व्यापार करेंगे, हमारा व्यापार चलेगा या नहीं, इसमें सन्देह है। हम पढ़-लिखकर विद्वान होना चाहते हैं, हम विद्वान् हो सकेंगे या नहीं हो सकेंगे, इसमें सन्देह है। हम खेती करते हैं, सफलता मिलेगी या नहीं, इसमें सन्देह है। हम प्ण्।ण्ैण् की परीक्षा दे रहे हैं, उत्तीर्ण होकर उच्च पद पर प्रतिष्ठित हो सकेंगे वा नहीं, इसमें सन्देह है। इन सारी बातों में सन्देह है; लेकिन इस बात में संदेह नहीं हैं कि हम मरेंगे। जितने जो कोई संसार में आये हैं, सब-के-सब मरेंगे, इसमें कोई सन्देह नहीं है। भोजन करने के लिये हम बैठे हैं, भरपेट भोजन हम कर पाएँगे या नहीं, इसमें भी सन्देह है। एक लघु कथा है-
एक कृषक था। उसको एक पुत्र था। दोनों ने मिलकर खेती की। लड़का कहता है कि पिताजी! हमलोगों ने बहुत मेहनत से खेती की है। फसल खूब अच्छी होगी। पिता ने कहा कि हाँ, बेटा! मेहनत करो। मेहनत की गई। फसल अच्छी उग आई। पुत्र ने कहा कि पिताजी, देखिये! फसल कितनी अच्छी लहलहा रही है! अनाज होगा, हमलोग खूब खायेंगे। पिता ने कहा कि बेटा! अभी तो पौधे ही निकले हैं। जब दानें लगेंगे, तब न। जब दानें निकल आये, तो पुत्र ने कहा कि पिताजी! अब तो खायेंगे न, देखिये दानें निकल आये हैं? पिता ने कहा-‘बेटा! अभी दानें कच्चे हैं, पकेंगे तब न।’ जब फसल पककर तैयार हो गयी, तब पुत्र ने कहा-‘देखिये, पिताजी! अब तो फसल पककर तैयार है, अब तो खायेंगे न?’ पिता बोला-बेटा! अभी तो खेत में फसल है, दरवाजे पर फसल आयेगी तब तो।’ कबीर साहब ने कहा है- “ पाकी खेती देखकर गरवे कहा किसान। अबहुँ झमेला बहुत है, घर आये पै जान ।।” जब फसल काटकर घर पर ले आया, तो पुत्र ने कहा-‘देखिये, पिताजी! अब तो फसल घर पर आ गई, अब तो खायेंगे न?’ पिता ने कहा-‘बेटा, अभी देर है। अभी तो फसल तैयार हुई है, आटा कहाँ बना है? गेहूँ पीसा जायेगा, आटा तैयार होगा, रोटी बनेगी, तब न खायेंगे, अभी कैसे खायेंगे?’ गेहूँ पीसा गया। रोटी बनी, थाली में आ गयी। पुत्र ने कहा-‘पिताजी! अब कहिये, अब तो रोटी बनकर थाली में आ गयी, अब क्या सन्देह है?’ पिता ने कहा-‘बेटा! अभी क्या अभी तो थाली में है, मुँह में रोटी जायेगी तब न।’ बेटे ने कहा-‘अब क्या सन्देह है?’ जब उसके पिता ने रोटी का टुकड़ा मुँह में डाला, तो पुत्र ने कहा-‘पिता जी! अब क्या, अब तो मुँह में गया?’ पिता बोला-‘बेटा!’ अभी क्या, अभी तो मुँह में ही है, पेट में जायेगा, तब तो।’ इतना सुनकर पुत्र का मन क्रोध से भर आया। उसने जोर से एक मुक्का पिता की गर्दन पर मारा। मुक्का लगते ही बूढ़े का प्राणान्त हो गया। उसकी मुँह की रोटी मुँह में ही रह गयी। राम-नाम सत्य हो गया। (श्रोताओं की ओर से ‘श्री सद्गुरु महाराज की जय’ का नारा) मेरे कहने का तात्पर्य यह कि अन्य सब कामों के होने में सन्देह हो सकता है; यही बात भगवान् श्रीराम के मन में आयी कि एक-न-एक दिन हमारी प्रजा का शरीर छूटेगा। जब हमारी प्रजा का शरीर छूटेगा, तब हमारी प्रजा जहाँ जायेगी, वहाँ भी वह सुख से रहे, इसलिए उन्होंने सबको बुलाकर उपदेश दिया-
“ जौं परलोक इहाँ सुख चहहू ।
सुनि मम वचन हृदय दृढ़ गहहू ।।”
हे प्रजागण! यदि इस लोक में और परलोक में, दोनों जगह सुख चाहते हो, तो मैं जो कहता हूँ, वह ध्यान देकर सुनो और मनोयोगपूर्वक करो। क्या करने के लिए वे कहते हैं? ईश्वर की भक्ति, जो सरल और सुखद है। “ सुलभ सुखद मारग यह भाई। भगति मोरि पुरान श्रुति गाई।।” मेरी भक्ति यानी ईश्वर की भक्ति करो। ईश्वर की भक्ति करने का अधिकारी कौन? ब्राह्मण, क्ष्ात्रिय, वैश्य, शूद्र, विद्वान-अविद्वान्, धनी-निर्धन, नर-नारी कौन? ‘जितने मनुष तनधारि हैं, प्रभु भक्ति कर सकते सभी।’ भगवान् श्रीराम इसी दृष्टि को अपनाकर कहते हैं- ‘बड़े भाग मानुष तनु पावा ।’
मनुष्य-शरीर तुमको मिला है, यह तुम्हारा बड़ा भाग्य है। वे यह नहीं कहते हैं कि तुम उच्च कुल में जन्म लिये हो, इसलिए तुम्हारा बड़ा भाग्य है। यह नहीं कहते हैं कि तुम धनी घर में जन्म लिये हो, इसलिए तुम्हारा बड़ा भाग्य है। तुम बड़े विद्वान् हो, इसलिए तुम्हारा बड़ा भाग्य है, यह भी नहीं कहते हैं; बल्कि मानव मात्र के लिए वे कहते हैं कि उनका बड़ा भाग्य है, जिनको मनुष्य का शरीर मिला है। जिज्ञासा होती है कि मनुष्य-शरीर की विशेषता क्या है? उत्तर में निवेदन है; भगवान् कहते हैं-
“ मम माया संभव संसारा ।
जीव चराचर विविध प्रकारा ।।
सब मम प्रिय सब मम उपजाये ।
सबते अधिक मनुज मोहि माये ।।”
भगवान् कहते हैं-वह सारा विश्व मेरा बनाया हुआ है। सब मेरे प्रिय हैं; लेकिन समस्त चराचर प्राणियों में सबसे अधिक प्रिय मुझे मानव है। पुनः कहते हैं-
“ एक पिता के विपुल कुमारा ।
होहिं पृथक गुन सील अचारा ।।
कोउ पण्डित कोउ तापस ज्ञाता ।
कोउ धनवन्त सूर कोउ दाता ।।
कोउ सर्वज्ञ धर्मरत कोई ।
सब पर पितहि प्रीति सम होई ।।”
एक ही पिता के अनेक पुत्र होते हैं। कोई ज्ञानवान् होता है, कोई विद्वान होता है, कोई धनवान् होता है, कोई धर्मवान् होता है। भिन्न-भिन्न गुणसम्पन्न भिन्न-भिन्न पुत्र क्यों न हो; लेकिन पिता का प्रेम सब पर सम होता है। जड़-चेतन जितनी भी सृष्टि है-सबमें मनुष्य-शरीर को श्रेष्ठ बतलाया गया है। मनुष्य-शरीर की विशेषता यह है कि इन शरीरों में न्यूनाधिकता नहीं होती है। मनुष्येतर जितने भी प्राणी हैं, उनके शरीरों में न्यूनाधिकता रहती है। चाहे जलचर हों, चाहे थलचर हों, चाहे नभचर हों-सबमें न्यूनाधिकता होती है; लेकिन जितने मनुष्य हैं, सबकी लम्बाई एक-सी होती है, उनमें न्यूनाधिकता नहीं होती। जन्म से लेकर बाल, यौवन, जरा, मृत्यु पर्यन्त उसकी लम्बाई में कोई अंतर नहीं पड़ता।
आप देखेंगे कि कोई गाय छोटी होती है, कोई बड़ी होती है। कोई भैंस छोटी होती है, कोई बड़ी होती है। सब एक ही माप की नहीं है; लेकिन मनुष्य जितने है, सबकी माप एक ही है। आप कहेंगे- कोई आदमी लम्बा होता है, कोई नाटा होता है। कोई चार हाथ का होता है, तो कोई पाँच हाथ का भी होता है। ऐसी स्थिति में सभी मनुष्य बराबर कैसे हो सकते हैं? उत्तर में निवेदन है-
मनुष्य जन्म लेता है, बढ़ता है, युवा होता है, बूढ़ा होता है और मर जाता है; लेकिन वह उतना ही बड़ा रहता है, जितना बड़ा वह जन्म लेता है। आप कहेंगे कि जिस समय मनुष्य जन्म लेता है, एक हाथ का रहता है और बढ़ते-बढ़ते दो हाथ, तीन हाथ, साढ़े तीन हाथ और उससे भी अधिक हाथ का हो जाता है। बराबर कैसे रहता है? उत्तर में पुनः निवेदन है-मेरे कथन पर मनन करने का कष्ट करें। जिस समय बच्चा जन्म लेता है, अपने हाथ से वह साढ़े तीन हाथ का होता है। युवा होने पर भी वह साढ़े तीन हाथ का रहता है और जब बूढ़ा होता है, तब भी वह अपने हाथ से साढ़े तीन हाथ का ही रहता है। मृत्यु की गोद में जाने पर भी वह साढ़े तीन हाथ का रहता है। उसमें कोई न्यूनाधिकता नहीं होती। साढ़े तीन हाथ का जन्म लिया है और मरणपर्यन्त वह साढ़े तीन हाथ का ही रहता है। इस साढ़े तीन हाथ की विशेषता क्या है?
84 लाख प्रकार की योनियों में मात्र मनुष्य शरीर ही ऐसा होता है, जो 84 अंगुल का होता है। जितने मनुष्य हैं, सब अपने-अपने हाथ से साढ़े तीन हाथ के होते हैं। साढ़े तीन हाथ का मतलब है-सात वित्ते। एक बित्ते में बारह अंगुलियाँ, तो सात बित्ते में (12 ग 7 = 84 अंगुलियाँ। इस प्रकार समस्त मानव अपनी-अपनी माप से 84 अंगुलियों के होते हैं। परमात्मा की ओर से 84 अंगुल का शरीर इसलिए मिला है कि मानव 84 लाख योनियों से छूट जाय। मानवेतर अन्य किसी शरीर में वह क्षमता नहीं है कि 84 लाख योनियों से वह छूट जाय। यह मनुष्य-शरीर की विशेषता है। इसी के लिए परमात्मा ने मनुष्य का शरीर दिया है।
“ लख चौरासी भरमि के, पौ पे अटके आप ।
अबकी पासा ना पड़े, फिर चौरासी जाय ।।”
(संत कबीर साहब)
चौपड़ एक खेल होता है, जिसमें 84 कोठे होते हैं। चार गोटियाँ होती हैं और छह कौड़ियाँ होती हैं। कौड़ियाँ भाँजकर गिराते हैं। जितनी कौड़ियाँ चित होती हैं, उसी क्रम से वे गोटियाँ चलती हैं। चलते-चलते जब 84वें कोठे पर गोटी आ जाती है, अब फिर कौड़ियाँ भाँजने पर जब एक कौड़ी चित होती है, तो गोटी लाल हो जाती है। 84वें कोठे को ‘पौ’ कहते हैं। उसी के लिए कहा-‘पौ पे अटके आय।’ जैसे गोटी ‘पौ’ पर आकर अटकी हुई है और एक कौड़ी चित हुई, तो गोटी लाल हो जाती है, उसी तरह से 84वें कोठे पर जीव आया हुआ है, अगर यह परम प्रभु परमात्मा में एक चित्त लगा दे, तो गोटी लाल है, पौ-बारह है। यदि कौड़ियाँ कहीं दो-तीन-चार चित हो गयीं, तो फिर 84 कोठों में उस पौ पर आई हुई गोटी को घूमना पड़ता है। उसी तरह से हमारा चित्त भी कहीं दो-तीन-चार में फँस गया, तो फिर 84 लाख योनियों में घूमना पड़ेगा, इसलिए चित्त को एक करना है। एक चित्त करने के लिए एक इष्ट पर अपने को लगाओ। बहुदेवों की उपासना में चित्त की एकाग्रता नहीं होगी।
मैं दिल्ली गया हुआ था ऑल इण्डिया मेडिकल इन्स्टिच्यूट ऑफ साइन्स अस्पताल में कान दिखलाने के लिए। डॉक्टर को कान दिखला दिया। मुझको साधु-वेश में देखकर डॉक्टर साहब ने पूछा-‘बाबा! आप किनकी उपासना करते हैं?’ मैंने कहा-‘मैं एक ईश्वर की उपासना करता हूँ।’ डॉक्टर साहब ने कहा-‘बाबा! मैं भी पूजा करता हूँ।’ मैंने पूछा-‘आप किनकी पूजा करते हैं?’ डॉक्टर साहब ने उत्तर दिया-‘बाबा! मैं हनुमानजी की पूजा करता हूँ। गणेशजी की पूजा करता हूँ। शिवजी की करता हूँ। दुर्गाजी की करता हूँ।’ इस प्रकार आठ-दस देवताओं के नाम उन्होंने बता दिये और पूछा-‘बाबा! ठीक करता हूँ न?’ मैंने कहा-‘पूजा करते हैं यह तो ठीक करते हैं; लेकिन आप बहुदेव-उपासी बने हुए हैं, यह ठीक नहीं है। किसी एक को पकड़िये। डॉक्टर साहब ने कहा-‘बाबा! एक की पूजा करूँगा और सबकी पूजा नहीं करूँगा, बाकी नाराज हो जाएँगे तब?’ मैंने कहा-‘देखिये। कितने देवताओं को खुश कीजियेगा? हमारे यहाँ 33 करोड़ देवता हैं। मान लिया कि आपने समय निकालकर 1 करोड़ देवताओं की पूजा कर ली, बाकी 32 करोड़ देवता आपसे नाराज हो जाएँगे। आजकल वोट का जमाना है, एक करोड़ वोट आपको पड़ेंगे और 32 करोड़ दूसरे को, तब आपका क्या हाल होगा?’ डॉक्टर साहब ने कहा-‘कहते तो आप ठीक हैं; किन्तु थोड़ी-थोड़ी सबकी पूजा अच्छी होती है।’ मैंने देखा कि अभी भी इनके मन ने नहीं माना है। मैंने कहा-‘पहले आप डठठै डॉक्टर थे, उस समय किस-किस रोग की चिकित्सा आप करते थे और आजकल किस-किस रोग की चिकित्सा करते हैं?’ उन्होंने उत्तर दिया-‘जब मैं डठठै था, तब सब रोगों का इलाज करता था; लेकिन आजकल तो केवल कान का इलाज करता हूँ।’ मैंने पूछा-‘जिस समय आप डठठैण् थे, उस समय आप बड़े डॉक्टर थे या आज बड़े डॉक्टर हैं?’ उन्होंने कहा-‘उस समय तो साधारण डठठैण् डॉक्टर था, बड़ा डॉक्टर तो अब हूँ।’ मैंने कहा-‘डॉक्टर साहब! जबतक बहुदेव उपासक रहियेगा, तबतक साधारण डठठै बने रहियेगा और जब एक ईश्वर की उपासना कीजिएगा, तो बहुत बड़े डॉक्टर बन जाएँगे। (श्रोतागण द्वारा ‘श्रीसद्गुरु महाराज की जय’ का नारा)
अतः एक को पकड़िये। एक इष्ट के उपासक सच्चे होते हैं और बहुदेव-उपासक कच्चे होते हैं।
“ एक साधे सब सधे, सब साधे सब जाय ।
जो गहि सेवै मूल को, फूले फले अघाय ।।”
वृक्ष लगाना हो, तो उसकी जड़ में पानी दीजिए। जड़ में पानी दीजिएगा, तो समूचा वृक्ष हरा-भरा हो जाएगा। वह पल्लवित होगा और फलित होगा। पत्ते-पत्ते पर पानी दीजियेगा, तो गाछ ही सूख जाएगा। एक को पकड़िये। अभी एक सज्जन से मेरी बात हुई। उन्होंने बतलाया-‘हनुमानजी की पूजा करता हूँ, शंकरजी की पूजा करता हूँ, गणेशजी की पूजा करता हूँ। कई देवताओं के नाम उन्होंने बता दिए।’ मैंने कहा-‘हनुमानजी की पूजा करते हैं, तो हनुमान चालीसा पढ़ते हैं?’ उन्होंने कहा-‘हाँ, पढ़ता तो हूँ।’ मैंने पूछा-‘श्रीहनुमान चालीसा के आरंभ में गोस्वामीजी ने क्या लिखा है?’ उन्होंने उत्तर दिया-
“ श्रीगुरु चरण सरोज रज, निज मन मुकुरु सुधारि ।
बरनऊँ रघुवर विमल जसु, जो दायक फल चारि ।।
बुद्धिहीन तुन जानिकै, सुमिरौं पवन-कुमार ।
बल बुद्धि विद्या देहु मोहिं, हरहु कलेस विकार ।।”
मैंने पूछा-‘श्रीगोस्वामीजी ने पहला स्थान किनको दिया?’ उन्होंने उत्तर दिया-‘गुरु को।’ मैंने पूछा-‘दूसरा स्थान किसको दिया?’ उन्होंने कहा-‘राम को।’ मैंने पूछा-‘तीसरा स्थान?’ उन्होंने कहा-‘पवन कुमार श्रीहनुमानजी को।’ मैंने पूछा-‘देखिये, सन्तों ने जिनको जो स्थान दिया है, हमको भी उनको वही स्थान देना चाहिए। अर्थात् गुरु को पहला स्थान दीजिए। सन्त सद्गुरु से बढ़कर और कोई नहीं हो सकते। एक गुरु को पकड़िए।’
“ देवी देव समस्त पूरण ब्रह्म परम प्रभू ।
गुरु में करैं निवास कहत हैं संत संभू ।।”
गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा-
“ पात पात के सींचवो, बरी बरी के लोन ।
तुलसी खोटे चतुरपन, कलि डहके कहु को न ।।”
वृक्ष लगाना चाहते हैं और उसमें बुद्धिमानी क्या करते हैं, पत्ते-पत्ते पर पानी देते हैं। हमलोगों के यहाँ की माताएँ पकौड़ी बनाती हैं; लेकिन उनमें जो अपने को बहुत बुद्धिमती समझती हैं, वे पकौड़ी किस तरह से बनाती हैं? पकौड़ी बना-बनाकर ऊपर से उनमें अलग-अलग से नमक डालती हैं। वे समझती हैं कि हम बड़ी बुद्धिमती हैं। उसका क्या परिणाम होगा? किसी में कम नमक होगा, तो किसी में बेशी नमक होगा और किसी पकौड़ी में नमक छूट ही जाएगा। यह बुद्धिमत्ता नहीं है, बुद्धिमत्ता तो यह है कि वेसन ही में नमक डाल दें। चाहे छोटी पकौड़ी बनाओ, चाहे बड़ी पकौड़ी बनाओ, सबमें समान रूप से नमक चला जाएगा। उसी तरह एक ईश्वर की उपासना में सबकी उपासना हो जाती है। उसी के लिए यह मनुष्य का शरीर मिला है। इसलिए भगवान राम कहते हैं-
‘बड़े भाग मानुष तनु पावा ।’
मनुष्य का शरीर मिला हुआ; लेकिन इसकी सार्थकता कब होगी? जब ‘बड़े भाग पाइये सत्संगा।’ होगा। मनुष्य का शरीर मिला हुआ है और सत्संग नहीं करते हैं, तो भाग्य आपका जगा नहीं। भाग्यवान तो आप हैं; लेकिन आपका भाग्य सोया हुआ है। जगेगा तब, जब आप सत्संग करेंगे। अगर सत्संग नहीं कर रहे हैं, मनुष्य-जन्म पाकर भी यदि सत्संग नहीं, तो गोस्वामी जी कहते हैं-
“ ते नर नरक रूप जीवत जग,
भव भंजन पद विमुख अभागी ।”
वह बड़भागी नहीं, वह अभागी है। जो सत्संग करते हैं, वे बड़भागी हैं। उनको ईश्वर-भक्ति करने की प्रेरणा मिलती हैं। ईश्वर की भक्ति में ही जीवों का कल्याण है, बाह्य संसार के किसी पद को पाकर, किसी भी प्रतिष्ठा को पाकर, कितनी भी सम्पत्ति को पाकर कोई भी शान्ति प्राप्त नहीं कर सकता। शान्ति नाम की चीज, सुख नाम की चीज, चिर-कल्याण नाम की चीज बाहर संसार में नहीं है, अपने अन्दर है। जबतक कोई अपने अन्दर प्रवेश नहीं करेंगे, कल्याण नहीं, शान्ति नहीं, शाश्वत सुख नहीं। इसलिए ईश्वर की भक्ति करें। भक्ति करें, तो कैसे करें-सीखना पड़ेगा। सीखने के लिए उनके पास हमें जाना होगा, जिन्होंने ईश्वर की भक्ति की है।
अगर हमको आर्ट्ससीखना है, तो आटर््स- प्रोफेसर के पास जाएँगे। कॉमर्स सीखना है, तो कॉमर्स-प्रोफेसर के पास जाएँगे और साइन्स सीखना है, तो साइन्स-प्रोफेसर के पास जाएँगे। उसी तरह अगर हमें आध्यात्मिक ज्ञान की शिक्षा-दीक्षा लेनी है, तो आध्यात्मिक ज्ञान के जो गुरु हैं, उनके पास जाएँगे। इसलिए गोस्वामीजी ने लिखा-
“ जो गुरु पद अम्बुज अनुरागी ।
ते लोकहु बेदहु बड़भागी ।।”
एक तो मनुष्य का शरीर मिला, यह बड़ा भाग्य हुआ। सत्संग किया, भाग्य आपका जगमगाया। अब गुरु की शरण में आप चले गए। गुरु के चरणाम्बुज में अनुरक्ति आपकी हो गयी, तब ‘लोकहु बेदहु बड़भागी’ हो गए। किन्तु सन्त कबीर साहब की यह साखी भी याद रखिए-
“ गुरु गुरु में भेद है, गुरु गुरु में भाव ।
सोई गुरु नित बन्दिए, (जो) शब्द बताये दाव ।।”
जिस शब्द से प्रभु की प्राप्ति होती है, उस शब्द के जो ज्ञाता हैं, उस शब्द के जो दाता हैं, उस शब्द के जो विधाता हैं, ऐसे गुरु के पास आप जाइए। सन्त राधास्वामी साहब ने कहा-
“ गुरु सोइ जो शब्द सनेही ।
शब्द बिना दूसर नहीं सेई ।।
शब्द कमाये सो गुरु पूरा ।
उनके चरणों की हो जो धूरा ।।”
उन्होंने तो यहाँ तक कह दिया-
‘शब्द मारगी गुरु न होवे । तो झूठी गुरुआई लेवे ।।’
जो गुरु शब्द-मार्ग का ज्ञाता नहीं है, वह यदि गुरु बना हुआ है, तो झूठी बड़ाई ले रहा है। भगवान श्रीराम कहते हैं शबरी से-
‘गुरु पद पंकज सेवा, तीसरि भगति अमान ।’
गुरु के पद-पंकज की सेवा करो मान-रहित होकर। गुरु का चरण कमल के समान रहना चाहिए। अर्थात् जिस तरह जल में कमल रहता है, उसी तरह गुरु जग में जलकमलवत् रहते हैं। जल कितना क्यों न बढ़ जाय, कमल जल से ऊपर उठकर रहता है, उसी तरह संत सद्गुरु संसार में रहकर संसार से ऊपर उठकर रहते हैं। श्रीरामकृष्ण परमहंसदेवजी महाराज ने कहा-
‘नाव पानी में रहे, कोई हानि की बात नहीं; लेकिन नाव में पानी नहीं आना चहिए, नहीं तो नाव को वह डुबा देगा। उसी तरह भक्त संसार में रहे, कोई हानि की बात नहीं; किन्तु भक्त में सांसारिकता नहीं आनी चाहिए, नहीं तो वह भक्त को डुबा देगी।’
जो गुरु स्वयं संसार में डूबे हुए हैं, वे अपने शिष्य को उद्धार कैसे कर सकते हैं? जिन्होंने अपना उद्धार कर लिया है, वे ही दूसरे का उद्धार कर सकते हैं। जो स्वयं विद्वान् हैं, वे ही दूसरे को भी विद्वान् बना सकते हैं। जो स्वयं विद्वान् नहीं, वे दूसरे को विद्वान् कैसे बना सकते हैं? संत कबीर साहब ने कहा-
“ बन्धा का बन्धा मिले, छूटे कौन उपाय ।
कर सेवा निरबन्ध की, पल में लेय छुड़ाय ।।”
आपका भी हाथ बँधा हुआ हो और दूसरे का भी हाथ बँधा हुआ हो, तो कौन किसको कैसे छुड़ावेगा? उसी तरह स्वयं माया के जाल में जकड़ा हुआ व्यक्ति दूसरे को बन्धन से मुक्त कैसे करा सकता है? अर्थात् जो बन्धनमुक्त गुरु होंगे, वे ही शिष्य को बन्धनमुक्त करा सकते हैं। जो बन्धनयुक्त हैं, वे बन्धनमुक्त कैसे कर सकते हैं?
एक मकान बनाते हैं, मकान की नींव देते हैं। नींव बहुत अच्छी है। बहुत मजबूत नींव देते हैं। लेकिन जबतक इसपर दीवार खड़ी नहीं हुई है और जबतक छत नहीं दी गई है, तबतक जाड़े, गरमी, बरसात से हम बच नहीं सकते हैं। मान लिया कि नींव दी और दीवाल भी उसपर खड़ी कर दी और छत नहीं है उसपर, तब भी जाड़े, गरमी, बरसात से नहीं बच सकते हैं। नींव मजबूत हो, दीवाल खड़ी हो, छत उसपर डाल दीजिए, फिर जाड़े, गरमी, बरसात से आप बच जायेंगे।
भारत आस्तिक देश है। जन्म लेते ही बच्चे को सिखाया जाता है-ओ3म्-ओ3म्, शिव-शिव, वाह गुरु। राम का नाम बच्चे को सिखाया जाता है। तो भगवान का नाम हम लेते हैं, भगवान में आस्था रखते हैं-नींव हमने दे दी। लेकिन सत्संग करते ही नहीं हैं, तब दीवाल खड़ी नहीं है; केवल नींव आपकी पड़ी है। और भगवान में आस्था है; सत्संग आप करते हैं, तब नींव के ऊपर दीवाल आपकी खड़ी हो गई; लेकिन गुरु नहीं हैं, सच्चे सद्गुरु नहीं हैं, तो छत नहीं है; जाड़े, गरमी, बरसात से आप नहीं बच सकेंगे। दैहिक, दैहिक और भौतिक-इन त्रय तापों से संतप्त आप होंगे ही। यदि छत हो जाय अर्थात् सन्त सद्गुरु की शरण आप चले जायँ, तब आराम-ही-आराम है; दैहिक, दैविक और भौतिक-त्रितापों से आप बच सकते हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने कहा-
“ रवि पंचक जाके नहीं, ताहिं चतुर्थी नाहिं ।
तेहि सप्तक घेरे रहै, कबहुँ तृतीया नाहिं ।।”
गोस्वामीजी कहते हैं कि जिसको रवि पंचक नहीं है, यानी-रवि, सोम, मंगल, बुध और गुरु; जिनको गुरु नहीं है। रवि पंचक का अर्थ होता है गुरु; क्योंकि रवि का पाँचवाँ दिन होता है-बृहस्पति। बृहस्पति ही गुरु कहलाता है। जिनको गुरु नहीं है, उनके जीवन में कभी चतुर्थी नहीं आयेगी। चतुर्थी किसको कहते हैं? रवि सोम, मंगल, बुध। उसको सद्बुद्धि नहीं मिलेगी। परिणाम क्या होगा? ‘तेहि सप्तक घेरे रहै।’ सप्तक क्या होता है-रवि, सोम, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि। अर्थात् उसको शनि घेरकर रखेगा। परिणाम क्या होगा-‘कबहुँ तृतीया नाहिं।’ तृतीया क्या होती है? रवि, सोम, मंगल। उसके जीवन में मंगल कभी नहीं होगा। इसलिए यदि मंगल चाहते हैं, तो संत सद्गुरु की शरण जाइए। इसलिए जिनकी गुरु में श्रद्धा है, भक्ति है, प्रेम है, तो उनके लोक-परलोक-दोनों बन जाते हैं।
हमने गुरु से दीक्षा ली। कुछ क्रिया उन्होंने बतला दी। हम साधना करने लगे, साधना करते समय इष्ट का रूप हमारे सामने आ जाता है, तब क्या होता है? संत तुलसी साहब कहते हैं-
“ दरसन उनके उर माहिं करैं बड़ भागी ।
तिनके तरने की नाव किनारे लागी ।।”
यदि इष्ट के दर्शन अपने अन्तर में हो रहे हैं, तो नैया किनारे लग गयी। वे बड़भागी होते हैं; लेकिन अभी तो स्थूल-सगुण-साकार के ही दर्शन हुए हैं और भी आगे बढ़ना होगा। अब क्या होगा? सूक्ष्म में जायेंगे। वह क्या है? गोस्वामीजी के शब्दों में-
“ श्री गुर पद नख मनि गन जोती ।
सुमिरत दिब्य दृष्टि हियँ होती ।।
दलन मोह तम सो सुप्रकासू ।
बड़े भाग उर आवइ जासू ।।”
अन्तःप्रकाश जिनको मिल गया, अब भाग्य उनका और चमक गया। क्रमबद्धता देखिये कितनी अच्छी है। प्रकाश तक पहुँच गये; लेकिन प्रकाश तक पहुँचने से ही काम पूरा नहीं होता और आगे चलना होगा। कहाँ जाना होगा? परम पूज्य गुरुदेव की वाणी में हम पाते हैं-
“ अमृत ध्वनि की नौबत झहरत, बड़भागी सुनते ।
सुनत लखत सुख लहत अद्भुती, ‘मेँहीँ’ प्रभु मिलते ।।”
आपके अन्दर में अमृत ध्वनि हो रही है, नाद हो रहा है। ब्रह्मनाद हो रहा है। अन्तर्ज्योति प्राप्त करने के बाद जो अंतर्नाद श्रवण करते हैं, वे बड़भागी होते हैं। उनके भाग्य के लिए क्या कहना! परम प्रभु परमात्मा मिल जाते हैं और अद्भुत सुख की अनुभूति होती है। इससे बढ़कर और कोई सुख नहीं।
भगवान सबसे पहली बात कहते हैं-मनुष्य- शरीर तुम्हें मिला, यह तुम्हारा पहला बड़ा भाग्य है। सत्संग करते हो, तुम्हारा भाग्य जग गया। गुरु की शरण में चले गये, लोक-परलोक तुम्हारे बन जाएँगे। दीक्षा ग्रहण कर अन्तस्साधना करते समय उनके दर्शन अन्दर में करने लग गये हो, मानो तुम्हारी नाव किनारे लग गई है। तुम उस पार चले जाओेगे। जब तुम सूक्ष्म ध्यान करने लग जाओगे और अन्तर्ज्योति में प्रवेश करोगे, तो तुम्हारा भाग्य और चमक जाएगा और तुम अन्तर्नाद की साधना करने लग गये, तब तो कहना ही क्या! प्रभु से मिलकर एकमेक हो जाओगे। इससे विशेष भाग्य और क्या हो सकता है? तुम्हारा जीवन तो उज्ज्वल होगा ही, तुम अन्य कितने के भाग्य समुज्ज्वल करोगे।
यह जब कभी भी होगा, तो मनुष्य-शरीर में ही होगा। दूसरे शरीर में नहीं। इसीलिए भगवान श्रीराम कहते हैं-‘बड़े भाग मानुष तनु पावा।’
सुरदुर्लभ-देवताओं को भी दुर्लभ है। अब समझने की बात है-भगवान श्रीराम अपने श्रीमुख से यह कह रहे हैं कि यह मनुष्य का शरीर देवताओं को दुर्लभ है। विचारणीय विषय है-जो शरीर देवताओं को दुर्लभ है, वह शरीर हमको सुलभ हो गया है, फिर भी यदि देवपूजन में ही अपने जीवन को ला रहे हैं, आगे की ओर नहीं बढ़ रहे हैं, तो हम नीचे की ओर जा रहे हैं या ऊँचे की ओर जा रहे हैं? हम उन्नति की ओर जा रहे हैं या अवनति की ओर?
जो भक्त होता है, जिसको सच्चे सद्गुरु मिले हुए हैं, जो सदाचार-समन्वित होकर साधना करता हैं, वह साहब का लाल कभी कंगाल नहीं हो सकता है। संत पलटू साहब कहते हैं-
“ जो साहब का लाल है, सो पावेगा लाल ।।
सो पावेगा लाल, जाय कर गोता मारै ।
मरजीवा होइ रहै, लाल को तुरत निकारै ।।
निसि दिन मारै मौज, मिली जब वस्तु अमानी ।
रिद्धि सिद्धि और मुक्ति, भरत है तिन घर पानी ।।
वे शाहन के शाह, आस उनको नहिं दूजा ।
ब्रह्मा विष्णु महेश, करत है तिनकी पूजा ।।
पलटू गुरु भक्ती बिना, भेष भया कंगाल ।
जो साहब का लाल है, सो पावेगा लाल ।।”
बैठकर केवल मंत्रजप कर रहे हैं, उसी में काम पूरा नहीं होगा। ‘जाय कर गोता मारै’-डुबकी मारे अपने शरीर में। किस तरह डुबकी मारे? “ मरजीवा होइ रहै, लाल को तुरत निकारै।” मरजीवा-पानी में गोता लगानेवाला। पानी का गोताखोर होता है, जो पानी में डुबकर रहता है। यह शरीर क्या है? समुद्र है। संत कबीर साहब ने कहा है-
“ कबीर काया समुँद है, अन्त न पावै कोय ।
मिरतक होइ के जो रहै, मानिक लावै सोय ।।”
इस शरीर में जो डूबता है, वही पाता है। अपने अन्दर डूबो। डूबने की कला जानो। फिर अपने अन्दर डूबो। जो डूबता है, तो क्या होता है? ‘मरजीवा होइ रहै, लाल को तुरत निकारै।’
“ लाल लाल जो सब कोइ कहै, सबकी गाँठी लाल ।
गाँठी खोलिके परखै नाहीं, तासे भयो कंगाल ।।”
जबतक परमात्मा-रूपी लाल नहीं मिलेगा, तबतक कितना भी माल जमा कर लो, कंगाल ही बने रहोगे। जो उस परमात्मा-रूपी लाल को पाता है, वह मालोमाल हो जाता है। उसपर तो काल की दाल भी नहीं गलती।
‘मरजीवा होइ रहै, लाल को तुरत निकारै ।’
लाल मिल गया तब?
“ निसि दिन मारै मौज, मिली जब वस्तु अमानी ।
रिद्धि सिद्धि और मुक्ति, भरत है तिन घर पानी ।।”
ऋद्धि-सिद्धि उस घर में पानी भरती है।
“ वे शाहन के शाह, आस उनको नहिं दूजा ।
ब्रह्मा विष्णु महेश, करत है तिनकी पूजा ।।”
ब्रह्मा विष्णु, महेश जिसकी पूजा करें, ऐसा मनुष्य का शरीर हमलोगों को मिला है, और वह मनुष्य-शरीर पाकर दूसरे की पूजा करता है, वह देवता की पूजा करता है, तो कहाँ जा रहा है? कौन गुरु मिला है उसको? किस तरफ जा रहा है वह?
“ पलटू गुरु भक्ती बिना, भेष भया कंगाल ।
जो साहब का लाल है, सो पावेगा लाल ।।”
गुरु तो वह है जिसको ज्ञान है।
“ ज्ञानान्मोक्षमवाप्नोति तस्माज्ज्ञानं परात्परम् ।
यतो यो ज्ञानदानेहि न क्षमस्तंत्यजेद् गुरुम् ।।”
(बृहत्तंत्रसार)
जिन गुरु के सम्पर्क में आने से, जिनको गुरु धारण करने से मोक्ष मिलता है, मुक्ति मिलती है। छुटकारा मिलता है, आवागमन से मुक्ति मिलती है। दैहिक, दैविक और भौतिक-इन त्रय तापों से संतप्त प्राणी को सदा के लिए मुक्ति मिल जाती है, गुरु तो उनको कहते हैं। जब हम बन्धन में ही पड़े हैं, तो बृहत्तंत्रसार कहता है कि ‘तंत्यजेद् गुरुम्’ जो ज्ञानदान में समर्थ नहीं हो, ऐसे गुरु को छोड़ देने में ही शिष्य की भलाई है।
“ गुरु मिला सब जानिए, मेटे मोह संताप ।
हर्ष शोक व्यापे नहीं, तव गुरु आपे आप ।।”
दिनांक-18-8-1996, स्थान: कोलकाता में हुआ था। (शान्ति-सन्देश, मई 1997 ई0)
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“ सुकिरत करि ले, नाम सुमिरि ले, को जानै कल की ।।
जगत में खबर नहीं पल की ।।
झूठ कपट करि माया जोरिन, बात करैं छल की ।।
पाप की पोट धरे सिर ऊपर, किस बिधि ह्वै हलकी ।।
यह मन तो है हस्ती मस्ती, काया मिट्टी की ।।
साँस-साँस में नाम सुमिरि ले, अवधि घटै तन की ।।
काया अंदर हंसा बोलै, खुशियाँ कर दिल की ।।
जब यह हंसा निकरि जाहिंगे, मिट्टी जंगल की ।।
काम क्रोध मद लोभ निवारो, याही बात असल की ।।
ज्ञान बैराग दया उर राखो, कहै कबीरा दिल की ।।”
भगवान श्रीकृष्ण का महावाक्य है-‘यह शरीर क्षेत्र है। इस शरीर को जाननेवाला क्षेत्रज्ञ है।’ क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का संग हो गया है। क्षेत्र अर्थात् शरीर नाशवान है। क्षेत्रज्ञ अर्थात् शरीरी अविनाशी है। विनाशी और अविनाशी; इन दोनों का संग हो गया है। विनाशी असत् है, अविनाशी सत् है। सत् और असत् का मेल अधिक दिनों तक टिकता नहीं है। संत कबीर साहब ने कहा-
“ साँचा को साँचा मिलै, अधिका जुड़ै सनेह ।
साँचा को झूठा मिलै, तड़ दै टूटै नेह ।।”
शरीर और शरीरी-दोनों का संबंध अधिक दिनों तक नहीं रहता है। शरीर और शरीरी का मिलना-बिछुड़ना कितनी बार हुआ है, इसकी गणना नहीं है। संत कबीर साहब की वाणी में आया है-
“ कहत प्राण सुनु काया बौरी, मोर तोर संग न होई ।
तोहि अस मित्र बहुत हम त्यागा, संग न लीन्हा कोई ।।”
जीव अनेक शरीर को धारण करता और छोड़ता है। इस दृष्टि से शरीर और शरीरी का अलग-अलग विभाग हुआ। शरीर इस लोक के लिए है। इस लोक में इसका जन्म हुआ है। कुछ दिनों तक रहेगा, फिर नहीं रहेगा; लेकिन जीव कभी मरता नहीं है। जीव उसको कहते हैं, जो सदा जीवित रहता है। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है-
“ नैनं छिन्दन्ति शस्त्रणि नैनं दहति पावकः ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ।।”
(श्रीमद्भगवद्गीता, अ0 2/23)
अर्थात् इस आत्मा को कोई अस्त्र-शस्त्र काट नहीं सकता, आग जला नहीं सकती, जल भिंगा नहीं सकता और वायु सुखा नहीं सकती। यह अजर, अमर, अविनाशी है। गो0 तुलसीदासजी महाराज की वाणी में हम कह सकते हैं-
“ ईस्वर अंस जीव अविनासी ।
चेतन अमल सहज सुख रासी ।।”
अर्थात् आत्मा नित्य है, चेतन है, निर्मल है और सुख की राशि है। वह इस अनित्य शरीर में है। एक-न-एक दिन यह शरीर छूटेगा। हमारा शरीर छूटेगा; लेकिन हम रहेंगे। प्रश्नोदय होता है कि हम रहेंगे, तो कहाँ रहेंगे, कैसे रहेंगे? उत्तर में निवेदन है कि हमलोगों के जो कर्म होते हैं, वे हमारे साथ रहते हैं। उनके फल हमको भोगने पड़ते हैं। उन कर्मों के अनुसार उन लोकों में हम जाकर रहेंगे और तदनुकूल फलों के भोगों को भोगेंगे। संत कबीर साहब चेतावनी देते हैं-बुरे कर्म तो करो ही नहीं; क्योंकि उसका फल दुःख होता है। अच्छे कर्मों को करो-‘सुकिरत कर ले’। जो शुभ कर्मों को करते हैं, उनकी कीर्ति फैलती है, यश फैलता है। भगवान बुद्ध ने कहा है-जो सदाचारी होते हैं, उनको पाँच चीजें मिलती हैं। संसार में उनकी कीर्ति फैलती है। उनके पैसों का सदुपयोग होता है, दुरुपयोग नहीं होता। जिस किसी सभा में उनका प्रवचन होता है या वे जो बोलते हैं, उससे लोग प्रभावित होते हैं। जब उनका शरीर छूटता है, तो सुख से शरीर से छूटता है और शरीर छूटने के बाद वे सुखमय लोक में निवास करते हैं।
इसके विपरीत जो आचरणहीन हैं, दुराचारी हैं, उनको भी पाँच चीजें मिलती हैं। वे पाँच चीजें क्या हैं? जहाँ सदाचारी की कीर्ति फैलती है, सुयश फैलता है, वहाँ आचरणहीन का, दुराचारी का अपयश फैलता है, अपकीर्ति फैलती है। जहाँ सदाचारी के धन का सदुपयोग होता है, वहाँ दुराचारी के पैसे का अपव्यय होता है। जहाँ सदाचारी के प्रवचन का प्रभाव होता है, वहाँ दुराचारी के प्रवचन का प्रभाव नहीं पड़ता। यद्यपि लोग सुनने के समय उनका प्रवचन सुन लेते हैं; किन्तु पीछे उनकी निंदा करते हैं। जहाँ सदाचारी का शरीर सुख से छूटता है, वहाँ दुराचारी का शरीर दुःख से छूटता है। सदाचारी के शरीर छूटने पर वे सुखमय लोक में जाते हैं और वहाँ सुखपूर्वक रहते हैं। दुराचारी दुःखमय लोक में जाता है और वहाँ दुःखमय जीवन जीता है। इसीलिए संत कबीर साहब कहते हैं-‘सुकिरत करि ले।’ शुभ कर्मों को करो, इससे यह लोक कल्याणमय होगा, मंगलमय होगा। इस लोक में सदा तुम रहोगे नहीं, एक-न-एक दिन शरीर छूटेगा, परलोक जाओगे। वहाँ के लिए संवल चाहिए। गुरु नानक साहब ने कहा-
“ जा मारग के गणै जाय न कोसा ।
तहाँ हरि को नाम सदा संगि तोषा ।।”
रास्ता इतना लम्बा है, जिसकी माप नहीं हो सकती। वहाँ के लिए पाथेय क्या होगा, बटखर्चा क्या चाहिए? संवल क्या चाहिए, तो गुरु नानकदेवजी महाराज कहते हैं-उस मार्ग के लिए प्रभु का नाम-भगवन्नाम पाथेय है। उसी के संबंध में संत कबीर साहब कहते हैं- ‘नाम सुमिरि ले।’ जागतिक जीवन सुखमय हो, कल्याणमय हो। कल्याणमय हो-इसके लिए नाम का सुमिरन करो, नाम का स्मरण करो। ‘स्मरण’ शब्द का अपभ्रंश ‘सुमिरन’ है। महायोगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण का श्रीमद्भगवद्गीता में वाक्य है-
‘तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युद्ध्य च।’
अर्थात् जागतिक कार्य-संतुलन के साथ सब समय मेरा स्मरण करो। ‘स्मरण’ यानी ‘याद’। ‘याद’ शब्द को उलटने से ‘दया’ शब्द बनता है। जो कोई प्रभु को याद करते हैं, तो वह प्रभु के दरबार तक पहुँचती है और वहाँ से उलटने पर ‘दया’ बनकर आती है। परिणामस्वरूप जिस पर प्रभु की दया हो जाए, उसको किस बात की कमी रहेगी। उसकी प्रतिकूल परिस्थिति अनुकूल परिस्थिति में परिवर्तित हो जाए-कौन-सी असंभव की बात है? नाम के स्मरण से क्या लाभ होता है? इसके उत्तर में संत कबीर साहब कहते हैं-
“ सुमिरन से सुख होत है, सुमिरन से दुख जाय ।
कह कबीर सुमिरन किये, साईं माहिं समाय ।।”
अर्थात् प्रभु के स्मरण से सुख मिलेगा, दुःख मिटेगा यानी दुःख से छुटकारा मिलेगा और परम प्रभु परमात्मा में जा मिलोगे। पुनः संत कबीर साहब कहते हैं-प्रभु का स्मरण राजा, रंक, नर-नारी आदि सभी कोई करते हैं, सभी अच्छे हैं; किन्तु सबके स्मरण करने में अंतर है अर्थात् कोई सकाम स्मरण करते हैं और कोई निष्काम स्मरण करते हैं। सकाम स्मरण के फल से निष्काम स्मरण का फल भिन्न होता है। सकाम भक्त उत्तम ठाम पाते हैं और निष्काम भक्त प्रभु का अविचल धाम पाते हैं-
“ राजा राना राव रंक, बड़ा जो सुमिरै नाम ।
कह कबीर बड्डो बड़ा, जो सुमिरै निष्काम ।।
नर नारी सब नरक है, जब लगि देह सकाम ।
कह कबीर सोइ पीव को, जो सुमिरै निष्काम ।।
सहकामी सुमिरन करै, पावै उत्तम ठाम ।
निःकामी सुमिरन करै, पावै अविचल धाम ।।”
संत कबीर साहब की ही भाँति गुरु नानकदेव जी कहते हैं-प्रभु के स्मरण से सुख मिलता है; कलि क्लेश का निःशेष होता है। प्रभु का स्मरण से गर्भवास नहीं होता, प्रभु के धाम में निवास होता है और यम-त्रस मिटता है।
“ सिमरउ सिमिरि सिमिरि सुख पावउ ।
कलि कलेश तन माहिं मिटावउ ।।
सिमरउ जासु विसंभर एके ।
नाम जप जपनत अनेके ।।
प्रभु के सिमरन गरभ न वसै ।
प्रभु के सिमरन यम दुख नसै ।।”
यह कौन-सा सुमिरन है, किस प्रकार का सुमिरन है? संत कबीर साहब ने कहते हैं-
“ जप तप संयम साधना, सब सुमिरन के माहिं ।
कबीर जानै भक्त जन, सुमिरन सम कछु नाहिं ।।”
‘सुमिरन’ के अंदर ही जप, तप, संयम और सारी साधनाएँ आ जाती हैं। लोग विविध प्रकार से जप करते हैं; जैसे वाचिक, उपांशु, श्वास और मानस; ये जप के चार प्रकार हैं। इन चार प्रकार के अतिरिक्त पाँचवें प्रकार का भी जप होता है, जिसको अजपा जप कहते हैं। ये क्रमशः एक-से-एक विशेष हैं। वाचिक जप से उपांशु जप विशेष है। उपांशु जप से श्वास जप विशेष है और श्वास जप से मानस जप विशेष है। मानस जप सब जपों में श्रेष्ठ है। कुछ लोग श्वास जप को ही ‘अजपा जप’ कहते हैं; किन्तु संतों को यह मान्य नहीं है। वे आंतरिक अनहद नाद को ‘अजपा जप’ कहते हैं। जैसा कि परमहंस लक्ष्मीपतिजी महाराज के वचन से स्पष्ट हो जाता है-
“ अनहद अपने साथ है, अजपा ताको नाम ।
अमल करो अपनाय के, अमर नाम घर ठाम ।।”
और संत कबीर साहब कहते हैं-
“ जाप अजपा हो सहज धुन परख गुरु गम धारिये ।
होत धुनि रसना बिना कर माल बिनु निरवारिये ।।”
“ अजपा सुमिरन घट विषे, दीन्हा सिरजनहार ।
ताही सूँ मन लग रहा, कहै कबीर विचार ।।
जाप मरै अजपा मरै, अनहद हू मरि जाय ।
सुरत समानी शब्द में, ताको काल न खाय ।।”
तप तीन प्रकार के होते हैं-कायिक तप, वाचिक तप और मानसिक तप। इस संदर्भ में भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता के सत्रहवें अध्याय में इस प्रकार कहा है-
“ देवद्विजगुरुप्राज्ञ पूजनं शौचमार्जवम् ।
ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते ।।”
अर्थात् देवता, ब्राह्मण, गुरु और ज्ञानी जनों का पूजन, पवित्रता, सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा-यह शरीर संबंधी तप कहा जाता है।
“ अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत् ।
स्वाध्यायभ्यसनं चैव वाघ्मयं तप उच्यते ।।”
अर्थात् सत्य, प्रिय, हितकारी और उद्वेग पैदा नहीं करनेवाली वाणी बोलना और स्वाध्याय का अभ्यास करना-यह वाणी का तप कहा जाता है।
“ मनःप्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहाः ।
भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते ।।”
अर्थात् मन की प्रसन्नता, शांतभाव, भगवच्चिंतन
करने का स्वभाव, मन का निग्रह और अंतःकरण के भावों को भली भाँति पवित्रता-इस प्रकार यह मन संबंधी तप कहा जाता है।
“ श्रद्धया परया तप्तं तपस्तस्त्रिविधं नरै ।
अफलाकांक्षिभिर्युक्तैः सात्त्विकं परिचक्षते ।।”
अर्थात् फल को न चाहनेवाले योगी पुरुषों द्वारा परम श्रद्धा से किये हुए उस पूर्वोक्त तीन प्रकार के तप को सात्त्विक तप कहते हैं।
“ सत्कारमानपूजार्थं तपो दम्भेन चैव यत् ।
क्रियते तदिह प्रोक्तं राजसं चलमध्रुवम् ।।”
अर्थात् जो तप सत्कार, मान और पूजा के लिए तथा अन्य किसी स्वार्थ के लिए भी स्वभाव से या पाखंड से किया जाता है, वह अनिश्चित एवं क्षणिक फलवाला तप यहाँ राजस कहा गया है।
“ मूढ ग्राहेणात्मनो यत्पीडया क्रियते तपः ।
परस्योत्सादनार्थं वा तत्तामसमुदाहृतम् ।।”
अर्थात् जो तप मूढ़तापूर्वक, हठ से, मन, वाणी और शरीर की पीड़ा के सहित अथवा दूसरे का अनिष्ट करने के लिए किया जाता है, वह तप तामस कहा गया है।
संयम में इन्द्रियों का संयमन और मन का संयमन, ये सारी बातें सुमिरन के अंदर हो जाती हैं। इन्द्रियों का संयम दृष्टियोग-क्रिया से और मन का संयम नादानुसंधान की क्रिया से होता है। पुनः संत कबीर साहब कहते हैं-
“ सुमिरन सुरत लगाइ कर, मुख ते कछु न बोल ।
बाहर के पट देय कर, अंतर के पट खोल ।।”
जहाँ संत कबीर साहब के वचन में हम पाते हैं-‘बाहर के पट देय कर, अंतर के पट खोल ।’ वहाँ हम अपने परम पूज्य गुरुदेव की वाणी में पाते हैं-
‘बाहर के पट बंद करो हो, अंतर पट खोलो भाई ।’
उभय संतों की वाणियों में कितना साम्य है, विलक्षण ऐक्य है। ये ‘बाहर के पट’ क्या हैं, जिनको बंद करना है। संत कबीरसाहब कहते हैं-
“ आँख कान मुख बंद कराओ,
अनहद झिंगा शब्द सुनाओ ।
दोनों तिल एक तार मिलाओ,
तब देखो गुलजारा है ।।”
इसी से मिलती-जुलती बात हम गुरु नानकदेव जी महाराज की वाणी में पाते हैं-
“ तीन बंद लगाय कर, सुन अनहद टंकोर ।
नानक सुन्न समाधि में, नहीं साँझ नहिं भोर ।।”
संत कबीर साहब और गुरु नानकदेवजी की वाणी से हमारे पूज्य गुरुदेव की वाणी में कितना सामंजस्य है, देखिये-
“ तीनों बन्द लगाइ, देखि सुनि धरि ध्वनि धारा ।
चलिय शब्द में खिचत, बजत जो विविध प्रकारा ।।”
“ झिगुर का झनकार, भँवर गुंजार हो ।
अरे हाँ रे ‘मेँहीँ’, घंट शंख शहनाइ ,
आदि ध्वनि धार हो ।।11।।
तारा सह ध्वनि धार, टेम दीपक बरे ।
खुले अजब आकाश, अजब चाँदनी भरे ।।
पूर अचरजी चन्द, सहित ध्वनि कस लगे ।
अरे हाँ रे ‘मेँहीँ’, जानै सोई धीर,
वीर साधन पगे ।।12।।
साधन में पगि जाइ, अतिहि गंभीर हो ।
या तन सुधि नहि रहे, धीर वर वीर सो ।।
साँझ भोर दिन रैन, कछू जानै नहीं ।
अरे हाँ रे ‘मेँहीँ’, बाहर जड़वत् रहै ,
माहि चेतन सही ।।13।।”
यदि जिज्ञासा हो कि संतों ने बाहर के पटों को बंद कर अंतर के पटों को खोलने की आज्ञा दी है। बाहरी पट के तो वर्णन हो चुके, बातें समझ में आ गयीं, किन्तु अंतर के पट कौन-से हैं, उन पटों का अनावरण किस प्रकार किया जाता है तथा उनके खुलने से क्या लाभ होता है? तो इसका उत्तर हमारे परम पूज्य गुरुदेव की वाणी में सुनिये-
“ घट तम प्रकाश व शब्द पट त्रय, जीव पर हैं छा रहे ।
कर दृष्टि अरु ध्वनि योग साधन, ये हटाना चाहिये ।।
इनके हटे माया हटेगी, प्रभु से होगी एकता ।
फिर द्वैतता नहि कुछ रहेगी, अस मनन दृढ़ चाहिये ।।”
अर्थात् अपने अंदर अंधकार, प्रकाश और शब्द; ये त्रयपट हैं। दृष्टियोग और नादानुसंधान द्वारा ये पट खुलते हैं। इन परदों के खुलने से मायिक सभी आवरण हट जाते हैं, प्रभु की प्राप्ति हो जाती है। इतना ही नहीं, द्वैत भाव मिटकर अद्वैतावस्था हो जाती है।
“ साधो सुमिरन भजन करो ।
मन महँ दुविधा आनहु नाहीं, सहजहिं ध्यान धरो ।।
धीरज धरि संसय नहिं राखहु, नाम भरोसे रहो ।
जगजीवन सतगुरु को भेंटो, भवजल पार तरो ।।”
संत जगजीवन साहब कहते हैं-हे साधो, हे साधक! सुमिरन और भजन करो। मन में दुविधा नहीं लाओ और सहज में ही ध्यान करो। यहाँ पर तीन बातें बतायी गयी हैं-सुमिरन, भजन और ध्यान। पहली बात है-सुमिरन यानी जप। हम मानस जप करें। दूसरी बात है-ध्यान यानी स्थूल ध्यान और सूक्ष्म ध्यान अर्थात् मानस ध्यान और दृष्टियोग। यहाँ दोनों प्रकार के ध्यान के लिए संकेत है। तीसरी बात है-भजन यानी नाम-भजन अर्थात् अंतर-नाद की उपासना। नाम-भजन अर्थात् नादानुसंधान। संत कबीर साहब के वचन में आपलोगों ने सुना-‘नाम सुमिरि ले’ यानी नाम का सुमिरन करो। नाम कहते हैं शब्द को और जिस शब्द के द्वारा किसी व्यक्ति या वस्तु की पहचान होती है, वह उसका नाम कहलाता है। जिस शब्द के द्वारा प्रभु की पहचान हो, वह प्रभु का नाम कहलाता है। उस नाम को भी हम दो भागों में विभक्त कर सकते हैं, जिनको हम वर्णात्मक और ध्वन्यात्मक कह सकते हैं। गुरु नानकदेव जी इसी ओर इंगित करते हैं-
‘हरि जपि नाम धियाय तू, जम डरपै दुखु भाग ।’
वर्णात्मक नाम का जप होता है और ध्वन्यात्मक नाम का ध्यान होता है। जो दोनों तरह के नामों का भजन करते हैं, तो गुरु नानकदेवजी कहते हैं-उनसे यम डरता है और दुःख भाग जाता है। नाम नामी से मिलाता है। सगुण नाम से सगुण भगवान के दर्शन होते हैं; उनकी पहचान होती है। निर्गुण नाम से निर्गुण परमात्मा की पहचान होती है।
संत कबीर साहब की वाणी आपलोगों ने सुनी-‘सुकिरत करि ले, नाम सुमिरि ले, को जानै कल की ।। जगत में खबर नहीं पल की ।।’ इस वचन में उन्होंने नर-तन को नाशवान बताते हुए नाम-भजन करने के लिए कहा है। वस्तुतः मनुष्य-शरीर जितना ही सुंदर है, उतना ही वह क्षणभंगुर भी है। ठिकाना नहीं है, यह शरीर कब छूट जाएगा! संत कबीर साहब चेतावनी देते हैं-‘खबर नहिं पल की।’ हम पल गिराते हैं, उतनी देर भी हमारे जीवित रहने की आशा नहीं की जा सकती। हमारे गुरुदेव कहते हैं-
“ छन छन पल पल समय सिरावै ।
नर तन दुर्लभ फिर नहिं पावै ।।”
समय क्षण-क्षण, पल-पल बीत रहा है। काल के गाल में हमारा जीवन चला जा रहा है। आयु समाप्त होते चली जा रही है। ठिकाना नहीं, कब जीवन-लीला समाप्त हो जाए।
“ पाव पलक की गम नहिं, करै काल की साज ।
काल अचानक मारसी, ज्यों तीतर को बाज ।।”
बेचारी तीतर चिड़िया घूमती-फिरती है, दाना चुगती है, मस्त है। बेचारी को क्या पता कि ऊपर बाज मँडरा रहा है? अचानक बाज आता है, झपट्टा मारता है और उसको लेकर चल देता है। इसी प्रकार संसार में हम दाना चुगते हैं यानी नाना भोग भोगते हैं, घूमते-फिरते हैं। पता नहीं, कब काल का झपट्टा लग जाएगा और वह हमें लेकर चला जाएगा। इसलिए संत कबीर साहब शुभ कर्मों को करने के लिए, अच्छे कर्मों को करने के लिए प्रेरणा देते हैं और कहते हैं-‘को जानै कल की।’ कल की कौन जानता है? इसलिए
“ काल करै सो आज कर, आज करै से अब्ब ।
पल में परलै होयगा, बहुरि करैगा कब्ब ।।”
इसलिए हम शीघ्रातिशीघ्र भगवद्भजन करें; जागतिक कार्यों की सँभाल करते हुए शुभ कर्मों को भी करें। अगर इस तरह हम नहीं करते हैं और झूठ बोलते हैं, कपट करते हैं, छल करते हैं, दूसरे को ठगते हैं, बोलते कुछ हैं और करते कुछ और हैं, येन-केन प्रकारेण माया-संग्रह करते हैं, तो परिणाम क्या होगा? हम पाप की गठरी सिर पर लेते हैं। इस गठरी को हलका करनेवाला कोई नहीं है। छल-कपट किसके लिए हम करते हैं, क्यों करते हैं? जरा हम सोचें कि अपने साथ में क्या लेकर हम संसार में आये थे और क्या लेकर जाएँगे? न तो कुछ लेकर हम संसार में आये थे और न कुछ लेकर संसार से जाएँगे। येन-केन-प्रकारेण हम जो कुछ संग्रह करेंगे, सब-के-सब यहीं रह जाएँगे। इसलिए ऐसा नहीं करो।
“ यह मन तो है हस्ती मस्ती, काया मिट्टी की ।।
साँस-साँस में नाम सुमिरि ले, अवधि घटै तन की ।।”
यह मन मस्त गजराज के समान है। कब क्या कर डालेगा, कोई ठिकाना नहीं। इसपर अंकुश लगाकर रखो। संत कबीर साहब कहते हैं-
“ मन के मते न चालिये, मन के मते अनेक ।
जो मन पर असवार है, सो साधु कोइ एक ।।”
मन जैसा-जैसा कहे, वैसा-वैसा मत करो; सोच-समझकर करो।
“ सोच समझ बंदे मन में, क्या करना क्या करता है ।
गुण के भागी आपुहिं बनता, दोष राम पर धरता है ।।”
मन को सँभालकर रखो। संयमित मन सुखकर होता है। असंयमित मन दुःखकर होता है। सुख और दुःख देनेवाला हमारा मन ही है। हमारा मन ही हमारा शत्रु और हमारा मन ही हमारा मित्र है। अच्छे मार्ग पर लगा हुआ हमारा मन मित्र है और यह इतनी भलाई करता है, जितनी भलाई हमारे माता-पिता या मित्र वा गुरु जन कोई नहीं कर सकते। इसी प्रकार कुमार्ग पर लगा हुआ हमारा मन हमारी इतनी बुराई करता है-कर सकता है, जितनी बुराई हमारे दुश्मन भी नहीं कर सकते। इसलिए इस मन पर अंकुश लगाकर रखना चाहिए।
“ यह मन तो है हस्ती मस्ती, काया मिट्टी की ।।
साँस-साँस में नाम सुमिरि ले, अवधि घटै तन की ।।”
यह मन मस्त गजराज है और यह काया मिट्टी की है। कच्ची मिट्टी का घड़ा है, इसमें पानी कब तक टिकेगा? गलते देर नहीं लगेगी, समाप्त हो जाएगी। इसलिए करो क्या? तो वे कहते हैं-‘साँस-साँस में नाम सुमिरि ले,’ श्वास आता है और जाता है। यह जीवन जबतक है, प्रति श्वास में भजन करो।
“ काया अंदर हंसा बोले, खुशियाँ कर दिल की ।
जब यह हंसा निकरी जाएँगे, मिट्टी जंगल की ।।”
जबतक इस काया के अंदर हंसा बोल रहा है, पक्षी बोल रहा है, तबतक इसकी कीमत है। जब यह पक्षी बोलना बंद कर देगा, तब मिट्टी-की-मिट्टी पड़ी रह जाएगी, चाहे कोई कितना ही बड़े-से-बड़ा वैभवशाली व्यक्ति क्यों न हो।
एक लड़की थी। अपने चिकित्सा कराने के लिए भेलोर गयी। वहाँ उसके हृदय का ऑपरेशन हुआ। डॉक्टर ने कोई यंत्र लगा दिया। वह यंत्र धीरे- धीरे आवाज करता था। उस लड़की ने डॉक्टर से कहा, ‘डॉक्टर साहब! भीतर में कुछ बोलता है।’ डॉक्टर साहब ने कहा, ‘जबतक वह बोलता है, तबतक तू बोलेगी। जब यह चुप हो जाएगा, तब तू भी चुप हो जाएगी। जबतक शरीर में प्राण है तबतक इसकी पूछ है। जिस दिन प्राण पखेरू उड़ जाएगा, कोई पूछनेवाला नहीं होगा। अभी जो इस घर के मालिक बने हुए हैं, उनका आदर होता है, सत्कार होता है, सब तरह की पूछ है। जब इस शरीर से जीव निकल जाएगा, लोग घृणा करने लग जाएँगे। संत सूरदासजी महाराज के शब्दों में -
‘घर के कहत सबेरो काढ़ो, भूत होय घर खइहैं ।’
जो घर का मालिक बना हुआ था, वहीं अब भूत बनकर घर को खाएगा। लोगों की दृष्टि देखिये, जीवित काल में जिस शरीर को छूकर, स्पर्श करके प्रणाम करते थे, अब वही शरीर है; किन्तु मृतक हो गया है। अब क्या होगा? घर में जबतक रहेगा, कोई खाएगा नहीं, कोई पियेगा नहीं, कोई छुएगा नहीं। क्यों? इसलिए कि वह अपवित्र हो गया। उसको यदि कोई छुएगा, तो बिना स्नान किये खाएगा नहीं। क्या हो गया, क्या था उसमें, जिससे पवित्रता थी और क्या निकल गया, जिससे अपवित्रता आ गयी? जबतक हंस है, चेतन है, तबतक पवित्र है और वह निकल गया, तो अपवित्र हो गया।
“ काम क्रोध मद लोभ निवारो, याही बात असल की । ।
ज्ञान बैराग दया मन राखो, कहै कबीरा दिल की ।।”
हमारे अंदर षट् विकार भरे पड़े हैं। इन षट् विकारों के शिकार मत होओ; इनका परिहार करो। ‘काम’ का अर्थ केवल अनंग ही नहीं है, ‘काम’ की बड़ी व्यापकता है। संत कबीर साहब ने इसका इस प्रकार स्पष्टीकरण किया है-
“ काम काम सब कोइ कहै, काम न चीन्है कोय ।
जेती मन की कल्पना, काम कहावै सोय ।।”
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है-‘कामात् क्रोधोऽ भिजायते।’ अर्थात् काम से क्रोध की उत्पत्ति होती है। जबतक कामना पूरी होती रहती है, तबतक क्रोध नहीं आता। जैसे ही कामना में बाधा उत्पन्न हुई, पूरी नहीं हुई, अनुकूलता नहीं हुई, प्रतिकूलता हुई, वैसे क्रोध उत्पन्न हो जाता है। तो कहते हैं-काम से बचो, क्रोध से बचो, लोभ से बचो, अहंकार से बचो। लोग पद पाकर मद में आ जाते हैं। यह भी एक प्रकार का नशा है। रामचरितमानस में लिखा है-
“ काम क्रोध मद लोभ ये, नाथ नरक कर पंथ ।
सब परिहरि रघुवीर ही, भजहु भजहिं जेहि संत ।।”
संत कबीर साहब ने तो कहा-
“ मद तो बहुतक भाँति का, ताहि न जानै कोय ।
तन मद मन मद जातिमद, मायामद सब लोय ।।
विद्यामद और गुनहु मद, राजमद्द उन्मद्द ।
इतने मद को रद्द करै, तब पावै अनहद्द ।।”
इसलिए हृदय में ज्ञान, वैराग्य और दया को धारण करो। ज्ञान में रहो; अज्ञान से बचकर रहो, हटकर रहो। ज्ञान-सम्मत काम करो; ज्ञान-सम्मत व्यवहार करो। संसार से विराग और प्रभु से अनुराग रखो। अगर संसारासक्ति रही, तो प्रभु-भक्ति नहीं होगी। जब संसार से अनासक्ति होगी, तब प्रभु में अनुरक्ति होगी और तभी शक्ति मिलेगी, जिससे भव-बंधन से मुक्ति मिलेगी। यदि हृदय में दया भाव नहीं है और कोरे ज्ञान बखान करते हो, तो परिणाम क्या होगा? सोचो। कबीर साहब कहते हैं-
“ दया भाव हृदय नहीं, ज्ञान कथे बेहद ।
ते नर नरकहिं जाहिंगे, पढ़ि सुनि साखी शब्द ।।”
इस प्रकार अपनी वाणी द्वारा संत कबीर साहब जागतिक जन को जगत में सुखमय जीवन जीने की कला सिखाते हैं और संसार से जाने के बाद जहाँ जाएँगे, वहाँ सुख से जीवन बीते-वह भी बताते हैं। तात्पर्य यह कि हमलोगों को चाहिए कि इस जग-व्यवहार में दया, क्षमा, संतोष धारण कर सच्चाई का व्यवहार करें और झूठ, कपट, छल-चतुराई आदि दुर्गुणों से दूर रहें। साथ ही अपने जीवन-यापन के लिए कुछ-न-कुछ पवित्र कमाई अवश्य करें। इस भाँति भगवद्भजन करते हुए हमारा यह लोक भी कल्याणमय होगा और परलोक भी। इतना कहकर अपने प्रवचन में विराम देता हूँ।
यह प्रवचन मास-ध्यान-साधना के अवसर पर दिनांक-16-11-1997, स्थान: डेहरी-ऑन-सोन में रात्रिकालीन सत्संग हुआ था।
(शान्ति-संदेश, मार्च 1998 ई0)
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परमात्मा ने सृष्टि की है। सृष्टि विषमता में होती है़; समता में नहीं। जब रज, सत् और तम; ये तीनों गुण सम रहते हैं, तब सृष्टि नहीं होती। इनमें जब विषमता होती है यानी न्यूनाधिकता होती है, तब सृष्टि होती है। इसलिए सृष्टि सदा एक-सी नहीं रहती, बदलती रहती है। संसार बदलता रहता है। संसार में हमारा शरीर भी एक समान नहीं रहता। बचपन में कैसा था, किशोरावस्था में कैसा हुआ, युवावस्था में कैसा रहता है और बुढ़ापे में कैसा हो जाता है। परिवर्तन होता रहता है। यह परिवर्तन विनाश की ओर ले जाता है। एक दिन यह शरीर विनष्ट हो जाता है।
किसी चीज को देखिये; जो चीज बनी है, एक-न-एक दिन वह बिगड़ती है। पूर्व काल में बड़े-बड़े राजा महाराज आदि हुए, आज उनका नामोनिशान नहीं है। किसी दिन जो गगनचुंबी अट्टालिका थी, आज उसका खंडहर है। किसी का वह भी नहीं है, मिट्टी बन गया है। वस्तुतः यह संसार परिवर्तनशील और विनाशी है।
संसार में हम देखते हैं कि दिन रहता है, रात भी होती है। सदा रात-ही-रात नहीं रहती, दिन भी होता है। सदा दिन-ही-दिन नहीं रहता, रात भी होती है। जिस तरह सदा दिन-ही-दिन नहीं रहता, उसी तरह सदा रात-ही-रात नहीं रहती। दिन के बाद रात और रात के बाद दिन होता है। जिस तरह यह परिवर्तन होता रहता है, उसी तरह सुख और दुःख में भी परिवर्तन होता रहता है। जब हमारे सामने इतिहास आते हैं अथवा पौराणिक कथाएँ आती हैं, तो पता चलता है कि सदा सबका जीवन एक-सा नहीं बीता अथवा किसी एक का भी जीवन एकरस नहीं रहा।
राजा हरिश्चन्द्र बहुत बड़े सत्यवादी थे। सत्यवादी होने के कारण आज भी उनका नाम अमर है। एक रात उन्होंने स्वप्न देखा है कि मेरे यहाँ विश्वामित्र मुनिजी आए हुए हैं और उनको मैंने अपना राज-पाट, धन-दौलत-सब कुछ दान में दे दिया है। नींद टूटने पर दूसरे दिन वे श्रीविश्वामित्र मुनि को प्रत्यक्ष अपने दरबार में देखते हैं। विश्वामित्रजी कहते हैं-‘तुमने अपना राज-पाट, धन-दौलत-सब कुछ मुझे दान दे दिया है। यह धन-दौलत, राज-पाट सब मेरा है।’ राजा हरिश्चन्द्र सत्यवादी थे। उन्होंने मुनिजी की बात सहज स्वीकार करते हुए कहा, ‘महाराज! राज-पाट, धन-दौलत स्वीकार कीजिए।’ विश्वामित्रजी ने कहा, ‘कोई भी दान बिना दक्षिणा के फलीभूत नहीं होता। राजपाट, धन-दौलत तो तुमने दान में दे दी; किन्तु बिना दक्षिणा के दान किस काम का!’ राजा हरिश्चन्द्र ने कहा, ‘ठीक है महाराज! आपकी दक्षिणा खजाने से द्रव्य निकालकर चुका देता हूँ।’ विश्वामित्र मुनि ने कहा, ‘राजपाट, धन-दौलत-सब मेरा हो गया, तो खजाना तुम्हारा कैसे रह गया? सब मेरा है।’ हरिश्चन्द्र कहते हैं, ‘मेरे पास तो अब कुछ भी बाकी नहीं है, जो आपको दक्षिणा के रूप में दे सकूँ।’ विश्वामित्र मुनिजी ने कहा, ‘दक्षिणा-विहीन दान में स्वीकार नहीं करता। तुम अपनी धन-दौलत, राज-पाट सब रखो; मैं चला। इतना कहकर वे चलने लगते हैं।’ बेचारे हरिश्चन्द्र क्या करते! उन्होंने हाथ जोड़कर कहा, ‘मुनिवर! आप दान स्वीकार करें। मैं अपने शरीर को बेचकर आपकी दक्षिणा चुका दूँगा।’ हरिश्चन्द्र स्वयं, उनकी पत्नी और उसके पुत्र-ये तीनों राजपाट छोड़कर निकल जाते हैं और काशी में जाकर कहते हैं, ‘कोई हमको मोल ले लो।’ लेकिन उनको मोल लेनेवाला वहाँ कोई नहीं। इतने में एक डोम और एक ब्राह्मण वहाँ आते हैं। हरिश्चन्द्र ब्राह्मण के हाथ अपनी पत्नी और पुत्र को बेच देते हैं और स्वयं डोम के हाथ बिककर विश्वामित्र मुनिजी की दक्षिणा चुकाते हैं।
प्रभु की लीला विचित्र है। हरिश्चन्द्र की सत्यवादिता का परीक्षण हो रहा है कि कहाँ तक ये अपने सत्य धर्म पर दृढ़ रहते हैं। हरिश्चन्द्र की पत्नी को ब्राह्मण ने पूजा के लिए फूल तोड़कर लाने का काम दिया था। हरिश्चन्द्र की पत्नी का नाम शैव्या और पुत्र का नाम रोहिताश्व था। शैव्या ने रोहिताश्व से कहा, ‘बेटा! जाओ, ब्राह्मण पूजा करेंगे, फुलवाड़ी से कुछ फूल तोड़कर ले आओ।’ माता की आज्ञा शिरोधार्य कर रोहिताश्व फूल तोड़ने के लिए फुलवाड़ी जाता है। वहाँ उसको साँप डँस लेता है, वह वहीं मर जाता है। शैव्या रोहिताश्व के आने की प्रतीक्षा करती है। देर होने पर सोचती है कि अभी तक लड़का क्यों नहीं आया? बहुत देर हो रही है। उसकी खोज में वह स्वयं फुलवाड़ी जाती है। वहाँ वह देखती है कि उसका पुत्र मृत होकर पृथ्वी पर पड़ा हुआ है।
विचारणीय विषय है कि जिसका राजपाट, धन- दौलत-सब कुछ चला गया हो, जिसको पति का वियोग हो-पति कहाँ हैं, पता नहीं और पुत्र की मृत्यु हो गयी हो, उस नारी बेचारी की क्या हालत हुई होगी! जिस किसी के साथ घटना घटती है, उसकी मनःस्थिति का पता उसी को चलता है। कहावत है-‘विपत्ति अकेले नहीं आती, साथ में औरों को भी लाती है। विधि के विधान में व्यवधान कौन डाल सकता है! कैसी विडम्बना है! राज्यहीन, पति-वियोग और पुत्र-शोक। विपत्ति पर विपत्ति आती गयी। मानो विपत्ति का पहाड़ ही उसपर टूट पड़ा। बेचारी क्या कर सकती थी? अपने हृदय को पत्थर बना मृत पुत्र को गोद में लेकर श्मशान घाट जाती है उसकी अन्त्येष्टि क्रिया हेतु ।
जिस डोम के हाथ राजा हरिश्चन्द्र बिके थे, उसने उसको काम दिया था कि श्मशानघाट पर तुम जाओ, वहीं तुम रहना, जो मुर्दा जलाने के लिए आवे, उनसे कर (Tax) लेना। बिना कर लिए लाश जलाने नहीं देना। जब शैव्या अपने मृत पुत्र को लेकर श्मशान घाट जाती है, तो देखती है कि उसके पति ही श्मशान घाट की चौकीदारी कर रहे हैं। शैव्या अपने मृत पुत्र की दाह क्रिया वहाँ करना चाहती है। हरिश्चन्द्र कहते हैं, ‘लाश जलाने के लिए कर रूप में पैसे दो।’ शैव्या कहती है, ‘आप मुझे पहचानते नहीं, आप मेरे स्वामी हैं, मैं आपकी पत्नी हूँ और यह आपका मृत पुत्र रोहिताश्व है। आपने ही मुझे रोहिताश्व के साथ बेच दिया था। पुत्र-सहित मेरी बिक्री करके जो पैसे आपको मिले थे, उन्हें आपने विश्वामित्र मुनि को दक्षिणा के रूप में दिया था। मेरे पास अब है ही क्या, जो कर रूप में आपको दूँ। कर के पैसे कहाँ से लाऊँ?’ शैव्या की बातों पर अन्यमनस्क हो हरिश्चन्द्र ध्यान नहीं देते हैं और कहते हैं, ‘मेरे स्वामी का आदेश है कि बिना कर लिये लाश जलाने नहीं देना। इसलिए जबतक कर के पैसे तुम नहीं दोगी, मैं लाश जलाने नहीं दूँगा। यदि तुम्हारे पास पैसे नहीं हैं, तो कर के रूप में कफन के कपड़े ही दे दो।’ शैव्या कहती है, ‘मेरे पास कफन का कपड़ा भी नहीं है।’ हरिश्चन्द्र कहते हैं, ‘तब तुम यहाँ लाश नहीं जला सकती।’ बेचारी शैव्या क्या करती, कर चुकाने के लिए अपनी साड़ी का आँचल फाड़ती है। जब साड़ी फाड़कर वह हरिश्चन्द्र को देना चाहती है, तो भगवान प्रकट हो जाते हैं और कहते हैं, ‘हरिश्चन्द्र! मैं तुम्हारी सत्य की परीक्षा ले रहा था। तुमने सत्य का पालन करके परीक्षा में उत्तीर्णता प्राप्त की।’ भगवान आशीर्वाद देकर रोहिताश्व को जीवित कर देते हैं और कहते हैं, ‘हरिश्चन्द्र! तुम्हारा राजपाट, धन-दौलत, खजाना, सब कुछ सुरक्षित है, जाओ राज्य का सुखोपभोग करो। शरीर छूटने के बाद स्वर्ग-सुख का उपभोग करना।’
यह घटना बताती है कि इतने प्रतापी और सत्यवादी राजा को भी वह दिन देखना पड़ा, जिसकी कल्पना उन्होंने स्वप्न में भी नहीं की होगी। यह तो सत्ययुग की बात हुई, त्रेतायुग की बात सुनिये।
भगवान श्रीराम मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाते थे। वे जब इस संसार में नररूप में आये, तो उन्होंने नर-लीला करके दिखलाया कि संसार दुःखालय है। राजा दशरथ भगवान श्रीराम को युवराजपद पर प्रतिष्ठित करना चाहते थे; किन्तु कैकई के कारण उनको सीता और लक्ष्मण-सहित वनगमन करना पड़ा। अयोध्या में राजा दशरथ का मरण होता है और जंगल में लंकापति रावण के द्वारा सीताजी का हरण होता है। रावण श्रीसीताजी को ले जाकर लंका की अशोक वाटिका में रखता है। वहाँ उनका कोई सहायक नहीं है। वे राजकुमारी जनकदुलारी मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम की प्राणप्यारी थी। पति-वियोग से वे दुःखी थीं। उसपर भी रावण प्रतिदिन उनको विविध भाँति के त्रस दिखलाता था। वहाँ वे अकेली थीं। कहाँ भारत और कहाँ लंका। वहाँ वे रात-दिन रोती-बिलखती हुई जीवन व्यतीत करती थीं। फिर भी अपने पातिव्रत्य धर्म पर दृढ़ रहीं। अंत में भगवान श्रीराम दुष्ट रावण का संहार कर सीताजी का उद्धार करते हैं। पश्चात् वे ही सीताजी भगवान श्रीराम के साथ पुष्पक विमान पर विचरण करती हैं। लंका से अयोध्या आने पर भगवान श्रीराम का राज्याभिषेक होता है। सीताजी उनकी बायीं ओर विराजती हैं और राज्य-सुखोपभोग करती हैं। विधि का विधान में व्यवधान कौन डाल सकता? गर्भवती सीताजी का वनवास होता है। वहाँ उनके दुःख और क्रन्दन का क्या ठिकाना? प्रथम बार के वनवास में तो उनके पति और देवर लक्ष्मण साथ थे। इस बार कोई नहीं। वे ही देवर लक्ष्मण उनको घनघोर जंगल में पहुँचाते हैं, जहाँ उनको कोई देखनेवाला नहीं। वहाँ निराश्रिता सीताजी को महर्षि वाल्मीकि अपने आश्रम में आश्रय देते हैं। वहीं लव-कुश का जन्म होता है।
अब द्वापर युग की बात सुनिये। महाराज युधिष्ठिर को भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन होते थे। इतना ही नहीं, भगवान श्रीकृष्ण उनके सतत सत्सहायक भी थे। यदि भगवान श्रीकृष्ण नहीं होते, तो पाण्डव किस रसातल को कब चले गये होते, ठिकाना नहीं। फिर भी उन भगवान की देख-रेख में ही उनका राजपाट, धन-दौलत-सब कुछ छिन गया। यहाँ तक कि युधिष्ठिर महाराज अपनी पत्नी द्रौपदी को भी जुआ में हारकर दर-दर के भिखारी बन गये। वन-वन की उन्होंने खाक छानी। जो इतने बड़े महाराजा थे, जिनके सामने सैकड़ों नौकर-चाकर, दास-दासियाँ, सेवक आदि सेवा में हाथ जोड़े खड़े रहते थे, वे ही महाराजा युधिष्ठिर दूसरे राजा के यहाँ वेश बदलकर बेचारे बनकर जाते हैं और पराधीनता स्वीकार करके रहते हैं। जिस रानी द्रौपदी के पीछे कितनी ही दासियाँ सेवारत रहती थीं, उसी द्रौपदी को राजा विराट के अंतःपुर में दासी बनकर रहना पड़ा। सदा दुःख का समय नहीं रहता। भगवान श्रीकृष्ण की अनुकम्पा से महाराजा युधिष्ठिर को पुनः राज्य मिला और द्रौपदी महारानी हुई।
सत्ययुग, त्रेता, द्वापर की घटना तो आपने सुन ली। कलियुग के लिए तो कहना ही क्या, जिसके राज्य में सूर्य कभी अस्त नहीं होता था, उनको निरस्त्र ने परास्त कर दिया और उनका सूर्य अस्त हो गया। भारत की स्वतंत्रता के लिए कितने बड़े-बड़े व्यक्तियों को किस तरह के दुःख उठाने पड़े! स्वतंत्रता मिलने के बाद जब भारत का विभाजन हुआ, उस समय लोगों को कैसे-कैसे दिन देखने पड़े, कहने की आवश्यकता नहीं। जगत का ताण्डव नृत्य देखते हुए मानव-कल्याणार्थ संत सूरदासजी महाराज ने कहा-
“ ताते सेइये यदुराई ।
सम्पति विपति विपति सौं सम्पति, देह धरे को यहै सुभाई ।।
तरुवर फूलै फलै परिहरै, अपने कालहिं पाई ।
सरवर नीर भरै पुनि उमडै़, सूखे खेह उड़ाई ।।
द्वितिय चन्द्र बाढ़त ही बाढ़े, घटत घटत घटि जाई ।
सूरदास सम्पदा आपदा, जिनि कोऊ पतिआई ।।”
संत सूरदासजी महाराज ने अपनी वाणी में उपमान प्रमाण द्वारा इस विषय का प्रतिपादन किया है कि जागतिक जीवन एकरस नहीं रहता, उसमें विषमता आती है। इसलिए जागतिक किसी चीज पर विश्वास नहीं करो कि वह सदा एकरस रहेगी। देखो, जैसे सम्पत्ति आती है, वैसे ही विपत्ति भी आती है। सम्पत्ति सदा रहती नहीं, चली जाती है; वैसे ही विपत्ति भी आती है, सदा रहती नहीं, चली जाती है। इस प्रकार परिवर्तन होता रहता है। जैसे समय पाकर वृक्ष फूलता और फलता है, वह फल-फूल से लदा वृक्ष देखने में बहुत सुन्दर लगता है। उससे दूसरों को उपकार भी होता है; लेकिन फल-फूल से लदा वह सुन्दर वृक्ष सदा एक-सा रहता नहीं; पतझड़ हो जाता है। पहले फूल झड़ जाते हैं, फल रहते हैं; किन्तु पीछे वे फल भी झड़ जाते हैं। समय आता है, नव पल्लव निकलते हैं, फिर फूल लगते हैं और फल भी लगते हैं। इस प्रकार वृक्ष के जीवन में फल-फूल लगते और झड़ते रहते हैं। इसी प्रकार मानव-जीवन में सम्पत्ति और विपत्ति आती-जाती रहती है। इसलिए इसकी चिंता नहीं करो, प्रभु की भक्ति करो। पुनः कहते हैं कि जब श्रावण-भादो के महीने आते हैं, तो छोटी नदी भी जल भरकर उमड़कर इठलाती हुई चलती है। जब वैशाख और जेठ के महीने आते हैं, तो उसी नदी में धूल उड़ने लग जाती है। शुक्ल पक्ष की द्वितीया का चन्द्रमा बढ़ते-बढ़ते पूर्णिमा में पूरा हो जाता है। सारी रात प्रकाशपूर्ण रहती है; लेकिन वह पूर्णमासी का चन्द्रमा सदा नहीं रहता। कृष्णपक्ष की प्रतिपदा से शनैः शनैः घटना आरंभ होता है और घटते-घटते एक दिन अमावस्या की रात आ जाती है और सारी रात अंधकारमय हो जाती है। इस प्रकार देखा जाता है कि जहाँ पूर्णिमा की रात में सारी रात प्रकाश- ही-प्रकाश रहता है, वहाँ अमावस्या की रात में अंधकार-ही-अंधकार हो जाता है।
इसी भाँति मानव-जीवन में अंधकार और प्रकाश, सुख और दुःख, हानि और लाभ आते-जाते ही रहते हैं। जिस तरह सुख और दुःख आते-जाते रहते हैं, उसी तरह सम्पत्ति और विपत्ति आती-जाती रहती है, इसका विश्वास नहीं करो। सम्पत्ति आने पर विलासी मत बनो और विपत्ति आने पर उदासी मत लाओ। प्रभु-विश्वासी बनकर रहो। जागतिक पद, पैसे, प्रतिष्ठा, वस्तु, व्यक्ति आदि सभी आने-जानेवाले हैं। एक परम प्रभु परमात्मा ही हैं, जो न कभी आता है, न जाता है, सतत एकरस रहता है, उसका भजन करो। उस परम प्रभु परमात्मा की प्राप्ति में दुःख तो होता ही नहीं, सुख-ही-सुख होता है और निरंतर बना रहता है। एक बार मिलने के बाद फिर कभी बिछुड़न नहीं होती। जागतिक जितने संबंध हैं, सब मिलने और बिछुड़नेवाले हैं। जो जुड़ता है, वह टूटता है- जो मिलता है, वह बिछुड़ता है। प्रभु से एक बार मेल हो जाने के बाद फिर कभी बेमेल होने का प्रश्न नहीं उठता। एक बार उनसे योग हो जाने के बाद फिर उनसे कभी वियोग होने की संभावना ही नहीं रहती अर्थात् वियोग होता ही नहीं।
उस प्रभु की भक्ति करने के लिए घर-वार, रोजगार, परिवार, छोड़ने की जरूरत नहीं। घर, वार, रोजगार और परिवार में रहिये और भजन कीजिये। जैसे अपने दैनन्दिन कार्य समय बाँट-बाँटकर करते हैं, उसी तरह दैनन्दिन कार्यों में भगवद्भजन को भी जोड़ दीजिये और समय-समय पर कीजिए। संत चरणदासजी के वचन में आया है-
“ दिन को हरि सुमिरन करो, रैनि जागि कर ध्यान ।
भूख राखि भोजन करो, तजि सोवन को बान ।।
चारि पहर नहिं जगि सकै, आधि रात सूँ जाग ।
ध्यान करो जप हीं करो, भजन करन कूँ लाग ।।
जो नहिं सरधा दोपहर, पिछले पहरे चेत ।
उठ बैठो रटना रटो, प्रभु सूँ लावहु हेत ।।
जागै ना पिछले पहर, करै न गुरु मत जाप ।
मुँह फारे सोवत रहै, ताकूँ लागै पाप ।।”
संत चरणदासजी महाराज कहते हैं-दिन में काम-धंधे में लगे रहते हुए मन से प्रभु का नाम लेते रहो तथा रात में जगकर ध्यान करो। लेकिन रात में जगकर ध्यान कौन कर सकते हैं? खूब ठूँस-ठूँसकर भोजन करने से पड़े रहने का मन करेगा, इसलिए संत चरणदासजी महाराज कहते हैं-‘भूख राखि भोजन करो’ पुनः उन संत के मन में होता है कि दिन-भर कार्य करने के कारण थके रहने से लोग चार पहर जग नहीं सकेंगे, तब कहते हैं-‘आधी रात सूँ जाग।’ फिर मन में सोचते हैं-आदमी सारा दिन तो जागता ही है और रात का एक पहर खाने-पीने में ही बीत जाता है। फिर एक पहर ही बचता है, उसमें पूरा आराम नहीं ले सकेगा। तो कहते हैं-
‘जो नहिं सरधा दोपहर, पिछले पहरे चेत ।’
संत कितने दयालु होते हैं, वे कहते हैं-चार पहर नहीं जग सको, तो दो पहर जगो। दो पहर भी नहीं जग सकते हो, तो चौथे पहर में जगो। उस चौथे पहर को कहते हैं-ब्रह्ममुहूर्त अर्थात् ब्रह्मचिंतन का समय। इस समय मस्तिष्क शांत रहता है। चतुर्दिक वातावरण शांत रहता है। दिन भर की जो थकावट होती है, वह सो जाने पर दूर हो जाती है। शरीर स्वस्थ एवं हलका मालूम होता है। यदि उस समय शौचादि की आदत हो, तो उनसे निवृत्त होकर कुल्ली कर लो; हाथ-पैर-मुँह धो लो। आँख धो लो। आलस्य छूट जाएगा। उस समय बैठकर गुरु की बतायी विधि से ध्यानाभ्यास करो। प्रभु का नाम लो। प्रभु का स्मरण करो। पहले मानस जप करो, फिर मानस ध्यान करो। तत्पश्चात् सूक्ष्म ध्यान में दृष्टियोग और नादा- नुसंधान करो। जिसको जैसी जानकारी है, उनके अनुकूल करो। इसके पश्चात् संत चरणदासजी महाराज कहते हैं-
“ जागै ना पिछले पहर, करै न गुरु मत जाप ।
मुँह फारे सोवत रहै, ताकूँ लागै पाप ।।”
ये रात्रि के चौथे पहर जगकर भगवद्भजन करने का आदेश देते हैं। अगर इसमें जाकर भजन नहीं करते हैं, तो पाप लगेगा। पाप का फल दुःखमय होता है। दुःख में कोई जाना व रहना चाहता नहीं। सब-के-सब सुख चाहते हैं। इसलिए चाहिए कि पाप नहीं करें। बैठकर भजन करें। प्रभु-चिंतन करें। हमारे यहाँ वैदिक धर्म में त्रिकाल संध्या है। ब्रह्ममुहूर्त में करें, दिन में स्नान के बाद करें और सायं काल करें। यही त्रिकाल संध्या है। इससे हमारा यह लोक बनेगा और परलोक भी बनेगा। दुनियादारी का काम जीवन-यापन के लिए है, वह भी करना है और शरीर छूटने के बाद भी हमारा जीवन सुखमय हो, इसके लिए भगवद्भजन करना है। इस तरह यह लोक भी बनेगा और परलोक भी बनेगा। दोनों जगह हमारा जीवन सुखमय होगा।
यह प्रवचन दिनांक-2-1-1998 ई0 स्थान: रानेश्वर दुमका में अपराह्णकालीन सत्संग में हुआ था। (शान्ति-संदेश, मार्च 2003 ई0)
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समादरणीय साधकवृन्द, सत्संगियो, माताओ एवं देवियो
यह कोई उल्लास की वेला नहीं है, यह तो निराशा की वेला है। 1986 ई0 में 8 जून को गुरु महाराज ने अपने पावन शरीर का त्याग किया था। इसी की स्मृति में प्रत्येक वर्ष परिनिर्वाण-दिवस का कार्यक्रम रखा जाता है।
हमलोगों ने देखा है कि जहाँ शुक्लपक्ष का चंद्रोदय होता है, वहीं शुक्लपक्ष के सूर्य का अस्त होता है। गुरु महाराज हमलोगों को कृष्णपक्ष में नहीं छोड़ गए, शुक्लपक्ष में छोड़ गए। गुरुदेव चले गए, तो चले ही नहीं गए, आश्वासन देकर गए हैं कि वे आएँगे भी।
पूर्व की बात है। गुरुदेव अस्वस्थ थे। भागलपुर शहर के एक बड़े अच्छे डॉक्टर रामबदन बाबू महीने में एक बार उन्हें आकर इंजेक्शन लगा जाते थे। डॉक्टर साहब परमपूज्य गुरुदेव के प्रति बहुत श्रद्धावान थे और संतमत में भी आस्था रखते थे। जब समय हो जाता, तो वे अपने पैसे से इंजेक्शन खरीदकर स्वयं चले आते और इंजेक्शन लगा जाते थे। निःशुल्क सेवा करते थे। एक दिन गुरुदेव कुछ कह रहे थे और श्रद्धालुजन उनकी बातों को सुन रहे थे। मैं गुरुदेव के पास में बैठा हुआ था। बातचीत के क्रम में उन्होंने कहा कि ‘इस बार रामबदन बाबू मुझको इंजेक्शन नहीं लगा सकेंगे।’ मैंने कहा कि वे तो बड़े पक्के डॉक्टर हैं, वचन के भी बड़े पक्के हैं, बिना कहे-सुने समय पर आकर स्वयं इंजेक्शन लगा देते हैं। इस बार क्यों नहीं दे सकेंगे? गुरुदेव ने कहने की कृपा की-‘देखिये! आप और मैं दोनों एक ही जगह रहते हैं। मुझको इस बात की जानकारी है कि वे नहीं आएँगे; लेकिन आपको इस बात की जानकारी नहीं है।’ मैंने कहा कि गुरुदेव! आपने इतनी बड़ी साधना की है, तपस्या की है, हुजूर नहीं जानेंगे तो मैं जानूँगा? इसपर परमाराध्य ने कहा-‘हाँ, मेरी जैसी साधना तो आपने नहीं की है; लेकिन आपने मेरी बड़ी सेवा की है। मैं आपको आशीर्वाद देता हूँ, वरदान देता हूँ कि जहाँ कहीं मैं रहूँगा, आप वहाँ रहेंगे।’ (श्रोताओं द्वारा सद्गुरु महाराज का जय-घोष) मैंने कहा-‘गुरुदेव यह कैसे संभव है? एक-न-एक दिन तो शरीर का त्याग होना ही है। जबतक हमलोग इस शरीर में हैं, तबतक तो गुरुदेव अपने पास रखेंगे ही; लेकिन जब मेरा शरीर छूटेगा या गुरुदेव का शरीर छूटेगा, तो फिर हमदोनों के एक साथ कैसे रहेंगे?’ गुरुदेव ने दृढ़ता के साथ उत्तर दिया-‘मैं जाऊँगा, तो फिर आऊँगा और आपको साथ में लेकर जाऊँगा।’ (सद्गुरु महाराज का जय-घोष)
हमलोगों के बीच एक बड़े अच्छे महात्मा थे श्रीधर बाबा। एक बार वे बीमार हो गए। उन्होंने एलोपैथिक, होम्योपैथिक, आयुर्वेदिक, प्राकृतिक सभी तरह की चिकित्साएँ करवायीं; लेकिन वे रोग से मुक्त नहीं हुए। भागलपुर आकर कुछ दिन रहे और पुनः इलाज करवाने के लिए पटना जाना चाह रहे थे। मैं उनको बहुत आदर देता था। वे भी मुझे श्रद्धा की दृष्टि से देखते थे। पटना जाने की बात गुरु महाराज से स्वयं नहीं कही। उन्होंने मुझसे कहा कि आप मेरी ओर से गुरु महाराज से निवेदन कीजिए कि मुझे उनका आशीर्वाद मिले और मैं पटना से इलाज के बाद रोग मुक्त होकर लौटूँ। मैंने सोचा, मेरा काम है प्रार्थना करना, आशीर्वाद देना या न देना उनका काम है। मैं गुरु महाराज के पास गया और उनके श्रीचरणों में प्रणाम किया। गुरु महाराज ने पूछा-‘की बात छियै?’ (क्या बात है?) मैंने कहा-‘हुजूर! श्रीधर बाबा के मऽन खराब छै। सब तरहक इलाज करा कऽ थकि गेलाह, स्वस्थ नहि भेलाह। आब इलाज करेबाक वास्ते पटना जाइ छथि। आपनऽ सँ आशीर्वाद चाहैत छथि जे ओतय सँ रोगमुक्त भै कऽ आबी।’ (हुजूर! श्रीधर बाबा की तबीयत खराब है। सब तरह का इलाज करवाकर थक गए, पर स्वस्थ नहीं हुए। अब इलाज कराने के लिए पटना जाना चाहते हैं। आपसे आशीर्वाद चाहते हैं कि वहाँ से रोगमुक्त होकर आवें)
गुरु महाराज उत्तर देते हैं-‘पटना जाअथ से हम आशीर्वाद दैत छियैन। लेकिन रोगमुक्त होयब, ई आशीर्वाद नहिं दैत छियैन। (पटना जाएँ, इसके लिए आशीर्वाद देता हूँ, पर रोगमुक्त होइयेगा, यह आशीर्वाद नहीं देता हूँ।)
यह सुन श्रीधर बाबा के मन में थोड़ी तकलीफ हुई, कष्ट हुआ कि आशा लेकर आए थे, गुरु महाराज से आशीर्वाद मिलेगा, पर निराशा ही हाथ लगी। वे रोने लगे। मैंने श्रीधर बाबा से कहा कि इसमें निराश होने की कोई बात नहीं है। गुरु महाराज जो कुछ करते हैं, हमलोगों की भलाई के लिए ही करते हैं। बाबा! जो रोग होता है, वह तो दवाई से ही समाप्त हो जाता है, पर जो भोग होता है, दवाई से नहीं छूटता। भोग को तो भोग करके ही छोड़ना पड़ता है। गुरु महाराज ने यह सोचकर कि आशीर्वाद देने से भोग टल जाएगा, तो फिर अगला जन्म में भोगना ही पड़ेगा, आपको आशीर्वाद नहीं दिया। गुरु महाराज इसी जन्म में भोग को भोगकर समाप्त कर देना चाहते हैं, ताकि हमलोगों को अगले जन्म में नीरोगी शरीर मिले। गुरु महाराज जाएँगे तो फिर आएँगे ही और हमलोग निरोगी सेवक बनकर उनकी सेवा करेंगे।’ इन बातों से उन्हें थोड़ी तसल्ली हुई।
गुरु महाराज ने जो हमलोगों को ज्ञान दिया है उस ज्ञान का सम्मान करें, सम्मान करने का मतलब है कि इस ज्ञान को हमलोग अपने में उतारें। हम सब का कल्याण होगा।स
यह प्रवचन महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट भागलपुर में महर्षि मेँहीँ- महापरिनिर्वाण-दिवस के अवसर पर दिनांक 16-06-1999 ई0 को हुआ था।
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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
अभी आपलोग जेल की कथा सुन रहे थे। हमलोग भी जेल में हैं। वह जेल क्या है? जेल का बहुत बड़ा अहाता होता है। उस अहाते के अन्दर बहुत-से कमरे होते हैं। एक-एक कमरे में एक-एक कैदी रहता है। उसी तरह यह विश्व ब्रह्माण्ड एक कारागार है और हमलोगों का एक-एक शरीर एक-एक कमरा है। उस एक-एक कमरे में एक-एक जीव कैदी की तरह रह रहा है। जब कैदी कैद में हो, तो वह सुखानुभव कैसे कर सकता है? परतंत्रता में दुःख तो स्वाभाविक है। जो कथा आपने सुनी, उसमें तो कैदी की अवधि पूरी हो गई थी; लेकिन हमलोगों के जेल की अवधि कब पूरी होगी, कोई ठिकाना नहीं है! जबतक साधना नहीं करेंगे, तबतक पूर्ण होनेवाली भी नहीं है। इसीलिए हमारे गुरुदेव के वचन में आया है-
आओ वीरो मर्द बनो अब, जेल तुम्हें तजना होगा।
मन निग्रह के समर क्षेत्र में, सन्मुख थिर डटना होगा।।
इस शरीररूप जेल को छोड़ो, कारागार से निकलो। इस कारागार से निकलने के लिए क्या करना होगा? आप जितने साधकगण एकत्र हुए हैं, मन-निग्रह के समर क्षेत्र में साधना करने के लिए उपस्थित हुए हैं। अब हटना नहीं होगा, डटना होगा।
हमलोग साधना में सफलता चाहते हैं। एक कृषक खेती में सफलता चाहता है, व्यापारी व्यापार में सफलता चाहता है, विद्यार्थी पढ़ाई में सफलता चाहता है, युद्ध के मैदान में डटा हुआ एक फौजी एवं सिपाही भी सफलता चाहता है। जो कोई भी कुछ काम करते हैं, उसमें वे सफलता चाहते हैं। लेकिन यह सफलता मिलेगी कब? भगवान कृष्ण ने गीता में कहा है कि इसके लिए पाँच चीजों की आवश्यकता होती है-(1) कर्ता, (2) क्षेत्र, (3) साधना, (4) कार्यान्वयन और (5) अज्ञात।
कर्ता सुयोग्य हो, क्षेत्र अनुकूल हो, तब तो ठीक है। अगर कर्ता अयोग्य हो और क्षेत्र अनुकूल हो, तो सफलता नहीं मिलेगी। कर्ता योग्य हो और क्षेत्र अनुकूल नहीं हो, तो सफलता नहीं मिलेगी। कर्ता योग्य हो और क्षेत्र अनुकूल हो, पर उसके पास साधन ही नहीं हो, तो भी सफलता नहीं मिलेगी। अगर वह साधना सम्पन्न भी हो; लेकिन समुचित ढंग से कार्यान्वयन नहीं कर रहा हो, तब भी सफलता नहीं मिलेगी। कर्ता सुयोग्य हो, क्षेत्र अनुकूल हो, साधन सम्पन्न हो और कौशल से कार्यान्वयन कर रहा हो; ये चार चीजें जब एकत्रित हो जाती हैं, तो पाँचवीं चीज है-अज्ञात अर्थात् प्रभु-कृपा, वह मिल जाती है। गोस्वामीजी ने कहा-
जो तेहि पंथ चलइ मन लाई ।
तो हरि काहे न होहि सहाई ।।
जैसे दूध को हमलोग औंटते हैं, तो औंटते-औंटते हम उसका खोआ भले ही बना लें, पर दही नहीं बना सकते। दही तभी बना सकते हैं, जब दूध में थोड़ा जामन पड़ेगा। उसी तरह हम कितना भी कुछ कर लें, जबतक गुरु-कृपा-रूप जामन उसमें नहीं आएगा, तबतक दही नहीं जमेगा, साधना में सफलता नहीं मिलेगी। आप साधकगण घर-वार, परिवार, रोजगार-सब छोड़कर यहाँ आए हैं। आपलोगों को सारा समय इसमें ही लगाना चाहिए। ध्यान रखना चाहिए कि कहीं दूसरी जगह मन का योग न हो। मन भागता है, समेटिए।
जहँ जहँ मन भगि जाय, ताहि तहँ-तहँ से तत्क्षण ।
फ़ेरि फ़ेरि ले आइ, लगाइय धयेय में आपन ।।
-महर्षि मेँहीँ-पदावली
साधना में सफलता के लिए श्रम और धैर्य की भी आवश्यकता होती है। किसी पत्थर को टुकड़ा करना है। हम उस पत्थर पर चोट दे रहे हैं, पर नहीं टूट रहा है। वह पत्थर तब टूटेगा, जब उसमें 100 चोट लगेगी। 2-4-10-20 चोट देते हैं, नहीं टूटता है। देते-देते 80-90 चोट देते हैं, सोचते हैं कि कहाँ टूट रहा है? आप 99 चोट दे चुके, तब भी नहीं टूट रहा है। अब निराशा होती है कि यह हमसे नहीं टूटेगा। लेकिन अब वह केवल एक चोट खोज रहा है। जैसे ही हम एक चोट और मारते हैं कि फट से पत्थर दो टुकड़ा हो जाता है। इसका अर्थ यह नहीं हो जाता कि आपने जो 99 चोट दी, वह व्यर्थ गया। अगर 99 चोट नहीं देते, तो सौवीं चोट लगती कैसे? इसलिए वह 99 चोट भी ठीक ही पड़ी। इसी तरह साधना करते रहिए, तिल दरवाजा टूटेगा और हम प्रकाश में जाएँगे। गुरु महाराज कहते हैं-
तिल दरवाजा टुटै, नजर के जोर से।
अरे हाँ रे ‘मेँहीँ’ लगे टकटकी खूब जोर बरजोर से ।।
जबतक जोर और बरजोर नहीं करेंगे, तिल दरवाजा कैसे टूटेगा? ईसा मसीह ने कहा है-‘खटखटाओ खुलेगा, माँगो मिलेगा।’ उसी दरवाजा को खटखटाना है। खटखटाते रहने से कभी-न-कभी खुलेगा अवश्य।
हमारे ध्यानाभ्यास में आलस्य और गुणावन-ये दो बड़े विघ्न हैं। सबसे पहली बात है कि हम बैठने के लिए सीखें। जबतक हम ठीक तरह से बैठने के लिए नहीं सीखेंगे, हमारी आगे की प्रगति नहीं हो सकती है। रामचरितमानस में लिखा है-
गिरि सुमेरु उत्तर दिशि दूरी ।
नील सैल एक सुन्दर भूरी ।।
तहँ बसि हरिहिं भजहिं जिमि कागा ।
सो सुनु उमा सहित अनुरागा ।।
सुमेरु पर्वत के उत्तर नीलगिरि पर्वत पर कागभुशुण्डिजी रहते थे। वह सुमेरु कहाँ है? आपकी पीठ की रीढ़ जो है, वही है सुमेरु। इसी के उत्तर यानी ऊपर में आँख बंद करके देखिए, अंधकार है। इस नीलगिरि में हमारा मन कागभुशुण्डि-कौआ बना हुआ है। गोस्वामीजी ने लिखा है-
वायस पालिअहि अति अनुरागा ।
होहिं निरामिष कबहुँ कि कागा ।।
जिस तरह सुग्गे को लोग पिंजड़े में पालते हैं, उसी तरह कौआ को पिंजड़ा में पालिए और बढ़िया-बढ़िया भोजन, खीर-मिठाई खिलाइए; लेकिन जब उसे पिंजड़ा से निकाल दीजिए, तो वह कौआ खराब चीजों पर ही चोंच लगाएगा। उसी तरह हमारा मन इस शरीर-रूप पिंजड़ा में बंद तो है; लेकिन जब उड़ता है, तो खराब चीजों पर ही बैठता है।
श्रीरामकृष्ण परमहंस ने कहा-‘जबतक हम साधना नहीं करेंगे, हमारा मन पवित्र नहीं होगा।’ बोलने के लिए हम लंबा-लंबा लेक्चर, बड़ा-बड़ा व्याख्यान दे सकते हैं; लेकिन हमारा मन बार-बार कहाँ जाता है? परमहंसजी ने कहा कि आप देखते हैं, गिद्ध और चील आकाश में सबसे ऊपर उड़ता है; लेकिन उतनी ऊँचाई पर उड़ने पर भी उसकी नजर लाश पर रहती है। जहाँ कहीं लाश देख लिया, चील और गिद्ध आकर बैठ जाते हैं। उसी तरह लंबी-लंबी बातें हम कितनी भी क्यों न कहें; लेकिन अगर साधना से हमारा मन परिमार्जित नहीं है, तो वह विषय-रूपी लाश पर ही जाएगा। उस ओर से हम अपने मन को हटाएँ, तभी भगवद्-भजन बनेगा। संत कबीर साहब की वाणी है-
पहले यह मन काग था, करता जीवन घात ।
अब तो हंसा हुआ, मोती चुगि चुगि खात ।।
कागभुशुण्डि ने कौन-सी साधना की कि काग से हंस बन गए-इतने बड़े संत हो गए? परम पूज्य गुरुदेव ने जो साधना आपलोगों को बतलाई है, वही साधना वे भी करते थे। मनोयोगपूर्वक करते थे; करते-करते इतने बड़े हो गए कि भगवान शंकर भी उनके सत्संग में जाते थे।
पीपर तरु तर धयान सो धारई ।
जाप यज्ञ पाकरि तर करई ।।
आम छाँह कर मानस पूजा ।
तजि हरि भजन काज नहिं दूजा ।।
बटतर कह हरि कथा प्रसंगा ।
आवहिँ सुनहिं अनेक विहंगा ।।
कागभुशुण्डि पाकड़ वृक्ष के नीचे जप-रूपी यज्ञ करते थे। आपलोग भी मानस जप करते हैं। जप अगर ठीक-ठीक हो, तो शास्त्र कहता है-‘जपात् सिद्धिः।’ जप में भी सिद्धि हो जाती है। कागभुशुण्डिजी कहते थे-‘आम छाँह कर मानस पूजा।’ मानस जाप के बाद आपलोग भी मानस ध्यान करते हैं; लेकिन एकाग्रतापूर्वक कीजिए। जबतक एकाग्रतापूर्वक जाप नहीं हो जाता, तो मानस ध्यान क्या होगा? जाप ऐसा चाहिए कि जाप और आपके बीच कुछ नहीं रहे। इतने दिनों से हमलोग मानस जाप, मानस ध्यान और दृष्टियोग कर रहे हैं। विचार करें कि कहाँ तक पहुँचे हैं? अगर प्रगति नहीं हुई, तो क्यों? हमारी नींव मजबूत नहीं है। पहले हमलोग नींव को मजबूत करें। पहले इतना जप करें, उसी में इतना समय लगावें कि नींव मजबूत हो जाए, तब आगे बढ़ें। ऐसा नहीं होना चाहिए कि इतनी देर मानस जप, इतनी देर मानस ध्यान और इतनी देर दृष्टियोग करना है।
गुरु जाप मानस धयान मानस, कीजिए दृढ़ साधाकर ।
इनका प्रथम अभ्यास कर, स्त्रुत शु) करना चाहिए ।।
आजकल वर्षा के कारण गंगा का पानी बहुत गंदा हो गया है। अपनी परछाईं उसमें दिखलाई नहीं पड़ती है। जब पानी साफ हो जाएगा, तो उसमें हम अपनी परछाईं देख सकेंगे। उसी तरह जबतक हमारा मन अपवित्र है, जबतक गुरु का शुद्ध रूप हमारे अंदर नहीं आ रहा है; हमारा मानस ध्यान ठीक-ठीक नहीं बन रहा है। शुद्ध मन में ही प्रभु का प्रतिबिम्ब पड़ता है। इसलिए जाप ठीक-ठीक होने पर जब मानस ध्यान करेंगे, तो सुरत निर्मल हो जाएगी और तब विन्दु का ज्ञान होगा। महर्षि मेँहीँ-पदावली में आप पढ़ते होंगे-
प्रथमहि धारो गुरु को धयान ।
हो स्त्रुति निर्मल हो विन्दु ज्ञान ।।
जब हमारा मानस जाप ठीक नहीं हुआ, मानस ध्यान ठीक नहीं हुआ, फिर हमारा दृष्टियोग कैसे बनेगा? जबतक मोटे-मोटे अक्षरों को लिखने का अभ्यास हम नहीं करें, तबतक महीन अक्षरों को लिखने की योग्यता कैसे होगी? मोटे-मोटे अक्षरों को जब लिखने में अभ्यस्त हो जाएँगे, तब महीन अक्षर भी लिख सकेंगे। उसी तरह मानस जप और मानस ध्यान के ठीक अभ्यास के बाद ही विन्दु-ध्यान संभव है। यह विन्दु-ज्ञान कैसे होगा?
दोउ नैना बिच सन्मुख देख ।
इक विन्दु मिलै दृष्टि दोउ रेख ।।
दृष्टि की दोनों धारें-दोनों रेखाएँ जहाँ मिलेंगी, वहाँ विन्दु उत्पन्न होगा। जब विन्दु उत्पन्न होगा, तो मन का पूर्ण सिमटाव होगा।
शरीर और संसार में बड़ा संबंध है। शरीर के जितने तल हैं, संसार के भी उतने ही तल हैं। शरीर के जिस तल पर जब हम रहते हैं, संसार के भी उसी तल पर तब हम रहते हैं। शरीर के जिस तल को जब हम छोड़ते हैं, संसार के भी उसी तल को तब हम छोड़ते हैं। स्थूल-सूक्ष्म की संधि पर स्थित विन्दु पर जब कोई पूर्ण सिमटाव करके बैठ जाता है, तो यह पिण्ड छूट जाता है। पिण्डदान करने से बड़ा पुण्य होता है। लोग पिण्डदान करने के लिए तीर्थ में जाते हैं, पर वास्तविक पिण्ड दान तो यह है। शरीर को पिण्ड कहते हैं और दृष्टि साधन करके उस विन्दु से जाकर जुड़ गए, तो पिण्ड का ज्ञान नहीं रहता है, यही पिण्डदान हो गया। इस पूर्ण सिमटाव में ऊर्ध्वगति होती है। पिण्ड से लोग ब्रह्मांड में जाते हैं। स्थूल शरीर का भान नहीं रहता, स्थूल संसार का भी भान नहीं रहता। स्थूल शरीर से हम छूट गए, स्थूल संसार से भी छूट गए। स्थूल से सूक्ष्म में जाने पर वहाँ विविध शब्द होते हैं, उनको अनहद शब्द कहते हैं यानी जिसकी गणना की हद या सीमा नहीं है। फिर-
अनहद में धुन सत लौ लाय ।
भव जल तरिबो यही उपाय ।।
अनहद ध्वनि में अनेक प्रकार के शब्द हैं। उन शब्दों में सत्शब्द को पकड़ना है। हमारे गुरुदेव के वचन में आया है-
सत शब्द धार कर चल मिलन आवरण सारे पार में ।
वह सत्शब्द सबसे पीछे मिलता है। पहले अनहद ध्वनि मिलती है। उसको पकड़कर आगे बढ़ते हैं, तो कारण शरीर छूट जाता है, कारण संसार छूट जाता है। फिर महाकारण शरीर छूट जाता है, महाकारण संसार छूट जाता है। जो सत्ध्वनि को पकड़ लेते हैं, तो स्थूल, सूक्ष्म, कारण और महाकारण; ये चारो जड़ावरण छूट जाते हैं। तब ‘चेतन चोला बना अमोला’-उस चेतन चोला में प्रवेश कर जाते हैं। जड़मंडल से चेतनमंडल में प्रवेश कर जाते हैं। वह शब्द कहाँ से आया है? वह परम प्रभु परमात्मा से आया हुआ शब्द है। शब्द में अपने केन्द्र की ओर खींचने का गुण होता है। उस आदिशब्द को पकड़ेंगे, तो परम प्रभु परमात्मा तक जाएँगे। “ स्थूल सूक्ष्म कारण महाकारण कैवल्यहु के पार”; इन सबको पार करके जीव पीव मिलकर एक हो जाएगा। तब-‘पार गमन ही सार भक्ति है, लो यहि हिय में धार।’ यही तो असली भक्ति है। इसी के लिए गुरु महाराज का उपदेश है-
मन निग्रह के समर क्षेत्र में, सन्मुख थिर डटना होगा।।
वक्त नहीं है ऐ वीरो अब, गाफि़ल होकर सोने का ।
विन्दु राह से निकल बहादुर, तम मंडल टपना होगा।।
रास्ता वही है, छेद वही है; लेकिन उस छेद का भेद गुरु ही बतलाएँगे। जब उनकी कृपा होगी, तभी उस भेद को जानकर हम साधना के द्वारा स्थूल शरीर और संसार से बाहर निकल सकते हैं, उस पार जा सकते हैं। जब स्थूल से पार हो जाएँगे, तब-
दामिनि दमकै चंदा चमकै, सूर्य तपै जोति मंडल ।
इस मंडल से आगे वीरो, और तुम्हें बढ़ना होगा ।।
शब्द मंडल में सार शब्द धवनि, गुरुगम होकर धार लेना ।
जगत जेल को इसी युक्ति से, सुन ‘मेँहीँ’तजना होगा ।।
संसार-रूपी जो जेल है, कारागार है, वह तभी छूटेगा, जब सारशब्द को पकड़ लेंगे।
इसी के लिए आप साधकगण यत्र-तत्र से एकत्र हुए हैं, घर-द्वार छोड़कर यहाँ आए हैं। यहाँ आकर भी अगर वही बातें करते हैं, तो दुनियादारी छूटी कहाँ? ‘आये थे हरिभजन को, ओटन लगे कपास।’ इसलिए मन को चंचल नहीं कीजिए। मनोयोगपूर्वक साधना कीजिए। किसी से बातें कीजिए, तो ज्ञान-ध्यान की ही बातें कीजिए। अपने को इस तरह के वातावरण में रखिएगा, तो ध्यान में बल मिलेगा। बस, इतना कहकर मैं अपनी वाणी को विराम देता हूँ। त
पूज्यपाद महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन मास-ध्यान-साधना के अवसर पर महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट, भागलपुर में दिनांक 27-06-1999 ई0 के सत्संग में हुआ था।
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गो0 तुलसीदासजी ने रामचरितमानस में लिखा है-भगवान श्रीराम ने अपनी प्रजा को उपदेश देते हुए कहा था कि यह सुर-दुर्लभ मनुष्य-शरीर भाग से मिलता है।
आकर चारि लच्छ चौरासी।
जोनि भ्रमत यह जिव अबिनासी।।
फिरत सदा माया कर प्रेरा।
काल कर्म सुभाव गुन घेरा।।
कबहुँक करि करुना न देही।
देत ईस बिनु हेतु सनेही।।
‘आकर’ का अर्थ है-खानि। ‘आकर चारि’ अर्थात् चार खानियाँ। वे हैं-अंडज, पिंडज, उष्मज और अंकुरज (स्थावर)। अंडा से उत्पन्न होनेवाले अंडज कहलाते हैं; जैसे-चिड़िया, चींटी आदि। पेट से, पिंड-शरीर से उत्पन्न होनेवाले जीव पिंडज कहलाते हैं; जैसे-गाय, बकरी, कुत्ता आदि। गर्मी से पैदा होनेवाले जूँ, खटमल आदि उष्मज और अंकुर से उत्पन्न होनेवाले पेड़-पौधे आदि अकुंरज कहलाते हैं। इन चार खानियों में चौरासी लाख प्रकार की योनियाँ हैं। ये चौरासी लाख प्रकार की योनियाँ क्या हैं? गोया चौरासी लाख प्रकार के वस्त्र या पोशाक हैं। जिस तरह किसी रंगमंच पर अभिनय के लिए विविध पोशाकों में अभिनयकर्ताओं को भेजा जाता है, उसी तरह इस संसाररूपी रंगमंच पर अभिनय करने के लिए परमात्मा ने जीव को चौरासी लाख प्रकार की योनियों में भेजा है।
आपलोगों ने टेलीविजन पर रामायण धारा- वाहिक देखा होगा। उसमें राम, लक्ष्मण, सीता, अंगद, हनुमान, रावण, मेघनाद आदि विभिन्न प्रकार के पात्र दिखलाये गये हैं। अभिनयकर्ता अपने वेश के अनुरूप ही अपना खेल दिखलाते हैं। जो राम का खेल है, वह हनुमान दिखलाने लगे; जो हनुमान का खेल है, वह रावण दिखलाने लगे-यह समुचित नहीं होगा। बंदर, भालू, देव, दानव, जो जिस वेश में है, वह तदनुरूप खेल दिखावे, यही युक्ति संगत है। ‘जस काछिय तस चाहिए नाचा।’ जिस तरह का जिसका वेश है, उसके अनुरूप ही कार्य होना चाहिए।
चार खानियों में पिंडज को श्रेष्ठ माना गया है और पिंडजों में मनुष्य-शरीर सर्वश्रेष्ठ है। हमलोगों को मनुष्य-शरीर के रूप में सर्वोपरि पोशाक मिला है, देव-दुर्लभ शरीर मिला है। इसलिए हमलोगों को पोशाक के अनुरूप ही सर्वोत्तम खेल प्रदर्शित करना चाहिए। राजा के अधीन प्रजा होती है, प्रजा के अधीन राजा नहीं होते। हमारा यह शरीर साम्राज्य है, इन्द्रियाँ हमारी प्रजाएँ हैं और हम जीवात्मा इस साम्राज्य के राजा हैं। हम अच्छी तरह सोचकर देखें कि हम ठीक राजा हैं या नहीं। राजा के अधीन प्रजा होनी चाहिए, तो हमारी इन्द्रियाँ हमारे अधीन हैं या नहीं। अगर हमारी इन्द्रियाँ हमारे अधीन हैं, तब तो हम ठीक ही राजा हैं, यदि हम इन्द्रियों के अधीन हैं, तो हम राजा कैसे? जरा सोचो। मिथिला में एक प्रसिद्ध कहावत है-मालिक सँ बहिया भेल बरी। कहै घाघ संतापै मरी।
अर्थात् स्वामी के ऊपर सेवक का आधिपत्य होना, अत्यन्त चिंता का विषय बन जाता है और संत कबीर कहते हैं-
खट्टा मीठा चरपरा, जिह्वा सब रस लेय ।
पाँचों कुतिया मिल गई, पहरा किसका होय ।।
संतजन बताते हैं कि यदि तुम्हारी इन्द्रियाँ शासित नहीं हैं; आँख, कान, नासिका, जिह्वा और त्वचा-ये पाँचों इन्द्रियाँ पंच विषयों की ओर प्रवाहित हो रही हैं, अपने-अपने भोगों में रत हैं, तो इसका अर्थ हुआ कि तुम जो चरित्र निभाने आए हो, उसको नहीं करके दूसरे खेल में लग गये हो। परिणामस्वरूप रंगमंच पर नर-तन अभिनय का तुम्हारा अधिकार छिन जाएगा, तुम निकाल दिये जाओगे, फिर पता नहीं भविष्य में कौन-सा वस्त्र तुमको पहनने के लिए मिलेगा। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है-
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय,
नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्याणि
संयाति नवानि देही ।।
जिस तरह से लोग शरीर पर कपड़े पहनते हैं, पुराने कपड़ों को छोड़कर नए-नए कपड़े पहनते हैं; उसी तरह जीव पुराने शरीर को छोड़कर नया शरीर धारण करता है। यह क्रम तबतक चलता रहता है, जबतक जीव पीव को न पा ले। जरा सोचिए, जबसे हमलोगों ने जन्म लिया है, इतनी बड़ी उम्र में हमलोगों ने कितने कपड़े पहने हैं, कितने फटे हैं, किसी को याद नहीं। जबतक यह शरीर रहेगा, कितने ही और कपड़े पहनेंगे और छोड़ेंगे। जिस तरह एक शरीर के जीवनकाल में अनेक कपड़े पहनते हैं और वे फटते हैं, उसी तरह एक जीव के जीवनकाल में अनेक शरीर होते हैं और छूटते हैं। हम परम प्रभु परमात्मा की संतान हैं। गो0 तुलसीदासजी ने लिखा है-
ईस्वर अंस जीव अबिनासी।
चेतन अमल सहज सुखरासी ।।
यद्यपि पुत्र पिता के राज्य का अधिकारी होता है, तथापि यदि पुत्र सुयोग्य नहीं हो, पिता को संतुष्ट रखनेवाला नहीं हो, तो पिता अपना राज्य उसे नहीं देंगे। माता-पिता किस तरह जानते हैं कि पुत्र अयोग्य है या सुयोग्य? वे हमारी संगति और कर्मों को देखते हैं। अगर हम अच्छी संगति करते हैं, तो वे हमें अच्छा समझते हैं और यदि हम बुरी संगति में पड़ जाते हैं, बुरे-बुरे कर्मों को करते हैं, तो वह हमसे अप्रसन्न हो जाते हैं, हमें बुरा और अयोग्य समझते हैं। अतएव हम सर्वप्रथम संतों की संगति करें। संत कैसे होते हैं? गोस्वामी तुलसीदासजी की वाणी में है-
विश्व उपकारहित व्यग्रचित सर्वदा,
त्यक्त मदमन्यु कृत पुन्य रासि।
जत्र तिष्ठन्ति तत्रैव अज सर्वहरि,
सहित गच्छन्ति क्षीराब्धि वासी।।
विश्व कल्याण के लिए जिनका चित्त सर्वदा व्यग्र रहता है तथा जो गर्व और क्रोध को त्यागकर बहुत-से पुण्य कर्मों को करते हैं, वे जहाँ ठहरते हैं, वहीं ब्रह्मा और शिव के सहित और समुद्र में वास करनेवाले हरि भगवान जा विराजते हैं।
ऐसे संतों की संगति करने से ब्रह्मा, विष्णु, महेश और सभी देवताओं की संगति मिल जाती है। हम भी ऐसी संगति करेंगे, तो हमारे परम पिता परमात्मा हमसे प्रसन्न होंगे। फिर उनकी जो संपत्ति है, धरोहर है, वह हमको मिलेगी। वे हमें अपने राज्य का अधिकार देंगे। लेकिन हम तो इन्द्रियों की संगति में पड़े हुए हैं, इसी कारण हम परमात्मा के राज्य से दूर हैं, वंचित हैं।
हमारी पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ और चार अंतःकरण की इन्द्रियाँ हैं। जबतक हम जाग्रत अवस्था में रहते हैं, ये चौदहों इन्द्रियाँ काम करती रहती हैं। जब स्वप्नावस्था में जाते हैं, तो इनमें से बाहर की दस इन्द्रियाँ काम नहीं करतीं, केवल भीतर की चार इन्द्रियाँ-मन, बुद्धि, चित और अहंकार काम करती हैं और जब हम सुषुप्ति अवस्था में जाते हैं, तो इन चारो में से मात्र चित्त ही काम करता है। हमें इन इन्द्रियों का दमन कर इनकी संगति से ऊपर उठना होगा, तभी असली भगवद्भजन होगा। गोस्वामीजी ने लिखा है-‘तीन अवस्था तजहु भजहु भगवन्त।’ तीन अवस्थाओं से ऊपर उठना कैसे होगा तथा हमारी ये इन्द्रियाँ कैसे दमित होंगी? यह एक विचारणीय विषय है।
हमारे गुरुदेव महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज कहा करते थे कि मान लो, रात का समय है और तुम अपने बिछावन पर गहरी नींद में सोए हुए हो। एकाएक तुम्हारे कमरे में पाँच आदमी आवे। उनमें से दो आदमी तुम्हारी दोनों टाँगों को, दो आदमी तुम्हारी दोनों भुजाओं को और एक आदमी तुम्हारे सिर को पकड़कर अपनी-अपनी ओर खींचे, तो उस समय तुम्हें क्या बल मिलेगा? लेकिन अगर पाँचो आदमी तुमको छोड़ दे, तुम उठकर बैठ जाओ और किसी एक को अपने दोनों हाथों से जकड़कर पकड़ लो, तो क्या होगा-समूचे शरीर का बल तुम्हारे हाथों में आ जाएगा। उसी तरह हमारी जो पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ हैं, जबतक ये पंच विषयों में रमण कर रही हैं, तो हमारी शक्ति पाँच भागों में बँट जाती है। हमें कुछ भी शक्ति मालूम नहीं पड़ती। लेकिन जब हम पंच विषयों से मन को समेटकर दृष्टि की दोनों धारों को केन्द्र में केन्द्रित करेंगे, तो शरीर में फैली हुई चेतन धार एक स्थान पर स्थिर हो जाएगी। फलतः पूर्ण सिमटाव होगा और ऊर्ध्वगति होगी। ऊर्ध्वगति में आवरण-भेदन होता है। हम पिंड से निकलकर ब्रह्मांड में, अंधकार से निकलकर प्रकाश में प्रतिष्ठित हो जाएँगे। उज्ज्वल प्रकाश में प्रतिष्ठित हो जाने से हमारा भाग्य भी उज्ज्वल हो जाएगा। अन्यथा जबतक हम अंधकार में भटकते रहेंगे, तबतक हमारे काले कारनामे अर्थात् अपकर्म होते रहेंगे और हमारा भविष्य जीवन अंध- कारमय रहेगा।
जो कोई दृष्टि-साधन की क्रिया करते हैं, तो इससे उनकी इन्द्रियाँ वश में होती हैं। इसी को ‘दम’ की साधना कहते हैं। लेकिन इन्द्रियों को विषय की ओर प्रेरित करनेवाला मन है। जबतक हमारा मन पूरी तरह वश में नहीं रहेगी। विचार के द्वारा भले ही कुछ देर के लिए हम इन्द्रियों को विषयों में जाने से रोक सकते हैं, पर मौका पाते ही पुनः ये विषयों में रमण करने लगेंगी। वस्तुतः शम की साधना के बिना मनोनिग्रह संभव नहीं और जबतक हमारा मन हमारे वश में नहीं होगा, तबतक हमारी इन्द्रियाँ हमें धोखा दे सकती हैं। शम की साधना कहने का तात्पर्य है-शब्द की साधना। संत कबीर साहब का वचन है-
सबद खोजि मन बस करै, सहज जोग है येह ।
सत्त शब्द निज सार है, यह तो झूठि देह ।।
शब्द-साधना अर्थात् नादानुसंधान के द्वारा मन को वश में किया जाता है। नादविन्दूपनिषद् में आया है-
मनोमत्तगजेन्द्रस्य विषयोद्यानचारिणः ।
नियामनसमर्थोऽयं निनादो निशितांकुशः ।।
जिस तरह हाथी कदली वन में आकर वृक्षों को तोड़ता-मरोड़ता है और जब महावत उसे अंकुश मारता है, तो वह आगे नहीं जाकर पीछे मुड़ता है, उसी तरह से हमार मन विषयों की ओर भागता है और जब नादानुसंधान करेंगे, तो नादरूप अंकुश के प्रभाव से मन आगे नहीं जाकर पीछे मुड़ेगा। जब मन विषय की ओर से मुड़ेगा तो किधर जाएगा? निर्विषय की ओर जाएगा। वह निर्विषय तत्त्व ही परमात्मा है। इसी के लिए भगवान श्रीराम ने कहा था-‘एहि तन कर फल विषय न भाई।’ मनुष्य-शरीर का धर्म विषय भोग नहीं है। मनुष्य-शरीर का धर्म है-निर्विषय तत्त्व परमात्मा को प्राप्त करना। जो कोई उस परम प्रभु परमात्मा को प्राप्त करते हैं, उन्हीं को मोक्ष मिलता है, आवागमन के चक्र से छुटकारा मिलता है। संत कबीर साहब कहते हैं-
भक्ति निसेनी मुक्ति की, संत चढ़े सब धाय।
जिन जिन मन आलस किया, जनम-जनम पछताय।।
मुक्ति में जाने के लिए जो सीढ़ी है, वह है भक्ति। जो कोई भक्ति करेंगे, उन्हें मुक्ति मिलेगी। जो कोई भोजन करते हैं, उनका पेट भरता है, तृप्ति होती है, उन्हें स्वाद और बल मिलता है; उसी तरह जो भजन करते हैं, उन्हें संतोष धन मिलता है, तृप्ति होती है, उनका आत्मबल बढ़ता है और ब्रह्मरस की प्राप्ति होती है। यह सांसारिक पदार्थों के लिए हाय-हाय नहीं करता। गो0 तुलसीदासजी ने लिखा है-
ब्रह्मपियूष मधुर सीतल, जो पै मन सो रस पावै।
तो कत मृगजल रूप विषय, कारण निसिवासर धावै।।
जो ब्रह्मरस में डूब जाता है, उसे विषय रस फीका पड़ जाता है। यदि किसी को विषय रस मीठा लगता हो, तो समझना चाहिए कि उसे ब्रह्मरस मिला ही नहीं है। क्योंकि जो करोड़पति हो जाएगा, वह कौड़ी चुनने क्यों जाएगा! जो लाखपति होगा, वह खाक छानने क्यों जाएगा! अगर कोई कौड़ी चुनता है, तो वह करोड़पति नहीं है और अगर कोई खाक छानता है, तो वह लाखपति नहीं है। गुरु-भक्तिन सहजोबाई ने बड़ा अच्छा कहा है-
भया जी हरि रस पी मतवारा।
आठ पहर झूमत ही बीते, डारि दियो सब भारा।।
‘हरिरस’ ही अमृतरस है, जिसे पीकर वह मस्त हो जाती है और आठो पहर आनंद में उसी तरह झूमती है, जैसे कोई मदिरा पीकर झूमता हो। मदिरा का नशा तो कुछ समय के बाद उतर जाता है; परन्तु इस अमृतरस का जो नशा चढ़ता है, वह चढ़ा ही रहता है, कभी उतरता नहीं। किसी ने उनसे पूछा कि बाईजी! तुम्हें यह अमीरस कहाँ मिला? तो वह उत्तर देती है-
इड़ा पिंगला ऊपर पहुँचे, सुखमन पाट उघारा ।
पीवन लगे सुधारस जबहीं, दुर्जन बड़ी बिडारा ।।
अर्थात् इड़ा और पिंगला के बीच में सुषुम्ना स्थित है। उसी के आवरण (पाट) को उघारने पर यह रस मिला। उस पाट को कैसे उघारा जाता है? इसका उत्तर महर्षि मेँहीँ-पदावली में इस प्रकार है-
तिल दरवाजा टूटै नजर की जोर से।
अरे हाँ रे मेँहीँ लगे टकटकी खूब जोर बरजोर से ।।
जब साधक गुरुयुक्ति के द्वारा टकटकी ‘खूब जोर बरजोर से’ देखता है, तब तिल दरवाजा या सुषुम्ना का पट खुलता है। इसमें आँख पर जोर नहीं दिया जाता है, बल्कि देखने की कला से देखा जाता है। यहाँ सुषुम्ना की उपमा तिल से दी गई है, पर वह तिल से भी बहुत छोटा है। गुरुदेव के वचन में आया है-
सुखमन के झीना नाल से, अमृत की धारा बहि रही ।
मीन सूरत धार धर, भाठा से सीरा चढ़ि रही ।।
गुरु-मंत्र जप गुरु-ध्यान कर, गुरु-सेव कर अति प्रीत कर ।
गुरु की आज्ञा मान प्यारे, कर सदा गुरु की कही ।।
उस नाल का झीना दुआरा, गुरु तुझे देंगे बता ।
दोउ नैन नासा मध्य सन्मुख, सूई अग्र दर ले लही ।।
यहाँ उन्होंने सूई की नोक से सुषुम्ना की उपमा दी है; लेकिन वह इससे भी अति सूक्ष्म है। सहजोबाई अपना अनुभव बताते हुए आगे कहती हैं-
गंग जमुन बिच आसन मारयो, चमक चमक चमकारा।
भँवर गुफा में दृढ़ ह्वै बैठे, देख्यो अधिक उजारा।।
इड़ा-पिंगला को ही गंग-जमुन कहा गया है। कहती हैं कि वहाँ दृष्टि स्थिर करने पर अनेक प्रकार के प्रकाश देखने को मिले। भँवर गुफा में सुरत के स्थिर होने पर अत्यधिक प्रकाश देखने में आया। साधक जब प्रकाश देखता है, तो वह वहाँ शब्द भी सुनता है। सहजोबाई जब नाद-श्रवण करती है, तो परिणाम क्या होता है? इसका स्पष्टीकरण करती हुई कहती है-
चित्त स्थिर चंचल मन थाका, पाँचो का बल हारा ।
चरणदास कृपा सूँ सहजो, भरम-करम भयो छारा ।।
चित्त स्थिर हो गया, चंचल मन थक गया और पाँचो ज्ञानेन्द्रियाँ जो पाँच विषयों में जाती थी, उसका बल भी समाप्त हो गया। लेकिन ये सारी बातें हुईं कैसे? वस्तुतः चरणदासजी महाराज उनके गुरु थे। परम भक्तिन सहजोबाई ने अपने गुरु को संतुष्ट किया, प्रसन्न किया, गुरु की कृपा हुई, तब उसने अंतर्ज्योति और अंतर्नाद का साक्षात्कार करके मुक्ति फल पाया।
एक जिज्ञासा हो सकती है कि गुरु को हम कैसे संतुष्ट करतें? उत्तर में निवेदन है कि गुरु ने जो विधि कर्म बतलाया है, उसे करेंगे और जो निषेध कर्म बतलाया है, उसे त्यागेंगे, तभी वे संतुष्ट होंगे। गुरु जो मनाही करते हैं, उसे हम करें और जो करने के लिए कहते हैं, उसे हम करें नहीं, तो वे कैसे संतुष्ट होंगे? उनकी कृपा हमें कैसे प्राप्त होगी? गुरु ने बतलाया है कि एक ईश्वर पर विश्वास करो, उसकी प्राप्ति अपने अंदर होगी, इसका दृढ़ निश्चय रखो, सत्संग करो, ध्यान करो और गुरु-सेवा करो; ये पाँच विधि-कर्म हैं। झूठ नहीं बोलो, चोरी नहीं करो, किसी नशीली चीज का सेवन नहीं करो, हिंसा नहीं करो-इस सिलसिले में मांस, मछली, अंडा नहीं खाओ और व्यभिचार नहीं करो अर्थात् परस्त्री, पर-पुरुष-गमन नहीं करो; ये पाँच निषेध-कर्म हैं। यदि हम इन नियमों का पालन करेंगे, तो गुरु अवश्य प्रसन्न होंगे। हम पाप करें और गुरु हमपर प्रसन्न रहें, ऐसा कभी नहीं हो सकता।
गुरु की आज्ञा मान प्यारे, कर सदा गुरु की कही।
(महर्षि मेँहीँ-पदावली)
गुरु की कृपा पाने के लिए उनकी आज्ञा के अनुकूल चलना होगा। गुरु-कृपा हो जाए, तो मुक्ति का द्वार दूर नहीं।
जौं तेहि पंथ चलइ मन लाई।
तो हरि काहे न होहिं सहाई।।
(गो0 तुलसीदास)
यह प्रवचन दिनांक 11-7-1999 ई0 को साप्ताहिक सत्संग के अवसर पर महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट, भागलपुर-3 (बिहार) में हुआ था। (शांति-सन्देश, अक्टूबर, 2010)
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संतों का अवतरण विश्वकल्याण के लिए हुआ करता है। गो0 तुलसीदासजी महाराज ने रामचरित- मानस में लिखा है-
संत उदय संतत सुखकारी।
बिस्व सुखद जिमि इन्दु तमारी ।।
जिस तरह चन्द्र, सूर्य का उदय जगन्मंगल के लिए होता है, उसी प्रकार संतों का अवतरण विश्व कल्याण के लिए हुआ करता है। संत किसी वेश विशेष के कारण नहीं कहलाते हैं, बल्कि संतों के आचरणीय गुणों से जो गुणान्वित होते हैं, वे संत कहलाते हैं। महोपनिषद् में आया है-
भिद्यते हृदयग्रन्थिश्द्यिन्ते सर्वसंशयाः ।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्ट परावरे ।।
जिनके हृदय की ग्रंथि विच्छिन्न हो गई है, वे ही संत कहलाने के अधिकारी हैं। वह ग्रंथि कौन-सी है? गो0 तुलसीदासजी महाराज ने कहा है-
जड़ चेतनहिं ग्रंथि पड़ि गई।
जदपि मृषा छूटत कठिनई ।।
जिसके जड़-चेतन की ग्रंथि छिन्न-भिन्न हो गई है, पृथक्-पृथक् हो गई है, जिन्होंने पहचान कर लिया है कि यह जड़ और यह चेतन है तथा उस ग्रंथि के खुल जाने पर उस ग्रंथि के बीच में रहनेवाली जो वस्तु है, उसका जिन्होंने प्रत्यक्षीकरण कर लिया है, वे संत कहलाते हैं। जड़ और चेतन की ग्रंथि के बीच में छिपा हुआ क्या है? संत कबीर साहब ने कहा है-
लाल लाल जो सब कोइ कहै, सबकी गाँठी लाल ।
गाँठी खोलिके परखै नाहीं, तासो भयो कंगाल ।।
जड़-चेतन की ग्रंथि विच्छिन्न हो जाने पर परम प्रभु परमात्मा की प्रत्यक्षता हो जाती है। जबतक परम प्रभु परमात्मा की प्रत्यक्षता नहीं हुई है, इसके पूर्व वे साधु कहला सकते हैं, महात्मा कहला सकते हैं, पढ़े-लिखे विद्वान् कहला सकते हैं, पंडित कहला सकते हैं; किन्तु संत नहीं कहला सकते। उपनिषद् वाक्य में व्यवहृत संशय शब्द पर हम विचार करें।
‘संशय’ धुंधली रोशनी में होती है, अँधेरे में होता है; लेकिन जहाँ पूर्ण प्रकाश हो, वस्तु प्रत्यक्ष दीखती हो, वहाँ संशय का स्थान कहाँ रह जाता है? इसी प्रकार जिन्होंने आत्मस्वरूप का साक्षात्कार कर लिया है, ब्रह्मस्वरूप के दर्शन कर लिये हैं और जो आत्मप्रकाश में प्रतिष्ठित हैं, उनके लिए संशय कहाँ? ‘क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे’ जिनके कर्म बंधन के कारण नहीं होते, जिसकी दृष्टि परे-से- परे तक चली गयी हो, ऐसे होते हैं संत। वह परे-से- परे क्या है? जड़ के परे चेतन है और चेतन के परे परम प्रभु परमात्मा है। क्षर के परे अक्षर है और अक्षर के परे पुरुषोत्तम है। अपरा प्रकृति के परे परा प्रकृति है और परा प्रकृति के परे पुरुषोत्तम परमात्मा है। अंध- कार के परे प्रकाश है, प्रकाश के परे शब्द है और शब्द के परे ‘निशब्दं परं पदम्’ है। उस परे से परे अपरम्पार की प्राप्ति जिन्होंने कर ली है, ऐसे को संत कहते हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने भगवान श्रीराम के श्रीमुख से कहलाया है कि साधु-संत के लक्षण क्या होते हैं, रामचरितमानस में लिखा है। भगवान श्रीराम नारदजी को उपदेश देते हैं-
षट विकार िजत अनघ अकामा।
अचल अकिंचन सुचि सुख धामा ।।
अमित बोध अनीह मित भोगी।
सत्य सार कवि कोविद योगी ।।
सुनु मुनि साधुन के गुन जेते।
कहि न सकहिं सारद श्रुति तेते ।।
भगवान श्रीराम कहते हैं कि संत वे होते हैं, जो षटविकार के अधिकार में नहीं आते, जिन्होंने षट विकार को अपने अधिकार में कर लिया है। अर्थात् काम-क्रोधादिक विकारों पर विजय प्राप्त किये हुए महापुरुष संत होते हैं।
‘षटविकार जित’ के बाद गोस्वामीजी ने ‘अनघ’ शब्द का प्रयोग किया है। अनघ=निष्पाप, पाप-रहित अर्थात् वे झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार; इन पंच पापों से विरत होते हैं। ‘अकामा’ अर्थात् कामना-रहित। जागतिक किसी भी वस्तु, पद, प्रतिष्ठा, पैसे की चाहना जिनको नहीं है। संत कबीर साहब के शब्दों में हम कह सकेंगे-
चाह गई चिन्ता मिटी, मनुवाँ बेपरवाह ।
जाको कछु न चाहिए, सोई शांहशाह ।।
ऐसे होते हैं संत। अचल=अपने धर्म में वे अविचल रहते हैं। चाहे उनपर विपत्ति का पहाड़ क्यों न टूट पड़े; लेकिन वे अपने धर्म में निश्चल रहते हैं। अकिंचन=असंग्रही। संत त्यागी होते हैं, संग्रही नहीं।
श्रीरामकृष्ण परमहंस देवजी महाराज ने कहा- तुम गीता पढ़ते हो, अच्छा करते हो। लेकिन गीता-गीता- गीता बराबर कहते रहो, तो क्या होता है? गीता-गीता- गीता कहते-कहते तागी-तागी हो जाता है अर्थात् जब तुम त्यागी बनो, तब समझो कि तुमने गीता पढ़ी। गीता कंठस्थ कर लिया; लेकिन तुम त्यागी बने नहीं, तो तुमने गीता क्या पढ़ी? गीता का अर्थ है-त्यागी। त्यागी बनो। जो संत होते हैं, वे त्यागी होते हैं। मनसा, वाचा, कर्मणा पवित्र होते हैं और सुखनिधान होते हैं।
कुछ लोगों की धारणा है कि वाल्मीकिजी बड़े पापी थे। नारदजी ने उनको राममंत्र दिया; लेकिन राम-राम नहीं कहकर मरा-मरा कहने लग गये। मरा-मरा कहते-कहते वे राम-राम कहने लग गये और वे ब्रह्मवित् हो गये। विचारणीय विषय यह है कि राम-राम कहते-कहते वर्षों बीत गये, लेकिन यदि हमारा काम नहीं मरा, क्रोध नहीं मरा, लोभ नहीं मरा, मोह नहीं मरा, अहंकार नहीं मरा, षटविकार नहीं मरे, तो हमने राम-राम क्या कहा? वह कौन-सा राम है, जिस राम के कहने से सभी मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं और षटविकार के विनाश होते हैं? गो0 तुलसीदासजी महाराज कहते हैं-
राम भालु कपि सेन बटोरा।
सेत हेत श्रम कीन्ह न थोरा ।।
नाम लेत भव सिन्धु सुखाहीं।
करहु विचार सुजन मन माहीं ।।
भगवान श्रीराम जब लंका जाने लगे, तो बंदर-भालुओं की सेना इकट्ठी करके पुल बँधवाने में उन्होंने कितना परिश्रम किया। लेकिन रामनाम लेने से भवसिंधु सूख जाता है। वह रामनाम कैसा? गोस्वामीजी कहते हैं-‘करहु विचार सुजन मन माहीं।’ भगवान का नाम हमलोग अबतक लेते चले आ रहे हैं। कोई राम-नाम लेते हैं, कोई शिवनाम लेते हैं, कोई वाहगुरु कहते हैं, कोई सत्तनाम कहते हैं, कोई राधाकृष्ण कहते हैं, कोई हरेकृष्ण कहते हैं। भगवान के नाम लेते तो सब हैं; लेकिन हाथ में एक चुल्लू पानी लेकर के पानी को सुखाइए तो। जबकि नाम में वह शक्ति है कि भवसागर सूख जाता है, तब हम कौन-सा नाम और कैसे लेते हैं कि एक चुल्लू पानी तक नहीं सुखा सकते। परम भक्तिन मीराबाई कहती है-
भवसागर जल सूखि गयो है,
फिकर नहीं मोहि तरनन की।
प्रश्नोदय होता है कि मीराबाई ने कौन-सी साधना की थी और वह कौन-सा नाम है, जिस नाम से भवसागर सूख जाता है। उत्तर में निवेदन है कि जो सच्चे सद्गुरु होते हैं, वे ही उस नाम को जानते हैं। गोस्वामीजी ने स्पष्ट शब्दों में कहा है-
भेद जाहि विधि नाम महँ, बिन गुरु जान न कोय ।
तुलसि कहहिं विनीत वर, जौं बिरंचि सिव होय ।।
ऐसे ही सच्चे संत के लिए भवसागर सूख जाता है। वे संग्रही नहीं होते हैं, त्यागी होते हैं। त्याग की आग में सभी विकार जल-भूनकर समाप्त हो जाते हैं। वे शिष्टाचारी होते हैं, सदाचारी होते हैं और शुच्याचारी होते हैं। वस्तुतः संग्रह करनेवाले संत नहीं होते, त्याग करनेवाले संत होते हैं। संत कबीर साहब का वचन है-
साधु भूखा भाव का, धन का भूखा नाहिं ।
धन का भूखा जो फिरै, सो तो साधु नाहिं ।।
साधु-वेश बनाकर धनार्जन हेतु घूमनेवाले साधु-संत नहीं, वे साधु-वेश को कलंकित करनेवाले कालनेमि हैं। स्वामी रामतीर्थ जापान गये थे। वहाँ उनका प्रवचन हुआ था। वे अपने को राम बादशाह कहा करते थे, साथ में कुछ नहीं रखते थे। जापान में उनका प्रवचन समाप्त होने के बाद वहाँ के लोगों ने उनसे पूछा-अभी यहाँ से आपका कहाँ जाना होगा? उन्होंने बतलाया कि अमेरिका जाऊँगा। जापान के प्रेमियों ने अमेरिका के लिए हवाई जहाज का टिकट कटा दिया। जापान से वे अमेरिका आये। जैसे वे अमेरिका पहुँचते हैं, किसी व्यक्ति ने उनसे पूछा-‘आप अमेरिका में कहाँ और कितने दिनों तक ठहरेंगे?’ स्वामी रामतीर्थ ने उत्तर दिया, ‘मुझे पता नहीं।’ उक्त सज्जन ने पूछा, ‘आपके पास कितने डॉलर हैं?’ उन्होंने कहा, ‘मेरे पास कुछ नहीं है।’ लोगों ने पूछा, ‘आप हैं कौन?’ स्वामी जी ने उत्तर दिया, ‘मैं राम बादशाह हूँ।’ अमेरिका के एक अन्य सज्जन वहीं खड़े थे, उन्होंने जिज्ञासा की, जिनका प्रवचन जापान में हुआ था, क्या आप वे राम बादशाह तो नहीं हैं?’ उन्होंने उत्तर दिया-‘हाँ, मैं वही हूँ।’ उक्त अमेरिका निवासी सज्जन ने उक्त सज्जन से कहा, ‘ये मेरे यहाँ जितने दिनों तक ठहरना चाहेंगे, रहेंगे। इनका सारा खर्च मैं वहन करूँगा।’ स्वामी रामतीर्थ ने प्रथम जिज्ञासु व्यक्ति से कहा, ‘बादशाह अपने पास खजाना नहीं रखता, बादशाह का खजाँची कोई और होता है। देख लो, मेरा खजाँची ये हैं।’ कहने का तात्पर्य यह कि जो संत होते हैं, वे अपने पास अर्थ संग्रह करके रखते नहीं।
अमेरिका में स्वामी रामतीर्थ के प्रवचन कई दिनों तक हुए। वहाँ की एक महिला, जो कि बहुत सम्भ्रान्त और सम्पन्न परिवार की थी, बहुत प्रभावित हुई। वह पचास लाख डॉलर का एक चेक लेकर स्वामी रामतीर्थ के पैर पर रखती हुई कहती है, ‘इस चेक के साथ मेरा सारा तन-मन-धन आपके लिए समर्पण है। आप जब जिसका जिस प्रकार व्यवहार करना चाहें, कर सकते हैं; किन्तु आपसे एक माँग है कि मैं जहाँ हस्ताक्षर करूँगी, वहाँ पर मैं लिखूँगी मिसेज राम’ स्वामी रामतीर्थ ने उत्तर दिया, ‘तुम्हारी इस तुच्छ भेंट को कौन कहे, अमेरिका की सारी सम्पत्ति के साथ यदि विश्व की सारी सम्पत्ति मेरे चरणों पर आ जाए, फिर भी ऐसा लिखने के लिए मैं नहीं कह सकता।’
वृक्ष कबहुँ नहि भल भखै, नदी न पीवै नीर।
परमारथ के कारने, संतन धरा शरीर ।।
वृक्ष का फल वृक्ष के लिए नहीं होता, नदी का जल नदी के लिए नहीं होता। उसी तरह संत अपने लिए कुछ करने के लिए बाकी नहीं रखते, अपने सभी काम वे पूरे किये हुए रहते हैं। जिनको परम प्रभु परमात्मा की प्राप्ति है, उनको अप्राप्त क्या है? वे जो कुछ करते हैं, परोपकार के लिए करते हैं, दूसरे के उपकार के लिए करते हें। गो0 तुलसीदासजी महाराज कहते हैं-
विश्व उपकार हित व्यग्रचित सर्वदा,
त्यक्त मदमन्यु कृत पुण्य रासी ।
जत्र तिष्ठति तत्रैव अज सर्व हरि,
सहित गच्छति क्षीराब्धि बासी ।।
अहं और क्रोधरहित, जगत हित हेतु जिन संतों का चित सतत व्यग्र रहता है,ऐसे पुण्यवान संत जहाँ रहते हैं, वहाँ ब्रह्मा, विष्णु और महेश के सहित सभी देवता उपस्थित रहते हैं। किन्तु हमारी दृष्टि वैसी नहीं है, इसलिए हम नहीं देख पाते हैं। हममें वह पैनी दृष्टि होनी चाहिए, जिससे हम उन्हें देख सकें। संत ‘अमित बोध’ होते हैं। कितना ज्ञान उनके पास है, उसकी माप किसी के पास नहीं है। स्वामी विवेकानंदजी ने कहा- ‘मनुष्य का मस्तिष्क अनंत ज्ञान का भंडार और अछोर पुस्तकालय है, इसलिए अगर विद्वान बनना चाहते हो, तो मस्तिष्क का अध्ययन करो।’
जाग्रतावस्था में हम आँख में, स्वप्नावस्था में कंठ में और सुषुप्ति की अवस्था में हृदय में रहते हैं। जाग्रतावस्था में आँख में रहने के कारण हमें इस संसार का ज्ञान रहता है। स्वप्नावस्था में आँख में नहीं रहने यानी कंठ में आने के कारण इस स्थूल संसार का ज्ञान नहीं रहता। उस समय हम मानसिक जगत में विचरण करते रहते हैं। मनोमय जगत में भ्रमण करते रहते हैं। जब हम हृदय में चले आते हैं, तब वह मनोमय जगत भी छूट जाता है और हम गंभीर निद्रा में चले जाते हैं, वहाँ कुछ भी ज्ञान नहीं रहता। फिर जब हम हृदय से ऊपर कंठ में आते हैं, तो मनोमय जगत का ज्ञान होता है और कंठ से ऊपर आँख में आने पर इस स्थूल जगत का ज्ञान होता है। इससे यह सिद्ध होता है कि जैसे-जैसे हम नीचे की ओर जाते हैं, वैसे-वैसे ज्ञानहीनता होती जाती है और जैसे-जैसे ऊपर की ओर जाते हैं, वैसे-वैसे ज्ञान की समृद्धि होती है। संत जन का कथन है कि अच्छी तरह अंतस्साधना करो। आँख से ऊपर अपने को ले जाओ, तो तुमको सूक्ष्म जगत का ज्ञान होगा, सूक्ष्मतर जगत का ज्ञान होगा और सूक्ष्मतम जगत का ज्ञान होगा।
श्रीरामकृष्ण परमहंस देवजी महाराज ने वही ज्ञान स्वामी विवेकानंद को सिखलाया था। आँख से ऊपर ज्ञान का देश है और नीचे अज्ञान का। संत ‘अनीह’ अर्थात् इच्छारहित होते हैं। उनको जागतिक किसी चीज की चाहना नहीं होती। वे मितभोगी होते हैं। संसार में वे रहेंगे, तो कुछ खायेंगे, कुछ पियेंगे, कुछ पहनेंगे, रहने के लिए कुछ स्थान चाहिए। लेकिन जो कुछ भी उनका व्यवहार होगा, वह मितभोगी का होगा। भगवान श्रीकृष्ण का वचन श्रीमद्भगवद्गीता में है-‘युक्ताहारविहारस्य---।’
वे सत्य के सार, कवि, कोविद और योगी होंगे। ‘योगी’ का अर्थ घर-परिवार, रोजगार त्यागी नहीं। योगी कहते हैं-जो योग करते हैं। चाहे वे गृहस्थ हों या विरक्त। वह कौन-सा योग? गुरु नानकदेवजी महाराज ने कहा है, योग की परिभाषा उन्होंने दी, योगी किसको कहते हैं, उन्होंने बतलाया है-
जोगु न खिंथा जोग न डंडै जोगु न भसम चड़ाईअै ।
जोगु न मुंदी मूंड़ि मूंड़ाइअै जोग न सिंञी वाईअै ।
अंजन माहि निरंजनि रहीअै, जोग जुगति इव पाईअै ।।
गली जोगु न होई ।
एक द्रिसटि करि समसरि जाणै जोगी कहीअै सोई ।।
गुरु नानकदेवजी महाराज कहते हैं-कोई अपने शरीर पर गुदरी पहने हुए है या दंड-कमंडल लिये हुए है या शरीर पर भस्म मले हुए है, एकमात्र कौपीन पहने हुए है, इसलिए वह योगी है। ऐसी बात नहीं है। अगर मुंडित सिर है, गैरिक वस्त्र है, घर-वार त्यागी है, इसलिए वह योगी है, कहा नहीं जा सकता। संत कबीर साहब ने कहा-
केसन कहा बिगाड़िया, जो मूड़ी सौ बार ।
मन को क्यों न मूड़िये, जामें विषय विकार ।।
एक-एक बाल उखाड़ते-उखाड़ते सिर मुंडित हो गया, तो इसलिए वे योगी नहीं हो गये। किसी ने पूछा, बाल मुड़ा लेने से अगर कोई संन्यासी नहीं होता है, तो बाल बढ़ाने में तो होना चाहिए? उत्तर है कि यदि बाल बढ़ाने से ही कोई योगी हो जाए, ऐसा समझकर यदि कोई सिर के बाल बढ़ावे या दाढ़ी-मूँछ बढ़ावे, तो जंगल में बाघ-सिंह आदि हिंस्त्र जीव होते हैं, उनको योगी-संन्यासी-महात्मा होना चाहिए; क्योंकि उनके तो जन्मजात बाल बड़े होते हैं, फिर भी उनकी हिंसावृत्ति क्यों नहीं जाती है। वास्तविक बात तो यह है कि न तो बाल बढ़ाने से कोई योगी होता है और न बाल मुड़ाने से। जो अपनी युगल दृष्टियों को एक करके अपने अंदर में देखते हैं, वे योगी होते हैं-
युगदृष्टि की एक तीक्ष्ण नोंक से, चीरि तेजस् बिन्दु रे ।
सुनो अंदर नाद ही, लखो सूर्य तारे इन्दु रे ।।
जो इसके प्रत्यक्षीकरण करनेवाले होते हैं, वे योगी होते हैं। बाइबिल में लिखा है-‘यदि तेरी आँख एक हो, तो तेरा सारा शरीर उजियाला होगा और यदि तेरी आँख बुरी है, तो देखो तुम्हारे अंदर अंधकार का कितना बड़ा साम्राज्य है।’
शान्ति प्राप्त महापुरुष को संत कहते हैं। वैदिक धर्मावलंबी जिनको संत कहते हैं, उन्हीं को इस्लाम धर्म में फकीर कहते हैं। हमलोग फकीर कैसे लिखते हैं-फे, काफ, ये रे=फकीर। ‘फे’ कहते हैं-फाका, उपवास को अर्थात् जो खुदा के निकट निवास करनेवाले होते हैं, वे फकीर होते हैं। ‘काफ’ अर्थात् ‘कनायत’ वे संतोषी होते हैं। ‘ये’ अर्थात् ‘यादे इलाही’, जो निरंतर खुदा को याद करते रहते हैं। ‘रे’ अर्थात् ‘रेयाज’ यानी भजन-अभ्यास करते रहते हैं। प्रभु की प्राप्ति, खुदा का दीदार है फिर भी वे साधनारत रहते हैं। क्यों? इसलिए कि वे अपने शिष्यों को, वे अपने भक्तों को आदर्श देते हैं कि तुमको ध्यानाभ्यास करना है, करो।
संत को अपने लिए कुछ करना बाकी नहीं रहता। वे जो कुछ करते हैं, हमारे लिए करते हैं, विश्वकल्याण के लिए करते हैं। हमारा कल्याण कैसे होगा, इसकी चिंता उनको है। जैसे हमारा एक छोटा-सा परिवार है, तो उस छोटे-से परिवार की चिंता हमको रहती है। एक गाँव के मुखिया को गाँव की चिंता, एक जिला को मालिक को जिला भर की चिंता, एक प्रान्त के मुख्यमंत्री को प्रांतभर की चिंता, एक देश के प्रधानमंत्री वा राष्ट्रपति को संपूर्ण देश की चिंता रहती है। कहने का तात्पर्य यह कि जितनी-जितनी जिनकी सीमा होती है, उतनी-उतनी की चिंता उनको होती है। लेकिन जिनका अवतार विश्वकल्याण के लिए हुआ करता है, उनको तो समस्त विश्व की चिंता रहती है। उनका ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ होता है। इसलिए वे सबकी चिंता करते हैं। जो उनके आदेश के अनुकूल चलते हैं, उनका कल्याण होता है। संत कबीर साहब ने कहा था-
मोरे जियरा बड़ा अंदेसवा मुसाफिर जैहौ कौनी ओर ।
हमारी चिंता होती है उनको कि हमको किस तरफ जाना चाहिए और हम किस तरफ जा रहे हैं। जैसे कोई माता-पिता अपने पुत्र को कहते हैं-पूरब चलो, पर लड़का पश्चिम की ओर जाता है, तो माता-पिता के मन में कितनी पीड़ा होती है? इसी तरह ‘संत’ जो कि संसार के कल्याण के लिए आये हुए हैं, वे जो मार्गदर्शन देते हैं, उनकी बातों पर नहीं चलकर हम दूसरी तरफ चलते हैं, तो उनकी पीड़ा स्वाभाविक है। वे इस बात को अच्छी तरह जानते हैं कि किस कर्म का परिणाम क्या होगा?
एक छोटा बच्चा है, उसको अल्प ज्ञान होता है; दूसरे उम्र में बढ़े हुए लोग हैं, उनको विशेष ज्ञान होता है। छोटा बच्चा आग पकड़ने के लिए जाता है, तो जो बड़े उम्र के, बढ़े ज्ञान के लोग होते हैं, वे उस बच्चे से कहते हैं-नहीं, आग मत पकड़ो, हाथ जल जाएगा। इसी प्रकार संत लोग पहले से ही हमारे संबंध में जानते हैं कि हमारा कल्याण किस तरह होगा और अकल्याण किस तरफ जाने से होगा। अकल्याण से बचाने और कल्याण की ओर ले जाने के लिए ही संत होते हैं। ऐसे जो संत हैं, वे हमलोगों को कल्याण का मार्ग बतलाते हैं। ऐसे संतों का जो मत है, वही संतमत है। चाहे वे संत किसी भी देश के हों, किसी भी वेश को हों, किसी भी जाति-पाँति, धर्म, मजहब, संप्रदाय या रिलिजन आदि के क्यों न हों; सभी संतों के मत को संतमत कहते हैं। संतमत अर्थात् संतों का मत।
जे पहुँचे ते कहि गये, तिनकी एकै बात ।
सबै सयाने एक मत, तिनकी एकै जात ।।
संतों के विचार में जात-पात की भी कोई बात नहीं होती।
जात पात पूछै नहिं कोई।
हरि को भजै सो हरि का होई।।
उन संतों के कल्याणकारी उपदेश को अपने जीवन में उतारकर हम अपना भविष्य जीवन कल्याणमय बनावें। (22-1-2000 ई0, मारवाड़ी पाठशाला, भागलपुर; शान्ति सन्देश, अक्टूबर, 2001)
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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ तथा भक्तिमती बहनो!
मैं न संत हूँ, न सद्गुरु, न महर्षि हूँ और न परमहंस ही। मैं तो संतमत का एक कनिष्ठ सेवक हूँ। अपने को सेवक कहने में भी संकोच होता है; क्योंकि सेवक होना भी आसान नहीं है। भरतजी ने कहा था-
सिर भर जाउँ उचित अस मोरा ।
सब तें सेवक धरम कठोरा ।।
जब मैं सेवक-धर्म के पालन में भी अक्षम हूँ, तो अपने को सेवक कैसे कहूँ? परम पूज्य गुरुदेव (महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज) की शरण में रहकर मैंने जो कुछ सीखा है, वही आपके सामने निवेदित करूँगा।
पावस में दादूर की ध्वनि और बसंत में कोयल की कूक अच्छी लगती है; किन्तु संतों की वाणी सदा सुखदायिनी और अच्छी होती है। इसलिए संतों की वाणी के द्वारा ही आपकी सेवा करूँगा। किसी सुभाषितकार ने बड़ा अच्छा कहा है-
वन्दे संत उदार दयानिधि, जिसकी मंजुल वाणी ।
भव सागर संतरण तरणि-सी परहित रत कल्याणी ।।1।।
मृदु कोमल सुस्निग्ध मधुरतम निर्मल नवल निराली ।
काम-क्रोध-मद-लोभ-मोह सब दूर भगानेवाली ।।2।।
जहाँ कर्म की कालिन्दी में मिलित भक्ति की गंगा ।
सरस्वती है जहाँ ज्ञान की गूढ़ अगम्य अभंगा ।।3।।
त्रिविध साधनों की बहती है सुन्दर जहाँ त्रिवेणी ।
धन्य संत वाणी प्रयाग-सी निःश्रेयस निःश्रेणी ।।4।।
बुझती जहाँ स्वयं आते ही त्रिविध ताप की ज्वाला ।
भरती पुलक मोद तन मन में भाव ऊर्मि की माला ।।5।।
जहाँ न जाकर प्यासा लौटा है कोई भी प्राणी ।
सुर-धुनी-सी सबको सुख देती वह संतों की वाणी ।।6।।
स७ावों के पोषण हित जो मधुर दुग्ध गौ का है ।
देती सदा मुक्ति के पथ पर बढ़ने का मौका है ।।7।।
भीषण तम भव की जलनिधि में अरे! डूबने वालो ।
दौड़ो चढ़ो संतवाणी नौका पर होश सँभालो ।।8।।
संत वचन वह सुधा देव भी जिसके सदा भिखारी ।
संत वचन वह धन जिसका है नर प्रधान अधिकारी ।।9।।
मर्त्य अमर बन जाता जिससे वह संजीवन रज है ।
संत वचन सब भव रोगों का रामवाण भेषज है ।।10।।
वेद शास्त्र अनुभूति तपस्या का जिसमें संचय है ।
संतों का वर वरद वचन यह मंगलमय निर्भय है ।।11।।
क्यों बैठा कर्तव्यमूढ़ नर बन चिन्ता का वाहन ।
संत वचन के सुधा सिन्धु में कर सन्तत अवगाहन ।।12।।
दूर असत से कर सतपथ की ओर लगाने वाला ।
और मृत्यु से हटा अमरता तक पहुँचाने वाला ।।13।।
तम से परे ज्योति के जग में होता जो जगमग है ।
सच्चिन्मय उस परम धाम का संत वचन शुचि मग है ।।14।।
कौन बताये संतों की वाणी में कितना बल है ।
दासी सुत देवर्षि बन गया जीवन हुआ सफल है ।।15।।
उसी संत के प्रवचन ने यह चमत्कार दिखलाया ।
दैत्यवंश में देवोपम प्रीांद प्रगट हो आया ।।16।।
अगणित बार संतवाणी ने निज प्रभाव प्रगटाया ।
मान उसे बालक ध्रुव ने हरि का पद पाया ।।17।।
एक लुटेरा था जो मन से मान संत की वाणी ।
वाल्मीकि बन गया आदि कवि भुवन विदित विज्ञानी ।।18।।
पतित को पावन करनेवाला, गिरे को उठानेवाला संत वचन है। लौहपथगामिनी (ट्रेन ) इंजन जब अपने पथ से नीचे गिर जाता है, तो हजारों लोग मिलकर भी उसे उठा नहीं सकते; पर क्रेन उसे उठाकर यथास्थान रख देता है। उसी तरह व्यक्ति कितना भी गिरा हुआ हो, पतित हो, संतवाणी के द्वारा वह पावन हो जाता है। सर्वविदित है कि वाल्मीकि और अंगुलिमाल संतवचन के प्रभाव से ही दुष्ट से सुष्ट बन गये।
अभी आपलोगों ने रामचरितमानस का पाठ सुना। इस ग्रंथ में लौकिक और पारलौकिक दोनों जीवन जीने की कला सिखलाई गई है। जो इस ग्रंथ का अध्ययन-मनन करेंगे, उनका कल्याण होगा। इसमें सिखलाया गया है कि पिता और पुत्र के बीच कैसा संबंध होना चाहिए, राजा और प्रजा के बीच कैसा संबंध होना चाहिए, पति-पत्नी और भाई-भाई के बीच कैसा संबंध होना चाहिए आदि। रामचरितमानस के अंदर छन्द, दोहे, सोरठे और चौपाइयाँ जितनी होनी चाहिए, उसी के अनुरूप हैं। इसलिए इसे काव्य कहते हैं। गो0 तुलसीदासजी ने स्वयं लिखा है-
नवरस जप तप जोग विरागा।
ते सब जलचर चारु तड़ागा ।।
काव्य के नौ रस इसमें उपस्थित हैं। एक श्रान्त- क्लान्त पथिक लबालब भरे सरोवर में खिले-अधखिले कमल के ऊपर भौंरों की गुंजार, किनारे स्थित पेड़ों पर पक्षी के कलरव और शीतल मंद वायु बहते देख शांति और सुख पाता है। पर उस मनोरंजन से उसका दुःखभंजन नहीं होता। पथिक जल देखता है, पर जबतक जल में जाल नहीं डाला जाय, तबतक उसके अंदर छिपे माल को नहीं देख सकता। उसी तरह रामचरितमानस के कथारूप जल को सब जानते हैं; किन्तु उसके अंदर जो परमार्थरूपी रत्न छिपे हैं-भक्ति, ज्ञान, ध्यान, जप, तप, योग, विराग रूप जलचर हैं, उसे जनसामान्य नहीं जान पाते हैं।
भगवान् श्रीराम का अयोध्या में राजा दशरथ के घर अवतरण, शिशुपन में राजोचित लालन-पालन, किशोरपन में विश्वामित्र मुनि के साथ तपोवन गमन, वहाँ मुनि के द्वारा अस्त्र-शस्त्रदि का शिक्षा-ग्रहण, असुरों का विध्वंसकरण, युवापन में जनकपुर गमन, मार्ग में अहल्या का उद्धारकरण, जनकपुर में शिव- धनु भंग कर सीताजी के साथ पाणिग्रहण, जनकपुर से जानकीजी के साथ अयोध्या आगमन, वहाँ उनको युवराज पद पर प्रतिष्ठित करने हेतु राजा दशरथ का मन; किन्तु केकई और मंथरा की कुमंत्रणा के कारण श्रीसीता तथा अनुज लक्ष्मण-सहित श्रीराम का कानन गमन, अयोध्या में राजा दशरथ का मरण, दण्डक वन में असुरराज रावण द्वारा सीता-हरण, किष्किंधा में सुग्रीव के साथ मैत्री-वरण, बालि-हनन, सीताजी का अन्वेषण, हनुमानजी का लंका-गमन, अशोक वाटिका में सीताजी से मिलन, परस्पर कथोपकथन, माँ जानकी से अनुमति पाकर अशोकवाटिका का फल-भक्षण, विटप विध्वंसकरण, अक्षयकुमार का निधन, रावण का मान-मर्दन, लंका-दहन, पुनः सीता से मिलन, पश्चात् किष्किंधा में भगवान् श्रीराम के दर्शन, लंकाघटित सारी घटनाओं का स्पष्टीकरण, सैन्य संगठन, सेतु बंधन, लंका पर आक्रमण, वहाँ भगवान् राम का रावण-कुंभकर्ण आदि राक्षसों के साथ महारण, अंततः रावण-सहित राक्षसी सेना का मरण, विभीषण का राज्यसिंहासन, श्रीसीताजी का उद्धार कर भगवान का ससैन्य पुष्पक विमान द्वारा अयोध्या आगमन, ग्यारह हजार वर्ष पर्यन्त राज्य-संचालन और अंत में निजधाम साकेत गमन। इस कथा से सभी परिचित हैं, इसे सभी जानते हैं। पर इसके अंदर जो रहस्य छिपे हैं, उसको बहुत कम लोग जानते हैं। एक बार श्रीराम ने गुरुजन, पुरजन, ब्राह्मण सबको बुलाकर उपदेश दिया। वे जानते थे कि झूठे और सच्चे की मैत्री अधिक दिनों तक नहीं टिकती है। शरीर कच्चा है और इस शरीर में रहनेवाला जीव सच्चा है। दोनों की मित्रता अधिक दिनों तक नहीं टिक सकेगी। एक- न-एक दिन सबका शरीर छूटता है। जबतक प्रजा शरीर में है, उसे कष्ट नहीं है, पर शरीर छूटने पर जो जीवन होगा, वह दुःखमय न हो, इसलिए उन्होंने उपदेश दिया-
सुनहु सकल पुरजन मम बानी।
कहउँ न कछु ममता उर आनी ।।
नहिं अनीति नहिं कछु प्रभुताई ।
सुनहु करहु जो तुम्हहि सुहाई ।।
वे कहते हैं कि मैं न्यायसंगत बात कहता हूँ। उचित जान पड़े, तो कीजिए। उचित जान नहीं पड़े, तो मत कीजिए। आगे कहते हैं-
बड़े भाग मानुष तनु पावा ।
सुर दुर्लभ सब ग्रन्थहि गावा ।।
जहाँ भगवान राम कहते हैं, ‘बड़े भाग मानुष तनु पावा’ वहीं उनके अनन्य भक्त गो0 तुलसीदास कहते हैं-‘लाभ कहाँ मानुष तन पाये।’ अब पाठक भ्रम में पड़ सकते हैं कि संत की बात मानें या भगवन्त की बात मानें, यथार्थ क्या है? गो0 तुलसीदासजी इसका निवारण करते हुए कहते हैं-
काय वचन मन सपनेहु कबहुँक घटत न काज पराये ।
यदि तन, मन या वचन से किसी का उपकार नहीं किया, सेवा नहीं की, तो मनुष्य शरीर पाने का क्या लाभ हुआ? वृक्ष हमें फल, फूल, लकड़ी आदि देता है; नदी से जल मिलता है; पहाड़ से जड़ी-बूटी और खनिज पदार्थ प्राप्त होते हैं, धरती अन्न देती है। गाय जीवनभर दूध और गोबर देती है। यह कहने में अति- शयोक्ति नहीं कि जन्मदात्री माय की अपेक्षा कितना गुणा अधिक हम गाय का दूध पीते हैं, ठिकाना नहीं। बैल से हल जोतते और सामान ढोते हैं। ये पशु मरकर भी हड्डी और चमड़े से हमारा उपकार करते हैं। घास- भूसा खानेवाले पशु से इतना लाभ है और हम जो हलवा, पूड़ी, मेवा, मिष्टान्न खाते रहते हैं; हमारा गोंत- गोबर काम आता है या हड्डी-चमड़ा? हम सोचें कि हमारे शरीर से संसार का क्या उपकार हो रहा है।
एक बार ईरान का बादशाह कुछ घोड़े लेकर सौदागर के वेश में भारत आया। एक-से-एक कीमती घोड़े थे। एक घोड़े को कपड़े के घर में रखा था। कई दिनों तक जब उन घोड़ों को खरीदनेवाला कोई नहीं हुआ, तब वह कहने लगा-‘मालूम होता है कि भारत इतना गरीब देश है, तो मैं घोड़े लेकर इतनी दूर से यहाँ नहीं आता।’ बात पृथ्वीराज चौहान के कानों तक पहुँची। मंत्री ने सलाह दी कि इस तरह देश की बदनामी हो जाएगी। राजा ने विचार किया कि कुछ घोड़े खरीद लिये जाएँ। वह घोड़े को देखने के लिए गया। कई अच्छे-अच्छे घोड़ों को देखने के बाद उन्होंने पूछा कि उस कपड़े के घर में क्या है? सौदागर ने उत्तर दिया-‘पूछिये मत। साधारण घोड़ा तो कोई खरीदनेवाला नहीं है, उस कीमती घोड़े को कौन खरीदेगा?’ मंत्री ने कहा-‘हमारे राजा उस घोड़े के साथ सबको खरीद लेंगे।’ सौदागर ने घोड़े को दिखलाकर उसका दाम एक करोड़ बतलाया। पृथ्वीराज ने सारे घोड़े खरीद लिये।
जिस घोड़े की कीमत एक लाख या करोड़ है, उसकी सेवा करनेवाला कौन है? आदमी ही न! कभी अखबार में निकला था। कि एक कुत्ते की कीमत एक लाख पचहत्तर हजार रुपये है। उस कुत्ते को नहलाने वाला, खिलानेवाला, पखाना करानेवाला आदमी ही तो होगा। वह सेवादार क्या सोचता होगा कि यह कुत्ता को कीमती साबुन लगता है, पावरोटी खाता है और मुझे सूखी रोटी मिलती है। इसका पखाना-पेशाब साफ करना पड़ता है।
जब मनुष्य की यह दुर्गति है, फिर भगवान ने इस शरीर को देव-दुर्लभ क्यों कहा? रामचरितमानस में बतलाया गया है कि देव कैसे होते हैं-
आये देव सबहिं स्वारथी ।
वचन कहहिं जनु परमारथी ।।
उँच निवास नीच करतूती ।
देखि न सकहिं पराइ विभूती ।।
इन्द्रिय सुरन्ह न ज्ञान सुहाई ।
विषय भोग पर प्रीति सदाई ।।
आवत देखहिं बिषय बयारी ।
ते हठ देहि कपाट उघारी ।।
भीतर कुछ रहता है और बाहर कुछ। वे अपने को बड़े परमार्थी दिखलाते हैं, पर होते हैं स्वार्थी। वे इन्द्रियों के देवता हैं, उन्हें ज्ञान नहीं सूझता। वे विषय-भोग में डूबे रहते हैं। जब हमें देव-दुर्लभ शरीर मिला है, तो हमें देव-दुर्लभ काम करना चाहिए अर्थात् विषय को छोड़ कर निर्विषयी होना चाहिए। भगवान कहते हैं-
एहि तन कर फल विषय न भाई।
स्वर्गउ स्वल्प अन्त दुखदाई ।।
जहाँ देवताओं को भोग ही सुहाता है, वहाँ देव-दुर्लभ शरीर पाकर मनुष्य को योग-ही-योग सुहाना चाहिए। गो0 तुलसीदासजी का वचन है-
ते नर नरकरूप जीवत जग।
भव भंजन पद विमुख अभागी ।।
जहाँ श्रीराम मनुष्य-शरीर को बड़भागी कहते हैं, वहीं उनके भक्त तुलसीदासजी अभागी कहते हैं, ऐसा क्यों? मनुष्य-शरीर पाकर भी यदि भक्ति न करें, तो उसका जीवन नरक रूप है और वह अभागी है।
भागलपुर में ब्राह्मण जाति के एक बड़े आदमी थे। उन दिनों समुद्रयात्र को बुरा माना जाता था। समुद्रयात्र के कारण उन्हें जाति से अलग कर दिया गया। अपनी जाति के बीच खाना-पीना, लेना-देना सब बंद हो गया। वे होशियार तो थे ही, समाज के बड़े लोगों से कहते-‘आप हमें जाति से अलग कर दिये, कोई बात नहीं। पर मिलने और बातचीत करने में क्या हर्ज है? छोटी जाति के लोगों से भी तो मिलते हैं और बातचीत करते हैं।’ मीठी-मीठी बातें बोलकर किसी-किसी को अपने यहाँ बुलाने लगे। कभी-कभी, किसी-किसी को जलपान करने के लिए आग्रह करते और बातचीत करते। इस तरह कितने लोगों को जलपान कराकर उन्होंने फोटो ले लिया। एक दिन उन्होंने सबसे कहा कि बहुत दिन बीत गये, पुरानी बातों को भूल जाइए और मेरे यहाँ उत्सव है, भोजन करने को आइए। समाज के लोगों ने जब विरोध किया, तब उन्होंने सबका फोटो लाकर सामने रख दिया। सभी विरोध करनेवाले चुप हो गये। मनुष्य शरीर में बुद्धि-ज्ञान की प्रधानता है। घोड़े और कुत्ते की कितनी भी कीमत हो जाए, वह प्रभु का नाम नहीं ले सकता, सत्संग-ध्यान नहीं कर सकता। पर मनुष्य कितना भी गरीब हो, कुरूप हो, वह सत्संग, जप, ध्यान करके आवागमन से मुक्त हो सकता है। जहाँ भगवान् श्रीराम ने कहा-‘बड़े भाग मानुष तनु पावा’, वहीं उन्होंने यह भी जोड़ दिया-‘बड़े भाग पाइये सत्संगा।’ प्रभु कृपा से मनुष्य- शरीर मिल गया, अब सत्संग करेगा, तो उसका भाग्य और बढ़ जाएगा। सत्संग करते-करते पवित्रता आएगी और ज्ञान बढ़ेगा। फिर उसमें जिज्ञासा होगी कि क्रिया सीखने की। सीखने के लिए गुरु की आवश्यकता होगी। जब गुरु धारण कर लेगा, तो उसका भाग्य और बढ़ जाएगा।
जे गुरु पद अम्बुज अनुरागी ।
ते लोकहु बेदहु बड़ भागी ।।
गुरु उसे जप-ध्यान बतलायेंगे। मानस जप से कुछ एकाग्रता होगी। मानस ध्यान करते-करते यदि इष्ट रूप सामने आएगा, तब उसका भाग्य और बढ़ जाएगा। संत तुलसी साहब कहते हैं-
दरसन उनके उर माहिं, करैं बड़ भागी ।
तिनके तरने की नाव किनारे लागी ।।
यदि गुरु-रूप का मानस ध्यान ठीक-ठीक होने लगे, तो समझो कि भवसागर तरने की नाव मिल गयी। गुरु नानक साहब तो यहाँ तक कहते हैं कि यदि गुरुरूप हृदय में बस जाए, तो जो भी शुभ इच्छा करेंगे, उसकी पूर्ति हो जाएगी।
गुरु की मूरति हिरदय बसाए।
जो इच्छै सोई फलु पाए ।।
विद्यार्थी पढ़ना-लिखना सीखना शुरू करता है, तो पहले मोटे-मोटे अक्षरों को लिखता है, फिर महीन अक्षर लिखता है। उसी तरह मानस जप, मानस ध्यान स्थूल सगुण साकार उपासना है। इसको करने के बाद सूक्ष्म साधन दृष्टियोग और शब्दयोग हैं। गो0 तुलसीदास जी ने रामचरितमानस, बालकाण्ड में लिखा है-
श्रीगुरु पद नख मनि गन जोती ।
सुमिरत दिव्य दृष्टि हिय होती ।।
दलन मोह तम सो सु प्रकासू ।
बड़े भाग उर आवइ जासू ।।
जब साधक दृष्टिसाधन की क्रिया करता है, तो उसे अंतःप्रकाश मिलता है, दिव्यदृष्टि होती है और उसके मोह का नाश हो जाता है। वह पिण्ड से ब्रह्मांड में, स्थूल से सूक्ष्म में प्रवेश कर जाता है। ‘बड़े भाग उर आवइ जासू।’ जो प्रकाश में चला गया, वह बड़ा भाग्यवान है। पर इतने से ही परमात्मा नहीं मिलते। काम अभी कुछ बाकी है। गुरु महाराज कहते हैं-
दामिनि दमकै चंदा चमकै, सूर्य तपै जोतिमंडल।
इस मंडल से आगे वीरो, और तुम्हें बढ़ना होगा।।
प्रकाश मंडल में आगे बढ़ते हुए उस मंडल को पार करेंगे और शब्द के सहारे और आगे बढ़ेंगे।
अद्भुत अन्तर की डगरिया
जा पर चल कर प्रभु मिलते ।।
दाता सतगुरु धन्य धन्य जो राह लखा देते ।
चलत पन्थ सुख होत महा है, जहाँ अझर झरते ।।
अमृत ध्वनि की नौबत झहरत, बड़भागी सुनते ।
सुनत लखत सुख लहत अद्भुती, ‘मेँहीँ’ प्रभु मिलते ।।
प्रकाश मंडल में शब्द की प्राप्ति होती है। अनहद शब्दों के बीच सारशब्द को पकड़ते हैं। वह सारशब्द परमात्मा से मिलाता है। इस प्रकार मनुष्य का भाग्य पूर्ण हो जाता है, मनुष्य-शरीर पाने का उद्देश्य पूरा हो जाता है, उसका आवागमन छूट जाता है।
प्रत्येक मनुष्य का शरीर अपने हाथ से साढ़े तीन हाथ का होता है। साढ़े तीन हाथ यानी सात बित्ते का शरीर हुआ। एक बित्ता में बारह अंगुल होते हैं, तो 12 ग 7 = 84 चौरासी अंगुल का शरीर हमें मिला है कि हम चौरासी के चक्कर से (आवागमन से) छूट जाएँ। कबीर साहब कहते हैं-
लख चौरासी भरमि के, पौ पर अटके आय ।
अबकी पासा न पड़े, फिर चौरासी जाय ।।
चौपड़ एक खेल होता है, जिसमें चौरासी कोठे होते हैं, चार गोटियाँ और छह कौड़ियाँ होती हैं। कौड़ियाँ भाँजकर गिराते हैं। जितनी कौड़ियाँ चित्त होती हैं, उसी क्रम से गोटियाँ आगे बढ़ती हैं। जब 84वें कोठे में गोटी जाने पर उसे ‘पौ’ कहते हैं, अब यदि एक कौड़ी चित हो गयी, तो गोटी लाल हो जाती है, यानी जीत हो गयी। अन्यथा फिर चौरासी कोठे में गोटी घूमती रहती है।
उसी तरह अनेक शरीरों में घूमते हुए जीव 84वें कोठे ‘पौ’ पर आया हुआ है। यहाँ यदि हमारा चित एक होकर प्रभु से लग जाए, तो ‘पौ-बारह’ हमारी जीत हो जाएगी। अन्यथा चौरासी लाख योनियों में पुनः भटकना पड़ेगा। चित्त को एक करने के लिए सदाचार समन्वित होकर जप-ध्यान करें, कल्याण होगा।त यह प्रवचन बन्देहरा, खगड़िया में दिनांक 25-1-2000 ई0 को अपराह्नकालीन सत्संग के अवसर पर हुआ था। (शान्ति-सन्देश, सितम्बर 2015)
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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ तथा भक्तिमती बहनो!
हाथरस में एक संत हुए तुलसी साहब उन्होंने लिखा है-
‘सखी सीख सुनि गुनि गाँठ बाँधाौ, ठाठ ठठ सत्संग करै।’
हमलोग सत्संग में जाते हैं, सत्संग करते हैं, सुनते हैं, सुनाते हैं; किन्तु उसका जो समुचित फल मिलना चाहिए, वह तभी मिलेगा, जब ‘गाँठ बाँधौ’ -संतों के वचन को गाँठ में बाँधेंगे। अर्थात् उनकी वाणी के अनुकूल अनुगमन करें। केवल वाणी-पाठ से वह लाभ नहीं मिलता। संतों का अनुकरण और अनुगमन होना चाहिए। अनुकरण बाहरी चीज है और अनुगमन आंतरिक।
एक टोपी बेचनेवाला था। अपनी गठरी में टोपियाँ लेकर घूम-घूमकर बेचता था। एक बार वह चलते-चलते थक गया और वृक्ष के नीचे गठरी रखकर लेट गया। उस जंगल में बहुत बंदर थे। एक बंदर उसके पास आया। उसके झोले को खोलकर उसने एक टोपी निकाली और जैसे बेचनेवाले ने पहन रखी थी, उसने भी पहन ली। दूसरा बंदर आया, उसने भी पहन ली। तीसरा भी आया, उसने भी पहन ली। इस तरह सभी बंदर टोपियाँ पहनकर वृक्ष पर चढ़ गये। व्यक्ति की नींद टूटी, तो उसने देखा कि गठरी खाली है और बंदरों ने टोपियाँ पहन ली हैं। वह बंदरों से टोपियाँ माँगने लगा, पर कौन सुनता है। उसने सोचा कि बंदर अनुकरण करता है। यदि मैं अपनी टोपी फेंक दूँ, तो वे भी फेंक देंगे। उसने अपनी टोपी खोलकर नीचे फेंक दी। सभी बंदरों ने भी ऐसा ही किया। यह है अनुकरण।
कोई कुछ करता है, हम उसकी देखादेखी करते हैं, तो हम उसका अनुकरण करते हैं। यह बाहरी बात है, पर उसने कहा क्या, जब हम उसे अमल में लाते हैं, जीवन में उतारते हैं, तब यह है अनुगमन। गो0 तुलसीदासजी कहते हैं-
सेवक सेव्य भाव बिनु भव न तरिय उरगारि ।
जबतक सेवक में सेवा की भावना नहीं आएगी, वह सेव्य के अनुकूल सेवा नहीं कर सकेगा और सेवा के बिना संसार-सागर से उद्धार संभव नहीं है। सेवक और स्वामी के क्या लक्षण हैं, गो0 तुलसीदासजी बतलाते हैं-
मुखिया मुख सौं चाहिए, खान पान कहँ एक ।
पालै पोसै सकल अंग, तुलसी सहित विवेक ।।
आँखें देखती हैं, कान सुनने का काम करते हैं, हाथ बहुत तरह के काम करते हैं, पैर चलते हैं। सभी अंग सेवा में जुटे रहते हैं; लेकिन सब भोजन मुँह में डाल देते हैं। मुँह सब का मुखिया है। वह क्या करता है? वह अपने पास नहीं रखता, भोजन को पेट में भेज देता है और पेट उसे पचाकर समूचे शरीर में जिसको जितनी आवश्यकता है, बाँट देता है। यह स्वामी का काम है।
एक नवाब ने अपने गुलाम से पूछा-‘तुम्हारा क्या नाम है?’ उसने उत्तर दिया-‘आप जिस नाम से पुकारें।’ नवाब ने पूछा-‘तुम क्या खाते हो?’ गुलाम-‘जो खिला दें।’ नवाब-‘तुम क्या पहनना पसंद करोगे?’ गुलाम-‘आप जो पहना दें।’ नवाब-‘आखिर तुम क्या चाहते हो?’ गुलाम-‘मैं तो दास हूँ, मेरी अपनी चाह क्या हो सकती है।’
यह है सेवक का धर्म। वह यह नहीं सोचता कि अमुक चीज खाएँगे, ऐसा पहनेंगे, ऐसे रहेंगे आदि। जो मिल जाये, वह उसी में प्रसन्न रहता है। नवाब के पास रहता था, तो वह मूल्यवान खाना खाता था। नवाब उसे अच्छी-अच्छी चीजें दिया करता था। एक दिन नवाब ने उसे एक कड़˜वा फल दिया, जिसे वे स्वयं नहीं खा सके। गुलाम उसे सहजतापूर्वक खा गया। नवाब ने पूछा-‘यह तो बहुत कड़˜वा है। मुझसे तो खाया नहीं गया, तुम इतने चाव से कैसे खा रहे हो?’ गुलाम ने कहा-‘हुजूर के हाथ से प्राप्त कर मैं हमेशा उत्तम-से-उत्तम चीजें खाता रहता हूँ। एक दिन यदि आपने एक कड़˜वा-फल दिया और मैंने उसे स्वाद से खा लिया, तो इसमें आश्चर्य कैसा?’ यह है सेवक का धर्म।
भरतजी भगवान श्रीराम को मनाकर वापस लाने के लिए। गुरु, माता और नगरवासियों सहित जंगल चले। लोग उन्हें सवारी पर चढ़ने के लिए आग्रह करने लगे तो उन्होंने उत्तर दिया-
‘राम पायदेहिँ पाय सिधाये। हम कहँ रथ गज बाजि बनाये।’
भरतजी के मन में भाव उत्पन्न हुआ कि भैया श्रीराम जंगल में पैदल गए और मैं चतुरांगिनी सेना को साथ लेकर जाऊँ, यह ठीक नहीं।
सिर भरि जाऊ उचित अस मोरा।
सब तें सेवक धारम कठोरा।।
उचित तो यह है कि जहाँ-जहाँ उनके पाँव पड़े, वहाँ मेरे पाँव नहीं, सिर ही पड़े। यही अच्छा होता। सेवक कहलाना बहुत आसान है, पर बनना बहुत कठिन है। भरत ने प्रस्ताव सुनाया कि मैं चौदह वर्षों तक जंगल में रहूँगा और आप जाकर राज्य सँभालें। उन्होंने बहुत तरह से अयोध्या लौटने के लिए निवेदन किया। सबेरा हुआ, तो मन में आया कि मैंने भैया को बहुत कष्ट दिया। उन्होंने जो कहा-मुझे उसे स्वीकारना चाहिए, यही मेरा धर्म है। फिर उन्होंने भगवान से क्षमा माँगी। राम ने अपना खड़ाऊँ भरत को दिया। भरत ने उस खड़ाऊँ को राज्य सिंहासन पर रखकर एक सेवक की भाँति राज्य संचालन किया। भरत का जन्म नहीं होता तो धर्म की धूरी को धारण करनेवाला कौन होता! भरतजी ने एक सच्चे सेवक के आदर्श को प्रदर्शित किया। उन्हीं का वचन है-
सेवक हित साहिबहिं सेवकाई ।
करइ सकल सुख लोभ विहाई ।।
किसी जमाने में गोदावरी नदी के किनारे एक अच्छे संत रहते थे। वे पढ़े-लिखे, विद्वान् भी थे। अपने आश्रम में शिष्यों को ज्ञान भी देते थे। एक दिन आचार्य ने शिष्यों से पूछा-‘मेरा दूषित प्रारब्ध नजदीक आ रहा है। मैंने जो कर्म किये हैं, उससे मेरे समूचे शरीर में कुष्ट हो जायेगा और मैं अंधा हो जाऊँगा। तब कुछ कर नहीं सकूँगा। उस समय मेरी सेवा कौन करेगा?’ सन्नाटा छा गया। सब एक दूसरे का मुँह देखने लगा। एक शिष्य संदीपक ने कहा-‘मैं करूँगा।’ गुरु ने उससे पूछा-‘विचार करके बोलो। मुझे खिलाना-पिलाना पड़ेगा, कुष्ट हो जाये, घाव-पीव हो जाये, तो उसे साफ करना होगा, यह सब बर्दाश्त कर सकोगे? उक्त शिष्य ने कहा-‘गुरुदेव! मैं सारी सेवाएँ करूँगा।’
कुछ दिन बाद गुरुदेव ने कहा कि आश्रम में बीमार होना ठीक नहीं, चलो काशी चलते हैं, वहीं मरेंगे। काशी जाकर नदी के घाट के पास रहने लगे। कुछ दिनों बाद कुष्ट निकल आया, जिसमें घाव-पीव और दुर्गंध हो गई। होते-होते वे अंधे हो गए। संदीपक तन-मन से निष्ठापूर्वक सेवा करता रहा। कोई अन्य शिष्य देखने को नहीं आया। एक दो दिन या महीनों नहीं, वर्षों निकल गए। संदीपक के हृदय में मलिनता नहीं आई और वह सेवा को धर्म समझकर करता रहा। उसकी सेवा से प्रसन्न होकर भगवान् शंकर प्रकट हुए और बोले-‘तुम्हारी गुरु-सेवा से मैं प्रसन्न हूँ, तुम वरदान माँगो।’ उसने उत्तर दिया-‘मुझे किसी चीज की आवश्यकता नहीं है।’ भगवान् ने कहा-‘तुम्हारा भाग्य है कि मैं तुम्हें दर्शन देने आया हूँ। कुछ माँग लो।’ बहुत आग्रह करने पर संदीपक ने कहा-‘गुरुदेव से कहूँगा, वे आदेश देंगे, तब मागूँगा।’ उसने गुरुदेव से जाकर कहा-‘भगवान शंकर मुझे वरदान देना चाहते हैं, आपकी आज्ञा हो तो माँगू।’ गुरुदेव ने पूछा-‘तुम्हारी क्या इच्छा है?’ संदीपक बोला-‘गुरुदेव! मैं चाहता हूँ कि आपको कष्ट न हो। आप स्वस्थ हो जाएँ।’ गुरुदेव ने कहा-‘मैं तो पहले ही कहता था कि तुमको मेरी सेवा में बहुत कष्ट होगा। तुम मेरी सेवा से ऊब गये हो, इसलिए ऐसा कहते हो।’ शिष्य ने कहा-‘भूल हो गई गुरुदेव, क्षमा करें। मैं भगवान से कुछ नहीं मागूँगा।’ उसकी सेवा-भावना देखकर गुरुदेव की कृपा उसपर बरसने लगी।
गुरुसेवा की बड़ी महिमा है, पर एकनिष्ठ और सर्वतोभावेन समर्पित सेवक बनना बड़ा कठिन है। सेवक जब अपने सुखों का त्याग करता है, तभी वह सेव्य को सुख पहुँचा सकता है। सेवक यदि अपना ही सुख देखे, तो वह सच्ची सेवा नहीं कर सकेगा।स
(यह प्रवचन महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट भागलपुर में साप्ताहिक सत्संग के अवसर पर दिनांक 1-10-2000 ई0 को हुआ था।)
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